खुशियों वाली नदी / गोवर्धन यादव
पोर-पोर में आलस रेंग रहा था और मन था कि लाख कोशिशों के बावजूद भी काम से जुड नहीं पा रहा था। आज पहली बार उन्होंने सिद्दत के साथ शैथिल्यता का अनुभव किया था। वरना जोशीजी का जोश देखने लायक होता था। चीते की सी चपलता, कागा की सी पैनी दृष्टि और गिद्ध की सी एकाग्रता के कारण ही उनके अधीनस्थ कर्मचारी सदा चौकस और सजग बने रहते थे।
पत्रों की प्रत्येक लाईन पर से उनकी नजरें दौडती थी। वे सभी पत्र बडी तन्मयता के साथ पढते। आवश्यक टीप देते और संबंधित शाखाओं में भिजवा देते। उन्हें यह भी ध्यान बना रहता था कि किस टेबल से जवाब आना बाकी है और कौन सा पेपर पेंडिंग में डाल दिया गया है। वे संबंधित लिपिक को बुलाते। जवाब प्रस्तुत करने को कहते। इसके लिये उन्होंने कभी कोई डायरी-फायरी मेंटेन नहीं की। सारी चीजें दिमाग के कम्प्यूटर में अंकित रहतीं थी। शायद यही कारण था कोई भी कर्मचारी किसी को धोखा हीं दे पाता था और न ही उपरी आय की आशा ही संजोकर रख पाता था। ऐसा भी नहीं कि वे दरख्त की तरह तने रहते थे। उनकी बिल्लौरी आँखें सदा हॅंसती दिखती और ओठों पर स्निग्ध मुस्कान हमेशा दौड़ती ही रहती थी। वे सहृदय और मिलनसार भी थे। अपनी स्पष्टवादिता, साफ-सुथरी छबि और कडकपन के लिए वे सदैव याद किए जाते थे। रिश्वत की आँधी उकी कलम को कभी भी झुका नहीं पायी थी।
लगभग पूरा ही दिन वे अपने चंबर में अपनी कुर्सी से चिपके बैठे रहे। कुर्सी के बेक से पीठ टिकाते हुए उन्होंने अपने हाथों की उंगलियों को आपस में कस लिया था और सिर के पीछे रखते हुए निर्मिशेश नजरों से छत को घूर रहे थे। आकाश की तरह ही ऑफिस की छत भी सपाट व भावशून्य थी। एक ख्याल आता तो दूसरा तिरोहित हो जाता था।
उन्हें एक ही चिंता खाये जा रही थी। वे चाहते थे कि किसी तरह शारदा का विवाह हो जाए। उसके हाथ पीले हो जाए और वह अपनी घर-गृहस्थी में रम जाए। अब तक शारदा को तीन लडके देख चुके थे। हर बार आशा बंधतीं। फिर सूखी रेत की तरह हथेली से झर जाया करती थी। वे सोचते श्ला क्या कमी है शारदा मं! पढी-लिखी है। हिस्ट्री में एम.ए. किया है। वह भी फर्स्ट-क्लास में। अब अंग्रेजी में एम.ए. करने वाली है लिटरेचर लेकर। तीखे नाक-नक्ष है। झील सी गहरी आँखें हैं, केश-राषि नितम्बों को छूती है। छरहरी देह है। मीठा बोलती है। मिलनसार है। व्यवहारिक है। गुणों की खान होने के बावजूद केवल एक कमी है उसमें, उसका रंग थोडा सांवला है। सांवला होने के बावजूद वह सलोनी है। चेहरा फोटोजेनिक है। फिर भी वह किसी न किसी बहाने रिजेक्ट कर दी जाती है। पता नहीं, बेचारी के भाग्य में क्या लिखा-बदा है, अनायास ही उनकी आँखें छलछला आयी थी। चष्में की फ्रेम तनिक उॅंचा उठाते हुए उन्होंने रूमाल से आँखें पोंछ डाली थी।
