खूँटे / कुसुम भट्ट

Gadya Kosh से
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"मुझे हवा के घूँट पीने हैं..." आवाज़ झमक कर चेतना में गिरती है... सफेद पिलपिले हाथों से चेहरा घुमाने लगा है बेताल-सीधेऽ... " लिजलिजे स्पृश के बोझ तले दबी मेरी गर्दन टीसने लगी है... चल ही तो रही हूँ जाने कब से... जाने कहाँ... अंधेरी सुरंग कभी समाप्त ही नहीं होती...! मकान खंडहर में तब्दील हो चुका होगा या थोड़ा बचा होगा साबुत... गोया मेरी स्मृति जस की तस... इसे क्यों नहीं पोंछ पाया वक़्त अपने सूखे रूमाल से...?

"अब क्या बचा है वहाँ...? खंडहर हुए घरांे में चमगादड़-सी फड़फड़ाती यादें..." पीछे से आक्रमक होती आवाज...! मुझे पीछे नहीं देखना... बेताल कन्धे पर बैठा है ठसक के साथ...

"खोजने से फायदा? काल के पहिये के बीच बह चुका जो वापस नहीं न आता..." पीछे से खींचती आवाज़ पर ठहरने को होती हूँ... सब कुछ फायदे के लिये ही नहीं न देखना होता है... कुछ चीजें फायदे की परिधि में नहींे आती हो बेशक... फिर भी अपने वक़्त के आइने में ज़रूरी होती हैं देखनी... परखना... ज़रूरी होता है एक वक़्त से दूसरे वक़्त को..., बेताल के लिजलिजे स्पृश के बीच न चाहते हुए भी...

अंधेरी खोह में भी सीढ़ी खोजी थी... पर चढ़ने नहीं दिया...! पावों को खींच लिया पीछे... हवा में लटका रह गया मेरा सवाल...? बह चुकी मान्यताओं को वक़्त के पानी से बटोर कर आइना न दिखाया गया तो अँधेरा अपने फैलते हुए साम्राज्य पर इठलाता रहेगा... तब मैं सो नहीं पाऊँगी एक रात भी चैन की नींद...?

'होऽ... होऽ' बेताल ने और कस ली है गर्दन...! और मेरी आँख में उंगली डाल मुझसे सवाल करने पर आमादा है! रास्ते पर चलते... चलते... ठिठकी थी... बस यूँ ही उठी आँख पीपल के बूढ़े पेड़ पर फिसलती नीचे इस घर पर..., घर था या कारा थी तन-मन की...! पल प्रतिपल बहते वक़्त से चेतना में वह अनगिन पत्थरों का गिरना... सबकी गठरी बाँधे चलती आई हूँ... किसको दिखाऊँ पांव के छाले...?

"लौट आ नंदिनी... आगे ख़तरा है खंडहर में जहरीले जीव लौट आऽ..." शिवा पगडंडी पर अड़सी अपनी गोल थुल-थुल देह को सहला रही है-घुटने दुखते हैं नंदिनी..."कैसा शौक पाला तूने धरती की कोख में दबे चेहरों को उघाड़ना... मेरी तरह ज़िया कर... खाओऽ-पीओऽ ऐश करोऽ... मस्त रहो... गढ़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं न होगा..." वह अपनी देह से मोह की आँख टिकाये सोच रही है-इस देह ने उसे सुख से लबरेज किया है आत्मा-चेतना कि बातें उसकी समझ से परे हैं, मैं पांव आगे बढ़ाती हूँ, चैक में सड़े गले पीपल के पत्तों के ढे़र पर चर्रऽ...मर्रऽ आवाज... गोया एक-एक क़दम पर कुचले जा रहे हांे सडियल विचार...! "हेऽ हेऽ... उडने लगी है हवा में...? तेरे बस का है-?"

