खून, मांस और गुलाबों की भाषा / हेमन्त शेष

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खून, मांस और गुलाबों की भाषा
ब्रिटिश कवि एवं लेखक स्टीफे़न स्पैण्डर से भारतीय लेखकों की बातचीत

न्यूयॉर्क, में 7 मई, 1967 को ब्रिटिश कवि एवं लेखक स्टीफे़न स्पैण्डर ने प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘ऐनकाउण्टर’ के लेखक-सम्पादक-पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। प्रतिमास 40,000 ग्राहकों द्वारा पढ़ी जाने वाली इस पत्रिका से कई सालों का जुड़ा नाता तोड़ने का कारण कवि ने यह बताया कि हालां कि वर्षों से उड़ती हुई ख़बर कान में पड़ती रही कि इस पत्रिका के आर्थिक संयोजन में अमरीका की बहुचर्चित सी. आई. ए. (सेण्ट्रल इण्टेलिजेन्स एजेन्सी) का हाथ है, किन्तु इसकी पुष्टि वह एक महीने पहले ही कर सके। स्टीफे़न स्पैण्डर दशकों पहले भारत भी आये थे। लखनऊ में यशपाल जी के यहां आयोजित साहित्यिकों की गोष्ठी में उनका कई भारतीय लेखकों ने समीप से परिचय पाया था। ‘आपकी कविता-रचना की प्रक्रिया क्या है? या ‘आप कविता कैसे लिखते हैं ?’ आदि प्रश्न यदि कवियों से पूछे जायें, तो अधिकांश कहेंगे-‘कविता-रचना विश्लेषणीय नहीं है।’, ‘कवि-द्वारा कविता-रचना की प्रक्रिया नहीं बतायी जा सकती।’, ‘रचना पर प्रकाश डालना, कविता नहीं, आलोचक का काम है।’, कवि द्वारा प्रक्रिया की बात करना कविता के रस को भंग करना है।’ आदि आदि। किन्तु स्पैण्डर का सोच इससे बिलकुल अलग था। यहाँ बरसों पुराने एक साक्षात्कार की पंक्तियां इस प्रत्याशा में, कि क्या पता आज पचास साल बाद भी वे हमारे कवियों और साहित्य में दिलचस्पी लेने वाले पाठकों को पठनीय लगें!

कहा जाता है कि ‘कवि जन्मजात हुआ करते हैं. और ये भी कि कविता अनायास सहज अभिव्यक्ति है, नैसर्गिक प्रेरणा का नतीजा ...आपकी कुछ कविताओं से भी ऐसा ही लगता है, आप कविता के बारे में क्या सोचते हैं?

स्पैण्डर: पर यदि मैं कहूं कि मेरी कविता-रचना में नैसर्गिक प्रेरणा, अनायासता और जन्मजात कवित्व की जगह उतनी नहीं जितना सायास कवि होने की सार्थकता में विश्वास, एकाग्रता वगैरह तो क्या आपको ताज्जुब और निराशा होगी?

हमने तो यही जाना और सुना है ज्यों पहाड़ों में छिपे झरने स्वतः उमड़ते हैं, उसी प्रकार कवि-हृदय में अन्तर्हित भावना-उद्वेलन कविता बन फूट पड़ती है।

यह कथन अवश्य ही बहुत-से विशिष्ट कवियों पर ठीक बैठता होगा पर जहां तक मेरी कविता-रचना का सवाल है, मैं सचेतन रूप से की गयी उस यात्रा का वर्णन कर सकता हूं जो कविता के परमाणु-केन्द्र से प्रारम्भ हो कर कविता के अंतिम रूपाकार पाने तक की है।

कविता की प्रक्रिया पर आप की बातें तब तो बड़ी दिलचस्प होंगी।

मैं अपनी बात आप तक पहुंचाने के लिए अपनी कुछ कविताओं के सृजन के इतिहास को बताऊँगा और पांच तत्वों के अन्तर्गत मैं अपनी कविता-सृष्टि की बात रखना चाहूँगा ।

वे पांच तत्व क्या हैं?