यंत्रवत उनके हाथ टेबल से लगी कालबेल की बटन पर जा पहुचे। कालबेल बजते ही चपरासी ने अंदर प्रवेश किया। सलाम ठोंका और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। उन्होंने चपरासी को कडक-मीठी चाय लाने को कहा। आदेश लेकर चपरासी जा चुका था। उन्होंने टेबल पर पडे सिगरेट केस को उठाया। सिगरेट निकाली। माचिस की तीली चमकायी और गहरा कश लेते हुए ढेरों सारा धुआ छत की ओर उछाल दिया। छत अब भी निर्विकार भाव से टंगा था। उपर पंखा स्पीड से चक्कर घिन्नी काट रहा था। अब तक वे चार बार चाय पी चुके थे। आने वाली पांचवी थी। वैसे उनकी आदत में शुमार था कि वे एक चाय सीट पर बैठने के साथ ही सुडकते थे और शाम को सीट छोडने के पहले दूसरी चाय। उनका मानना था कि सीट पर बैठते ही चाय इसलिए ली जानी चाहिए कि काम की शुरूआत के पहले मुँह एक हल्की सी मिठास के साथ मीठा हो जाए।
चाय की चुस्की लेते हुए वे एक लंबा कश लें ही पाये थे कि दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनाई दी। वे कुछ कह पाते। ओंठ बोलने के पूर्व फडफडाये भी थे। शब्द ओठों तक आ पाते इसके पूर्व ही पाटिल अंदर प्रवेश कर चुके थे। चाय की चुस्की पूरी तरह से हलक के नीचे उतर नहीं पायी थी। मुँह में भरा-सिगरेट का धुआ भी वे पूरी तरह उगल नहीं पाए थे। पाटिल को देखते ही जैसे पूरे शरीर में बिजली कौंध गई। वे पूरे जोश के साथ अपनी सीट से उठ खडे हुए और अपना दाहिना हाथ आगे बढाते हुए बोले हूँआओ पाटिल आओ, बहुत दिन बाद आना हुआ अब तक कहाँ गायब रहे। हूँ
पाटिल भी पूरे जोश से भरे हुए थे। थुलथुला शरीर होने के बावजूद भी उनमें चपलता-चंचलता थीं। पलभर में दो मित्र जोश के साथ हाथ मिला रहे थे। बडी देर तक वे पाटिल के हाथ अपने हाथ में थामे रहे। फिर ओठों पर स्निग्ध मुस्कान बिखेरते हुए उन्हें बैठने का इशारा कर स्वयं अपनी सीट पर बैठ गए। उनके हाथ कालबेल की स्विच पर जा पहुचे। घंटी बजते ही चपरासी फिर हाजिर हुआ। उन्होंने चाय-नाश्ता लाने को कहा। फिर पाटिल की आँखों में आँखें डालते हुए कहने लगे ष्कहाँ गायब हो जाते हो पाटिल! तुम्हें देखने को जैसे आँखें तरस गई। वे कुछ आगे बोल पाते कि पाटिल ने चहकते हुए कहना शुरू कर दिया श्देख यार जोषी मैं तेरे जैसा तो हूँ नहीं कि दिन भर कुर्सी से चिपका पडा रहूँ। तू जानता है। अपनी यायावरी जिन्दगी है। एक आजाद पंछी की तरह घूमता रहता हूँ। एक बडी ख़ुशखबरी है....... सुनेगा तो सिर के बल खडा हो जायेगा। बोल सुनाउॅं। हूँ
हूँ एक तू ही तो मेरा जिगरी यार है........ तू न होता तो मैं जिंदा रह पाता! बोल क्या खबर है। हूँ पाटिल बोल पाये इसके पूर्व ही न जाने कितनी ही मीठी-मीठी कल्पनाएं, जोषी के अंदर बनती-मिठती चलीं गई थी।
पाटिल एक हाथ से बिस्कुट खाता जाता और दूसरे हाथ से चाय सुडकते जा रहा था। वे सोचने लगे थे, बुढापा आ गया पाटिल को लेकिन अब तक बचपना नहीं गया और वह है कि समय से पहले ही बूढ़ा हो गया है। उनकी नजरें अब भी पाटिल के चेहरे से चिपकी थी।
