खूबसूरत / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
विजय से मिले पाँच बरस हो गए थे। उसकी शादी में भी नहीं जा सका था। सोचा-अचानक पहुँचकर चौंका दूँगा। इस शहर में आया हूँ तो मिलता चलूँ।
दरवाज़ा एक साँवली थुलथुल औरत ने खोला। मैंने सोचा-होगी कोई.
मैंने अपना परिचय दिया।
'बैठिए, अभी आते होंगे नज़दीक ही गए हैं'-थुलथुल औरत मधुर स्वर में बोली'।
मेरी आँखें श्रीमती विजय की तलाश कर रही थीं। आसपास कोई नज़र नहीं आया।
'क्या लेंगे आप? चाय या ठण्डा?' थुलथुल ने विनम्रता से पूछा।
'चाय ही ठीक रहेगी'-मैंने घड़ी की तरफ़ देखा।
'तब तक आप हाथ-मुँह धो लीजिए'-साबुन तौलिया थमाकर उसने बाथ रूम की तरफ़ संकेत किया।
हो सकता विजय की पत्नी ही हो। पर विजय जिसके पीछे कालेज की लड़कियाँ मँडराया करती थीं, ऐसी औरत से शादी क्यों करने लगा। हाथ–मुँह धोते हुए मैं सोचने लगा। यदि यही उसकी पत्नी है तो वह शर्म के कारण मेरे सामने नज़र भी नहीं उठा' सकेगा। कहाँ वह, कहाँ यह!
'भाई साहब आ जाइए. चाय तैयार है'। साँवली की मधुर आवाज़ कानों में जलतरंग–सी बजा गई.
ड्राइंगरूम में आकर बैठा ही था कि विजय भी आ गया।
'तुम्हारी पत्नी'-मैंने अचकचाते हुए पूछा।
' बहुत खूब! इतनी देर से आए हो, मेरी पत्नी से भी नहीं मिल पाए.
तुम भी हमेशा बुद्धू ही रहोगे। '
उसने थुलथुल की तरफ़ इशारा किया और गर्व से कहा-'यही है मेरी पत्नी सविता।'
' लीजिए भाई साहब! सविता ने बर्फ़ी की प्लेट मेरी तरफ़ बढ़ाई. उसकी आँखें खुशी से चमक रहीं थी।
मैंने उसे ध्यानपूर्वक देखा-वह मुझे बहुत ही खूबसूरत लग रही थी।