ये हैं- एकाग्रता, नैसर्गिक प्रेरणा, स्मरण-शक्ति, आस्था और गीत। सृजनशील लेखन के लिए लेखक की एकाग्रता अनिवार्य है। यह एकाग्रता गणित के सवाल-विशेष पर केन्द्रित एकाग्रता से अलग है। सृजनात्मक लेखन में, कवि, ध्यान को एक विशेष रूप से इस प्रकार केन्द्रित करता है कि अपने विचार के समस्त सम्भावित विकास-आयामों और निहित अर्थों के प्रति वह सचेत रहता है- जैसे किसी बढ़ते हुए पौधे का ध्यान यन्त्रवत् बढ़ते रहने की एक ही दिशा में केन्द्रीभूत न हो कर साथ-ही-साथ पत्तों पर पड़ती गरमाई और रोशनी, जड़ों से आती नरमाई और पानी आदि पर भी रहता होगा ।

एकाग्रचित्त होने के लिए आपके लेखक को क्या कोशिशें करनी होती हैं?

जिसे हम कवियों की विचित्र सनक कहते हैं वह वास्तव में एक मशीनी आदत है, जो उन्हें एकाग्रचित्त करती है। कवि शिलर की सनक थी कि कविता-रचना के समय लेखन-डेस्क के ढक्कन के नीचे छिपे सड़े सेवों की गन्ध उसकी नाक में घुसती रहे। कवि ऑडन प्याले पर प्याले चाय चढ़ाते रहते हैं। मुझे भी कॉफ़ी पीने की लत है और केवल कविता लिखते समय सिगरेट पीता हूँ , वैसे नहीं। एकाग्रता का एक बिन्दु ऐसा भी आता है जब मैं मुंह में रखी सिगरेट का स्वाद भूलने-सा लगता हूं। और, उस समय मैं दो या तीन सिगरेटें एक साथ पी लेता हूं, ताकि एकाग्रता की जो दीवार मैंने अपने चारों ओर खड़ी की है, उसे भेद कर बाहरी संवेदनाएं अन्दर घुस सकें। किन्तु इसका यह अर्थ न लगायें कि सनकी आदतों का सम्बन्ध रचना के उत्तम या निम्न स्तर से है। वे लेखक-द्वारा स्वतन्त्र रूप से खुद द्वारा अर्जित एकाग्रता के छोटे-छोटे हिस्से हैं, न कि एकाग्रता के सब साधन। देह का स्वभाव है कि वह आपके ध्यान को कई प्रकार से बंटाये। इसलिए यदि ध्यान का बंटना कॉफ़ी, चाय या सिगरेट पी कर, एक ही रास्ते से, हो जाये तो ‘स्व’ के बाहर स्थित दूसरे विघ्न अन्दर प्रवेश नहीं करते।

यह भी तो माना जाता है कि काव्य-रचना का दत्तचित्त प्रयत्न एक ऐसी आध्यात्मिक क्रिया है जिसमें व्यक्ति मानसिक स्तर पर शरीर से विलग हो जाता है।

यह सही है, क्योंकि रचना-प्रक्रिया के समय मन और शरीर का पारम्परिक असन्तुलन होता है। इसलिए आवश्यक होता है कि भौतिक जगत् के साथ किसी संवेदना के लंगर द्वारा ठहराव बना रहे। मेरे लिए एकाग्रता दो प्रकार की है- एक तात्कालिक और सम्पूर्ण दूसरी वह, जिसके लिए रास्ता खोजना पड़ता है, और जिसका गन्तव्य कई मंज़िलों में प्राप्त होता है।