चाय के घूंट के साथ बिस्कुट हलक से नीचे उतारते हुए पटिल ने बताया कि वे अभी-अभी शोलापुर से लौटे हैं और आते ही सीधे यहाँ चले आए हैं। उन्होंने एक लका देख रखा है शारदा बेटी के लिए। लडका बडा होनहार है। पोस्ट ग्रेजुएट है। हैण्डसम है और वह कल दस बजे तेरे यहाँ पहुच जाएगा। फिर चाय की घूंट हलक से नीचे उतारते हुए कहने लगे ष्जोशी, भगवान दत्तात्रय की कृपा से सब ठीक हो जायेगा। मैं सब कुछ बता चुका हूँ तेरे बारे में। उसे केवल लड़की चाहिए और कुछ नहीं। भगवान की दया से सब कुछ है उसके पास। हूँ पाटिल ने बहुत कुछ कहा पर वे सुन नहीं पाये थे। उनके कान में अब भी वे शब्द बार-बार गूंज रहे थे। लड़का ठीक दस बजे पहुच जायेगा। बस इतना सुनते ही वे किसी तीसरे लोक में उड़ान भरने लगे थे। सुनते ही उनके शरीर में रोमांच आ गया था। आँखें सजल हो उठी थी। उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि सारे मनोरथ एक साथ पूरे होने वाले हैं। वे यंत्रवत कुर्सी से उठ खडे हुए और अपनी विशाल बाहों में पाटिल को भर लिया था। वे अब और अपने आप को रोक नहीं पाए थे। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली थी, जो पाटिल के कुरते को भिंगो देने के लिए पर्याप्त थी।
पाटिल को छोड़ने के लिए वे तीसरी मंजिल से सीढ़ियाँ उतरते हुए गेट तक चले आए थे। वे चाहते तो लिफ्ट से सीधे उतर सकते थे। चाहकर भी वे वैसा नहीं कर पाये थे कि पाटिल से जितनी भी बातें की जा सकती थी, की जानी चाहिए। क्योंकि एक तो वे उनके जिगरी दोस्त थे और एक शुभ समाचार भी लेकर आए थे।
अपने चेंबर में लौटकर उन्होंने इंटरकाम पर अपने सचिव को सूचित किया कि वे जरूरी काम से चार घंटे पूर्व ही अपना कार्यालय छोड़ रहे हैं।
उनकी चाल मे गेंद की सी उछाल थी। मन प्रसन्नता से लबरेज था। आशाओं के बूझते दीप फिर एक बार टिमटिमाने लगे थे। उन्होंने पाटिल से लडके के बारे में बारिक से बारिक जानकारियाँ प्राप्त कर ली थीं। उसे क्या पसंद है? नाश्ते में वह क्या लेगा? खाने में क्या-क्या लेगा? काहे से आयेगा? कितनी देर तक रूकेगा? लडका देखने के बाद स्वयं फैसला करेगा या फिर अपने आई-बाबा के कंधों पर जवाबदारी डाल देगा?
उन्होंने जेब में हाथ डाला। पर्स निकाला। पाँच-सात सौ रूपये भर पडे थे जेब में। इतने से रूपयों में क्या होगा! मन ही मन बुदबुदाते हुए उन्होंने अपने आप से कहा था। रिस्ट वॉच पर नजर डाली। तीन बज चुके थे। बैंक अथवा पोस्ट ऑफिस से रकम अब निकाली नहीं जा सकती थी। अभी इतने रूपयों में आवश्यक चीजें खरीद लेना चाहिये। कुछ रह भी जायेगी तो घर के पास की किसी दुकान से खरीद की जा सकती है। सुलभा के पास कुछ रूपये तो पडे ही होंगे। लडका आ भी रहा है तो महीने के अंत में इतने पैसे बच ही कहाँ पाते हैं कि हजार-दो हजार की खरीद की जा सके। माह की पहली तारीख को तनख्वाहरूपी सूरज उगता है और माह के अंत तक आते-आते इतना निस्तेज हो जाता है कि सब्जी-भाजी भी ढंग से खरीदी नहीं जा सकती।
एक मिनिट से भी कम समय में उन्होंने कई बातों पर गहनता से सोच डाला था। एक डिपार्टमेंटल स्टोर्स में घुसकर अत्यावयक चीजें खरीदी। कार्टून में पैक करवाया और बस-स्टॉप पर बैठ कर बस की प्रतीक्षा करने लगे थे।
