खूंटे में दाल है / शशिकांत सिंह शशि

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एक प्रचलित लोककथा का व्यंग्य रूपांतरण करके जनहित में जारी किया जा रहा है। भारत वर्ष नामक देश के किसी गांव में एक चिडि़या, कहीं से दाल का एक दाना लेकर आई। वह उस दाने को खाने के लिए एक खूंटे के ऊपर बैठी ही थी कि दाना उसके मुंह से गिरकर खूंटे में फंस गया। वह बेचारी बहुत परेशान हुई। मुंह का आहार छिन जाये तो दुःख होता ही है। आदमी होता तो उसके लिए नाना प्रकार की योजनाएं होती। राशन की दुकानों के माध्यम से भी उसे दाना दिया जाता। आदमी होने के नाते वह वोटर होती और लोकतंत्र के स्तंभ के रूप में उसको मान्यता मिल जाती लेकिन वह चिडि़या थी जो शिकारी के काम आती है। वह चिंतन करने लगी कि दाना अब कहां से आयेगा ? उस इलाके में तीन साल से सूखा पड़ा था। अन्न की कमी आदमी के लिए भी थी। आदमियों में अन्न के लिए संघर्ष करना नियमों के विपरीत माना जाता है। चिडि़या तो चिडि़या थी। आखिरकार उसने संघर्ष करने का मन बनाया। अंत तक अन्न के लिए संघर्ष करने का पक्का इरादा कर के वह एक बढ़ई के पास पहुंची। उसने बढ़ई से अपील की कि वह खूंटे को चीर कर उसके लिए दाल निकाल दे। वह बढ़ई का आजीवन आभारी रहेगी। बढ़ई आदमी होने के नाते लाभ-हानि के सिद्धांतों को जानता था।

बढ़ई की समझ में यह नहीं आया कि एक दाल के दाने के लिए वह खूंटे को क्यों चीरे। उसको क्या लाभ होगा ? पता नहीं वह खूंटा किसका है ? कहीं किसी नेता-वेता का खूंटा तो नहीं है। वहीं देश के दाने जाकर अटक जाते हैं। निकलते नहीं है। यदि चीरने का प्रयास करे और नक्सली कहकर उसे अंदर कर दिया जाये तो। कहीं किसी पुलिस वाले का खूंटा हुआ तब तो गजब हो जायेगा। पुलिस वाले के खूंटे को तो चीर कर भी आप उसमें से दाना नहीं निकाल सकते क्योंकि उनके खूंटे तक के पास खाने की ही नहीं पचाने की भी अद्भुत क्षमता होती है। दाना तो नहीं निकलेगा अलबत्ता परिवार सहित वह जरूर फंस जायेगा। उस पर कई दफायें लागू हो जायेंगी। उसने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।

-’ चिडि़या देवी। हमंे आपसे सच्ची सहानुभूति है। हम जानते हैं कि अन्न के लिए किया जाने वाला आपका संघर्ष बिल्कुल जायज है लेकिन हमें माफ कीजिये हम बाल-बच्चे वाले आदमी हें। हमें इस लफडे में मत डालिये। खूंटा चीरना हमारे वश की बात नहीं है ।’

चिडि़या बिल्कुल निराश नहीं हुई। अब उसके दिमाग से दाल की बात निकल गई। उसने भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करने के मन बनाया। बढ़ई एक आदमी होकर भी अपने कत्र्तव्यों को पूरा करना नही चाहता। यह भीरूता है। इसे जिंदा रहने का कोई हक नहीं है। वह सांप के पास पहुंची।

-’ सांप बंधु , दुष्टों को सजा देने का काम आपका ही है। मैने दाल निकालने के लिए खूंटे से अपील की। खूटे ने मेरी बेइज्जती कर दी। खूंटा चीरने के लिए बढ़ई को कहा लेकिन वह लाभ और हानि के हिसाब में लीन है। आप उस दुष्ट बढ़ई को डंस कर इस लड़ाई में हिस्सा लें। यह न्याय और अन्याय की लड़ाई है। आप जीवों में आदरणीय है। आपको मेरा साथ देना होगा। ’