कुछ कवि तीव्र स्पष्ट, गहरी और उद्देश्यपूर्ण बुद्धि की ईश्वरीय देन से भासित होते हैं, और कुछ मद्धिम गति के, अनगढ़ या अदक्ष होते हैं। पर इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। उद्देश्य की सच्चाई या ईमानदारी और स्वयं को बिन खोया रख कर उस उद्देश्य की सम्पूर्ति कर पाना ही ज्यादा महत्वपूर्ण है। मुझ में कविता के प्रति तात्कालिक रूप से एकाग्रचित्त होने की क्षमता बहुत कम है। मेरा मस्तिष्क स्पष्ट नहीं है, मेरी इच्छा दुर्बल है। विचारों का बाहुल्य और अभिव्यक्ति की अशक्त सामर्थ्य, मुझे दुःखी करते हैं। एक कविता लिखने बैठने के लिए, कभी-कभी तो दस कविताएं एक साथ विचार में आती हैं , जिन्हें कभी लिखने नहीं बैठता ।

अपने कविता-लेखन के विषय में इतना स्पष्ट वक्तव्य तो सम्भवतया ही कोई कवि देना चाहेगा! आप अत्यधिक विनम्र हैं!

नहीं, नहीं, ऐसी बात नहीं है। विनम्रता कैसी, जब सब बातें बिलकुल सच हैं। मेरे कविता-लेखन की पूरी बात सुनने पर तो आप मुझे कवि भी कहना पसन्द न करें शायद।

भला क्या यह रहे हैं आप? ऐसा क्यों?

आप को बताऊँ – मेरे लिखने की मेज़ के पास अलमारी में लगभग बीस नोट-बुकें हैं, जिन में पन्द्रह वर्ष से टूटे-फूटे विचार अंकित करता आ रहा हूं। मैं उनमें कविता-रचना के प्रसंग में उठे सब विचारों को रेखांकित करता रहता हूं। बाद में कुछ विचारों को कविता में काम ले लेता हूं और कुछ को रद्द भी कर देता हूं ।

कविता-रचने का यह ढंग काफी दिलचस्प और व्यवस्थित है।

मनोरंजक है या नहीं, मैं नहीं जानता किन्तु व्यवस्थित होने के कारण मुझे ज्यादा सुविधाजनक लगता रहा है। उदाहरण के लिए एक कविता के प्रसंग में नं. 3 वाले विचार की एक पंक्ति आज तक लिखी रही है, पर उसकी कविता पूरी नहीं हो पायी है। पंक्ति है: ‘ए लैग्वेज ऑफ़ फ्लैश एण्ड रोजे़ज़’ रक्त-मांस और गुलाबों की भाषा-जब कि 13 नम्बर की कविता अनेकानेक रूपाकारों में परिवर्तित होती हुई सम्पूर्ति की स्थिति में आ गयी। प्रारम्भिक विचार का आकार यों थाः

कुछ दिन होते हैं ऐसे, जब समुद्र किसी वीणा की भांति ढालू चट्टानों के नीचे सपाट पसरा रहता है।लहरें, सूरज की ताम्बई चमक से, तार की तरह जलती हैं। खाली जगहों में आकाश (खेत और) झाड़ी और खेत और नाव की छायाएं , मध्यान्ह में लेटी हैं जब गरमी थक जाती है तो शायद ज़मीन के भीतर से दुपहर एक लम्बी सांस भरती है। (जैसे कोई हाथ तारों के ओर छोरों को छूता हो जिससे वे झनझनाते हैं) उन रिक्त स्थानों में, स्थल और आकाश से आती प्रत्येक पक्षी की कूक , कुत्तों की भौंक, मनुष्य-पुकार घोड़ागाड़ी की चरमराहट मध्यान्ह के सम्पूर्ण संगीत के साथ इस झंकार में डूब जाते हैं

इस रूपाकार में कविता ऐसी ही है, जैसी कि स्मृति की आंखों में साफ़-साफ़ दिखाई देता चेहरा, जिसकी प्रत्येक रेखा और नाक-नक्श का निरीक्षण यदि मानसिक या वैचारिक स्तर-पर किया जाये तो धुंधलाता सा प्रतीत होता है।

इस कविता में समुद्र है- समुद्र जो चट्टानों के नीचे फैला हुआ है। चट्टानों की चोटियों पर खेत हैं, झाड़ियां हैं, घर हैं । गाड़ियों को घसीटते हुए घोड़े हैं...