महानगरों की बसें एक तो धीमी गति से नहीं चलती। चलती भी है तो हवाई-जहाज की स्पीड से होड लेती है। समय पर आ ही जायेगी, उसकी कोई गारंटी नहीं। आ भी गई तो दस-पांच पायदान पर लटके मिलेंगे। तरह-तरह के ख्याल मन को अषांत कर जाते। वे बस को आता देखते। अपना कार्टून संभालते। तब तक बस चरमराकर आकर खडी हो जाती और झटके के साथ आगे बढ जाती थी। इतने कम समय में दो-चार चढ-उतर पाते थे। वे सोचने लगे। जवानी अब रही नहीं। दौड-धूप उनके बस में रहा नहीं। जल्दी की और कहीं सलट गये तो लेने के दे पड जायेंगे। एक ख्याल जोश दिलाता है तो दूसरा हवा निकला देता था।
न जाने कितनी ही बसें आईं और चली गईं। अब तक वे बस-स्टॉप पर बैठे ही रह गए थे। उन्हें अब अपने आप पर चिढ सी भी होने लगी थी। सूरज अपनी उपस्थिति में आग बरसा रहा था। वे जेब से बार-बार रूमाल निकालते। पसीने से लथपथ देह पोंछते और हसरत भरी नजरों से बस का इंतजार करने लगते। भीशण गर्मी में तन झुलसाते हुए उनके मन के किसी कोने से विचारों की सरिता बह निकली।
ष्मैं भी कितना बडा मूर्ख हूँ। कोई चिराग लेकर ढूढने निकले तो मुझसे बडा मूर्ख कोई मिलेगा नहीं। सचिवालय में काम कर रहा हूँ। सेक्सन इंचार्ज हूँ। फाइलों के बीच से रूपयों की गुप्त-गोदावरी बहती है। एक-एक फाईल लाखों-अरबों की होती है। अगर एक-एक बूद भी निकाल पाता तो आज लाखों में खेलता। मेरे अपने पास भी बेशकीमती गाडी होती। गाडी होती तो मुझे, जाहिल गंवारों की तरह यहाँ स्टापेज पर बैठ कर बस का इंतजार नहीं करना पडता। हूँ
रहने के लिये बाप-दादाओं के हाथ का एक टूटा-फूटा सा मकान है। वह भी ढाई कमरों वाला। घर में रहने वाले पाँच प्राणी। पति-पत्नि दो और तीन बेटियाँ। शारदा बेटियों में ससे बडी है। एक प्रायवेट स्कूल में पढाती है। शिल्पी और सुनयना अभी पढ रही है। शिल्पी एम.ए प्रीवियस में है। सुनयना फर्स्ट-ईअर में। शारदा सांवली है। मेरी जैसी। शिल्पी अपनी आई पर गई है। गोरी-चित्ती। देखने में शारदा से बीसा पडती है। रिश्ता आता है शारदा के लिए। पसंद कर ली जाती है शिल्पी। बडी के रहते छोटी की शादी हो! हो ही नहीं सकती। संभव भी कैसे है। कर भी दूँ तो बडी में खोट निकाली जाएगी। तरह-तरह की उल्टी-सीधी बातें फैलायी जायेगी।
दो साल पहले एक लडका आया था। घंटों तक वह शारदा का इंटरव्यू लेता रहा था। सांवली होने के बावजूद वह पसंद कर ली गई थी। लडका तैयार था। पर वह इस बात पर अडा रहा कि मां-बाप की रजामंदी के बाद ही वह कुछ कह पाएगा। जाते ही सूचित करेगा। बीस-बाईस दिन बेसब्री से इंतजार करने के बाद एक पत्र आया। लिखा था। आई-बाबा को लडकी तो पसंद है। पर वे चाहते हैं कि लडकी संगीत में एम.ए. होनी चाहिए। ये भी कोई बात हुई! लडकियाँ क्या कोई कैसेट की डिब्बी है जिसमें ढेरों सारी चीजें टेप करा दी जाए। आप कितनी बातों में लडकियों को पारंगत करा सकते हैं?
