खेल जारी है, दर्शक नदारद हैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :19 अगस्त 2017
आजकल सुबह 9 बजे से आधी रात तक फिल्मों का प्रदर्शन होता है और कुछ शहरों में रात बारह बजे भी नई फिल्म दिखाई जाती है। कानूनी तौर पर सिनेमाघर में शराब नहीं पी जा सकती परंतु शुक्रवार को नई फिल्म के रात बारह बजे वाले शो में अवैध रूप से शराब पी जाती है। भारत में फिल्म केवल फिल्म की खातिर नहीं देखी जाती। गुरिंदर चड्ढा की फिल्म '1947 पार्टीशन' के सुबह के अनेक शो दर्शकों के अभाव में निरस्त कर दिए गए। क्या इसका यह अर्थ है कि अवाम विभाजन के दर्द की कोई जुगाली नहीं करना चाहता। याद आता है कि सर रिचर्ड एटनबरो की सर्वकालिक महान फिल्म 'गांधी' की भी भारत में ही सबसे कम आमदनी हुई थी, जबकि न्यूयॉर्क में पहले सप्ताह में मात्र चार सिनेमाघरों में फिल्म लगी थी परंतु लोकप्रियता के कारण सप्ताह दर सप्ताह सिनेमाघरों की संख्या बढ़ती गई और सारे देशों में इस फिल्म को खूब सराहा भी गया। यह भी गौरतलब है कि सर रिचर्ड एटनबरो ने 'गांधी' के पहले और 'गांधी' के बाद किसी भी महान फिल्म की रचना नहीं की। कुछ विषय ऐसे होते हैं कि उनका जादू सिर पर चढ़कर बोलता है। इन्हें पारस कहा जा सकता है।
ज्ञातव्य है कि सर रिचर्ड एटनबरो ने गांधी की पटकथा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पढ़ने को दी और उनके द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर पटकथा पुन: लिखी गई परंतु फिल्म बन पाई वर्षों बाद। फिल्म का आकल्पन करना और उसे बनाने के बीच बहुत-सी बाधाएं पार करनी होती हैं। सर रिचर्ड एटनबरो ने गोविंद निहलानी को अपनी फिल्म की दूसरी यूनिट का कैमरामैन नियुक्त किया था और एक दिन अपने होटल परिसर में समय काटने के लिए गोविंद निहलानी किताबों की दुकान पर गए जहां से उन्होंने भीष्म साहनी की लिखी 'तमस' नामक किताब खरीदी। कालांतर में उन्होंने 'तमस' से प्रेरित होकर अपने दृष्टिकोण से पटकथा लिखी और उस पर सीरियल बनाया। प्रतिक्रियावादी ताकतों ने इसके टेलीविजन प्रसारण पर रोक लगाने का प्रयास किया तो इतवार की छुट्टी होने के बावजूद जज महोदय ने 'तमस' देखी और उसके अबाध प्रदर्शन का आदेश दिया। 'तमस' को विभाजन का सेल्युलाइड पर लिखा महाकाव्य माना जाता है।
क्या अवाम इतना पलायनवादी है कि वह एक हकीकत से मुंह छिपा रहा है? यथार्थ से पलायन करने की चाह बलवती होती है। यहां तक कि युद्ध के समय खंदक में बैठा सैनिक भी युद्ध की हकीकत से पलायन करके अपने परिवार या प्रेयसी के खयाल में कुछ क्षणों के लिए डूब जाता है। अंग्रेजी भाषा में बनी 'ऑल क्वायट ऑन वेस्टर्न फ्रंट' में युद्ध समाप्त होने की घोषणा के बाद एक योद्धा अपनी खंदक से बाहर निकलता है और उसे गोली लग जाती है, क्योंकि एक सैनिक ने इतनी गोलियां दागी थीं कि अनचाहे अनजाने ही ट्रिगर पर उसकी उंगली दब गई। दरअसल, ट्रिगर मनुष्य के अवचेतन में होता है और गोली वही से दागी जाती है। महान मैक्सिम गोर्की का कथन था कि युद्ध में चली हर गोली किसी न किसी मां का कलेजा छलनी करती है, क्योंकि युद्ध में मरे हर व्यक्ति का शोक ताउम्र उसकी मां ही मनाती है। हर संघर्ष का खामियाजा पहले स्त्री चुकाती है। ऐसा लगता है कि दर्शक उदासीन इसलिए है कि उसके जीवन का हर दिन ही संग्राम की तरह है। किस्म-किस्म की कतारें लगी हैं और अवाम कतारों में खड़े रहते-रहते तंग आ चुका है। वह अब किसी परिवर्तन की आशा भी नहीं करता, क्योंकि धरा पर स्वर्ग उतारने जैसे अच्छे दिनों के झांसे ने उसे निराशावादी बना दिया है। सत्ता निर्मम है, विरोध मृतप्राय: पड़ा है और कहीं उसे कोई विकल्प नहीं नज़र आ रहा है। वह बादल सरकार के नाटक 'बाकी इतिहास' के उस पात्र की तरह हो गया है, जो उसकी दास्तां लिखने वाले लेखक से पूछता है कि उसने अभी तक आत्महत्या क्यों नहीं की। आखिर उसके जीवन का क्या उद्देश्य रह गया है।
समाज में फैला नैराश्य सभी देख रहे हैं, शिद्दत से महसूस कर रहे हैं परंतु विकल्प का अभाव उन्हें भीतर ही भीतर मथ रहा है। हुक्मरान भी यह भलीभांति जानता है कि उसका विकल्प नहीं है और उस पर कोई अंकुश नहीं है, सत्ता का मदमस्त हाथी कुचलता जा रहा है। इस तरह का हाथी अपनी गति और मति से ही उस गड्ढे में गिरता है, जो शेर के लिए बाया गया था।