खूँटी पर टँगी आत्मा-भूमिका / शंकर पुणताम्बेकर

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व्यंग्य विधा वर्तमान 20वीं शताब्दी की देन है। इस शताब्दी में वह लोकप्रिय भी बनी, अपने सही रूप में निखार भी इसने पाया। तथापि खेद के साथ कहना पड़ता है कि व्यंग्य जितनी शीघ्रता से चरमोत्कर्ष पर पहुँचा उतनी ही शीघ्रता से वह अधोगति को भी प्राप्त हुआ। वह साहित्य कम अखबार अधिक बनता चला गया, वह युग प्रवाह से कम दैनंदिन प्रसंग से अधिक जुड़ता गया, वह संवेदनात्मक ध्वनि कम प्रतिक्रियात्मक आक्रोश अधिक हो चला। व्यंग्य स्थापित और लोकप्रिय हुआ अपनी पैनी धार अथवा विचारात्मक नुकीलेपन से और उसी को व्यंग्य क्रमशः अखबारी लेखन के कारण खोता चला गया। इसकी लोकप्रियता के कारण इसमें सामान्य कोटि के लोग घुस आए, अखबारों का प्रश्रय पाकर ये नामवर बन गए और इन्हीं का लेखन आगे की पीढ़ी का आदर्श व्यंग्य लेखन बन गया। व्यंग्य की किसी जमाने में बुलन्द इमारत थी आज वह ऐसी बौनी है कि उसकी बुनियाद में है निरा सामयिक प्रसंग और शैलीगत भाषायी चमत्कार। जिस व्यंग्य ने सातवें दशक में हास्य से नाता तोड़ एक वैचारिक प्रतिष्ठा अर्जित की थी वह आज कॉलमी या मंचीय बनकर नाम-नामा के दलदल में फंसा हुआ है।

ऐसे माहौल में जब 'खूँटी पर टंगी आत्मा' जैसी व्यंग्य कृतियाँ पढ़ने को मिलती है, तो विशेष आनन्द का अनुभव होता है।

रामेश्वर काम्बोज वैसे व्यंग्य में एक नया नाम है। वे एक समर्थ लघुकथा लेखक के रूप में काफी ख्यात है। मेरे सामने उनके व्यंग्य-लेखन का स्वरूप प्रथम बार ही आ रहा है। उसमें व्यंग्य की पैनी दृष्टि है, इसमें कोई संदेह नहीं। विशेष बात तो यह कि वे 'चालू' व्यंग्य से अछूते हैं। 'चालू' व्यंग्य को ही उन्होंने आदर्श नहीं मान लिया है। इसका कारण संभवतः यह है कि वे एक अध्ययनशील अध्यापक हैं। वे भाषा कि शक्ति से ही परिचित नहीं है, साहित्य के मर्म के भी अच्छे जानकार हैं। वे पत्रकारिता में से साहित्य में नहीं आए हैं और इस कारण उनकी दृष्टि का विस्तार व्यापक न हों, तथापि इसी कारण विषय चयन की अखबारी प्रासंगिकता और प्रस्तुतीकरण का व्यावहारिक हलका-फुलकापन उनकी रचनाओं में नहीं है। अध्यापन में से साहित्य में आने वाला लेखक अखबारी न होने से दकियानूसी माना जाता है, उसका लेखन चालू लेखन के मुकाबले अस्वीकृति का शिकार भी अधिक बनता है। व्यंग्य के साथ तो सबसे बड़ा व्यंग्य यह है कि अन्य विधाओं-कविता, कहानी, निबंध के विपरीत वह जितना हलका और प्रासंगिक होता है, उतना वह शीघ्र मार्केट पाता है और इस मार्केट के चक्कर से अच्छे-अच्छे लेखक भी बच नहीं पाते। परिणामस्वरूप व्यंग्य आज जितना लोकप्रिय है, उतना अधोगति को प्राप्त है।

इसीलिए आज व्यंग्य के दो स्पष्ट वर्ग हैं-एक अखबारी और दूसरा गैर-अखबारी।

यह ज़रूरी नहीं कि गैर-अखबारी व्यंग्य, व्यंग्य की कसौटी पर खरा उतरता है। वह साहित्य कोटि का हो सकता है और नहीं भी। जो साहित्य कोटि का नहीं है, वह हम कह सकते हैं, लेखक की अक्षमता के कारण, व्यंग्य सम्बन्धी उसके अज्ञान के कारण। लेकिन यह व्यंग्य के साथ छलाबा नहीं है जैसा कि अखबारी व्यंग्य होता है।

