खून भरी माँग / विमल चंद्र पांडेय
उनकी आँखों में जो मुझे दिखाई देता था वह फिर मुझे कभी और कहीं नहीं दिखा। उसकी परिभाशा देना मुश्किल है लेकिन उन्हें समझना कतई मुश्किल नहीं था। चीजें दिमाग में इतनी स्पष्ट नहीं हैं और मुझे शुरुआत का इतना याद आता है कि इस दुनिया को मैंने उनकी ही नीली आँखों से देखना शुरू किया था। वह हमेशा मुझे अपने पुराने दिनों में बैठी दिखाई देती थीं, जहाँ मैं हाफ पैंट पहने उनके पीछे-पीछे घूम रहा होऊँ और वह मुझे ढेर सारी कहानियों में गुमा दे रही हों। हम उन्हें किरन बुआ कहते थे और जीतेंद्र उनका पसंदीदा हीरो था, यह बात पूरे मुहल्ले पर उसी तरह जाहिर थी जिस तरह यह जाहिर था कि मुझे स्कूल जाना एकदम नहीं पसंद। मुझे उस मासूम उम्र में एक अँधेरे हॉल में सैकड़ों जगमगाती रोशनियों के बीच पहली बार वही लेकर गई थीं। सभी लोग दम साधे किसी एक चीज का इंतजार कर रहे थे तो मैं भी करने लगा। वह मेरी उँगली थामे अंदर जाकर दाहिने मुड़ी थीं और एक सीट पर बैठ गई थीं। मैं उनकी बगलवाली सीट पर बैठा था कि अचानक सामने के परदे पर रंगों के इंद्रधनुष उतर आए। जो संगीत बज रहा था उसकी झनकार मुझे उन रंगों के रथ पर बिठा कर दूसरी दुनिया में ले जा रही थी। मैं सिनेमा हॉल में बैठकर अपनी जिंदगी की पहली फिल्म देख रहा था। फिल्म का नाम ‘आखिरी रास्ता’।
किरन बुआ का घर हम लोगों के घर के ठीक बगल में था। उनके पिता जी नहीं थे और माँ व भाई मिलकर घर चलाते थे। भाई अंडे का ठेला लगाता था और दोपहर से ही उनकी माँ एक बड़े परात में प्याज काटना शुरू देती थीं। शाम होने पर उनका भाई अंडे के ठेले पर अंडों की ट्रे सजाता और नदेसर चौराहे की तरफ निकल जाता। उनकी माँ का पसंदीदा काम औरतों से बातें करना और अपने रिश्तेदारों को कोसना था। किरण बुआ की उम्र उस समय 17 या 18 रही होगी। मैं दूसरी क्लास में पढ़ता था और किरण बुआ के सबसे करीब था।
फिल्में उनकी जान थीं। वह हमारे घर से अक्सर अचार माँग कर ले जाती थीं और कहती थीं कि उनकी माँ को नहीं पता चलना चाहिए नहीं तो वह बहुत मार खाएँगीं।
हमारे घरवाली सड़क के दूसरी तरफ यानी सड़क पार करने पर फिल्मिस्तान टॉकीज था जिसमें किरण बुआ नियमित रूप से फिल्में देखने जाती थीं। कोई भी नई फिल्म लगने पर उस दिन बहुत भीड़ होती थी इसलिए बुआ अक्सर शुक्रवार को लगी फिल्म को देखने के लिए सोमवार या मंगलवार का दिन चुनती थीं। मैं हमेशा उनके साथ होता था। मैं एक छोटा बच्चा था और छोटे बच्चे इस बात की अघोषित गारंटी लेते थे कि उनके होते कोई अनैतिक कार्य नहीं किया जा सकेगा। पहली बार के बाद मैंने किरण बुआ के साथ हर हफ्ते एक के हिसाब से एक साल में इतनी फि़ल्में देख लीं कि मेरे दोस्त मुझसे ईर्ष्या करने लगे। कटिंग मेमोरियल के उस बड़े से मैदान में जब आधी छुट्टी में सभी दोस्त पकड़ा-पकड़ी और विष-अमृत खेलते, मैं चार-पाँच लड़के लड़कियों से घिरा किसी नई फिल्म की कहानी सुना रहा होगा। फि़ल्मों की कहानियाँ सुनाने की कला मैंने उनसे ही सीखी थी। फिल्में देखना उनका नशा है, ये बात मुहल्ले में सबको पता थी और इससे किसी को ऐतराज नहीं था। यह ऐसा समय था जब लोगों को कम ऐतराज हुआ करते थे और दिलों में प्यार ज्यादा हुआ करता था।