बेताल ने फिर टीस दे दी..., हार मान लूँ...? तब भी कहाँ मानी थी फिर अब क्यांेेऽ...? चर्रऽ... मर्रऽ ... चर्रऽ... मर्रऽ की आवाज़ पर चेतना कि कौन-सी परत उघड़ती जा रही है... आगे... और... आगे क्या तलाश रही हूँ यहाँ इन खंडहर हुए घरांे में...? पर मन भी तो सीधी सड़क नहीं कि आराम से हो चलते हुए यात्रा पूरी... मन की इस उलझी गुत्थी के बीच जाने पल-पल कितनी दुनिया बसती है...! अलग-अलग दुनिया के अलग-अलग चेहरे... गोया पूरी पृथ्वी मेरी-मेरी हथेली में...! सोखना चाहती हूँ इसकी रिसती टीसें... मगर कैसे...? कोई बता पायेगा मुझे...? चैक का पुश्ता सही सलामत! नीचे उसके घर की पठालें उघड़ी हैं लाल बलुई मिट्टी समय की बारिष से धुंधला गई दीवार पर अल्पना के चिह्न झांक रहे हैं धार की जून (चाँद) ' जैसे झाँक रही हो बीत चुके वक़्त की ओट से...! हिमालय की तलहटी में बसे गाँव से उडा लाया था उसे अधेड़ दरोला शिवानन्द! एक गऊ-सी स्त्री के होते-गाढ दिया खूँटा इतना गहरा कि भूल गई थी वह हिमालय की सात्विक चमक...! दरोले की दारू पकाते औटाते बेचते खपा दी जिन्दगी!

"आह!" मेरा पांव किसी चीज से टकराया है ठोकर लगी है लड़खड़ाते हुए गिरने से बचा पाई हूँ ख़ुद को... पीड़ा कि टीसती लहर शिवा से लिथड़ी है-खा लिया जख्म... तुड़ा ली है न टाँग...? बोला था न ख़तरा है-आगे... " वह लपक कर पत्तों का ठेर हटाती है उसे सांप बिच्छू का ख़तरा टोह रहा है...

मैं लड़खड़ाते हुए आगे जा रही हूँ...

शिवा चिहुँकती है-नंदिनी देख-इसी से टकराया है तेरा पांव... देख नंदिनी देख-कितना बड़ा खूँटा! ऊपर से कहाँ दिखता सड़े पत्तों का ढे़र... इसी के नीचे दबा था कमबख्त! "शिवा रोष में उसे खींचने लगी है-इस बूढ़े पीपल को भी अब तक उखड़ जाना चाहिए था।" खूँटा उखाड़ने में जुटी शिवा कि हालत खस्ता हुई जा रही है... पर खूँटा उखड़ने की हामी नहीं भर रहा कमबख्त! इसी खूँटे पर फँस गई थी कौंसी दीदी की लाल साड़ी! मेरे बड़े मामा कि बड़ी बेटी चैदह वर्ष की दुलहन! मंगल स्नान के वक़्त भी इस बूढ़े पेड़ से यों ही झरते रहे थे पीले बेजान सड़े पत्ते हे राम! तब गुठार में अनगिन खूँटे थे भेड़, बकरियों, गाय, भैंस, बैलों के अलग-अलग... छोटे... बड़े...खूँटे छोटी-बड़ी मोटी-पतली रस्सियों से लिपटे...! सीढ़ी से नीचे थोड़ी दूरी पर जुगाली करती गाय जिसका बड़ा-सा थन दूध से ठसाठस भरा दिखता..., मंगल स्नान के बाद पीला दुशाला उठाते हुए मामी ने दिखाया था कौंसी को खूँटा... समझाया था रस्सी का मतलब... धीरे से फुसफुसा कर कान में घोला था जाने कौन-सा मन्त्र कि कौंसी दीदी के मासूम चेहरे का रंग हल्दी की आभा में सफेद पड़ गया था वह देर तक थर-थर थरथराती रही थी...! साल भर बाद उसे बघेरा उठा ले गया! ऐसी ख़बर आई थी! खूटों से किसी ने जवाब तलब नहीं किया! हे राम! मेरे भीतर की कोठरी धुँए से भर रही है... आँखांे में यातना का पानी डबक... डबक भरने लगा है...! इस पानी का कोई मोल नहींऽ... कितना बह चुका वक़्त की हथेली से इतिहास की ज़मीन पर...! फिर भी उर्वरक नहीं हो पाया-पठार अधलिखा था... पठार ही रहा... खिलती कलियाँ चींधता रहा पंखुड़ी... पंखुड़ी... तब भी... आज भी... बस्स दृश्य बदल गये...!