...हां। वे घोड़े गलियों में हैं, और कुत्ते तट से भी दूर अन्दर शहर में भौंकते हैं, घण्टियां कहीं दूर बजती हैं, एक सुहावने गरमी के दिन जब सागर अपने तट को अपने में समोता सा प्रतीत होता है तो ऐसा लगता है जैसे समुद्र का तट, झाड़ियों, गुलाबों, घोड़ों और मनुष्यों से पटा पड़ा है जब कि ये सब समुद्र से बहुत ऊपर हैं।

सुन्दर कल्पना है। इन पंक्तियों में भी तो कहा गया है कि छोटी छोटी झंकृत चमकती लहरें ऐसी हैं, जैसे वीणा के तार, जिन पर सूर्य का प्रकाश पड़ रहा है और इन तारों के बीच की खाली जगह पर तट का प्रतिबिम्ब है।

...और यह भी, कि ऐसे दिन, वह स्थल, जिसकी छाया समुद्र में पड़ रही है, समुद्र के भीतर इस तरह प्रविष्ट हुआ लगता है, जैसे वह समुद्र के नीचे स्थित हो। वीणा के तार, जैसे दृश्यगत संगीत हों, जो जल और स्थल को एकाकार कर रहे हैं।

क्या इन पंक्तियों में अंकित समुद्र दृश्य के प्रत्यक्ष वर्णन के पीछे कुछ और भी है जो कवि परोक्ष रूप से कहना चाहता है?

इसी दृश्य को दूसरी दृष्टि से देखने पर इसका प्रतीकात्मक मूल्य प्रकट होता है...। समुद्र, मृत्यु और ‘अनन्त’ का प्रतीक है और स्थल प्रतीक है ग्रीष्म ऋतु एवं मनुष्य की एक पीढ़ी के लघु जीवन का, जो अनन्त के समुद्र में मिल जाती है। किन्तु कवि अपनी कल्पना के इस पक्ष से अवगत होते हुए भी इसको अभिव्यक्त करने का उसी में उलझने से बचता है। निजी दिवा-स्वप्न का प्राणान्वित सृजन उसका काम है। सृजन में मूल्य और उद्देश्य स्वयं बोलने चाहिएं। कवि के मन में यह स्पष्ट होना चाहिए कि उसे निश्चित रूप से क्या कहना है, और क्या अनकहा रखना है। अनकहा अन्तर्निहित अर्थ - कविता की लय, ध्वनि और संगीत एवं उसके सर्वांगीण रूप से उद्भासित होता है।

आपने अपनी कविता के प्रथम रूप को कई बार बदला। अन्तिम रूप क्या था?

कविता की ये पंक्तियां कि ‘लहरें, सूरज की तांबे की-सी चमक से, तार की तरह जलती हैं ’ समुद्र के चित्र को संगीत के विचार से जोड़ती हैं। यह कविता की कुंजी-पंक्ति है। कविता के अन्तिम रूप में वह इस प्रकार आयी हैः

कुछ दिन होते हैं ऐसे, जब प्रसन्न-मन समुद्र, ज़मीन के नीचे
अनछिड़ी वीणा-सा लेटा रहता है।
दोपहर सारे तारों पर स्वर्णलेपन कर
उन्हें नयनों के प्रज्वलित संगीत से झंकृत कर देती है।
उन मृद-झंकृत लपटों के बीच के दर्पणमय पथ पर,
गुलाबों, घोड़ों और मीनारों से पटा समुद्र-तट
लहर-चिन्हित बालू के ऊपर चित्रित हुआ, जल में विचरण करता है।

कविता-रचना में किया गया यह परिश्रम अद्भुत रूप से सफल हुआ है किन्तु स्वतःप्रेरणा के बिना तो सृजन असम्भव है। कविता-रचना में नैसर्गिक प्रेरणा का क्या स्थान है?