मैं धीरे-धीरे उनका राजदार और साथी बन गया था। ‘खुदगर्ज’ देखते वक्त जब वह मुझे बिठाकर कुछ देर के लिए गायब हुईं तो मुझे लगा कि वह बाथरूम गई होंगीं लेकिन जब वह पंद्रह बीस मिनट बाद आईं तो थोड़ी घबराई और अस्त व्यस्त सी लगीं। फिर इसके बाद यह नियम ही हो गया। वह हर फिल्म में मुझे बैठा रहने को कह गायब हो जातीं। उनके जाने और आने के बीच का अंतराल बढ़ता गया। पहले वह पंद्रह बीस मिनटों में वापस आ जाती थीं, फिर एक-एक घंटे तक गायब रहने लगीं। मैं कुछ पूछता तो उदास हो जातीं। जब ऐसा उन्होंने जीतेंद्र और रेखा की एक फिल्म में किया तो मुझे कुछ शक सा हुआ। जीतेंद्र उनका आराध्य था और रेखा उनके लिए धरती पर किसी चमत्कार जैसी थी। उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी इच्छा थी कि जीतेंद्र और रेखा शादी कर लें। मैं उनके उठने के दस मिनट बाद उठा और बाथरूम के पास चला गया। मुझे बाथरूम के पीछेवाली दीवार से कुछ आवाज आई तो मैं उधर ही चला गया। मैंने देखा हमारे मुहल्ले का हसन, जो हॉल में टिकट चेक करता था, किरण बुआ को दीवार पर लगाए उनके होंठों को चूम रहा है। किरण बुआ उसका सिर सहला रही थीं। थोड़ी देर बाद किरन बुआ ने उसे पीछे धकेला तो वह हँसने लगा।
‘कहाँ जाएँगे...?’ किरन बुआ ने पूछा था।
‘कहीं भी... जहाँ भी सिनेमाहॉल होगा हमारी नौकरी लग जाएगी। जितना पैसा मिलेगा उतने में हम खाना खा लेंगे और तुम पिक्चर देख लोगी।’ हसन ने बुआ का हाथ पकड़ते हुए कहा। बुआ ने उसकी हथेलियों को अपने चेहरे से सटाते हुए कहा।
‘कितना अच्छा लगता है न...? हमको खाना तीन-चार दिन पे भी मिले तो हम काम चला लेंगे बस तुम नौकरी यही करना कि हम लोग खूब पिक्चर देख सकें।’
हसन ने उन्हें बाँहों में भर लिया था और यही पल था जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी। वह झटके से बुआ को अलग हो गया। ‘राजू... चलो पिक्चर देखो यार’ उसने मुझसे कहा। बुआ की नजर मुझसे मिली और वह चुपचाप हॉल में घुस गईं। मुझे अचानक लगा कि मैं बहुत बड़ा हो गया हूँ और एकदम अवांछित भी। उसी पल मेरे मन ने तमन्ना की कि मुझे कभी बड़ा नहीं होना है। क्या फायदा ऐसा बड़ा होने का कि लोग आपसे डर जायँ? मैं बुआ को खुश देखकर खुश था लेकिन मुझे देखकर उनके चेहरे पर जो डर उभरा था उसने फिल्म देखने का मेरा पूरा मजा किरकिरा कर दिया।
रास्ते भर बुआ ने मुझसे कोई बात नहीं की। लौटते वक्त हम फिल्मों के नशे में लौटते थे और गाने और कलाकारों की तारीफें करते हुए घर पहुँचते थे लेकिन उस दिन हम दोनों खामोश रहे। मुझे रात भर नींद नहीं आई और डर सताता रहा कि अब बुआ मेरे बिना फिल्में देखने चली जाया करेंगी तो मेरा क्या होगा।