"कहा था न... खूँटों से सुरक्षित रहती है जिन्दगी..." अंधेरी गुफा से कोई शब्दों के पत्थर फेंकने लगा है...

सामने सीढ़ियाँ दिखती हैं...

दूसरी तरफ़ वह जगह इस पर रामदेई नानी जिसे हम छोटी नानी कहते अलाव जलाया करती थी जाड़े के दिनांे पूरा गाँव आकर घेर लेता था अलाव... आँच से दहकते चेहरे बतरस बांटने एक दूसरे से गोया... इतने भीगे आनन्द से कि पहाड़ की पथरीली ज़िन्दगी होने लगती पलक झपकते ही सेमल फूल-सी हलकी।

"ऊपर चढ़ नंदिनी..." शिवा भी अब खंगालने को उत्सुक है... कल नीम अंधेरे में मैंने इस यात्रा कि सरगोशी की थी तो वह चिहुँकने लगी थी-बंजर हुए रास्ते पर पिरूल हटाते चलेंगे तो शाम हो जायेगी। " उसी की सलाह पर अब सुबह पौ फटने से पहले हमारी यात्रा शुरू हुई थी...

अभी हमारी मंज़िल मील भर है यहाँ से दिखता है अपना गांव, शिवा और मैं साल भर के अन्तराल पर पुराने खूँटे बदलकर नये खूँटों से बंधी एक ही गाँव में..., यही एक छोटी-सी ख़ुशी हमारे बीच चहकती रही थी।

वक्त को खंगालते हुए ऊपर आती हूँ-इतनी ही सीढ़ियाँ चढ़ी थी ज़िन्दगी की... आठ या नौ... कुल... ढोल दमाऊ की कनफोड़ आवाजों के बीच मूसक बाजे की मार्मिक धुन गले में अटकी है... गोया मृत्यु धुन! मैं भी रोना चाहती थी विदा होती बेटी के साथ बुक्का फाड़ कर। इतना भी भर गया था गले तक कि उलीच दूँ सारा पानी पेड़ पर... कमाल है। मेरा रोना भी सहन नहीं होता...््! मेरे कंठ में अटकी मूसक बाजे की मृत्यु धुन के साथ मछली के कांटे से अटकी वक़्त की रूलाई... !

यह कुठार है जिसके नीचे सोई थी वह घोड़े बेच कर गोया मेरी हम उम्र 'धार की जून' की बेटी... पाहुनों की भीड़, आकाश फाड़ती आवाजों का शोर वित्ता भर बन्द खिड़की सहमी-सहमी हवा का आगमन भी वर्जित... चूल्हे की दोनों ओट पर पसरी दादी-नानी आगे बैठी जून की सौत मैंने हथेली लगायी थी उसकी नासिका में-ज़िंदा है भी-?

भली लडकी है... तेरी तरह नहीं, जहाँ सुलाओ सो जाती है। जैसा खिलाओ खा लेती है। गऊ हैं तुम्हारी सोबती समधन... हमारे तो फूठे भाग ठहरे...! दादी ने मेरी ओर हिकारत से देखते हुए प्रशंसा भरी नजरों से देखा था उसे-एक ये है हमारी ...! पंछी-सी फुदक इधर फुदक उधर... चैन नहीं इसे घड़ी भर! चिंचिंयाती रहती हर जगह... वक़्त का लिहाज नहीं! " हे भगवती! इसका क्या होगा...? हमारी नाक रहेगी भी साबुत ...?

