खोई हुई औरर्त / हरीश पाठक

Gadya Kosh से
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वे हाँफ अब भी रही थीं। उन्हें लग रहा था फोन से निकलकर घंटी कानों के जरिए उनके पूरे शरीर में बिखर जाएगी और वर्षो से खामोश पड़ी यादों को जगाकर लुप्त हो जाएगी। पूरी तरह गुम। और उन्हें छोड़ जाएगी यादों के घने बियावान में जहाँ से वे चीख तक नहीं पाएँगी। पर यह सब उनका भ्रम था। केवल भ्रम। वे उबलती आँखों के साथ फोन को देख रही थीं। कुछ देर पहले की घटना उन्हें जैसे धीेरे-धीरे गला रही थी। उन्हें लगने लगा जैसे कुछ क्षण में वे पूरी तरह रेशे-रेशे बिखर जाएँगी। खिड़की के उस पार जया थी। बेखबर, अपने काम में उलझी। खिड़की के इस पार थीं श्रीमती जोशी। तार-तार उलझती और कुरसी में पूरी तरह धंसी हुई। आज उन्हें लग रहा है जैसे उनके भीतर वर्षो से पड़ा सुप्त लावा दहकने लगा है और इसकी दहकन कहीं घर की दीवारों को भस्म न कर दे। निर्मला जोशी आज जैसी खुद के घर को, खुद की लपटों के हवाले कर देंगी। जया ने टेबल पर बैठकर कागज उठा लिए हैं। निर्मला जोशी फिर से दहक रही हैं। तो फिर आज शाम जया विनय से मिलेगी पर कैसे? वे तो उसे सूचना तक नहीं देेंगी। यह भी नहीं बताएँगी कि विनय शाम सात बजे उसे मिलेगा। दस नंबर बस स्टॉप पर, नुक्कड़वाली दुकान पर। आखिर क्या जरूरत है विनय से मिलने की। क्यों नहीं घर में कैद हो जाती है? घर यानी काँचघर। काँच के उस घर का सबकुछ तो देख लेती हैं श्रीमती जोशी। न चाहते हुए भी। क्या नहीं जाना उन्होंने जया के बारे में। हर रात, हर क्षण वे सोचती हैं कि वे जया के बारे में खोज-खबर रखना बंद कर दें पर वे हर पल उसी के बारे में सोचती ही जाती है। ‘‘विनय का फोन था। तुम्हें शाम को याद किया है।’’ जया चुप है। खामोशी की परतें उसके चेहरे पर है। जया चुप क्यों हैं? वह चहक क्यों नहीं रही? वह पूछ क्यों नहीं रही कब मिलेगा? कहाँ? कब तक? कब फोन आया? कितनी देर से परेशान हो रही थीं श्रीमती जोशी। जया को लेकर। फोन को लेकर और अब जया से कहने के बाद भी परेशान है। अखबार खोल कर बैठी ही थी श्रीमती जोशी कि अचानक घंटी बज उठी थी। फोन उठाया, तो उधर से बेहद मुलायम आवाज उनके कानों में घुसी, ‘‘मैं विनय बोल रहा हूँ, विनय पंत। जया है?’’ वे चुप हो गई। हाँ, हूँ भी उनसे कहते नहीं बना। चाहती थी खड़ाक से फोन रख दें, पर ऐसा भी कहाँ कर पाई वे। वह बोल रहा था, ‘‘आंटी, आप उससे कह दें, शाम सात बजे मिल ले, दस नंबर के बस स्टॉप पर मै...’’ वह पूरा शब्द कह नहीं पाया था उन्होंने फोन काट दिया। और फिर देर तक पछताती रही निर्मला जोशी। न जाने किन-किन स्मृृति-वनों में भटक आई। क्या-क्या सोच लिया उन्होंने। कितनी बार कोस लिया है उन्होेंने जया को, विनय को, उमेश को और-और न जाने कितने जाने-अनजाने चहरों को। काँच के उस पार जया है। काँच के इस पार श्रीमती जोशी हैं। जया। श्रीमती जोशी।  