खेद - 2 / हेमन्त शेष
ऐसा नहीं हुआ करता कि सब कुछ आप के भीतर पहले से मौजूद हो और एक कंप्यूटर की तरह आप ‘खेद’ जैसा शब्द सोचते ही खेद के बारे सब कुछ लिख डालें. वैसे भी खेद मनुष्य का जटिल किस्म का मनोविज्ञान है, और इतना उतावलापन भी क्या कि इधर दिमाग में शब्द आया और उधर कहानी तैयार! जी नहीं. वैसा बिलकुल नहीं हो सकता, कम से कम मेरे जैसे मामूली लेखक साथ तो नहीं, जो लेखन को एक मूर्ति गढ़ने जैसा काम मान कर चलता है. अगर खेद जैसे शब्द पर कुछ कहना पड़े, तो सब से पहले क्या कहूँगा ये बात कुछ भी कहने से पहले कैसे बताऊँ? चूंकि लिख कर ही कुछ जाना जा सकता है, पहले से नहीं. अगर खेद की मूर्ति गढनी ही है तो तय करना होगा- मूर्ति का माध्यम, उसकी संभावित आकृति, तय करने होंगे औज़ार, एक ही दिशा में लगातार काम करते रहना होगा, कहीं गहरे कहीं पीछे मुड कर देखना होगा- आपकी मेहनत क्या सही आकृति उकेर पा रही है, क्या यह वही शक्ल सूरत है जो दरअसल आप चाहते थे, आगे से कृति कैसी है, और पीछे से- दाएं से, बाएं से? शिल्पी रामकिंकर बैज ने कहा था : “प्रदक्षिणा ही मूर्तिशिल्प की आत्मा है! चित्र सामने से, मूर्ति चारों तरफ से!!” यानी जब तक आप अपनी रचना से, उसके हर कोण से खुद आश्वस्त न हों, उसे दूसरे के सामने ले कैसे जा सकेंगे. और फिर ऐसी जल्दी भी क्या है. अपना संतोष पहले, जगत की राय बाद में. कई दफा ऐसा लगता है जैसे खेद कहीं बाहर नहीं, आप के भीतर रहता है, जिसे किसी वीसा या पासपोर्ट की दरकार नहीं. वह आत्मा के इलाक़े का मूल निवासी है- स्थाई नागरिक, जो किसी न किसी बात को लेकर उदास है बाहर होने वाली कुछ घटनाओं से, जिस पर उसका बस नहीं, उसकी शाश्वत उदासी जाग जाती है और फिर वह अमूर्त शब्द घटित होता है जिसकी चर्चा हम करना चाह रहे हैं.
खेद बहुत सारे समानार्थक लग सकने वाले शब्दों से, बहुत सारे मानवीय भावों से भिन्न है- अप्रतिम, वरना, भाईसाब, खेद जैसा शब्द बनाया ही क्यों जाता? न खेद क्रोध है, न संताप, न अकर्मण्यता है, न दुःख, न शोक है, न विवशता, न लाचारी है, न बेबसी, न बदला है, न प्रतिशोध (वैसे दोनों शब्द एक ही हैं), खेद, बस खेद है- जिसका रंग रूप बड़ा बेढब और अमूर्त सा है.
छोटी मोटी गलती गलती हो जाये तो किसी से माफी मांगने के लिए खेद से लेकर अगर आप संपादक हों तो लेखक की पाण्डुलिपि लौटाने तक खेद के अलावा आप कुछ प्रकट नहीं कर सकते. सड़क टूटी होने पर अकसर पी डब्लू डी वाले एक बड़ा सा बोर्ड लगा कर यही प्रकट किया करते आये हैं. ये बिचारा ‘खेद’ आपके आड़े वक्त में काम आता है. आप खेद प्रकट करते हैं और बात आई-गयी हो जाती है. इस जगह आ कर ऐसा लग सकता है कि ऊपरी मन से की जाने वाली क्षमा-याचना के लिए इस से बेहतर और कोई शब्द नहीं.
अगर खेद के बारे में ये बातें पढ़ कर या फिर इस किताब को पढ़ कर आपको खेद हुआ है, तो मुझे भी आप को हुई असुविधा के लिए खेद है!