कविता-रचना में, स्वतःप्रेरणा के अतिरिक्त, शेष सब परिश्रम और काम ही काम है। यह बात और है कि ‘परिश्रम या काम’ का अंश द्रुत गति से कुछ ही क्षणों में एक ही झटके में हो जाये, या कि वह धीमी गति से मंज़िल-दर-मंज़िल विकसित होकर पूरा हो। स्वतःप्रेरणा कविता का प्रारम्भ है और अन्तिम लक्ष्य भी। वह पहला विचार है, जो कवि के मानस में उपजता है, और वह अन्तिम विचार है, जिसे वह शब्दों द्वारा प्राप्त करता है। मेरे स्वतः प्रेरणा के अनुभव में एक पंक्ति, एक शब्द या एक विशेष वाक्यविन्यास झलकता है- या कभी-कभी एक अस्पष्ट, धुंधला-सा विचार का बादल मन पर छा जाता है, जिसको घनीभूत कर शब्दों की रिमझिम द्वारा बरसाने को जी चाहता है।

‘ए लैंग्वेज ऑफ़ फ्लैश एण्ड रोजे़ज़’ पंक्ति के साथ-साथ बहुत से अनुभव और विचारों का घटाटोप मन पर है- जो सम्भवतः वर्षों बाद कविता रूप में बरसे। इस पंक्ति की प्रेरणा का स्रोत एक घटना या स्थिति हैः मैं ब्लैक-कंट्री में से गुज़रती हुई ट्रेन के एक कॉरीडोर में खड़ा था। मेरी आंखों के सामने एक भू-दृश्य था, जहां पेट्रोल निकालने के कुएं खुदे हुए थे, जहां कृत्रिम पर्वत निर्मित थे, जैसे धरती की देह पर पीले दांत लगे ज़ख़्म हों। ऐसा लगता था जैसे किसी भयानक जंगली जानवर ने या दैत्य ने शिकार या खजाने की खोज में, धरती की खाल उधेड़ कर, उसे चीर फाड़ डाला हो। इसी समय वहां खड़े एक अन्य आदमी ने जैसे मेरे मन की बात कह दी- ‘‘यह सब कुछ मनुष्य निर्मित है।’ इसी क्षण मेरे मस्तिष्क में यह पंक्ति चमक उठी - ‘‘ए लैंग्वेज ऑफ फ्लैश एण्ड रोजे़ज़ । इस लाइन के मन में आने से पहले मेरा विचार-क्रम कुछ इस प्रकार था-

‘‘यह औद्योगीकृत भू-दृश्य जहां मालिक और श्रमिक, दोनों जीवन की इस जकड़न में कुछ इस तरह धंस गये हैं, जैसे यह भी ईश्वर द्वारा निर्मित हो- पर वास्तव में यह द्रश्य मनुष्य की इच्छा से बना है। इसी प्रकार जो भी दुनिया हमने निर्मित की है, जिसमें बिजली है, तार हैं, गन्दी बस्तियां और समाचारपत्र हैं, हमारी ही आन्तरिक इच्छाओं और विचारों की अभिव्यक्ति हैं। किन्तु ऐसा होते हुए भी, हमारी यह भाषा, हमारे वश से बाहर हो गयी है। यह अत्यन्त उलझी, उत्तरदायित्वहीन, सनकी बड़बड़ाहट है। इस विचार ने मुझे बहुत पीड़ित किया। मैं सोचने लगा कि यदि मानव-कृत दृश्य, वस्तु या तथ्य, वास्तव में शब्दों ही जैसे हों, तो भाषा का वह क्या स्वरूप है जिसकी ओर हम उन्मुख हैं? इन विचारों की श्रृंखला के उत्तर के रूप में यह पंक्ति मेरे मन में कौंधी-‘ए लैंग्वेज ऑफ फ्लैश एण्ड रोजे़ज़।"

