खेल-खेल में / ओमप्रकाश कश्यप
बच्चो, इस कहानी में नया कुछ नहीं है. इसे हम सब कई-कई बार, कई-कई तरीके से, कई-कई लोगों के मुंह से सुन चुके हैं. फिर भी यह हमें लुभाती है. बार-बार कहे-सुने जाने का आग्रह करती है. तो बहुत-बहुत-बहुत पुरानी बात है. इतनी कि उससे पुराना कुछ भी नहीं. उन दिनों न दिन थे, न रात. न सुबह थी, न शाम. यहां तक कि हवा-पानी, धूप-छांव, पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, धूप-वर्षा कुछ भी नहीं था. केवल एक समय था और थी धरती….एकदम लाल…गर्म, घूमती, आग के गोले-सी दहकती….
यह सब समय का ही कौतुक था. जिसने न जाने किस घड़ी हमारे बृह्मांड और इस जैसे न जाने कितने बृह्मांडों की रचना की थी. फिर अपनी उस अद्भुत कृति को उसने सालों-साल बिसराए रखा. एक दिन जब दुबारा उसकी ओर ध्यान गया तो उसे लगा कि अभी कुछ और करना चाहिए. कुछ नया जो बिलकुल हटकर…एकदम अनोखा हो. और देखते ही उसने एक कौतुक किया. विशाल बृह्मांड को उसने छोटे-बड़े अनन्त टुकड़ों में बांट दिया. उन्हीं में से एक टुकड़ा धरती कहलाया. शेष ब्रह्मांड के मुकाबले बहुत छोटा…गोल-मटोल, तेज घूमता हुआ, आग की प्रलंयकारी लपटों से घिरा. विशाल…और बहुत कुछ डरावना भी.
मगर चंचलमना समय धरती से उठती लपटों को देखकर जल्दी ही ऊबने लगा. उसके भीतर मौजूद रचनाकर्मी उसे कुछ करने को उकसाने लगा. पर किया क्या जाए. यह एक उलझन थी. सोचता-सोचता समय धरती की गर्म पीठ को सहलाने लगा. धरती को अच्छा लगा. उसका ताप धीरे-धीरे घटने लगा. गैसें ठंडी होकर पानी बनीं…विशाल महासागर लहराने लगे. समय को अपना नया आविष्कार बहुत पसंद आया. वह कभी जल-तरंगों की उछाल को देखता. सागरतट पर दूर-दूर तक फैले फेन से खेलता. कभी आसमान की आतिशबाजी का आनंद लेता. मगर अथाह जल-राशि भी उसको लंबे समय तक बांधे न रख सकी. वह फिर से ऊबने लगा.
और तब उसने देखा. सागर के ठहरे हुए जल में कुछ हरा-सा जमा था. समय ने उसे काई का नाम दिया. कुछ दिनों वह उसी को देखता रहा. फिर एक दिन वह काई में हल्की-सी हलचल देख चौंक पड़ा. छोटे-छोटे अनगिनत जीव उस काई में करवट ले रहे थे. वे इतने छोटे थे कि वह सिर्फ उन्हें अपनी विशाल पीठ पर रेंगते हुए अनुभव कर सकता था. समय उनके तेज विकास को देखकर हैरान था.
‘कुछ ऐसा घट रहा है जिसके बारे में मैंने अभी तक सोचा तक था.’ समय ने अपने आप से कहा. नन्हे-नन्हे वे जीव बड़ी तेजी से बढ़ रहे थे. उनकी विकास का ढंग भी प्रकृति के अब तक के विकास से भिन्न था. उनमें से हरेक जीव बड़ी तेजी से बढ़ता और फिर बीच में से फट जाता. इसी से एक नया जीव दुनिया में और जुड़ जाता था. समय को उनका बढ़़ना बहुत अच्छा लगा. पर सृजनधर्मा समय को संतोष कहां. कुछ दिनों बाद उसको वह भी सामान्य और बुझा-बुझा लगने लगा. उसने अपनी आंखें मूंद लीं.