सांप को जोर से हंसी आ गई। ठहाके लगा चुकने के बाद , उसने लंबी तहरीर दी -

-’ चिडि़या बहन, समस्या यही है जिसकी दाल फंस गई वह आंदोलनधर्मी हो गया। जिनको दाल मिल रही हैं उनको मनन-चिंतन करने से ही फुर्सत नहीं मिलती। तुम्हारा दाना यदि नहीं फंसता, पेट भर जाता तो न्याय और अन्याय की बात दिमाग में नहीं आती। तुम लोग सापों की दुश्मन हो। मोर हमें खोज-खोजकर खाता है। आज बढ़ई को डसने के लिए कहने आ गई। रही बात बढ़ई कि तो उसको डंसना मेरी प्राथमिकता नहीं है। मैं अहिंसावादी सांप हूं। डंसता नहीं हूं। उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में मैं बाधक नहीं बन सकता। वह खूंटा नहीं चीरना चाहता तो उसकी मर्जी। ’

चिडि़या समझ गई कि मामला स्वर्थोंं का है। यह सांप इस आदमी से नागपंचमी के अवसर पर दूध पीता होगा। शक्कर डालकर खूब मीठा और गाढ़ा दूध। यह बढ़ई को क्यों काटेगा ? अपनी पेट पर लात क्यों मारेगा ? चिडि़या भी मानने वाली नहीं थी। उसका संकल्प और मजबूत हो गया। उसने लाठी के पास जाकर आग्रह करने की ठानी कि वह सांप को मारे। लाठी बेचारा अभी-अभी सरसो तेल पीकर, धूप में सूखकर बरामदे में आराम कर रहा था कि चिडि़या आ गई। उसने अपनी करुण कहानी बयान की। लाठी को अपने ऊपर गर्व हुआ कि आखिर उसके पास भी कोई समाज सेवा का आॅफर आया। आजकल तो तोप और बंदूक की चलती है। उसको पूछता ही कौन है ! चलो सांप मारने के लिए ही सही। कोई आया तो...। अचानक उस पर सिद्धांतों का दौरा पड़ गया। वह चिंतक हो गया। उसने आसमान की ओर मुंह उठाया और बोलने लगा -

-’ देवी ! मैं अकारण रक्तपात की निंदा करता हूं। यह मानवजाति का स्वभाव हो सकता है। लाठी समुदाय कभी भी किसी पर अकारण वार नहीं करता। व्यर्थ की हिंसा कलह का कारण बनती है। सर्प वध करके मैं पाप का भागी नहीं बनूंगा। मुझे क्षम करें। ’

चिडि़या जानती थी कि लाठी नहीं आयेगा। उसे मालूम था कि यह दूसरे के हाथ का खिलौना है। ताकत होने के बावजूद इसकी अपनी कोई मर्जी नहीं है। जो चाहे चला दे। जिस पर चाहे चला दे। सिद्धांत तो पोटली में बंधी सत्तु की तरह है जब चाहो निकालो , पानी डालो , गूंथो और निगल जाओ। चिडि़या आगे बढ़ी। आग के पास पहुंची। उसे आशा थी कि लाठी को सबक सिखाने में आग से बड़ी भूमिका किसी की नहीं हो सकती। आग को तो किसी से डरने की जरूरत भी नहीं है। उसने आग को अपनी पूरी रामकहानी सुना दी। आग ने धैर्य से पूरी बात सुनी और बोला -

-’ आपके साथ वाकई गलत हुआ है। अच्छा आप इस बात का सबूत दे सकती हैं कि वह दाल आपका ही था जो खूंटे में फंस गया। ’

-’ जी.......सबूत.....। मेरी चोंच में दाल थी और खूंटे मंें गिर गई। भला ............।’

-’ हू.........अच्छा किसी ने देखा था आपको खूंटे पर बैठते हुये। ’

-’ नहीं ......।’