जब विचारों की श्रृंखला, प्रेरक स्थिति से उत्पन्न प्रतिक्रिया आदि सब मानस में है, तो प्रेरणा-पंक्ति को कविता के रूप में पूरा करने में असमर्थता कहां है?

जो कविता मैं लिखना चाहता हूं, उसको समझाना कितना सुगम है। काश, कविता लिखना भी ऐसा ही होता! लिखने के अर्थ हैं, इन सब अमूर्त विचारों के प्रतिबिम्बित अनुभवों को जीने का प्रयत्न अनन्त धैर्य और जागरूकता की अपेक्षा रखता है।

इसके अर्थ हैं कि कवि की स्मरण-शक्ति भी विशेष प्रकार की होती होगी जो वर्षों पहले प्राप्त प्रेरणा को मन में इस प्रकार सुरक्षित रख सकती है कि वह पुनः जाग्रत हो सके..

अवश्य। कवि वह व्यक्ति है, जो कुछ संवेदन प्रक्रियाओं के प्रभाव को, जिसकी अनुभूति में से वह गुजर चुका है, कभी नहीं भूलता। वह बार-बार उन अनुभवों को जी सकता है, उसी तीव्र एवं नवीन अनुभूति के साथ जैसा कि प्रारम्भ में जिया था। इसलिए यद्यपि टेलिफ़ोन-नम्बर, पते-ठिकाने या देखे हुए चेहरों के बारे में मेरी स्मृति बहुत कमज़ोर है किन्तु कुछ अनुभवगत संवेदनाएं जो मेरे चारों ओर घनीभूत होकर जम गयी हैं, मेरी स्मृति से नहीं जातीं । इसी आधार पर पुरानी अधूरी कविताओं के खण्डित अवशेष तत्काल ही मुझे उसी प्रारम्भिक संवेदनशील अनुभवों में पहुंचा देते हैं, जहां से वे संवेदनाएं उपजी थीं और जिन परिस्थितियों में वह ग्रहण कर लिखी गयी थीं।

किन्तु अतीत की अनुभूत संवेदनाओं की स्मृति में डूबने के स्थान पर कल्पनाजनित संवेदनाओं के सृष्टि करना क्या काव्य रचना के लिए अधिक सुगम नहीं?

कल्पना भी तो स्मरण-शक्ति का ही अभ्यास है। जिस वस्तु से पहले से ही हम परिचित नहीं, उसकी कल्पना ही कैसे कर सकते हैं? हम अपने गत अनुभव को स्मरण-शक्ति द्वारा पुनर्जीवित कर, किसी भिन्न स्थिति में प्रयुक्त करते हैं-यही कल्पना करने की क्षमता है।

आप कविता-रचना किसी आन्तरिक विवशता से करते हैं या...?