उसके बाद एक लडका और आया। सुदर्शन था। पढा लिखा था। लडकी कैसी भी रहे चलेगी। पर दान-दक्षिणा तगड़ी चाहिए। बडी रकम कहाँ से आती। रिश्वतखोरी तो अब तक की नहीं फिर-डाका भी तो नहीं डाला जा सकता। एक लडकी हो तो उधारवाड़ी भी ली जा सकती थी। दो लड़कियाँ और भी है। किस-किस को कितनी रकम दी जा सकती थी। जेब में होती तब न! मामला फिर लटक गया।
पिछले साल एक संबंध और आया। लडका देखने में उठाईगिर-सडक छाप मजनू लगता था। कंधे तक बाल झूल रहे थे। दाढी मूछें बढी हुई थी। जिस पर काला चश्मा चढ़ाये। बडी नजाकत-नफासत से बात करता था। हाथ-हिलाहिलाकर बातें करते समय उसका पूरा शरीर थिरकता रहता। शारदा की बढ़ती उम्र और कमजोर जेब देखकर लगा कि रिश्ता चल सकता है। बात आगे बढ़ी।
उसकी माँ भी उसके साथ आयी थी, देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि वह उसकी माँ होगी। लग रहा था कोई मॉडल सामने बैठी है। पारदर्शी कपडों में से झांकता उसका यौवन, गर्दन नीची किये देता था। मन पर बडा-सा पत्थर रखकर बात आगे बढानी पडी। उसकी माँ ने बतलाया था कि वे आजाद ख्यालों वाली है। स्वतंत्र विचारधारा वाली है। लड़की हमारे परिवार में एडजस्ट हो पायेगी अथवा नहीं, इस बात का भी ध्यान रखना होगा। वह चाहती थी कि लडका, लडकी से खुलकर बातें कर सके। पर ढाई कमरों वाले इस मकान में यह संभव नहीं। उन्हें लडकी को लडके के साथ बाहर भेजना पडेगा। साथ-साथ घूूमेंगे, खायेंगे। एक-दूसरे को समझेंगे। पूरी जिन्दगी का सवाल जो ठहरा।
शारदा उसके साथ बाहर जाने को तैयार नहीं थी। सुलभा का भी कुछ इसी तरह का इरादा था। सबकी नजरें उन पर केन्द्रित थी। फैसला उन्हीं को लेना था। लाचारी का समुद्र सामने दहाड मार रहा था। अनिर्णयात्मक-द्वन्द मन में चल रहा था। उनकी नजरें बार-बार शारदा के चेहरे पर चिपक जाया करती थी। शारदा के कोमल मन में एक अज्ञात भय गहरे तक धंस आया था। वह कनखियों से उनकी ओर देखती जा रही थी। निर्णय उन्हें ही लेना था। दिल पर वजनी पत्थर रखते हुए वे इतना ही कह पाए थे कि घूम फिर कर जल्दी लौट आना। बाप के चेहरे से टपकती लाचारी भी वह देख चुकी थी।
दोनों के बीच जो कुछ भी घटा, उन बातों को सोचते ही घिन होने लगी है। वह लंपट उसे गार्डन में ले गया, बेंच पर बैठते हुए उस निर्लज्ज ने शारदा से पूछा था ष्क्या उसने कभी किसी से प्यार किया है? क्या उसने अपने किसी बॉयफ्रेण्ड से शारीरिक संबंध स्थापित किये हैं? जब दो जवान जिस्म हम-बिस्तर होते हैं तो कैसा मजा आता है?हूँ शारदा जैसे काठ बनकर रह गई थी। उसके अंदर क्रोध उबल रहा था। न चाहते हुए भी वह चुप थी... सारा जहर पीकर। फिर वह उसे फिल्म देखने ले गया। ग्लैक्सी में सिराको फिल्म चल रही थी। बेहद अश्लील! बेहद उत्तेजक! ट्रिपल एक्स फिल्म थी। शारदा गर्दन नीची किए बैठी रही। फिल्म चल रही थी। नजदीक खिसकते हुए उसने उसे अपनी बाहों में भर लिया था और ढेरों सारे चंुबन उसके गाल पर जड दिये थे और अपना हाथ उसके ब्लाउज में डाल दिया था।
मर्यादा की सारी सीमाएं वह तोड चुका था। शारदा ने किसी तरह अपने आपको उसके पाश्विक-बंधन से मुक्त कराया और तीन-चार झापड उसके गाल पर जड़ दिये थे और घर लौट आयी थी। घर लौटते ही उसने आपने आपको एक कमरे में कैद कर लिया था। आपने आपको कमरे में बंद करने से पहले उसने इतना कहा था कि वह जहर खाकर मर जाना पसंद करेगी पर ऐसे लुच्चे-लफंगे के साथ शादी नहीं करेगी। उसने यह भी कहा था कि अगर दुबारा शादी की बात की गई तो वह किसी उॅंची इमारत से कूद कर अपनी इहलीला समाप्त कर देगी।