आने-जाने वाले पाहुनों की आँखों को झेल पाने में असमर्थ मैं दादी... चिपकने लगी थी। वह मुझे ठेलती जा रही थी। उसकी चुधीं आंँखों में अपने लिये पहली मर्तबा जो दिखा... मेरी नन्ही छाती से बलबला उठा था... दादी का गोरा गुलगुल झुर्रियों भरा चेहरा नोचने को मेरे नाखून बढ़े थे-हाँ... मैं हँू बुरी लड़की... मार दो मुझे... जान से मार दो मुझे... मैं धुंआ नहीं पी सकती... मुझे हवा के घूंट पीने हैं और आकाश में छलांग लगानी है...! ये अच्छी लड़की हुई? कुठार के नीचे सोई बेसुध...! इसका दम नहीं घुटता? ' मैं दादी को झिंझोड़ती जा रही थी। मेरी आँखों से आग में लिपटे आँसू की बूंदे टपक कर गालों में बह रही थी, बहुत कुछ अनकहा निशब्द फड़फड़ाने लगा था भीतर... कितने हाथ लपके थे मुझे खींचने...! कितने चेहरों पर उगी आँखें मुझे नफ़रत से घूर रही थी। कितने होठों के बीच सुगबुगाहट थी-मेरे गले में रस्सी डालने के लिए और मैं थी कि अनगिन आँखों की क्रूरता देख दहशत से नहीं भरी बल्कि उल्टा उन्हीं की आँखों से सवाल कर रही थी...! तो मैं वक़्त से ज़्यादा दूर निकलने लगी थी? वक़्त को पीछे धकेलती हवा के पंखों पर उड़ने की मेरी जुर्रत...! झप्प! रस्सी गिरी थी पावों मे...ं और जानवरों के जैसे मेरे लिए भी गढ़ गया था खूंटा...्!

अब कोठार के नीचे धूप की चादर लहरा रही है। छत की पठालें उखड़ने से खाली जगह से दिखता है। मध्यान्ह का सूरज! अपनी समूची आग में खिलता। कितना चमकदार! इस वक़्त काला लिसलिसा अँधेरा ठसा रहता था! स्ूारज की एक किरन का प्रवेश भी यहाँ निषिद्ध!

बचपन सड़े गले पीले पत्तों की छाया तले कब बिला गया, ख़बर भी न हुई... ! मेरी आँखों में गाढ़ा वहीं लिसलिसा धुंआ फैलता आ रहा है...्! उम्र और परिस्थियों का रूपांतरण होने के बावजूद मन के किसी अंधेरे कोने में कुछ... वैसा ही जमा रहता है साबुत... जिसे वक़्त का पैना हथौड़ा भी तोड़ने में असमर्थ रहता है। वर्षों बाद आज भी जाने क्यों मेरी छाती में जमा वहीं बलबला खल बलाने लगा है...! आलों में जाने क्या तलाश रही शिवा को आवाज़ देती हूँ। गोया शिवा के साथ इतिहास की ज़मीन पर गढ़े खूंटों में स्थिर उन सभी चेहरों को। मेरा चेहरा आग की परत में लिपटने लगा है। शिवा सहम गयी है... मैं भी हैरान हूँ। दरअसल मेरे गले से शब्द नहीं चीखें फूटी हैं। सीढियाँ उतर कर तेजी से मैं खूंटा उखाडने लगी हूँ... शिवा का चेहरा उजास से भर उठा है-नंदिनी, हमने खूंटा उखाडने की कवायद पहले कर ली होती...? अब तो चेहरे भी गायब हो गये। उसके हाथ मेरे साथ जुड़ने लगे है। हमने पूरी ताकत झोंक ली है। पर खंूटा ज़मीन के भीतर गहरे धंसा है! गीली मिट्टी के कण मेरी आंखों में भरने लगे हंै। आखिरी प्रयास में हम दोनों ने जोरों से उसे खींच लिया है। शिवा ने लकड़ी के भारी खूंटे को दोनों हाथों से लहराते हुए हवा में उछाल कर नीचे सूखे, पत्थरों से अटे गधेरे में फेंक दिया है।

खंडहर हुए गाँव को लांघते हमें अपना गाँव दिखाई दे रहा है। यहाँ कुछ परिवार है जिन्हें अपनी माटी-पानी के मोह ने बचाये रखा है। बंजर हुए खेतों को देखते हम इस ऊंची पहाडी पर आ गयी हैं। तन-मन से फूल-सी हल्की ...! हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं!

नदी के बहने की आवाज़ आ रही है...