खोटा धन, खरा इंसान / यशपाल जैन
धन की खोट आदमी को तब मालूम होती है, जब वह खरा बनने लगता है। खरा बनने का अर्थ यह नहीं है कि इंसान घरबार छोड़ दे, जंगल में चला जाय और भगवान के चरणों में लौ लगाकर बैठा रहे। बहुत-से लोग ऐसा भी करते हैं, पर यह रास्ता सबका रास्ता नहीं है। ज्यादातर लोग तो दुनिया में रहते है और उनका वास्ता अपने घर के लोगों से ही नहीं, दूसरों के साथ भी पड़ता है। खरा आदमी वह है, जो अपनी बुराइयों को दूर करता है और नीति का जीवन बिताते हुए अपने समाज के और देश के काम आता है। ऐसा आदमी सबकों प्रेम करता है। और सबके सुख-दु:ख में काम आता है। हज़रत मुहम्मद जहॉँ भी दु:ख होता था, वहॉँ फौरन पहुँच जाते थे। भगवान् बुद्ध ने न जाने कितनों की सेवा की। गांधीजी परचुरे शास्त्री के घावों को अपने हाथों से साफ़ करते थे। ये मामूली घाव नहीं थे, कुष्ठ के थे; उनमें से मवाद निकलता था, लेकिन गांधीजी बड़े प्रेम से शास्त्रीजी की सेवा करते थे। ऐसी मिसालें एक-दो, नहीं, सैकड़ों-हजारों है। जो मानव-जाति की सेवा करता है, उससे बड़ा धनी कोई नहीं हो सकता।
अबू बिन अदम की कहानी आपने सुनी होगी। एक दिन रात को वह अपने कमरे में सो रहा था। अचानक उसकी आँख खुली। देखा कि सामने एक देवदूत बेठा कुछ लिख रहा हे। अदम ने पूछा, “आप क्या लिख रहे हैं?”
उसने जवाब दिया, “मैं उन लोगों के नाम लिख रहा हूँ, जो भगवान् के प्यारे हैं?”
अदम थोड़ी देर चुप रहां फिर बोला, “भैया, मेरा नाम उन लोगों में लिख लेना, जो इंसान की सेवा करते है।”
देवदूत चला गया और अगले दिन जब वह लौटा तो उसके हाथ में उन आदमियों की सूची थी, जिन्हें भगवान् का आशीर्बाद मिला था। अबू बिन अदम का नाम सूची में सबसे ऊपर था। साफ है कि जो दूसरों की सेवा करता है, वह भगवान् की ही सेवा करता है।
सेवा करने का अपना आनन्द होता है। एक बार सेवा करने की आदत पड़ जाती है तो फिर छूटती नहीं। जो बिना किसी स्वार्थ दूसरो के दूसरों की सेवा करता है, उसका मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता। सूरज बिना बदले की इच्छा रखे सबकों धूप और रोशनी देता है, चॉँद ठंडक पहुँचाता है, धरती अन्न देती है, पानी जीवन देता है, हवा प्राण देती है। इनकी बराबरी कौन कर सकता है!
विनोबा के पास क्या रखा था? न धन, न कोई बाहरी सत्ता; पर सेवा के जोर पर उन्होंने करोड़ों लोगों के दिलों में अपना घर बना लिया। उन्हें चालीस लाख एकड़ से उपर जमीन मिली। सैकड़ों गॉँव ग्रामदान में मिले ओर जीवनदानियों की उनकी पास फौज़ इकट्ठी हो गयी। यह सब कैसे हुआ? सेवा के बल पर। जब विनोबा ने भूदान-यक्ष आरम्भ किया था, लोगों ने जाने क्या-क्या बातें कहीं थीं, पर विनोबा ने उनकी कोई परवा नहीं की। उनका भगवान पर विश्वास था; उनके दिल में कोई स्वार्थ न था। ऐसे आदमी को अपने काम में सफलता मिलनी ही थी। वह हज़ारों मील पैदल चले। जाड़ों में चले, गर्मियों में चले, वर्षा में चले, धूप में चले। लोगों ने कहा, “बाबा, चलते-चलते बहुत दिन हो गये। थोड़ा आराम कर लो।”
जानते हैं, विनोबा ने क्या जबाबा दिया? उन्होंने कहा, “सूरज कभी रूकता नहीं, चाँद कभी टिकता नहीं, नदी कभी थमती नहीं; मेरी भी यात्रा अखण्ड गति से चलेगी।” सेवा के आनन्द में लीन विनोबा चलते रहे, चलते रहे। देश का कोई भी कोना उन्होंने नहीं छोड़ा। प्रेम की निर्मल धारा उन्होंने घर-घर पहुँचा दी। एक दिन उनकी टोली में हम कई जने बैठे थे। शाम का समय था। उस दिन विनोबा को बहुत-सी जमीन मिली थी। जब उन्हें दिनभर का हिसाब बताया गया तो वह मुस्कराने लगे। बोले, “आज इतनी जमीन हाथ में आयी है, लेकिन देखों, कहीं हाथ में मिट्टी चिपकी तो नहीं!”
हम सब हँस पड़े, पर विनोबा ने बड़े मर्म की बात कहीं थी। जिसके हाथों में लाखों एकड़ भूमि आयी हो, उसके हाथ में एक कण भी चिपका न रहे, इससे बड़ा त्याग और क्या हो सकता है।
शरीर के दुबले-पतले विनोबा ने हम सबको दिखा दिया कि इंसान दुनिया में किसी का भी मूल्य नहीं है।
एक सूफ़ी सन्त ने कहा है, “किसी का दिल उसकी खिदमत करके अपने हाथों में ले, यही सबसे बड़ी इज्ज़त है। हज़ारों काबों से एक दिल बढ़कर है।”
गांधीजी ने तो सेवा-धर्म को, अहिंसा और सत्य दोनों की बुनियाद माना। उन्होंने कहा, “सेवा-धर्म का पालन किये बिना मैं अहिंसा-धर्म का पालन नहीं कर सकता; और अहिंसा धर्म का पालन किये बिना मैं सत्य की खोज नहीं कर सकता।”
सेवा की बड़ी महिमा है। धन से आप कुछ लोगों को अपनी ओर खींच सकते हैं, सेना से कुछ और ज्यादा पर विजय पा सकते हैं, लेकिन सारी दुनिया को तो सेवक ही जीत सकता है।