रामेश्वर काम्बोज का व्यंग्य अच्छे व्यंग्य का एक अच्छा प्रयास है। उनके पास जहाँ पैनी दृष्टि है, वहाँ पैनी भाषा भी है। राजनीति, शिक्षा, साहित्य, समाज की विकृतियों को उन्होंने जिस खूबी के साथ पकड़ा है, इसी तरह उनका ध्यान गया है मनुष्य की प्रदर्शन, डींग, प्रशस्ति, लोभ जैसी कमजोरियों पर। यह सत्य है कि लेखक के व्यंग्य का पटल व्यापक नहीं है, जिन विषयों पर भी उसने कलम चलाई है, उनमें नवीनता नहीं है, तथापि कुछ रचनाओं का अपवाद छोड़कर उनमें ताजगी है और इस मायने में नवीनता है कि उनमें प्रस्तुतीकरण की मौलिकता है।

उदाहरण स्वरूप हम यहाँ उनकी कहानी फाइल की, पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, शिक्षा कुछ साक्षात्कार, आम आदमी, समीक्षक जी, कुत्ते से सावधान जैसी रचनाओं को ले सकते हैं।

'कहानी फाइल की' में लेखक आज की दफ्रतरी विकृतियों का पूरा कच्चा चिट्ठा फाइल का मानवीकरण करके प्रस्तुत करता है। दफ्रतर में फाइलें जहाँ कुँवारी हैं, वहाँ भाग्यवादी भी। मेनका फाइलें है, तो गोपनीय फाइलें भी। दफ्रतर में भ्रष्टाचार ऐसा कि 'फाइल ढूँढने के पैसे, फाइल गायब करने के पैसे, फाइल में कुछ खपाने के पैसे, फाइल में कुछ दिखाने के पैसे।' पैसे देकर काम कराने वाला भ्रष्टाचारी वर्षों से शिला बनी अहल्या-फाइल के लिए किसी कदर राम से कम नहीं।

'पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ' में लेखक ने बताया है कि आज के प्रगत युग में पोथी कैसे निरर्थक है। पुस्तकों से हम जितने दूर, ज़िन्दगी में उतने ही भरपूर, इस मंत्र को जिसने नहीं जाना, वह समझो ज़िन्दगी से भटक गया। आज तो साहित्यकार भी पुस्तकों के मामले में बहुत सावधान हैं, वे साहित्य की लीद करने में भले ही दिन-रात लगे रहें, लेकिन पढ़ने के संक्रामक (वास्तव में घातक) रोग से अपने को बचाए रखते हैं।

'शिक्षा कुछ साक्षात्कार' में शिक्षा जगत का कच्चा चिट्ठा शिक्षा जगत् के ही विभिन्न व्यक्तियों से लिए गए साक्षात्कार के माध्यम से प्रस्तुत है। जो शिक्षा के बारे में कुछ नहीं जानते, वे शिक्षा संस्थाओं के प्रबंधक हैं। जो जड़मति हैं और कूपमंडूक विचारों के हैं, वे शिक्षाशास्त्री हैं। जो प्रबंधकों के पैरों के जूते बने शिक्षा को मटियामेट कर रहे हैं, वे प्रधानाध्यापक हैं। जिनके हाथों शिक्षा रामभरोसे चल रही है, ऐसे बेभरोसे शिक्षक हैं। परिणाम स्वरूप छात्र भी विद्यालय और शिक्षक के दर्शन निश्चित दूरी से करने वाले दूरदर्शन कुमार हैं।

'आम आदमी' में लेखक ने अपनी विशेष प्रतिभा का परिचय दिया है। इसमें वह बतलाता है कि आज की ज़िन्दगी में हर सफल आदमी का आम आदमी किस तरह 'कच्चा माल' है-फिर वह नेता हो, डॉक्टर हो, वकील हो, व्यापारी हो, अफसर हो या होता आम आदमी का सेवक ही। लेखक कहता है, फ्आम आदमी नेता नहीं होता वरन् भीड़ होता है। भीड़ का काम है भेड़ बनकर अनुकरण करना—-आम आदमी की सेवा करने के नाम पर बहुत से फर्जी जनसेवकों की रोजी-रोटी चल रही है। य्