शारदा की सारी व्यथा-कथा सुलभा ने उनको बाद में बताया था। पहिले बताती तो शायद वह उसकी दुर्गति अवश्य बना देता। सुलभा ने यह भी सुझाव दिया कि बात पता चलने के तुरंत बाद, उन्हें लडके के घर जाना चाहिए। सारी चीजों की मालूमात कर लेना चाहिए। फिर उन्हें आने के लिए कहना चाहिए। सुलभा की बतायी बातों का ख्याल आते ही लगा कि हलक कडुआ हो गया है। उन्होंने खांसकर गला साफ किया और ढेरों सारा थूक एक ओर उछाल दिया। जबान में कडुआपन अब भी तैर रहा था।
पता नहीं कल आने वाला लडका कैसा निकले! लडका ढंग का ही होगा। फिर पाटिल रिश्ता लाया है। पाटिल उसका जिगरी दोस्त ही नहीं, सगे भाई से बढ़कर है। वह कोई गलत रिश्ता ला भी कैसे सकता है। फिर शारदा की कही गई बातें याद आते ही उनकी धड़कने बढने लगी थी। ष्दुबारा शादी की बात की तो वह किसी उॅंची इमारत से कूद कर जान दे देगीहूँ। उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि वह जिस जगह बैठे हैं, वह भी कांपने लगी है। फिर वे अपने आपको समझाईश देने लगे थे। वे शारदा से कहेंगे कि पिछली बातों को एक बुरा सपना समझकर भूल जाए। पाटिल फिर अपना ही है। वह भला गलत रिश्ता लाने से रहा। वह किसी तरह शारदा को मना लेंगे।
उन्हें इस बात का भी ख्याल हो आया कि शिल्पा को थोडी देर के लिए ही सही बाहर भेजना पड़ेगा। किसी सहेली के यहाँ अथवा पडोसी के घर। कहीं उस लडके की नजर शिल्पा पर पड गई तो वह उसका हाथ न माँग बैठे। सुनयना रहेगी न घर में। वह सुलभा का हाथ बंटा देगी। लडका पूछ भी बैठा शिल्पा के बारे में तो कह देंगे, मामा के घर गई है।
विचार की आँधियाँ उनके साहस व धैर्य की चूलें हिलाने लगी थी। बस के इंतजार में आँखें पथराने सी लगी थी। वे इस बात को सोचने के लिए मजबूर हो चले थे कि काश एक मरी-टूटी मोटर बाईक ही खरीद ली होती तो अब तक इस तरह बैठना नहीं पड़ता। पता नहीं वह भी किस मिट्टी का माधो बना बैठा रहा। रिश्वत अथवा घूसखोरी न लेने की अपने पिता की सीख को वह अपने कलेजे से चिपकाये न रख पाता तो आज यह दुर्दशा न हुई होती।
क्यों बना रहा वह इस घोर कलयुग में राजा हरिश्चन्द्र? क्या मिला राजा हरिश्चन्द्र बनकर? सिवाय फ्रस्टेशन के। कुण्ठा के। आत्मग्लानी के। पश्चाताप के। वह भ्रष्टाचार में भले ही आकण्ठ न डूबता। रिश्वत न लेता। कम से कम परसेंटेज मनी पर तो सहमत हो जाता। एक परसेन्ट अथवा आधा ही पर्याप्त होता है। लाखों बनाए जा सकते थे। अरबों-खरबों की योजनाएं बनती है। आज जेब में ढेरों सारा पैसा होता। गाड़ियाँ होती। आलीशान बंगले होते। लोग खिंचे चले आते है डेजिग्नेशन देखकर। जब उन्हें हकीकत की कंकरीली जमीन पर खडा होना पडता है तो अपनी भूल पर पछताने लगते हैं। उन्हें समझ में आ चुका होता है कि वह पारसमणी नहीं बल्कि एक मामूली कॉंच का टुकडा है। जब उन्हें यह भी पता चलता है कि बेचारा कलजुगी हरिश्चन्द्र है। तो वे दबी आवाज में हॅंसने लगते हैं। दूर छिटकने लगते हैं।
