खूंटा ऊंचा रहे हमारा / देव प्रकाश चौधरी
"भाई साहब!"
आवाज सुनकर जैसे ही पलटा, एक भव्य दर्शन हुआ।
मुंह में मसाला, गले में माला, पैर जींस के पेंट में, ऊपर का हिस्सा आधे बांह के कुर्ते में। चेहरे पर मुस्कान। ज़ुबान पर सवाल-"भाई साहब! खूंटा कहाँ मिलेगा, आप बता सकते हैं?" इस भव्य दर्शन से मन तो गदगद हो उठा, लेकिन दिल्ली की संस्कृति का मारे आदमी की तरह मैंने पूछा-"आपको खूंटे का करना क्या है?"
दिल्ली में सब यही करते हैं, थोड़ी देर पहले मेंने एक सज्जन से पूछा था कि 740 नंबर की बस कहाँ जाती है, पलट कर उन्होंने पूछा था, "आपको जाना कहाँ है?"
यहाँ कोई रास्ता नहीं बताता। सब मंज़िल पूछते हैं।
उसी अदा में मैंने एक बार अपने सवाल को दोहराया—"आपको खूंटे का करना क्या है?"
सवाल सुनकर उनका भव्य व्यक्तित्व मुस्कराया। संतो के स्टाइल में कहा-"गाड़ना है और क्या!"
"आपको खूंटा क्यों गाड़ना है?-" मेरी दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी
"सब गाड़ रहे हैं, इसलिए मुझे भी गाड़ना है। उन्होंने पंजाब में गाड़ा है। मैं उत्तर प्रदेश में गाडूंगा। आप सिर्फ़ यह बताइये कि खूंटा इस शहर में मिलता कहा हैं?" संतवाणी में भी अधीरता छलक उठी।
"मुझे तो नहीं पता, हाँ गाँव के हमारे घर में एक खूंटा है, जो एक पेड़ की डाल को छील-छाल कर बनाया गया था।" आवाज़ में मैंने जार्ज के क़िस्म का गांभीर्य घोला।
"छीलने-छालने के झंझट में मैं नहीं पड़ना चाहता। कृपया मुझे किसी रेडीमेड खूंटे के बारे में बताएँ कि लूं, निकलूं और गाड़ दूं। समय बीता जा रहा है।" कहते हुए भव्य व्यक्तित्व ने मसाले की पीक सड़क पर दे मारी।
"खूंटा तो नाद के पास गड़ता है। फिर चारा भी चाहिए। फिर खूंटे में गाय बाँध देते हैं लोग," मैंने भव्य व्यक्तित्व को उलझाने की कोशिश की।
"पंजाब में न तो नाद है उनके पास, न चारा, न गाय, फिर भी खूंटा गाड़कर बैठ गए हैं वे। मैं ऐसा ही यूपी में करना चाहता हूँ। कृपया रेडिमेड खूंटे के किसी स्टोर का आप पता दें, आप तो पढ़े-लिखे लगते हैं। आपको सब मालूम है," उनका भव्य व्यक्तित्व व्यग्र हो चला था।
पढ़ा-लिखा बताकर उस भव्य व्यक्तित्व ने हमारी शिक्षा प्रणाली की जिम्मेदारी अचानक बढ़ा दी। हमें हर तरह स्टोर का पता होना चाहिए। न है तो दुख की बात है। विनम्र स्वर में मैंने कहा-"अगर आप हमारे गाँव यानी मोतिया में होते तो मैं अपने घर में गड़े खूंटे को उखाड़कर आपको दे देता।"
"वह भी चलेगा। क्योंकि लोग अब एक खूंटे का मल्टीप्लेस इस्तेमाल कर रहे हैं। कभी यहाँ गाड़ा। कभी यहाँ से उखाड़ा। अब उनको देखिए न! उनका खूंटा दिल्ली में गड़ा था। उखाड़ कर ले गए। वहाँ पंजाब में गाड़ दिया और बेठ गए," कहते हुए भव्य व्यक्तित्व का स्वर लहराने लगा।
"खूंटा पकड़कर बैठते हैं लोग वे गाड़कर क्यों बैठ गए," मुझे हंसी-सी आई।
"काम-धाम के वक़्त अगर कोई खूंटा पकड़कर बैठ जाए तो इसे लोग अच्छा नहीं मानते। वे तो खूटा गाड़कर बैठे हैं। गर्व की बात है यह," जवाब देते-देते भव्य व्यक्तित्व लगभग दार्शनिक हो उठा।
' आप खूंटा के बदले कुछ और क्यों नहीं गाड़ते? जैसे कि कुदाल...हथोड़ा...हल कुछ भी, " मैं बात टालने के मूड में आ गया।
" नही भाई साहब...चाहिए तो मुझे खूंटा ही। हम सबका कहीं न कहीं खूंटा गड़ा है।
खूंटे पर यह देश खड़ा है। यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि इस महान देश में रेडिमेड खूंटे का एक स्टोर तक नहीं है। ऑनलाइन वाले तो खूंटे में और भी पिछड़े हैं। एक बार खूंटा गाड़ दूं और कुछ पावर आ जाए तो देखिए कैसे सबको बिना चारे और नाद के खूंटे से बाँध देता हूँ...यही आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है, " भव्य व्यक्तित्व की आवाज़ का वाल्यूम बढ़ता जा रहा था। कुछ और लोग जुटते जा रहे थे। एक अच्छा खासा मजमा जैसा बन पाता, उससे पहले मुझे 740 नंबर की बस दिख गई। मैं उधर लपका।