अगले दिन बुआ ने मुझे नीचे मैदान से खेलते हुए बुलाया और कहा कि वह उस लड़के से प्यार करती हैं जैसे जीतेंद्र रेखा से करता है और उससे शादी करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती हैं। वह फिल्मों के संवादों में बात कर रही थीं और ये सुनना मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं खुद को अपनी उम्र से बड़ा महसूस कर रहा था। मैंने उनका हाथ पकड़ कर वादा किया कि मैं किसी को कुछ नहीं बताऊँगा और मेरी मदद की जो भी जरूरत पड़े वो मुझे बेझिझक बताएँ। मुझे पता नहीं चला कि मैं भी फिल्मी संवादों में बात करने लगा था।
अगली दो-तीन फिल्में शायद किरन बुआ की जिंदगी की सबसे खूबसूरत फिल्में थीं। मुझे हॉल में बिठाकर वह हसन से मिलने चली जातीं और दोनों एक दूसरे को बाँहों में भरे किसी कोने में अपने भविष्य के सपने देखते। बुआ हर फिल्म को दो बार देखतीं क्योंकि एक ही बार वह हॉल में पूरे वक्त मौजूद रहतीं।
जिस दिन हम ‘तमाचा’ देखकर घर लौटे थे उस दिन मुझे दो और किरन बुआ को अनगिनत तमाचे पड़े थे। यह घटना ऐसी थी कि मुझे जिंदगी भर के लिए उस फिल्म का नाम और उसकी कहानी याद हो गई। किसी ने उनके बारे में उनके भाई को पता नहीं क्या बताया था कि अगली सुबह मेरी भी वहाँ पेशी हुई।
‘हसनवा को जानते हो? देखे हो इसके साथ कभी? पिक्चर में से निकलती है कि नहीं बीच में ये? एक ही पिक्चर दो-दो बार क्यों जाते हो तुम लोग देखने? कितना देर तुम्हारे साथ रहती है ये...?’ किरन बुआ के भाई के पास अनगिनत सवाल थे। मैंने सबके जवाब में सिर्फ यही कहा कि जो फिल्म मुझे अच्छी लग जाती है उसे दुबारा देखने के लिए मैं ही किरन बुआ से जिद करता हूँ और किरन बुआ पूरी फिल्म भर मेरे ही साथ रहती हैं। मेरी बात का विश्वास नहीं किया गया और किरन बुआ ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उनके भैया उन्हें लातों से पीटने लगे।
‘साली कटुए के चक्कर में इज्जत डुबाएगी हमारी... हरामजादी।’ किरन बुआ की माँ भी अपने बेटे को किरन बुआ को मारने के लिए उकसा रही थीं। मैं रोने लगा और उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे धक्का दिया जिससे मेरा सिर वहीं रखी लोहे की कुर्सी से टकराया और मैं रोता हुआ घर आ गया। घर आकर मैंने पापा को सब कुछ बताया और किरन बुआ को बचाने को कहा तो उन्होंने मुझे दो तमाचे मारे और कहा कि मैं अपनी खैर चाहता हूँ तो उनके घर की ओर देखूँ भी नहीं।
इसके बाद सब कुछ बहुत जल्दी-जल्दी हुआ। एक दिन भोर में हसन की लाश फिल्मिस्तान के पीछे पाई गई। पुलिस ने बताया कि हसन को जुआ खेलने की आदत थी और किसी से उधार लेकर उसने जुआ खेला था, उधार वक्त पर चुकता न कर पाने के कारण उसकी हत्या कर दी गई। उसी महीने के अंत तक किरन बुआ की शादी तय कर दी गई।
बुआ सिर्फ बालकनी पर कभी-कभी दिखाई देती थीं। उनकी आँखें हमेशा सूजी रहतीं और वह न जाने कहाँ देखा करती थीं कि बहुत कोशिश के बावजूद मेरी आँखों से उनकी आँखें मिलती ही नहीं।