बंगले की कल्पना मात्र से उसे अपने टूटे-फूटे ढाई कमरों वाले मकान की याद हो आयी। वह जैसा भी हो अपना मकान तो है। उस मकान में इतना सुख तो अवश्य समाया हुआ है। जो पाँच लोगों के लिए पर्यात है। किसी एक कमरे की सफाई करनी पडेगी। उसमें रखा कबाड़खाना, किसी दूसरे कमरे में ठूसकर भरना होगा। भले ही अस्थाई रूप में वह हो। ड्राइंगरूम में तो उसे बदलना ही होगा, जहाँ बैठकर कल बातें की जानी है।
तरह-तरह के ख्याल दिल और दिमाक को मथ जाते। वे कुछ और सोच पाते ष्बेस्टहूँ की एक बस सामने खडी थी। भीड भी नहीं थी उसमें। न ही चढने-उतरने वालों का रेला था। किसी तरह भारी भरकम कार्टून उठाकर वे बस में चढ पाने में सफल हो सके थे। बस से उतरने के साथ ही लगने लगा था कि शरीर जड़ हो आया है। पोर-पोर में ऐंठन व दर्द रेंगने लगा है। सुबह से पहले वे क्या कुछ कर पाएंगे। इसमें संदेह होने लगा था। कार्टून उठाये किसी तरह लडखडाते कदमों से वे घर की ओर बढ चले थे।
चूं-चां-चर्र की आवाज के साथ गेट खुला। अंदर प्रवेश करते ही ठहाकों के मिश्रित स्वर कानों से आकर टकराने लगे। वे ठिठककर वहीं खडे रह गये मानो पैर में ब्रेक लग आए हों। ठहाकों के मिश्रित स्वरों में उनकी पति सुलभा की हॅंसी की गूंज भी वे सुन पा रहे थे। वे सुलभा की हॅंसी के स्वर को पहचानते थे। एक मुद्दत बाद वे उसकी हॅंसी सुन पा रहे थे। दरवाजे की चौखट पर, बडा सा कार्टून हाथ में लटकाये, वे विस्फोटित नजरों से अंदर देखने लगे थे। हॅंसने वालों में पत्नि और बच्चियों के अलावा एक अजनबी को हॅंसता देख उन्हें अच्छा नहीं लगा। ष्निर्लज्जता की भी हद होती हैहूँ एक अजनबी के साथ ठहाके लगाने का मतलब। हूँ वे सोचने लगे थे। सुलभा ने पलटकर देखा। पति दरवाजे पर खड़े हैं। पति के पदचापों को वह भलीभाँति पहचानती थी। बरसों से जो सुनती आ रही थी। उन्हें तो अब तक अन्दर आ जाना चाहिए था। समझ गई। अंदर न आने का कारण। सहज हास्य बिखेरते हुए वह उसके पास तक चली आयी थी। उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा था। मुँह में मिठाई ठूसते हुए, हॅंसकर कहने लगी ष्बधाई हो जोशी जी। हूँ पत्नि के मुख से जोशी जी सुनकर वे हैरान से होने लगे थे। अब तक तो वह ऐ जी! अथवा शारदा के बाबा कहकर पुकारती आयी है। बाबा अचानक जोशी जी कैसे हो गया? विस्फारित नजरों से वह कभी सुलभा का चेहरा देखते, कभी बच्चियों का, तो कभी अजनबी का। कई रंगों के शेड उनके चेहरे पर बनते बिगडते रहे।
पल भर को वे, ये भी भूल गये थे कि हाथ में वजनी कार्टून अब भी लटक रहा है। कार्टून को नीचे रखते हुए अपनी झेंप मिटाने का सायास प्रयास करने लगे थे। हाथ का बोझ तो कम हुआ, पर दिल पर बोझ अब भी लदा हुआ था। कौन है यह अजनबी? पिता को आया देख शारदा और युवक ने आगे बढकर आदर के साथ उनके चरण स्पर्श किए। शारदा बस इतना ही कह पायी थी-बाबा! मैंने और शरद ने गंधर्व विवाह रचा लिया है। शरद मेरे ही स्कूल में शिक्षक है। हमें आशीर्वाद दीजिए। हूँ बस वह केवल इतना ही बोल पायी थी। उसके चेहरे पर सूर्यादय की सी लाली छाने लगी थी।
सोचने समझने को अब बाकी रह भी क्या गया था। जोशी जी की कोर भींग उठी थी। जोशी जी का खोया हुआ जोश फिर लौट आया था। उन्होंने दोनों को उठाया और गले से लगा लिया था।
गले लगाते हुए जोशी जी को लगा कि उनकी सूखी देह में खुशियों की नदी, हरहराकर बह निकली है।