जैसे उनका सबकुछ रेहन रखा जा चुका था। कुछ भी तो नहीं जान पाई थीं वे कि आखिर किस तरह से, कहाँ और किए लिए तय कर दी गई हैं। उन्हें सबकुछ दिन में देखा एक बेहद उबाऊ सपना-सा लगा। ‘‘उमेश अब इस घर में नहीं आ सकेगा।’’ एक सर्द आवाज उनके पीछे से उभरी थी। उन्होंने घबराकर देखा, पिता गमगीन चेहरा लिए पीछे खड़े थे। नीचे को लटकता उनका चेहरा उन्हें बेहद डरा गया। वे कुछ बोल नहीं पाई थी। पर रात को सो भी कहाँ पाई थी निर्मला जोशी। उमेश आखिर क्यो ंनही आ पाएगा। उसके घर आने पर पाबंदी किसने लगा दी है या फिर वह-नहीं, क्या सोच डाला उन्होंने। रातभर उमेश और पिता के चेहरे उन्हें सताते रहें। वह सुबह न जाने क्यों उन्हें सुबह-सी नहीं लगी। डरी और सहमी हुई सुबह। पिता बाहर आरामकुरसी पर बैठे थे पर उनकी आँखों में रात की तरह ही गुस्सा था। दर्द की एक पर्त पिता की आवाज के साथ ही उनके चेहरे पर लिप-सी गई थी और एक मरियल प्रश्न बार-बार उनकी आँतों में उलझा रहा था- उमेश घर क्यों नहीं आएगा? पिता तक जाने के लिए उनके कदमों में साहस नहीं था। शब्द छपाक से उचटकर पिता तक नहीं पहुँच करते थे, पर उन्हें हर बार लग रहा था कि उमेश के न आने का कारण क्या पिता से पूछा जा सकता है? ‘‘हरामजादा, विश्वासघाती। घर में रहकर खेल खेलता है।’’ अचानक पिता चीखे थे। और उनके सामने सबकुछ खुल गया था, आहिस्ते-आहिस्ते। ‘‘मुझे क्या पता था कि वह हरामी मेरे घर में आग फूँक रहा है। मैं सब समझ गया उसका नाटक और सुनो निम्मो तुम भी आज के बाद उस ओर नहीं जाओगी वरना...’’ पिता गुस्से में काँप रहे थे। सूरज उग आया था पर उन्हें लग रहा था जैसे उसकी किरणें पिता के शरीर में समा गई है। पर यह सब एक सुनियोजित कार्यक्रम की रूपरेखा थी। वे बहुत छटपटाई। घर की छत पर घंटों खड़े-खड़ उन्होंने उमेश को निहारा। उन्होंने तमाम-सी नफरत पिता के नाम उलीची। पर वे हर बार पराजित हुई। घर, घर ही रह गया। हर क्षण उनके साथ रहने वाला, बात करते-करते उन्हें एकदम अपने में भर लेने वाला उमेश गोया उड़ गया था। उस रात आखिर क्या हुआ था? उमेश अल्मोड़ा क्यों छोड़ गया था? गोल-गोल चक्कर लगाते इस सवाल को आज तक नहीं समझ पाई हैं निर्मला जोशी। जया टेबल पर अब भी झुकी हुई है। फिर क्या हुआ था उन्हें? क्यों वे अचानक सबसे कटने लगी थी? खिड़की पर घंटो खड़ी वे क्यों उमेश का इंतजार करती थीं। लैंप की पीली रोशनी में उमेश-उमेश लिखकर क्यों फाड़ती थी वे। अचानक किस लोक में भटक गई थीं निर्मला जोशी। क्या सचमुच वह भटकाव था। उमेश की यादें जैसी एक बारीक पर्त बनकर उनके समूचे शरीर से लिपट गई थीं। ज्यो-ज्यों उन्होंने यादों को उखाड़ने की कोशिश की, वे खुद उखड़ती गई। और फिर अल्मोड़ा उनकी यादों में जैसे स्थिर हो गया था। भीतर से उभरती उनकी बेचैनी, पिता के सख्त चेहरे ने दबोच ली थी। उमेश से मिलने की उनकी सभी कामनाएँ सहसा