खूबसूरत कविताओं से गुज़रते हुए / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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खूबसूरत कविताओं से गुज़रते हुए (मंजु मिश्रा)


कविता लिखने और कविता रचने में बहुत बड़ा अन्तर है। रचने का काम तो तभी हो सकता है, जब भाव या विचार मन के सागर का मन्थन कर डालें। हर युग में हर विधा में मैराथन दौड़ वाले हुए हैं, जिनका काम है हारें या जीते दौड़ में शामिल होकर बस नाम हो जाए. काव्य-रचना मैराथन दौड़ नहीं है। सारे काम सायास हो सकते हैं; पर काव्य-रचना नहीं। इसका संवेग जब जाग्रत होगा, उस समय रचना कवि को बाध्य कर देगी कि वह उसे लिखे। रचना आकार पा गई तो सही वर्ना काफ़ूर हो जाएगी। हिन्दी-जगत बहुत व्यापक है। कविताओं का अम्बार और कवियों की भीड़ हर शहर में मिल जाएगी; लेकिन संवेदना से परिपूर्ण काव्य तलाशना बहुत कठिन है। लगभग दो साल पहले मंजु मिश्रा की कविताओं को पढ़ने का अवसर मिला। पढ़कर मैं चौंका-'इतना बेहतर लिखने वाली इस कवयित्री की रचनाएँ मैं अब तक क्यों नहीं पढ़ सका?' कारण था-इनका संकोची स्वभाव। बहुत कम शब्दों में अपनी बात कहना कठिन है; लेकिन इनकी छोटी कविताएँ गज़ब की त्वरा लिये होती हैं। क्षणिका ताँका, हाइकु में भी वह दिखाई पड़ती है। इसका कारण हैं-इनका व्यापक अनुभव, जीवन के प्रति संतुलित और सुलझी हुई सोच।

मेरी बिटिया कविता देखिए, जिनमें नन्हा-सा धूप का टुकड़ा कहकर उसके महत्त्व को भी प्रस्तुत कर दिया है। धूप के टुकड़े का 'सीलन भरे घर में आना और दीवारों के आँसू पोंछ जाना' अपने में गहन व्यंजना समाए हुए है। दीवारों के आँसू पोंछना खुद में बहुत गहरी व्यथा की ओर संकेत करता है कि घर की दीवारों के बाहर दु: ख को प्रकट नहीं किया तो दीवारें गीली हो उठीं। यह खुद को जज़्ब करने वाले की व्यथा की पराकाष्ठा है-

तुम / एक नन्हा–सा धूप का टुकड़ा

जो सीलन भरे घर में आए और / दीवारों के आँसू पोंछ जाये!

इसी धूप के टुकड़े के साथ ज़िन्दगी का भी सूर्योदय हो गया। मंजु जी की यह कविता दीवार के आँसू भले ही पोंछ दे पर पाठक के मन को विगलित ज़रूर कर देती है। -

तुम, / भोर का सूरज, / तुम्हारे साथ / ज़िंदगी की सुबह आई!

बेटी से जुड़ी इनकी 'अगर तुम न होती, तो क्या होता?' कविता को देखिए. नन्हीं बेटी जीवन का पर्याय ही नहीं वरन् दु: ख के दिनों में एक आश्वासन बन जाती है, पिंघलते तूफ़ानी क्षणों में उबारने वाला सहारा बन जाती है—मेरी नन्ही–सी बेटी,। मेरी माँ–सी बन कर / मेरा अस्तित्व थाम– / मुझे, भावनाओं के भँवर से निकालती; / अगर तुम न होती, / तो क्या होता?

कौन पोंछता मेरे आँसू, और / मुझे बाँहों से थाम कर– / गले लगाकर कहता, / मम्मा मैं हूँ ना!

XX -मैं ये धूप–छाँव–सी ज़िंदगी / जहाँ धूप ही धूप, / छाँव ढूंढे नहीं मिलती / तुम्हारी एक मुसकान,

तुम्हारा एक बोसा / प्यार से छलकती वह चितवन, / और नन्ही बाँहों का घेरा;

नहीं होता ये सब, / तो क्या होता? / अगर तुम न होती, तो क्या होता?

