खोट / संदीप मील
मेरे एक बहुत ही अजीज दोस्त की शादी थी। अजीज इसलिए था कि जब भी मुझे ज्ञान बघारने का दौरा पड़ता तो वह एक मासूम बच्चे की तरह श्रोता मिल जाता। वह मुझे सहन करता था या मैं उसे, यह तो अभी तक तय नहीं हो पाया मगर इतना तय ज़रूर था कि कोई तीसरा हम दोनों को सहन नहीं कर पाता। अजीब मुसीबत आ पड़ी थी। उसके दिमाग पर पढ़ने की धुन सवार हो गई और मेरे दिमाग पर पैसा कमाने की। आज तो साफ हो गया है कि न वह पढ़ सकता है और न ही मैं पैसा कमा सकता हूँ। लेकिन उन दिनों को कौन समझाता, जब हम ख्वाब को हकीकत मान लेते थे, अब हालात यह है कि हकीकत भी कभी-कभी ख्वाब-सी लगती है।
बहरहाल, हम दोनों अपने-अपने रास्तों पर चल पड़े थे, यह जानते हुए कि कभी भी भटक सकते हैं। वह बंगलुरू पढ़ने चला गया और मैं दिल्ली कमाने। तीन साल गुजर गए, मैं इतना कमा लेता था कि खुद का पेट भर जाए और वह पास होने भर को पढ़ लेता। इन तीन सालों में हम दोनों में काफी तब्दीलियाँ आ गईं। मैं मालिक की फटकार सुन-सुन कर अच्छा श्रोता हो गया और वह कॉलेज में डींग हाँक कर वक्ता बन गया। यानी हम बिल्कुल उल्टे हो गए-जमाने की तरह।
'इन तीन सालों में मुनींद्र की सूरत ज़रूर बदल गई होगी मगर सीरत वही होगी' अकसर मैं यही सोचता था क्योंकि तीन सालों से हमारे बीच तीन बार फोन पर बातें हुईं, वह भी दो-दो मिनट। अब आप ही बताइए कि जो लोग घंटों बातें करते हुए भी खाली नहीं होते थे, फकत दो मिनट में क्या बातें करेंगे? लेकिन इन बातों के कुल 6 मिनटों में मुझे अहसास हो गया कि मुनींद्र के अंदर बहुत बड़ा परिवर्तन हो रहा है। वैसे भी मुझे बेवजह शक करने की आदत है।
बंगलुरू बहुत बड़ा शहर है, दिल्ली उससे भी बड़ा। जो युवा दिल्ली में पहली बार आया हो और अगर भूल से जनपथ के आस-पास से गुजर जाए तो यकीनन एक बार राजनीति में आने की ज़रूर सोचेगा। उस धरती में राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण कुछ ज़्यादा ही है। जब दो तीन जोड़ियाँ चप्पल घिस जाएँ, तब धीरे-धीरे उसका इरादा बदल जाता है। यही हाल बंगलुरू का है, वहाँ एक बार आदमी कारखाना लगाने की सोचेगा, मगर फिर इस लाइन पर आ जाएगा कि किसी कारखाने में नौकरी मिल जाए तो गुजारा हो सकता है।
मुनींद्र और मैं भी इस दौर से गुजरे, शहर ने अपने चरित्र के हिसाब से हमें ढाला। मैं तो कभी-कभी जिद पर अड़ जाता था कि मुझे शहर के हिसाब से नहीं बदलना है, लेकिन बहुत दिनों बाद पता चला कि मैं बदल चुका हूँ। मगर मुनींद्र में जो परिवर्तन हो रहा था वह कुछ और था।
एक दिन शाम को मुनींद्र का फोन आया, 'यार, 23 मई की मेरी शादी है, ज़रूर आना।'
मैंने इतना ही कहा, 'वक्त पर पहुँच जाऊँगा।'
न कोई बधाई दी और न ही यह पूछा कि अचानक शादी करने का इरादा कैसे बना लिया। क्योंकि मैंने सोचा कि शराब पीकर मजाक कर रहा है। मुनींद्र को जब भी चढ़ती है तो वह ऐसे ही मजाक करता है। कभी कहता है कि उसका बाप मर गया, कभी कहता कि उसकी प्रेमिका को दिल का दौरा पड़ा है।
आप ही बताइए, ऐसी बातों पर आदमी कब तक विश्वास करेगा! अब वह कोई भी अप्रिय घटना सुनाता है, तो मुझे वह एक मजाक लगती है। इसीलिए मैंने इस बात पर कोई गौर नहीं किया।
तीन दिन बाद जब घर पर फोन किया, तो मम्मी ने बताया, 'तेरे दोस्त मुनींद्र की शादी है, आ जाना। गाँव में तो कहते हैं कि लड़की में कोई खोट है।'
कुछ ज़रूरी बातें करने के बाद फोन रखते ही मेरे दिमाग आया कि लड़की में खोट है, खोट तो मुनींद्र में भी हो सकती है।
आखिर क्या खोट हो सकती है?
