खेती का विकास बनाम विकास की खेती / कमलेश पाण्डेय
कुल जमा धरती से पहाड़, जंगल, बंज़र, दलदल और परती पड़ी ज़मीन को निकाल दें तो विकास के हत्थे चढ़ चुकी धरती जैसे महानगर, शहर, क़स्बा, गाँव, सडक, रेल की पटरियां आदि से बची हुई ज़मीन को खेत कहते हैं. जिस प्रकार अमीर ऐश, नेता सेवा और त्याग, भिखारी भिक्षाटन, मंत्री और अफसर राज, शहरी महिलायें शॉपिंग, छात्र पढ़ाई और नकल, शिक्षक ट्यूशन, सरकारी डाक्टर प्राइवेट-प्रैक्टिस, क्रिकेटर ब्रांड-प्रोमोशन और टीवी चैनल विज्ञापन-प्रसारण करते हैं, वैसे ही किसान इन खेतों में खेती करते है. ये किसान छोटे-मझोले-बड़े, दुबले-मोटे, कमज़ोर-तगड़े, फक्कड़-खातेपीते अनेक आकार-प्रकार के होते हैं. उनका स्वरूप उनके हाथ आई ज़मीन के समानुपातिक होता है. कुछ लोग आभासी ज़मीनों पर खेती करते हैं तो कुछ लोग बिना खेती किये ही किसान कहलाने का शौक़ पालते हैं. यहाँ हम केवल उन खेतिहरों का ज़िक्र करेंगे जो भारतमाता ग्रामवासिनी के प्रिय होरी-धनिया या घीसू-माधो की परम्परा को आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं.
ऐसा नहीं है कि खाली ज़मीन देखते ही किसान हल-बैल या ट्रैक्टर लेकर उस पर टूट पड़ता है, बल्कि उसे खेती करने के क्रम में कुछ और भी कर्म करने पड़ते हैं. सबसे पहले वह क़र्ज़ लेता है जिसे देने को गाँव के महाजन से बैंक तक सभी तत्पर रहते हैं. ये क़र्ज़ एक तरल-सी वस्तु है जिसे लेने के बाद खेतिहर उसमें गले तक डूब जाता है. क़र्ज़ में डूबा-डूबा ही बीज, खाद और कीटनाशक वगैरह के साथ खेती करने के इरादे से वह आसमान और ज़मीन एक कर देता है. इन दोनों जगहों से उसे पानी मिलने की उम्मीद होती है. पानी अगर आसमान से बरस जाए या ज़मीन से पम्प लगाकर खेत तक पहुँच जाए तो खेत में फसल उगती है, जो बढती-पकती एक रोज़ खेत से खलिहान और खलिहान से मंडी तक पहुँच जाती है. खेती की विकास-यात्रा की ये वो मंजिल है जहाँ तय होता है कि किसान क़र्ज़ के दलदल से उबरेगा या डूबा-डूबा ही रहेगा.
आम मान्यता है कि किसान खेती इसलिए करता है कि उसके पास कुछ और करने को नहीं है. मसलन कुछ और करने को होता तो वो खेती क्यों करता, उसे तलाक़ देकर शहर न चला जाता, जहां मज़दूरी, चौकीदारी या ठेला लगाने जैसा कोई ढंग का काम करता. यों गाँव में उसे करने को और भी काम हैं खेती के सिवा, जैसे बेगारी, कोताही या जवाहर रोज़गार योजना की मिट्टी कोडना. खेती करने को अपनी ज़मीन न हो तो मज़दूरी का शौक़ गाँव में भी पूरा किया जा सकता है. सुना है बहुत से किसान इसी वजह से अब तक शहर नहीं आये. सरकार गंभीरता से मानती है कि गाँवों का विकास शहरों में ही संभव है, इसलिए सभी खेती-प्रेमियों को शहर लाने का प्रयास ज़ारी है. खेती करने से अन्न उपज जाता है इसलिए किसानों पर अन्नदाता होने के आरोप लगते रहे हैं. यों खेतों में फल-सब्जियां-कपास आदि भी उगते हैं पर फलदाता कहलाने का एकाधिकार तो सरकार या ईश्वर ही के पास है. मुझे लगता है कि अन्नदाता कहलाने में किसानों की कतई रूचि नहीं है. अन्न से ही अन्न कमाने की मजबूरी के चलते वह खेती करता है, जो कई लोग अक्ल से कमा लेते हैं. यहाँ अक्ल से अर्थ व्यापार, व्यवसाय, मुफ्तखोरी, दलाली, चोरी-चकारी और राजनीति आदि से लें, हालांकि इस प्रकार कमाने वाले लोग अन्न ज़रा-सा ही ग्रहण करते हैं, बाक़ी कुदरत की दी हुई और इंसानी मेहनत व सलीक़े से सजाई हुई दीगर नेमतें जियादा लेते हैं. उधर अन्नदाता के पास ज़िंदा रहने के लिए सिर्फ अन्न और कई बार वो भी नहीं बचता. अन्नदाता के अवतार में खेतिहर का कर्म दैवीय हो जाता है और ऊपज की पूरी क़ीमत मांगने पर दुनिया हैरानी से मुंह बाकर उसका मुंह देखने लगती है कि ये क्या मांग बैठा. वो तो सरकार बीच में आकर मांगे गए मूल्य का ज़रा समर्थन-सा कर देती है वरना अन्नाकांक्षी तक अन्न पहुंचाने को तत्पर बाज़ार में खड़े देवदूतों का यही भाव होता है कि कुदरत की दी हुई इस अनमोल वस्तु का भला क्या मूल्य हो सकता है? कई बार तो अन्न बाज़ार में इतना आ जाता है कि मिटटी के मोल बिकने लगता है और उपज की कीमत पाने की उम्मीदें मिटटी में मिल जाती हैं. जब कम भी आता है तो भी कीमतें किसानों के पास रहने तक तो सुस्ताई पड़ी रहती हैं, पर आगे रिटेल स्टोर तक पहुँचते ही जोश में आकर उछलने लगती हैं. वैसे भी महानगरों के मॉल में अन्न इतनी खूबसूरत पैकिंग में सजा-धजा रखा होता है कि खाम-ख्वाह ही उसे महंगा खरीदने को जी कर जाता है.