-’ आपको जरूरत क्या थी अकेले ऐसे खूंटे पर जाकर बैठने की जिसमें पहले से ही छेद हो। आपलोगों को न अपनी चिंता है न समाज की। समाज की शांति भंग होती है। मीडिया वालों को मसाला मिल जाता है। आपको क्या है......रो पिट कर चुप हो जायेंगी। जवाब तो हमें देना पड़ता है। अग्नि को ही साक्षी के लिए बुलाया जाता है। अच्छा आपको लाठी ने तो ठीक ही कहा फिर आप उस बेगुनाह को जलाना क्यों चाहती हैं। अकारण हिंसा तो अशास्त्रीय है। ’

-’ प्रश्न हिंसा या अहिंसा का नहीं है। प्रश्न है अपनी जिम्मेवारियों से भागने का। आपको लगता है कि वह अहिंसक है जो प्रति दिन सांप मारता है। मेरी चोंच में यदि बल होता तो वह मेरे इशारे पर नाचता। यह तो समाज का कछुआकरण है। ’

-’ अर्थात ! ’

-’ कछुए की तरह अपनी खोल में घुस जाना। क्षमतावान लोग भी इसी उम्मीद में हैं कि दूसरे लोग अपने कत्र्तव्य पूरे करें। उन्हें कुछ न करना पड़े। ’

आग को क्रोध आ गया। उसके इगो को ठेस लगी। एक नन्हीं सी चिडि़या उससे विमर्श करे ! उसे यह भी आभास नहीं कि परम ज्ञानी अग्नि का विरोध किसी काल में किसी ने नहीं किया। उसने खिल्ली उड़ाते हुये कहा -

-’ आप सर्वज्ञ हैं। प्रकांड विदूषी हैं। मैं भला अपकी क्या मदद कर सकता हूं ! मुझे क्षमा करें। ’

चिडि़या ने वहां से उड़ने में ही भलाई समझी। उसको गुस्सा तो बहुत आ रहा था। बड़े आग बने फिरते हैं। न्याय-अन्याय की तमीज नहीं। समाज के पुरोधा हैं। मेरा दाना नहीं निकला तो किसी को छोड़ने वाली नहीं हूं। सबक तो सबको सिखा कर ही रहूंगी। उसने समुद्र के पास जाने की सोची। समुद्र यदि आग को बुझा दे......। नहीं तो कम से कम धमकाये ही ,....तो हो सकता है कि आग लाठी की अक्ल ठिकाने लगा दे। लाठी सांप को और सांप बढ़ई को अपने कत्र्तव्यों की याद दिला दे। कमजोर की बात तो कोई ध्यान से नहीं सुनता। शक्तिशाली की हर बात सुभाषित है।

वह सागर तट पर पहुंच गई लेकिर सागर देवता के पास फुर्सत ही कहां से जो चिडि़या से मिल सकें। विदेशी व्यापरियों का एक डेलिगेट आया था। उसी की आवभगत में मशगुल थे। व्यापारी उनकी छाती पर चढ़कर, दूसरे देशों में जाना चाहते थे। सागर महाराज को मंजूर तो था लेकिन राशि अधिक मांग रहे थे। बिचैलिये और दलाल उनको समझाने में लगे थे। व्यापारी भी अपनी शत्र्तों पर अड़ गये थे कि यदि उनकी मांगें नहीं मानी गई तो कोई भी सागर के मार्ग से व्यापार नहीं करेगा। अंत में वात्र्ता सफल रही। व्यापरियों की सारी शत्र्ते मान ली गईं। चिडि़या तीन दिन से तट पर स्थित एक पीपल के पेड़ पर इंतजार कर रही थी। उसको मिलने का मौका ही नहीं मिला।

उसी पेड़ पर एक तोता इस तमाशे को देख और समझ रहा था। उससे जब नहीं रहा गया तो उसने चिडि़या से पूछ ही लिया। बदले में चिडि़या ने अपनी सारी संघर्ष कथा उसे कह सुनाई। सुनकर तोता देर तक हंसता रहा और चिडि़या उसका मुंह देखती रही।