मेरे विचार से तो आन्तरिक विवशता या कविता-लेखन में विश्वास या अनुभूतियों की तीव्रता कवियों को जीवित रखती है। मैं जब नौ वर्ष का था, तब मैं लेक डिस्ट्रिक्ट गया, जहां मेरे माता-पिता ने कवि वडर्सवर्थ की कुछ कविताएं मुझे सुनायीं। तभी मुझे लगा कि कवि का काम भी उतना ही पवित्र है, जैसे किसी सन्त-साधु का। कवि महत्वाकांक्षी होते हैं, किन्तु उनकी महत्वाकांक्षा यही होती है कि अपने अन्तरंग अनुभवों, सूक्ष्मतम संवेदनाओं, गहरी प्रतीतियों और अत्यधिक ईमानदारियों के दर्पण में वे जिस भी रूप में प्रकट हों उसी रूप में स्वीकार्य हों। वे इन मामलों में खुद को में धोखा नहीं दे सकते क्योंकि कविता में अभिव्यक्त उत्कर्ष-भावनाओं से कविता-व्यक्तित्व प्रकट नहीं होता, बल्कि कविता में निहित संवेदनशीलता, भाषा-संयम, लय और संगीत, कवि के व्यक्तित्व की ही प्रति-छवि । इसलिए कविता-रचना का आह्वान, अपनी ईमानदारी और उद्देश्य के प्रति समर्पण भावना में पूरा भरोसा कवि के निष्ठावान होने के सबूत हैं । इस निष्ठा के साथ ही साथ, गहरी विनम्र भावना भी आवश्यक है। उसे अपने को पूरी तरह निरावृत्त करके अपनी सम्पूर्ण बोध क्षमता, अनुभूति-गहनता और कुशलता के साथ काल के निर्णयात्मक विधान के समक्ष खड़ा होना है।

यह तो हम कविता-रचना से उठ कर कवि-व्यक्तित्व के दर्शन तक पहुंच गये।

कविता-रचना की बात इस दर्शन के बिना खोखली-सी लगती है। मेरी डायरी के एक पन्ने पर लिखा हैः ‘‘मुझे वह विनम्रता और विवेकशीलता प्रदान करें कि मैं स्व-सर्जित सन्तोष की गहराई और समृद्धि में अकेला रह सकूं, तिरस्कार या अस्वीकृति का एक शब्द भी मुझे सन्देह में न डाल सके’’।

आपने कहा कि कवि का व्यक्तित्व कविता की लय और संगीत में सचाई से झलकता है। कविता और संगीत का अन्तरंग नाता आपकी अनुभूति में किस प्रकार संयोजन पाता है?

नैसर्गिक प्रेरणा और गीत, दोनों अन्तिम अकाट्य गुण हैं, कवि को अन्य व्यक्तियों से पृथक अस्तित्व प्रदान करते हैं। प्रेरणा, वह अनुभूति या मनःस्थिति है, जिसमें व्यक्ति को एक पंक्ति या विचार प्राप्त होता है या वे क्षण जिन में वह उत्तम रचना करता है। किन्तु गीत को समझाना अधिक कठिन है।

किसी समय जब मैं अर्द्ध चेतन या अर्द्ध सुप्त अवस्था में लेटा रहता हूं, तो मुझे बोध होता है जैसे शब्दों का प्रवाह मेरे मानस में से गुजर रहा है - उनका कोई अर्थ नहीं है, पर उनमें ध्वनि है। यह ध्वनि आवेश-ध्वनि होती है या वे स्वर किसी जानी-पहचानी कविता का स्मरण दिलाते हैं। रचना करते समय उन शब्दों का संगीत, जिन्हें मैं रूपाकार दे रहा हूं, मुझे शब्दों से बहुत दूर ले जाता है। मेरी चेतना में आ बैठते हैं, एक लय, एक नृत्य, एक तूफ़ान - जो शब्दों से शून्य होते हैं।

पूरी कविता लिखी जाने के बाद की अनुभूति कैसी होती है?

निःसंदेह जिस समय कविता की परिणति सफलता को प्राप्त होती है, तो एक प्रगाढ़ शारीरिक उत्तेजना, एवं विमुक्ति और चरम आनन्द की भावना की अनुभूति होती है। कविताओं ने सबसे बड़ा सुख मुझे उस समय दिया है जब मैंने अपनी कुछ पंक्तियों को दूसरों के द्वारा उद्धृत होते सुना है, और यह बिना पहचाने कि वे मेरी हैं, मित्र से मैंने कहा: ‘कितनी बढ़िया लाइनें हैं- कितनी मनभावनी !’