उनकी शादी में मैं नई कमीज पहन कर गया था और मैंने छह गुलाबजामुन खाए थे। वह विदाई के समय इतना रोईं कि पूरा मुहल्ला वीरान लगने लगा। डोली में बैठने से पहले वह मेरे गले लग के भी खूब रोईं।
उनके जाने के बाद मुहल्ला सूना हो गया। मैं स्कूल से आते वक्त नई नई फिल्मों के पोस्टर देखता और उन्हें देखने के लिए तड़पता रहता लेकिन मुझे कौन दिखाता फिल्में। पापा से कहता तो वह कहते कि मैं फिल्में समझने लायक हो जाऊँ तब वह दिखाने ले चलेंगे।
एक दिन मैं स्कूल से लौट कर आ रहा था। रास्ते में लगे ‘खून भरी माँग’ के पोस्टर जो मुझे एक हफ्ते से परेशान कर रहे थे। मैं किरन बुआ को याद करता आ रहा था कि रेखा की फिल्म उन्होनें मुझे पहले ही दिन दिखा दी होती। फिल्म मारधाड़वाली लग रही थी और मुझे किरन बुआ की रोमांटिक फिल्मों की तुलना में ऐसी ही फिल्में ज्यादा पसंद आती थीं। पोस्टर घर लौटते तक मेरे दिमाग में छा चुका था - राकेश रोशन की प्रस्तुति खून भरी माँग, संगीत राजेश रोशन, गीत इंदीवर। मैं पागलों की तरह सोच रहा था कि कैसे देखूँगा ये फिल्म। मेरे दिमाग में पोस्टर के आधार पर पचासों कहानियाँ दौड़ रही थीं।
जब मैं घर पहुँचा तो खुशी से मेरी किलकारी फूट पड़ी। किरन बुआ मेरे घर में बैठी माँ से बातें कर रही थीं। मैंने अपना बस्ता फेंका और दौड़ कर उनसे लिपट गया। वह मेरे सिर पर हाथ फिराने लगीं।
‘कैसे हो राजू?’ उनकी आवाज सिर्फ दो-ढाई महीनों में ही इतनी बदल गई थी कि पहचान में नहीं आ रही थी। एकदम टूटी हुई आवाज, बिखरी सी जैसे रात भर टपकती ओस में भीग कर नम हो गई और कहीं कोई धूप न हो। मैं उनसे जोर से लिपट गया। वह जाने लगीं तो मेरी आँखें भर आईं। उन्होंने मेरा माथा सहलाया, ‘आदमी होके रो रहे हो? आदमी बहुत ताकतवर होता है। रोओ मत, शाम को बरामदे में मिलेंगे।’
बरामदा एक तरह से हमारे मोहल्ले की चौपाल था जहाँ औरतें और बच्चे शाम को बैठ अपनी-अपनी दुखों की गठरी खोल कर आपस में साझा किया करती थीं।
शाम को जब पापा आ गए और मैंने होमवर्क उन्हें दिखा लिया तो बरामदे में जाने के लिए निकलने लगा। माँ ने पापा से कुछ कहा जिसमें मुझे इतना ही समझ में आया कि किरन बुआ के ससुरालवाले बजाज चेतक माँग रहे हैं और उन्हें यहाँ मारपीट कर वापस यह कहकर भेजा गया है कि वापस तभी आएँ जब उनका भाई बजाज चेतक खरीद कर वहाँ पहुँचा आए। मैं इस बात का मतलब ठीक से नहीं समझा और जितना समझा उसमें मुझे यही लगा कि मार खाना कोई बड़़ी बात नहीं और चेतक खरीद कर जितने दिन नहीं दिया जाएगा उतने दिन मैं किरन बुआ के साथ रह सकूँगा।
जब मैं बरामदे में पहुँचा तो बुआ बैठी एक पत्रिका पढ़ रही थीं। मैंने उन दिनों की अपनी सबसे बड़ी समस्या उनसे साझा की। ‘खून भरी माँग’ जरूर बहुत शानदार पिक्चर होगी और हमें उसे देखना चाहिए, मैं उनके आने का कैसे भी फायदा उठा लेना चाहता था। वह एक बिना चीनी की मुस्कराहट मुस्कराईं और मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने पास बिठा लिया।
‘मैंने तो देख लिया।’ मेरा चेहरा बुझ सा गया। उन्होंने मेरी ठुड्डी ऊपर उठाते हुए पूछा, ‘कहानी सुनोगे ?’