मातृत्व का सुख, उसकी सफलता, सृष्टि के इस वरदान के आनन्द की चरमानुभूति केवल स्त्री ही महसूस कर सकती है। इस कविता की प्रत्येक पंक्ति से ममता का जो स्रोत फूट रहा है, उससे पाठक की आँखें नम हुए बिना नहीं रह सकती। 14 जनवरी, 2012 का वह दिन सचमुच स्मरणीय बन गया, जब मंजु कैलिफ़ोर्निया से दिल्ली आई और अपनी मित्र सतबीर बेदी जी के यहाँ ठहरी। भेंट करने के लिए मैं सुभाष नीरव, संगीता स्वरूप और डॉ अनीता कपूर (आप मंजु जी से परिचित हैं और कैलिफ़ोर्निया में ही रहती हैं) पहुँचे। बातचीत कविता पर चली तो हमने मंजु जी से कविता सुनने का आग्रह किया। बहुत संकोच के साथ आपने 'मेरी बेटी' कविता सुनाई. एक गहरा सन्नाटा खिंच गया। सबको न जाने कहाँ से, कैसे मंजु जी का भीगा स्वर भिगो गया। कविता का कथ्य और तदनुरूप स्वर लहरी अर्थ के निगूढ़तम आयाम को सहजता से संवेद्य बना रही थी। ये पंक्तियाँ देखिए—तेरी साँसों से जीती हूँ, / तेरी साँसों से मरती हूँ। / गरज ये बस कि दुनिया में, /

तेरी खातिर ही जीती हूँ। / उम्मीदें बाँध कर रखी हैं, / पलकों के किनारों पर।

खुशी के फूल खिलते हैं, / मेरे दिल के चिनारों पर।

XX

दिया है क्या हसीं तोहफ़ा / मुझे किस्मत के मालिक ने, / बना कर माँ तेरी मुझको,

दुनिया मुझको दे डाली।

भाव-कल्पना और विचार को सम्प्रेषित करने के लिए सही वाचन भी ज़रूरी है। इस काव्यात्मक ऊँचाई के दर्शन बेटी कविता में होते ही हैं। वाचन की कुशलता अर्थ की आन्तरिक छटाओं को प्रकट करने में बड़ी भूमिका निभाती है।

'बँधे जो नेह के बंधन' कविता में स्वप्नों को संगम पर तिरोहित करने की पीड़ा को कितने सहज भाव से कवयित्री संवेद्य बना देती है—आज मैंने / कर दिए, / सारे तिरोहित / स्वप्न अपने, / पुण्य संगम की सतह पर।

सत्य जानो! / छोड़ आया हूँ उन्हें / / पीछे, / / बहुत गहरे उतर कर।

कहीं ' बेजान रिश्तों की पीड़ा समाहित है। कहीं चाँद का सौन्दर्यबोध बदल गया है; क्योंकि भूखे के लिए रोमानी बाते निरर्थक है—भरे पेट को / सूझती हैं, / चाँद के साथ / रूमानी बातें, / वो! / जो दो वक्त की,

रोटी की जद्दो जहद में, / वक्त से पहले बूढ़े हो गए / चाँद का नूर क्या देखें,

कही आँगन की टूटी दीवार महत्त्वपूर्ण हो उठी, जिसमें से धूप झाँकती है। यहाँ यह टूटी दीवार क्यों महत्त्वपूर्ण बन गई? क्योंकि उसने अपने में से होकर धूप को झाँकने का मौका जो दे दिया—मेरे आँगन की टूटी दीवार से / जब धूप झाँकती है हर सुबह,

फूटती हैं ज़िंदगी की किरणें, / चटकती हैं हँसी की कलियाँ,

सहरा–सी ज़िंदगी बन जाती है, / नखलिस्तान एक ही पल में!

'नफरतों की फसल' जीवन के लिए घातक है। मंजु ने इस मानवीय दुर्बलता पर विजय प्राप्त का करने का सूत्र 'रिश्तों के बीच की माटी; को नम रखने का सुझाव दिया है। दिलों को टूटने से बचाने का प्रयास तभी सम्भाव है, जब रिश्तों में नमी हो अर्थात टूट से बचने का प्रयास भी नज़र आ जाए. कवयित्री ने यह चित्रण बड़ी सूक्ष्मता से किया है—रिश्तों के बीच / माटी, हमेशा / नम रखना, / ताकि वक्त–ए ज़रूरत' थोड़ा–सा सुधार कर

टूटने से बचा सको...

X -ये तो बस / कैक्टस या / यूँ कहें कि / नफरतों की फसल है! / जो, / एक बार शुरू हो

फिर नहीं रुकती, / जितना काटो / उतनी बढ़ती है।

नन्ही गौरैया अपनी तरह की अलग कविता है, माटी की सुगन्ध लिये, अतीत की स्मृतियों का सुखद पिटारा खोलते हुए. मंजु जी ने बड़ी सूक्ष्मता से अपने अनुभव-जगत को साझा किया है—आज माँ का आँचल, / बाबा की अठन्नी / और तुम! / बहुत याद आयीं / नन्ही गौरैया /

पल जो भटक गए / पल छिन / जो / मौन के अंतराली जंगल में / भटक गए, /

वे मरे नहीं / प्रेत बन गए.