लागत और कीमतों के इस खेल में अगली खेती करने के लिए किसान को फिर उसी तरह क़र्ज़ लेने की ज़रूरत पड़ती है जैसे किसी को हवाई-जहाज़, बीयर और सुंदरियों के कैलेण्डर का कारोबार करने के लिए पड़ती है. अगर तुलना के लिए कारोबार का ये स्केल आपको उचित नहीं लगता तो क़र्ज़ लेकर घी पीने वाले किसी भी कारोबारी से कर लें, जिसे बैंक खुले दिल से क़र्ज़ देकर एनपीए खाते में डाल देते हैं. क़र्ज़ लेकर किसान खुद खा जाय या खेतों को खिला दे, दोनों स्थितियों में क़र्ज़ लौटाने के हालात नहीं रह जाते. चूंकि उसके पास लन्दन जाने के लिए जुरुरी पासपोर्ट-वीज़ा नहीं होता, वो अपने गाँव में ही रह कर अपने परिवार के साथ-साथ एक उम्मीद भी पालने लगता है कि एक रोज़ सरकार उसका क़र्ज़ ज़ुरूर माफ़ कर देगी. ये उम्मीद छेड़छाड और बलात्कार तक झेलती सयानी होती जाती है और अक्सर तब जाकर ब्याही जाती है जब चुनाव नज़दीक हों. तब तक किसान को अपनी बदहाली के सुबूत देते रहना पड़ता है. अब ऎसी बदहाली का क्या सुबूत हो सकता है जो साल-दर-साल अलफ़ नंगी सामने ही खडी रहती हो. पर सुबूतों के मामले में सरकार अब एकदम पक्की हो चली है. बिना आत्महत्या के बदहाली पुख्ता नहीं मानी जाती. बदहाली सिद्ध हो जाए तो सरकार मुआवज़ा भी दे देती है. पर मुआवजा हो या माफी, अन्नदाता को नहीं, मतदाता को दी जाती है और इस महादान में कई राजनीतिक पहेलियाँ उलझ-सुलझ जाती हैं.
ऊपर कहे गये से ज़ाहिर है कि हमारे देश के किसान खेती करने के शौक़ के चलते विकास के आड़े आ रहे हैं. उधर सरकार-दर-सरकार विकास करने पर आमादा रही है. खेती भी विकास के एजेंडे में शामिल रही है. सरकार बनाने वाली पार्टियां खुद भी विकास के नारों की खेती कर वोटों की फसल उगाती रही हैं. ऐसे में असली खेती के लिए योजना-आबंटन, क़र्ज़-माफी-मुआवजा और आत्महत्या-आन्दोलन वगैरह सरकारों को विकास पर ध्यान टिकाने से भटकाते हैं. अन्न और अन्य चीजों का क्या है, वे तो ज़हाजों में भरकर विदेशों से भी आ जाते हैं. ज़मीनों को खेती में न फंसाया जाय तो कितने स्पेशल इकनोमिक ज़ोन, अपार्टमेन्ट, मॉल, मल्टीप्लेक्स आदि बन सकते हैं. अभी चंद महानगरों के आस-पास के कुछ खेतों को ही विकास के हित में मुक्त कराया जा सका है.
ये उच्च समय है कि शहरों के चमचमाते विकास को धूसर खेतों पर धावा बोल देना होगा. इसके बाद जो बचेगा, विकास करने से नहीं बच पायेगा.