ध्वस्त हो गई थीं और उन्होंने पिता के सामने सबकुछ कुचल लिया था, पर निर्मला जोशी क्या कुछ कुचल पाई थीं। जैसे अचानक किसी ने उन्हें मथ डाला था। यादों की तमाम सुरंगों के द्वारा उनके यकायक खुल गए थे। सुरंगें जो अपनी भयावहता के साथ उन्हें बीती यादों में भटका रही थीं। और फिर एक दिन अचानक ही उनकी जिंदगी का नया अध्याय खुल गया था। वे मनोज के साथ ब्याह दी गई थीं। लंबी-सी लकीर उनके भीतर खिंच गई और वे चौककर उठ गई थीं। ब्याह, उमंगें, सबकुछ नया-नया था पर कितना नया था वह। वह खूबसूरत सपना कितने क्षण तक ठहर सका। अल्मोड़ा की सारी भुरभुरी यादें छोड़कर वे दिल्ली आ तो गई थीं पर उन्हें लगता था कि जेसे वे अब भी बदहवासी में अल्मोड़ा में घूम रही हैं। उमेश का दंश उठते-बैठते उन्हें डसने लगा था और वे असहनीय पीड़ा के एक त्रासद घेरे से गुजरती थीं। मनोज और उमेश। उमेश और मनोज। ‘‘तुम अकसर क्या बड़बड़ाती हो निम्मो।’’ मनोज के शब्दों ने अचानक उन्हें जख्मी कर दिया था। ‘‘कहाँ, कब?’’ वे घबराई-सी बोली थीं। कुछ तो नहीं पर चेहरे के पीछे से उभर आए भावों ने उन्हेें कब तक बचाया था? और यही सब बातें मनोज के कलेजे में धीरे-धीरे बैठती गई थीं। जया टेबल से उठ गई है। काँच के उस पार जया के हाव-भाव श्रीमती जोशी अच्छी तरह देख पा रही है। फिर सबकुछ थम गया था। तीन बरस पूरे बीत गए थे पर विवाह के ये तीन बरस, निर्मला जोशी को तीन सौ बरस लगे थे। क्यों? इस उलझे सवाल को वे कभी हल नहीं कर सकीं। अनुत्तरित सवाल। जया, मनोज और उनके जीवन में आ चुकी थी पर मनोज उनकी जिंदगी से हटता चला गया। गोया परदे पर उभरा कोई आकर्षक चित्र सहसा लुप्त हो गया हो। मनोज उनकी जिंदगी से कट गया था और पीछे छोड़ गया था अतीत की कटी-फटी यादें। बदहवास सन्नाटा और सन्नाटे के भीतर से उगता सवालों का जंगल जिसमें भटक गई थीं निर्मला जोशी। मनोज का सदमा उन्हें लंबे समय तक परेशान करता रहा था। अब क्या करेंगी? कहाँ जाएँगी? कैसे काटेंगी पूरी उम्र को, क्या कर पाएँगी वे घर जाकर? एक बार फिर उमेश की यादें उन्हें छीलने लगी थीं परत-दर-परत। पर खुद को समझा लिया था निर्मला जोशी ने और जीन के तमाम बहाने ढूँढ लिए थे। जया को जिलाने खुद को जीने के लिए एक स्कूल पकड़ लिया था। जया जिंदगी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव। कहीं भी जा सकती थीं वे। किसी भी क्षण उड़ सकती थीं वे, पर जैसे जया एक जाल हो गई थी जो हर क्षण उन्हें घेरने को आतुर थी। सामने नजर गई है उनकी। सपाट दीवार की ओर। आँखों के सामने सिर्फ दीवार है। सफेदे से पुती दीवार। पर अब स्कूल उन्हें चिढ़ाने लगा है। स्कूल की घाटी चढ़ते-चढ़ते वे हाँफने लगी हैं। टूटने लगी हैं निर्मला जोशी, पर इस घाटी पर कौन आएगा उनके रिसते घावों को सहलाने। कैसे काबू पा सकेंगी वे? उमेश, मनोज, पिता- कोई भी एक चेहरा उभर उनके सामने टिक पाता जिसको