खेल / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
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विमलजी हमारे पारिवारिक मित्र हैं। दस वर्ष पहले तक वे सामान्य से घर में रहा करते थे। सवारी के नाम पर उनके पास स्कूटर था। सब्जी लानी हो या बाज़ार जाना हो उनकी पत्नी पैदल ही जाया करती थी। घर का सारा काम हाथ से निपटाया करती थी। यहाँ तक कि झाड़ू-पौंछा, बर्तन-कपड़े भी। यही कहती कि 'काम का क्या छोटा, क्या बड़ा। आदमी काम न करे तो तन जुड़ जाता है। काम तो शरीर के जोड़ोंं के लिए तेल का काम करता है।'

आज विमल जी का अच्छा खासा बिजनस है। घर में ठाठ हैं। आलिशान कोठी, दो-दो गाडिय़ाँ, चौकीदार, नौकर-चाकर सब हैं। समय के बदलते ही उनकी पत्नी की जीवन और काम के प्रति सोच ही बदल गई. बदल क्या गई बल्कि जमीन-आसमान का अन्तर आ गया। कहती है 'जब पैसा खर्च करने की सामथ्र्य है तो हाड़-गोड़े क्यों तुड़वाएं? शरीर को फिट रखने के लिए जिम है ना। सदा घाणी के बैल की तरह काम में जुटे रहे। इस तन का क्या भरोसा, आज है कल नहीं। जब तक है तब तक तो ऐश करें।'

उस दिन हम तीन चार परिवार विमलजी के यहाँ लंच पर आमन्त्रित थे। खाना डायनिंग टेबल पर लग रहा था। हम सब गप-शप कर रहे थे। बच्चे चोर-पुलिस खेल रहे थे। अचानक खेल में मोड़ तब आ गया जब पुलिस बना राहुल खेल बीच में छोड़ खाना खाने बैठ गया। उधर से विमलजी के पुत्र मेघ की आवाज आई-'अबे पुलिस खाना थोड़े ही खाती है?'

'तो?'

'रिश्वत खाती है'

'तुझे किसने बताया?'

'पापा ने। वे पुलिस को रिश्वत खिलाते रहते हैं।'

बच्चों का यह वार्तालाप सुनकर विमल जी और उनकी पत्नी खिसिया गए. हम सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। किसी के मुंह से बोल ही न फूटे। पुलिस बना राहुल मजे से खा रहा था। हम उसे खाते हुए देख रहे थे और खिला भी रहे थे।

इधर बच्चों का खेल जारी था। बस उनकी भूमिकाएँ बदल गई थीं। अब मेघ पुलिस वाला बन गया था। राहुल को खेल से बाहर कर दिया गया था। उसे खेल की बारीकियों का ज्ञान जो नहीं था।