अगली बार समय ने जब आंखें खोलीं तो समंदर में तरह-तरह के जीवों को कलाबाजियां करते हुए पाया. उनमें कछुआ, रंग-बिरंगी मछलियां, सीपी, घोंघे और न जाने क्या-क्या थे. उनकी संख्या इतनी बढ़ चुकी थी कि उन सबके नामों को याद रख पाना मुश्किल और तखलीफ-भरा काम था. उधर काई धीरे-धीरे बढ़ती हुई तरह-तरह की वनस्पतियों में बदलने लगी थी. और वे वनस्पतियां धरती के आंगन में दूर-दूर तक फैलती जा रही थीं. चारों ओर हरियाली देख समय अपनी रचना पर मुग्ध होने लगा.
‘अहा! कितना सुंदर है यह सब….पर अफसोस मेरे दिमाग में सबकुछ इतना धीरे-धीरे और देर से ही क्यों आता है.’ समय अपनी सुस्त चाल के लिए खुद को ही कोसने लगा. और बात भी सच ही थी. धरती के जन्म के बाद उन छोटे-छोटे जीवों के जन्म तक ही लगभग चार अरब वर्ष बीत चुके थे. इसके बाद समय ने तय किया कि आगे वह फुर्ती से काम लेगा. वह यह सोच ही रहा था कि चमत्कार जैसा हुआ. उसने अपनी आंखों के सामने भारी-भरकम जीवों को चलते-फिरते पाया. उनके चलने से धरती हिलने लगती थी. वे अपनी लंबी गरदन से पेड़ की मोटी-मोटी डालियों को तोड़ देते.
यूं तो वे बहुत शांत किस्म के जीव थे. पर यदि किसी बात पर उनमें आपस में ही ठन जाती तो उनकी चिंघाड़ से दसों दिशाएं गूंजने लगतीं. दिगंत थरथराने लगते. छोटे-छोटे समुद्री जीवों में खलबली मच जाती. यहां तक कि समय को भी रोमांच हो आता. कभी-कभी वह घबरा भी जाता. उन्हीं में से कुछ जीवों के पंख निकल आए थे. डायनासोरों के बंधु-बांधव वे पक्षी भारी-भरकम व्हेल को भी अपने डैनों में फंसाकर उड़ सकते थे. और पेटू तो इतने थे कि हरदम कुछ न कुछ खाते ही रहते. जिधर से वे गुजरते, जंगल के जंगल साफ हो जाते. भारी-भरकम काया को चलाने के लिए उतना भोजन जरूरी भी था.
उन विचित्र डायनासोरो ने समय का लंबे समय तक खूब मनोरंजन किया. वर्षों तक वह अपनी कृति पर इतराता रहा. पर मौसम ने करवट बदली. शायद यह समय का ही कौतुक था. इस बार वह खुद न करके प्रकृति के माध्यम से बदलाव लाना चाहता था.
‘मैं अब काम करते-करते ऊब चुका हूं. आज तक मैंने जो भी किया उससे मैं निराश ही रहा हूं. कोई भी परिवर्तन मुझे बांध नहीं पाता…किसी भी बदलाव से मुझे तसल्ली नहीं होती. अच्छा है कुछ दिनों के लिए मैं अपनी आंखें बंद कर लूं.’ समय ने सोचा. और पलकें झपकाने लगा.
इसी बीच मौसम में आए भारी बदलाव से वनस्पतियां तबाह हो गईं. समय पर भरपेट भोजन न मिलने से वे भारी-भरकम जीव दम तोड़ने लगे. और जब तक समय की आंख खुले तब तक एक बेहद खूबसूरत, भरपूर सृष्टि तबाह हो चुकी थी.
‘आह!’ अपने चारों ओर फैले दलदल और वीरानगी को देख समय के मुंह से सहसा निकला. वह बहुत उदास था, ‘अब सबकुछ नए सिरे करना होगा. पर क्या पहले जैसा हो पाएगा?’ समय ने सोचा. पर उसने निराशाजनक विचारों को अपने दिमाग से तुरंत बाहर कर दियाµ‘अगर सबकुछ पहले जैसा, वही पुराने ढर्रे का हो तो क्या फायदा!’