'समीक्षक जी' में समीक्षक प्रायः कुंठित लेखक या कवि होता है, इस तथ्य को लेखक ने मेलाराम नामक पात्र के माध्यम से बखूबी पेश किया है। मेलाराम की कविता-पुस्तक की समीक्षा जब कोई नहीं लिखता, तो वे स्वयं ही किसी बड़े समीक्षक के नाम लिख लेते हैं और अपनी 'कालक्षयी' कृति को 'कालजयी' रचना घोषित कर देते हैं। आज समीक्षा गैर जिम्मेदार लोगों के हाथों कैसी विकृत और बनावटी हो गई है, इस तथ्य पर भी लेखक ने तीखा प्रकाश डाला है और कहा है कि वह विशिष्ट शब्दावली के बाहर नहीं जाता।

'कुत्ते से सावधान' में लेखक ने आज की बंगलों-कोठियों में घर कर गई कुत्ता संस्कृति पर प्रकाश डाला है। आदमी की सोहबत में कुत्ता आदमी बना हो, न बना हो_ पर यह अवश्य कहा जा सकता है कि कुत्ते की सोहबत में आदमी ज़रूर कुत्ता बन गया है। कोठी के चौकीदार से पूछने पर कि कुत्ता मर गया तब भी (कोठी के फाटक पर) 'कुत्ते से सावधान' की तख्ती क्यों टाँग रखी है? इसका चौकीदार जो जवाब देता है, वह आज की तथाकथित प्रगति की विकृति को बड़े मार्मिक ढंग से उजागर करके रख देता है। वह कहता है, "बाबूजी एक कुत्ता मर गया, पर दूसरा कुत्ता तो अभी जीवित है।"

संग्रह को इस तरह की समर्थ रचनाओं ने चार चाँद लगा दिए हैं इसमें संदेह नहीं। व्यंग्य के पैने छींटे तो यत्र-तत्र भरे पड़े हैं यथा-अभिनन्दन भी साहित्य के अजीर्ण-पीड़ित लोगों के लिए एक प्रकार का चूरन है। (श्यामलालजी का अभिनन्दन) ।

जो (लोग) समय पर पहुँचकर कार्यक्रम के क्रियाकर्म तक रुके रहते हैं, वे कभी विशिष्ट श्रेणी में नहीं आ पाते। (गोष्ठी से गौशाला तक) ।

भूतनीवाला का चुनाव टिकट पक्का हो गया। चाय का घूँट सुड़ककर बोले, फ्मैंने महासचिव को भरोसा दिया कि बूथ कैप्चर करना मेरी मंडली के बाएँ हाथ का खेल है। दो-चार जगह दंगा करा सकता हँू, मतपेटी उठवा सकता हूँ (आदि) य्। (भूतनीवाला ओर चुनाव) ।

भारत जैसे शास्त्रप्रधान देश में ट्यूशनशास्त्र पर अभी तक एक भी ग्रंथ नहीं है। शास्त्रें की बखिया उधेड़ने वाले के लिए यह डूब मरने की बात है। (ट्यूशन पुराण) ।

खैर, अब तुम कुछ कविताएँ सुनो, उन्होंने (कवि महोदय से) रजिस्टरों को—नहीं नहीं, साँप की पिटारियों को खोला। मैं सहमकर दीवार के सहारे लग गया। (लोकल कवि का चक्कर)

हम श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के नाम पर शब्दों का पूरा बगीचा ही उजाड़ने पर तुल जाते हैं। (श्रद्धांजलि कार्यक्रम)

(महाभारत के) द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अँगूठा ही कटवाया था, आज का द्रोणाचार्य शिष्य की जेब काटकर ही सब्र कर लेता है।

संग्रह में मकान की तलाश, बुरे फँसे डींग हाँककर, काश हम भी कुँवारे होते, सादगी तंत्र जैसी कमजोर रचनाएँ भी हैं। पर इनसे इसके स्तर पर विशेष आँच नहीं आती। लेखक को हास्य से बचना चाहिए, शैली में भी विभिन्नता का वह ध्यान रखे, निबंध के साथ कथा विधा में भी व्यंग्य प्रस्तुत करे, नए-नए विषयों का चयन करे और विषय की गहराई में जाने का प्रयास करे।

लेखक में अवश्य ही व्यंग्य के कीटाणु हैं, उसके ये कीटाणु आगे और विकास पाएँगे और वह अधिक समर्थ रचनाओं से व्यंग्य विधा को परिपुष्ट करेगा, इस विश्वास के साथ मैं लम्बी हो गई इस भूमिका को समाप्त करता हूँ।

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