खुशियों के दायरे / तुषार कान्त उपाध्याय

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खुशियाँ नदियों की तरह बहती नहीं। ओस के बूंदों की तरह टपकती हैं। ये बूंदें जीवन की खाली सीपों को खुशियों की मोती से भर देती हैं। जीवन के संघर्षो के बीच, ऊर्जा की श्रोतस्विनि बनी खुशियों की अनुभूति,हमारे इर्द-गिर्द बिखरी होती हैं। जिन्हें नकार दिया गया हो और वो जब आपकी जरुरत बन जाये। जब आप निराशा के जंगल में खो गए हों और उम्मीदों की फौज आपको घेर ले। तो खुशियाँ बादलों पर चहलकदमी का एहसास पैदा करती हैं।


वो मेरी बेरोजगारी के दिन थे। सुबह आँख खुली तो सामने खड़ा दिन , जेठ की दोपहरी में तपते,मीलों लम्बे , काली कोलतार की सड़क की तरह उष्म, वीरान , मृगमरिचिकायें पैदा करता महसूस होता ।. पुरे दिन का खालीपन समेटते संज्ञाशून्य सी शाम आ जाती थी। मुझे याद है वो शाम। 'फेर बिपत आ गइली'माई बदहवास , दौड़ती हुई मेरी दूसरी बेटी के जन्म की सूचना देने आई थी . तब तक मेरी तीन साल एक बेटी थी। पैसे अभाव में हम उसकी आँखों का इलाज नहीं करा पा रहे थे . ' उ बाड़े नू ' मैंने उंगली आसमान की ओर करते हुए कहा था। मेरे इस रूढ़िग्रस्त समाज में दो बेटियों को पलना , उनका विवाह और बेरोजगार पिता। मुझे उसकी चिंता समझ आ रही थी।

आज माई कैंसर से जूझ रही हैं। घर हो या अस्पताल , मेरी इस छोटी बेटी के बिना कहीं भी उन्हें चैन नहीं। उसके व्यवहार , उसकी उपलब्धियों से हमारा घर गमकता रहता है। मेरी बेटियाँ जीवन के रेगिस्तान में खुशियों की नखलिस्तान हैं।

डॉ अमलेश कुमार मेरा दोस्त। बिहार के सफलतम दन्त चिकित्सकों में एक। समय के सिवा सब है उसके पास। 'हाँ ​बोल! 'मेरे फ़ोन पर बस इतना ही जवाब होता है उसका। चाहे कितने ही दिनों के बाद और कितनी ही बड़ी जरुरत से काल किया हो। वो हमेशा साथ होता है। फुर्सत ही फुर्सत है मेरे लिए। तब बड़ी मुश्किल से अपनी छोटी बहन की शादी तय कर पाया था। घर में पैसे नहीं और कोई बैंक कर्ज देने को तैयार नहीं। आखिर गारंटी क्या देता। अमलेश को ये बात किसी ने बता दी। दूसरे ही दिन ,मुझे लगभग घसीटता हुआ , अपने फ्लैट और सारे खातों के कागजात के साथ स्टेट बैंक के अपने परिचित चीफ मैनेजर बी पी सिंह के पास पंहुचा। 'इसे जितने पैसे और जो भी कार चाहिए दे दीजिये , गारंटी मेरी। ' सारे कागजात दिखते उसने अनुनय किया। और तभी - डॉ सरिता ने चैम्बर में प्रवेश किया। शायद अमलेश ने उन्हें भी सारी बात बता दी थी। उन दिनों दानापुर अनुमंडलीय अस्पताल में महिला चिकित्सक थी। एक अध्ययन में मेरी गाइड और उनके मानवीय मूल्यों के लिए हम दोनों बड़ा आदर करते थे उनका। ' मेरा तो अकाउंट ही इस बैंक में है।आप जितना चाहे मैं गारंटी के लिए तैयार हूँ ' 'बड़े भाग्यशाली आप। मैंने कई खास रिश्तों को इस गारंटी के लिए टूटते देखा है। आपके मित्र लाइन लगाए खड़े हैं। चलिए ! अब एक मेरी भी गारंटी। कल सारे पैसे आपके अकाउंट में चले जायेंगे। 'बी पी सिंह भाव विह्वल हो बोल रहे थे। जिसके ऐसे दोस्त हों उसे खुशियो के बहाने तलाशने होंगे? और मेरा तो ढेरों दोस्त हैं।बचपन से आजतक मैंने एक भी जीवित दोस्त नहीं खोया। जीवन की आपाधापी में हम भले ही कभी कभार मिल पाएँ। पर मिलते हैं उसी उमंग से। हम खड़े हैं एक दूसरे के लिए।

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कभी जब आपके पास बहुत थोड़ा हो और उसमे कोई मांगने आ जाए। मेरे साथ तो अक्सर ही ऐसा होता है। 'जय भोलेनाथ ! इस बार बद्रीनाथ जाना है।' बाबा अंदर लॉन की कुर्शी पर बैठते ही फरमाइस करते हैं। 'और ठण्ड के कपड़े भी चाहिए। ' पता है इन्हे कहीं नहीं जाना। पर उस उम्मीद को कैसे तोडा जाय जिससे प्रेरित होकर मेरे पास आये हैं। ऐसे कई हैं। किसी को दवा के लिए चाहिए तो किसी को खाने के लिए। किसी को आँखों का ऑपरेशन कराना है. मेरा घर देखने से उन्हें अंदर का खालीपन नहीं दीखता। और मेरे दो -चार सौ दे देने उनका क्या होने वाला है। मै उनके भरोसे के लिए कृतज्ञ हूँ मुझे इस लायक समझ मेरे पास आते हैं। मुझे नहीं पता करोड़ो कमाने सुख क्या होता है पर किसी जरुरत में खड़े होने सुख तो बताया नहीं जा सकता। यह स्वान्तः सुखाय है। यही तो हैं मेरे ह्रदय में खुशियों की अनन्त सागर हिलोरें उठने वाली हवाएं।

हम जीवन में मक्खी या मधुमक्खी किसकी तरह व्यवहार करते हैं। पहली कितना भी अच्छे माहौल में हो गन्दगी देखते ही उससे चिपक जाती।घिन्न पैदा करती है। दूसरी कितने काटों से घिरे फूलों से पराग चुनती है। अमृत इकठ्ठा करती है। सुख दुःख मिलकर तो जीवन बनता है। ये तो हमपर निर्भर है हम कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। भौतिक उपलब्धियों के पैमाने पर मैं भले ही शिफर शिफर होऊ पर खुशियाँ मेरे घर-द्वार पर हरसिंगार के फूलों की तरह झडतीं हैं। देखिये भोजपुरी के कवि अशोक द्विवेदी की कविता -

बरखा के गिरत धार
मुट्ठीमें न पकड़ाइल
        त अंजुरी में रोपी के मुनवाँ
        उबिछि दिहलस ओसारा में
                 टुकुर टुकुर ताकत मुनिया पर
                  फेर खिलखिला उठल
ख़ुशी भा प्रेम
मुट्ठी में न बन्हाय
ओनहल बादर अँजुरी में ना समाय
खाली ओके रोपल जा सकेला
 दीठि का अँगना में
हिया का अँजुरी में
फेरु ओके उलीच के दोसरा पर
पवल जा सकेला सुख

ख़ुशी आ प्रेम
बान्हे के ना
लुटावे के चीज़ ह

--अशोक द्विवेदी ---