इसके बाद समय नए सिरे से पृथ्वी को सजाने-संवारने में जुट गया. उसने तरह-तरह के पेड़-पौधे बनाए. जलचरों में पुराने जीवों का साथ देने के लिए अनगिनत नए जीव गढ़े. तरह-तरह के जानवरों की रचना की. सृष्टि नए सिरे चहल-पहल युक्त हो गई. समय को अपनी मेहनत सफल लगने लगी.
‘बस अब बहुत हुआ. इसके बाद बदलाव की गुंजाइश रह ही कहां जाती है.’ समय जैसे अपनी ही पीठ ठोक रहा था. पर उसकी यह तसल्ली कुछ ही दिनों की थी. बताते हैं कि समय को शाप मिला हुआ था. हमेशा बेचैन रहने….खुद से और अपनी किसी भी कृति से कभी संतुष्ट न होने का. समय की यही असंतुष्टि और बेचैनी अरबों-खरबों साल से बदलाव का कारण बनी हुई थी.
और सचमुच इतना सबकुछ करने के बाद भी कुछ दिन के बाद समय को लगने लगा कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है…इस बार वह सृष्टि में कुछ अनूठा, अपनी अभी तक बनाई लीक से हटकर करना चाहता था. पर नया क्या हो, यह बड़ी भारी उलझन थी. समय कोई फैसला कर ही पा रहा था. सोचते-सोचते वर्षों गुजर गए.
‘इस बार मुझे अलग ढंग से सोचना होगा.’ समय ने ठान लिया, ‘आज तक मैं इस सृष्टि की विशेषताओं पर ही विचार करता रहा हूं. शायद इसीलिए मेरे अब तक के काम में ऊपरी विविधताएं होते हुए भी एकरसता है. आज तक जो भी प्राणी मैंने बनाए वे जन्म लेते, बढ़ते और समय आने पर मर जाते हैं. जैसा उन्हें बनाया जाता है पूरी जिंदगी वे वैसे ही बने रहते हैं. कटपुतलियों जैसे चलते-फिरते हैं.’ समय ने सोचा. इसके साथ ही उसे अपने काम की कमी का एहसास हो गया. वह अपनी नई रचना में जुट गया.
और फिर एक दिन समय ने बिल्लियों से फुर्ती उधार ली….!
मछलियों से उनकी गोल-मटोल, खूबसूरत आंखें….!
चीते से सयानापन…!
शेर से साहस…!
पक्षियों से मधुर आवाज…!
सीपियों से बचपन…!
हिरनों से दौड़ने और कुलांचें भरने की कला…!
धरती से धैर्य…!
खरगोश से कोमलता और सुंदरता…!
विवेक समय ने अपनी ओर से जोड़ा…!
इन सबको साथ लेकर उसने अपनी अब तक की सबसे अद्भुत कृति की रचना की. जिसे देखकर वह खुद भी फूला न समाया. घंटों वह उसकी तोतली आवाज को सुनता रहा. उसकी गोल-मटोल आंखों में छिपी मासूमियत पर मुग्ध होता रहा. जब उस नन्हे और मासूम बच्चे ने अपने छोटे-छोटे हाथों से समय की बूढ़ी-सफेद दाढ़ी में हाथ डाला तो वह रोमांचित हो उठा और खिल-खिलकर हंसने लगा.
‘इसकी शरारतों के साथ तो मैं अपना सारा जीवन हंसते-हंसते बिता सकता हूं…’ समय ने अपने आप से कहा.
और एक दिन जब उस बच्चे ने एक चिड़िया को दाना खिलाया…फूल को पानी दिया…एक नन्हा-सा घरोंदा बनाया, तो समय की खुशी का ठिकाना न रहा.
‘हां, यह ठीक मेरी कल्पना के अनुरूप है. अब मुझे और सोचने की जरूरत नहीं है. यह मेरी सृष्टि को आगे जाने में सक्षम है.’ इतना कहने के बाद समय ने अपनी आंखें मूंद लीं और गहरी विश्रांति में डूब गया.
उस दिन के बाद से सृष्टि की बागडोर इंसान के हाथों में आ गई. आज वह समय की दी हुई उसी छूट का लाभ अच्छे और बुरे दोनों तरह के कार्यों के लिए करता आ रहा है.