विषयों का व्यापक क्षेत्र है आपके पास। पर्यावरण की चिन्ता आज का सबसे बड़ा सामाजिक सरोकार है। परिन्दों के बेदख़ल होने की पीड़ा इन पंक्तियों में बहुत तीव्रता से मुखरित हुई है—परिंदे बेदखल / दरख़्तों ने तो, अपनी / प्यास के पैग़ाम भेजे थे,

मगर सूखी हुयी नदियाँ, / भला करतीं तो क्या करतीं।

पलाश का अद्भुत सौन्दर्य एक 'हरे छींट पर लाल सूट' नए बिम्ब के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है-

हरे सूट पर लाल छींट–सा / पत्ते–पत्ते से झाँक रहा।

पुरवा पछुवा के संग मिलकर, / मौसम की खुमारी बाँट रहा।

खुद न बदलने वाले और नारेबाजी करके पूरी दुनिया को बदलाव लाने वालों की कमज़ोर नस पर चोट करते हुए कवयित्री उनके पाखण्ड को बेनक़ाब करते हुए कहती हैं—हम, आप, / सब चाहते हैं, / कि, सब कुछ, बदल दें, / बस, / खुद को छोड़ कर,

और / यही एक पेंच, / परिवर्तन का पहिया / चलने नहीं देता।

आपने रिश्तों पर बहुत मार्मिक बात कही है कि साथ रहने से ही रिश्ते स्थायी नहीं होते, उनके लिए आपसी समझ चाहिए और एक दूसरे को आड़े वक़्त में सँभालने की भावना—एक घर में / साथ रहने भर से / रिश्ते नहीं बनते!

रिश्ते बनते हैं / दिल से, / रिश्ते होते हैं / एक–दूसरे को / सँभालने के लिए...

रिश्ते–रिश्ते हैं कविता में इनका अनुभव जगत और अधिक खुलकर सामने आया है। रिश्तों का आदत बनना सबसे अधिक पीड़ित करने वाला है—रिश्ते–रिश्ते हैं, / इन्हें जियो मन से। बाँधो मन से / मानो मन से और / निभाओ भी मन से।

XXXX -ये भी सच है, / रिश्ते जब आदत / बन जाते हैं, / बहुत सताते हैं, / जी भर रुलाते हैं / रिश्ते।

बहुत गहराई से महसूस कराते हुए इन्होंने 'रिश्तों को, बाँधने की जिद' कविता में

समाधान भी कर दिया कि रिश्तों को जिन्दा कैसे रखे, उन्हें सलीके से कैसे निभाएँ—रिश्तों को, / निभाने के लिए / चाहिये थोड़ा–सा प्यार / थोड़ा–सा विश्वास

और चाहिए सलीका भी / उसे जताने का।

जिन्दगी के आकर्षण का दर्शन है तमन्नाएँ। जीवन ढोया जाने वाला बोझ न बने, इसके लिए तमन्नाओं को बनाए रखना अहोगा-

हजारों रूप धरती हैं, तमन्नाएँ नहीं कुछ कम!

तमन्नाएँ ही जीवन हैं, इन्हें जी भर सँवारो तुम,

तमन्नाएँ नहीं होंगी, तो जी कर क्या करोगे तुम।

प्यार की अन्तरंगता और एकनिष्ठता इससे बढ़कर और क्या हो सकती है कि कुछ भी कीजिए पर किसी और की आंखों में प्यार बनकर नहीं ठहरना—रूठ जाना मेरी आँख से चाहे तुम,

पर न सजने को कोई नयन ढूँढना।

भावों की विविधवर्णी छटा बिखेरती ये कविताएँ, प्यार समर्पण, आस्था, सामाजिक चिन्ता और जीने की ललक से भरी हुई हैं। यश की कामना से कोसों दूर, प्रचार के वितण्डों-हथकण्डों से खुद को स्थापित करने वाले तिकड़मी रचनाकारों से परे मंजु मिश्रा वअह कवयित्री है, जिसको पढ़कर पाठक अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता। जीवन के लिए सकारात्मक सन्देश देते हुए कवयित्री कहती हैं-

हवाओं ने जो ठानी है, / चिराग़ों को बुझा देंगे।

तो हमने भी कसम ली है, / ये लौ महफूज़ रखेंगे।

XX

' कभी थक कर अगर बैठे, / तो बस ये सोच कर बैठे।

घड़ी भर का ये रुकना है, / सफ़र तो अब भी बाकी है। '

मुझे पूर्ण विश्वास है कि कवयित्री का संग्रह 'ज़िन्दग़ी यूँ तो—' सहृदय पाठकों को अच्छे काव्य का आस्वाद कराएगा औ हिन्दी विश्व में नई ऊँचाई छू लेगा। ( 25 जून, 2012)