-’ तू भी बिल्कुल बावली है। अरी तेरे कहने से कोई तेरी मदद नहीं करेगा। किसी नेता को जानती है दिल्ली में। ’

-’ मैं तो सभी को जानती हूं। ’

-’ नहीं ...नहीं तुझे कोई जानता है।

-’.......................।’

-’ अच्छा , समुद्र तो तुझसे कभी नहीं मिलेगा। जब श्रीराम को तीन दिनों तक इंतजार करवा दिया था तो तुझे तीन जन्म भी लग सकते हैं। अब क्या करेगी ?’

-’ मेरी जानपहचान का एक हाथी है उसे कहूंगी कि वह सागर के पानी को पीकर इसका अहंकार तोड़े। ’

-’ तो ठीक है। तू जब वहां जायेगी तो मैं एक फोन अपने ताये से करवा दूंगा। वह दिल्ली में एक नेता के यहां पिंजरे में रहता है। उसकी पहचान बहुत ऊपर तक है। ’

चिडि़या अब निराश हो चली थी। तोते की बात भी उसे खोखली ही लग रही थी। मगर उसकी आशा को पंख लग गये जब वह हाथी के पास पहुंची। हाथी फूल माला लेकर पहले से ही तैयार था। उसने लंबी सलामी ठोकी और बोला -

-’ जी आपके लिए दिल्ली से फोन आया था। समुद्र की ऐसी की तैसी। अभी के अभी मैं चलता हूं। वह समझता क्या है अपने आपको। दरअसल उसकी भी गलती नहीं है। उस बेचारे को क्या पता कि आपके मौसा संसद भवन में रहते हैं । ’

हाथी तुरंत तैयार होकर समुद्र तट पर आया। उसने दलाल को एक खास किस्म का संदेश दिया। अगले पांच मिनट में राज समुद्र उपस्थित नजर आये। साथ में एक कीमती उपहार भी।

-’ चिडि़या जी का स्वागत है। हमारे कर्मचारी इतने निकम्मे हो गये हैं। इन्होंने हमें आपके आने की सूचना ही नहीं दी। अच्छा हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ? ’

-’ आग का गुरूर तोड़ना है। ’

-’ वह तो हमें देखते ही ठंडा हो जायेगा। उसे आपने बताया नहीं होगा कि आपके मौसा संसद भवन में रहते हैं नहीं तो बिना पानी के ही ठंडा हो जाता। चलिए , हाथी दादा को आप विदा कर दीजिये। आग के लिए तो मैं अकेला ही काफी हूं।’

आग तक यह खबर पहुंच चुकी थी कि पहले जो चिडि़या देवी आई थीं। वह कोई सामान्य चिडि़या नहीं हैं। उसके मौसा संसद भवन में रहते हैं । बेचारा, पहले से ही लाठी को नीचे डालकर जलाने की तैयारी में था। लाठी भी कांपे जा रहा था। वह बार-बार कसम खा रहा था कि उसे इस बात की बिल्कुल ही जानकारी नहीं थी कि चिडि़या देवी कौन हैं। नहीं तो एक सांप तो क्या, वह पूरी की पूरी प्रजाति ही संापों की खत्म कर देता। आग की गर्मी कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। इतने में वहां समुद्र राजा का भी आगमन हो गया। यह विहंगम दृश्य देखकर चिडि़या ने लाठी को क्षमादान दे दिया। वह संाप को सबक सिखाने के मूड में थी। सांप कम से कम बढ़ई को डसने की धमकी तो दे। ताकि वह दाल का दाना निकाले। लाठी को लेकर वह सांप के बिल के पास पहुंची लेकिन सांप वहां था कहां ? वह तो बढ़ई को काटने के चक्कर में, आज तीन दिन से उसको खोज रहा था। वह अपना मुंह भी चिडि़या देवी को दिखाने में संकोच कर रहा था। परिवार वालों से सारा हाल जानकर चिडि़या भागी हुई बढ़ई के घर पहुंची कि कहीं बेचारा मारा ही न जाये। बढ़ई अपने आंगन में बैठा थर-थर कांप रहा था। उसकी बुढि़या बगल में बैठी उसे प्रवचन पिला रही थी। -क्या जाता था एक दाना निकालने में ।....खूंटा ही चीरना था न। कोई पहाड़ तो नहीं काटना था। दस बार कहा कि इन नेताओं से पंगा मत लो। मानते ही नहीं। अब कटवाओ सांप से। ये सांप बिना काटे मानेगा नहीं। करोगे तो अपनी मर्जी की लेेकिन भुगतना तो पूरे परिवार को पड़ता है न। किसी का भी खूंटा हो तुम्हें क्या ? अभी बुढि़या पंचम सुर की ओर पहला ही कदम रख पाई थी कि चिडि़या पहुंच गई। उसको देखते ही बूढा और डर गया। साथ में सांप और लाठी भी थे। सांप डसने के लिए आतुर हो रहा था। आते ही चिडि़या ने उसे समझाया

