खुश हूँ / पद्मजा शर्मा
मैंने नौकरी पैसे के लिए नहीं की। यह मेरी ज़रूरत थी भी नहीं। बल्कि इसलिए की कि यह मेरे अस्तित्व और समाज में मेरी अलग पहचान बनाए रखने में मददगार थी। मैं औरत हूँ और इस मर्दवादी समाज में मेरी अपनी भी पहचान होनी चाहिए. इस सोच के साथ नौकरी की थी। बीस साल तक की, पर अब उसमें मन नहीं लग रहा था। मैं चिड़चिड़ी होती जा रही थी। हंसना भूल गई थी। शरीर साथ नहीं दे रहा था। कभी पेट दर्द तो कभी सिर दर्द। कभी स्लिप डिस्क तो कभी थकान। असल में मुझे लग रहा था कि मैं अपना जीवन भूल रही हूँ। पैसा तो था पर चैन नहीं था। नाम भी था पर पल भर का आराम नहीं था। दोहरी-तिहरी भूमिकाएँ सिर्फ़ इसलिए निभा रही थी कि मैं भी कुछ हूँ। हर सुबह मुझे यह तनाव मथ डालता था कि काम पर जाना है। एक बोझ मेरे दिल और दिमाग पर पड़ जाता था। जो मुझसे उठाए नहीं उठ रहा था। इस चक्कर में मेरा हर दिन और भारी होता जा रहा था।
दिन की खोल में बुझे मन से उतरना, उसे सम्भालना, उसके साथ-साथ चलना दूभर होता जा रहा था। दिन, दिन नहीं महीने लग रहे थे। महीने साल बराबर और साल, सालों की तो पूछो ही मत। समझो कि जीवन चुक रहा था। मैं खत्म हो रही थी।
पर मैं मृत्यु से पहले मरना नहीं चाहती थी। मैं किसी भी कीमत पर जीवन छोडऩा नहीं चाहती थी। आखिर मैंने अपनी वह सोच ही छोड़ दी और उसके साथ ही नौकरी भी, जिसके कारण मेरी हंसी खो रही थी।
अब मैं अपनी नींद सोती हूँ। पूरे दिन तनाव रहित रहती हूँ और फूल-सी हल्की व खिली-खिली रहती हूँ।
अब मैं खुश हूँ। मैं यह जान गई हूँ कि अपनी हंसी का कारण भी आप खुद हैं तो अपने दु: ख का कारण भी आप खुद ही हैं।