‘हाँ हाँ ...सुनाइए।’ मैं उत्साहित हो गया। उनसे कहानी सुनना किसी फिल्म देखने से कम नहीं था। वह एक-एक डायलॉग बोलकर फिल्मों की कहानियाँ दो-दो घंटे, फिल्म बहुत अच्छी हुई तो दो तीन दिन में सुनाती थीं। उनके फिल्म सुनाने की बात सुनकर पास खेल रहे मेरे एकाध दोस्त और खिसक आए। आखिर किरन बुआ बहुत दिन बाद किसी फिल्म की कहानी सुनाने जा रही थीं। इसके पहले जब मैंने उनसे जीतेंद्र की फिल्म ‘मजाल’ सुनी थी तो उसका असर इतना तगड़ा था कि इत्तफाकन उसे कुछ महीनों बाद हॉल में देखा तो किरन बुआ की सुनाई हुई फिल्म ज्यादा अच्छी लगी थी। बुआ की कहानी में जिस तरह से जीतेंद्र ने काम किया था वैसा काम न फिल्म में उसने किया और न ही श्रीदेवी या जया प्रदा उतनी सुंदर लगीं जितनी बुआ की कहानी में लगी थीं।
बुआ की आवाज की उदासी बरकरार थी। कहानी में शुरू में वह ऊर्जा महसूस नहीं हुई लेकिन जैसे ही कहानी ने दस मिनट का सफर तय किया, किरन बुआ की न जाने कहाँ खो गई ऊर्जा वापस आने लगी।
‘फिर एक दिन सुंदरवाली रेखा अपने पति से कहती है कि मुझे अपनी जायदाद में दूसरा हिस्सेदार नहीं चाहिए।’ यह कहती हुई बुआ खड़ी हो गईं। ‘टेन टेणान टेन टेन... इसके बाद बेचारी जो गरीबवाली रेखा है, उसको मारने के लिए सुंदरवाली घमंडी रेखा गुंडा भेजती है... डिन डिन डिन डिन.. टेन टेणेन..।’ किरन बुआ पूरी तरह फॉर्म में आ चुकी थीं और जब रेखा को मारने के लिए पहुँचे गुंडे उस पर हमला करने लगे उन्होंने बाकायदा हाथ पाँव चलाकर पहले की तरह पूरी फिल्म उपस्थित कर दी। हँसीवाले मौकों पर उनकी आवाज, उनकी आँखें उनका पूरा शरीर हँसने लगता और भावुक पलों पर पूरा मोहल्ला भावुक हो जाता।
कहानी कुछ यूँ थी कि एक ही अमीर बाप की दो बेटियाँ थीं जिनमें एक सुंदर और दूसरी कुरूप थी। सुंदरवाली बहुत घमंडी थी और कुरूपवाली बहुत आज्ञाकारी थी। रेखा का इसमें डबल रोल था। बाप के मरने के बाद सुंदरवाली अपने मन से शादी कर लेती है और कुरूपवाली को अपनी मर्जी से शादी नहीं करने देती। कुरूप रेखा राकेश रोशन से प्यार करती है, सुंदरवाली रेखा उसे मरवा देती है। सुंदरवाली रेखा कुरूपवाली रेखा से घर के सारे काम करवाती है और उसे बहुत मारती है। एक दिन उसे लगता है कि कहीं कुरूप वाली रेखा उसकी जायदाद में से हिस्सा न माँग ले, इसलिए वह अपने पति कबीर बेदी से एक ऐसी माँग करती है जिसे सुन कर वह घबरा जाता है। वह उससे माँग करती है कि वह उसकी बहन को मार डाले। उसकी ‘खून’ से ‘भरी’ यह ‘माँग’ सुनकर उसका पति डर जाता है लेकिन उसे अपनी पत्नी की यह ‘खून भरी माँग’ पूरी करनी पड़ती है। वह उसकी हत्या कर देता है। कहानी के अंत के बारे में किरन बुआ हम बच्चों को संतुष्ट नहीं कर पाईं। उन्होंने बताया कि कुरूपवाली रेखा के मरने के बाद उसका घोड़ा उसी तरह उसकी मौत का बदला लेता है जैसे तेरी मेहरबानियाँ में कुत्ते ने लिया था। हम बच्चे अंत से बहुत खुश नहीं थे लेकिन फिल्म हमें बहुत पसंद आई थी। पूरी फिल्म सुनाने में किरन बुआ ने दो घंटे लिए थे और फिल्म खत्म होने के कुछ ही देर बाद जब वह गली में गोलगप्पेवाले को रोककर गोलगप्पे खानेवाली थीं कि उनकी माँ ने उन्हें आवाज दी और वह चली गईं।