-’ डरो मत , तुम्हें कुछ नहीं होगा। सवाल मेरे अन्न के दाने का है। खूंटे का चीर दो तकि मैं अपना दाना निकाल सकूं। मैं भूखी-प्यासी हूं। ’

बढ़ई खुशी-खुशी चल पड़ा। चिडि़या भी खुश थी कि अब खूंटा चीर दिया जायेगा। दाना मिल जायेगा। अपना पेट भर जायेगा। क्रांति को पेटी में बंद कर दिया जायेगा। यह तो अच्छा हुआ कि नेताजी का नाम मिल गया। किसी ने पूछा नहीं कि कौन सा नेता है। काग-मंत्र काम आ गया। अभी पूरी टोली खूंटे के पास पहंुची भी नहीं थी कि गांव का सरपंच हाथ में चावल के दो कटोरे और दो बोरियां दाल के लेकर सेवा में उपस्थित हो गया। उसने झुक कर सलाम किया। चमचाुसलभ स्वर में बोला-

-’ आदरणीया , आपकी सेवा मैं ग्राम पंचायत का सरपंच हािजर है। वह खूटा मेरा ही है। मैंने आपकी दाल भी निकाल दी है। उसे तो जनता के दर्शनों के लिए रख दिया है। आखिर लोगों में यह पैगाम तो जाना ही चाहिए कि संघर्ष किसे कहते हैं। अपने हक की लड़ाई करना प्रत्येक जीव का धर्म है। आदमियों के लिए भी आप आदर्श बन गई हैं। आपके नाम पर हम एक विद्यालय की स्थापना करने वाले हैं-’चिडि़या देवी ग्राम विद्यालय। फिलहाल आप ये तुच्छ सी भेंट स्वीकार करें।

चिडि़या कटोरे से दाना निकाल कर खाने लगी। सरपंच ने धीरे से कहा -

-’ मैडम, बड़ी कृपा होती आपकी यदि आपके संसद भवन वाले मौसा जी यदि मेरा एक काम करा देते.....। मेरा एक प्रपोजल अटका पड़ा है परिवहन विभाग के पास। एन ओ सी का मामला है। यदि आप मेरे लिए एक सिफारिश कर देती तो मैं आपका आजीवन आभारी रहता। आप जब चाहें जितना चाहें दाना आकर चुग सकती हैं। मेरे खेत आपके लिए ही हैं। मैं तो कहता हूं कि आप हमारे दरवाजे पर ही आम के पेड़ पर घोंसला बना लीजिये। कहीं और आने जाने की जरूरत ही क्या है। ’

चिडि़या ने फोन करवाने का वादा किया और वहां से उड़ गई। इस बोधकथा से यह शिक्षा मिलती है कि कलयुग में नेता नाम कभी विफल नहीं होता। मानवमात्र को चाहिए कि एक अदद मौसा दिल्ली में जरूर रखे। पता नहीं कब किसकी दाल किसी खूंटें में फंस जाये।