वे अपने मन के घाव दिखा सकें, जिसके साथ कुछ पल वे ठिठक सकें। तेज-तेज कदमों से कमरे में टहलने लगी हैं निर्मला जोशी। विनय पंत। ‘‘आंटी, मैं विनय-’’  मानो जैसे अब भी कानों में कुछ गिर रहा है- कलकल। साहसा एक ख्याल उनके भीतर उभरने लगा। वे क्यों जया से चिढ़ने लगी हैं? जया से वे? नहीं-नहीं, यह कमीना विचार है। चोर नजरों से उन्होंने इधर-उघर ताका है। घबराकर, पर यह सच है- अक्षर-अक्षर सच! काश, निर्मला जोशी समझ सकती जया की पीड़ा को। काशं, उतर सकतीं वे उस सुलगते मरुस्थल में जहाँ सहारे की तलाश में जया भटक रही है। दो पल का साथ चाहती है जया। क्या दे पाई हो तुम उसे निर्मला जोशी? एक अपराजित औरत उनके भीतर से दहकी है। जया विधवा है और तुम, तुम सधवा होते हुए भी- वे चीखा चाहती है। आज किस दलदल में फँस गई हैं वे। केसे उबर पाएंगी अब। आज एक मजबूत औरत कैसे बैठ गई है उनके भीतर आकर। बाहर अँधेरा उतरने लगा है। काँच के उस पार जया अब भी किताबों से लड़ी जा रही है। विनय पंत दस नंबर के स्टॉप पर थककर खड़ा होगा? क्यों नहीं गई जया। जया विधवा है। जवान बेटी विधवा है। कितने मरे हुए सपनों को ढो रही है जया। क्या देख पाई थी वह? कुछ भी तो नहीं। घर-संसार, देह-सुख, कुछ भी तो नहीं। चार दिन बाद वापस आ गई थी जया। सारा श्रृंगार धो लाई थी और साथ में ले आई थी जलते हुए सपने, धुएँ होती उमंगे, कितना टूट गई थी वे। किश्त-दर-किश्त जिंदगी से हारी थी वे। क्षण-क्षण गली थी निर्मला जोशी। पर आज विनय पंत की आवाज उनके कान के परदों को फाड़ रही है। क्यों नहीं चाहती निर्मला जोशी कि जया तेजी से उठे और आसपास के विषैले वातावरण को धो डाले। वे क्यों नहीं चाहतीं कि जया की खुशियाँ घर की दीवारों में कंपन बिखरा दें। उदासी के मजबूत ताबूत में लिपटी जया का गलना वे क्यों देखना चाहती हैं? कितनी गिर गई हैं वे? -घर अब उजाड़ सपनों का देश हो गया है। एक घर, दो कोण। हर कोण पर लुटी-पिटी यादें। इधर निम्मों है, उधर जया। अपने-अपने चक्रव्यूह। पिता उनकी चेतना में धीरे-धीरे उभरने लगे है। पहले एक हलका-सा अक्स उभरता है पिता का, फिर समूचे पिता उनके सामने खड़े हो जाते हैं, पर पिता तो उनके भीतर वर्षो से कैद है। उन्हें लगता है कि पिता के अंश उनमें पूरी तरह फैल गए हैं जो जया को विनय से अलग कर रहे हैं। जो मजबूर कर रहे हैं कि जया उदासी की परतों में ही लिपटी रहे। जो चाह रहे हैं कि विनय की सूचना जया तक न पहुँचे, जो- वे लगभग चीख उठी हैं। पिता जो चाहते थे निम्मो उमेश से न मिल सके। औरत को चाह रही है जया विनय से न मिल सके। पूरे पिता निर्मला जोशी पर हावी हो गए हैं पर धीरे-धीरे वे लौट रही हैं। अब वे कुरसी से उठ खड़ी हुई हैं। जया फ्लंग से उठकर अलमारी के पास है। निर्मला जोशी को लगा है उन्होंने पिता को पराजित कर दिया है और वे जया के नजदीक जा खड़ी हुई हैं और उनके होंठ खुले हुए हैं।