यह हमारी आखिरी मुलाकात थी। इसके कुछ ही महीनों बाद पापा ने उसी शहर के एक दूसरे मुहल्ले में जमीन खरीद कर दो कमरे बनवा लिए और हम लोग किराए का वह कमरा छोड़ कर वहाँ शिफ्ट हो गए। मैं छठवीं क्लास में आ गया था और अपने दोस्तों के बीच रमने लगा था। माँ बीच-बीच में अपने पुराने पड़ोसियों से मिलने पुराने मुहल्ले कभी-कभी जाती रहती थीं। एक दिन उन्होंने वहाँ से लौटकर बताया कि किरन आई है और तुझे पूछ रही थी। मैं आठवीं में चला गया था। माँ ने पापा से रोते हुए बताया कि बेचारी इतनी हँसमुख लड़की सिर्फ हडि्डयों का ढाँचा भर रह गई है। मैंने सोचा कि मैं किसी दिन मिलने जरूर जाऊँगा।
मैं नवीं क्लास में चला गया था जब माँ ने एक दिन लौटकर बताया कि किरन की अपने ससुराल में खाना बनाते समय जलने से मौत हो गई। मैं सन्न रह गया। माँ पापा से बता रही थीं कि स्कूटर देने के बाद से ही उसके ससुराल वाले सोने की चेन की माँग कर रहे थे। पिछली बार किरन ने रोते हुए उन्हें बताया था कि अगर उनकी माँग पूरी नहीं की गई तो वे लोग उसे मार डालेंगे। मुझसे और सुना नहीं गया। मैं वहाँ से हट गया। मुझे रुलाई भी आई लेकिन मैं उसे दबा ले गया।
जब मैं बारहवीं पास कर चुका था और बी. एससी. के कठिन मैथ और फिजिक्स से जूझने लगा था उन्हीं दिनों एक बदहवास से दिन दूरदर्शन पर शाम को ‘खून भरी माँग’ आने लगी। मेरा कहीं निकलने का प्लान नहीं था इसलिए मैं फिल्म देखने लगा वरना अब इस तरह की फिल्में मुझे पसंद नहीं आती थीं।
मैं जैसे-जैसे फिल्म देखता गया, मेरे भीतर कुछ भरता सा गया और कहीं कुछ खाली सा होता गया। फिल्म खत्म होते तक मैं पूरी तरह से भर कर एकदम खाली हो चुका था। न फिल्म में रेखा का डबल रोल था और न उसमें खून से भरी कोई माँग थी जिसे किसी को पूरा करने के लिए किसी का खून करना पड़े। मैं खुद को जज्ब करने की कोशिश में अचानक हिचकियाँ लेने लगा था। माँ दूसरे कमरे से आ गई।
‘क्या हुआ, रो रहे हो क्या?’ माँ ने पूछा।
‘नहीं, नहीं...।’ मैंने आँखें पोंछते हुए कहा। ‘उसे मार डाला...।’ मैंने बात सँभालने की कोशिश की।
‘किसे...?’ माँ घबरा गईं। उन्होंने टीवी देखा। टीवी पर रेखा अपनी हत्या की कोशिश करनेवाले कबीर बेदी को बुरी तरह मार रही थी।
‘रेखा को...।’ मैंने कुछ शर्मिंदा होकर सामान्य होना चाहा।
‘बेवकूफ हो क्या... रेखा जिंदा है। वही तो बदला ले रही है। पिक्चर का तुम्हारा कीड़ा न...।’ माँ बड़बड़ाती हुई बाहर चली गईं।
मैंने छत की ओर देखा और एक लंबी साँस लेने की कोशिश की। एक छिपकली छत पर थी और एक सीने में आकर फँस गई थी।