इस सवाल के आते ही मेरे दिमाग में समाज का वह चित्र आ गया जिसमें मैं जी रहा था। चार दिन तक यही खोट व मुनींद्र मेरे दिमाग में घूमता रहा लेकिन कोई विवसनीय उत्तर नहीं तलाश सका। इस बात पर तो बिल्कुल भी यकीन नहीं हो रहा था कि मुनींद्र की शादी हो रही है। उस जैसा इनसान, जो लड़की देखते ही झेंप जाता था, शादी करके क्या करेगा? पाँचवें दिन तय कर लिया कि आज घर जाना है, मुनींद्र की शादी आठ दिन बाद ही तो थी और वैसे भी एक अरसे से घर नहीं गया था।
जब सोच ही लिया था, तो घर के लिए चल भी पड़ा। मैंने बस में बैठते वक्त 20 रुपये की मूँगफली ले ली (5 रुपये की मूँगफली वाला जमाना अब नहीं रहा) । मूँगफली इसीलिए ली कि राजस्थान रोडवेज वाले बस को निश्चित ढाबे पर ही रोकते हैं, जहाँ हर चीज की कीमत अंकित मूल्य से ज़्यादा होती है। यह चलन यहीं पर है, जिसका विरोध करने पर आपको होटल की लठैती और पुलिस का प्रसाद मिल सकता है। अजीब मुल्क है।
मूँगफली के हर दाने को फोड़ते वक्त मुझे ऐसा लगता था कि मैं मुनींद्र की शादी की खोट ढूँढ़ रहा हूँ। मूँगफली का छिलका उतारता, दो फाड़ करता और धीरे-धीरे चबाता लेकिन वह मूँगफली ही रहती, उसमें खोट नहीं मिलती। फिर कब आँख लग गई पता भी नहीं चला।
हवा की एक जानी पहचानी गंध जाकर दिल से टकराई तो अचानक आँख खुली, मेरा गाँव आ चुका था। रात के चार बजे थे, पूरा गाँव सो चुका था, फिर भी लगता था कि जाग रहा है जबकि दिल्ली जागती हुई भी सोई हुई-सी लगती है। फसल कटे हुए खेत बिल्कुल बच्चे को जन्म देने के बाद की माँ की तरह खिल रहे थे। फिजाओं में मोर की गूँजती हुई आवाज ने मेरा इस्तकबाल किया। गर्मियों में लोग घर के बाहर चारपाई डालकर सो रहे थे जिनके खर्राटों की आवाजें सुरीली लग रही थीं, कभी कोई बुजुर्ग खाँसता तो लगता कि सुर मिलाने की कोशिश कर रहा हो। मैं अपने घर की गली की तरफ मुड़ा, तो टीकू काका का ऊँट जुगाली कर रहा था जो विदेशियों की सवारी के लिए न होकर खेत जोतने के लिए था। हर गली के पास बोर्ड लगा हुआ था, इतने बोर्ड जैसे गाँव में विकास की गंगा बह गई हो लेकिन सड़कों की जगह अभी भी पत्थर के खुर्रे थे, इस सदी में बोर्ड आए हैं शायद अगली सदी में विकास आ जाए.
घर में जब मुनींद्र की शादी की बात चली तो अजीब तरह के किस्से सुनने में आए-'लड़की एक पैर से लँगड़ी है, मगर चलने-फिरने से पता नहीं चलता था। यह रिश्ता पैसे के लालच में हुआ है। लड़की में कोई खोट ज़रूर है।'
जब मैंने घरवालों से पूछा, 'आप को कैसे पता कि लड़की में खोट है?'
'पूरा गाँव यही कह रहा है' सभी का एक ही जवाब था।
यह सही था कि मुनींद्र की शादी की चर्चा पूरे गाँव में थी। जितने मुँह उतनी बातें, वैसे लड़की को किसी गाँव वाले ने देखा नहीं था। मुनींद्र व उसके घरवालों के सामने कोई कुछ नहीं कहता, मगर पीछे से इतनी बातें होती कि बताना मुश्किल है। उस लड़की के बारे में जिसको लेकर शादी वाले दोनों पक्षों में कोई दिक्कत नहीं थी। लड़की की उम्र के बारे में तो 35 से लेकर 50 साल तक, कोई कितना भी बताने का अधिकार रखता हो जैसे। आज कल उस लड़की में खोट निकालने के लिए मुनींद्र की काफी प्रशंसा होती है। लोग मुनींद्र के ऐसे गुण निकाल के ले आते कि उसे खुद पता नहीं कि वे गुण उसमें कब विकसित हुए.
कुल मिलाकर बात यह थी कि मुनींद्र आजकल गाँव में हीरो हो गया था। एक मैट्रिक का छात्र बोला कि वह लड़की मुनींद्र के बाप के जोड़े की है। जो शादी का 'क' भी नहीं जानता वह भी मुनींद्र की शादी पर फौजदारी वकील की तरह भाषण देता। मेरे दिमाग में इतनी बातें भर दी गई कि मुझे उसकी शादी ताजमहल से भी बड़ा अजूबा लगने लगी। लोगों में एक अजीब उल्लास था, कुछ तो ऐसे थे कि कोई नई बात इस शादी के बारे में नहीं सुनते तो खाना हजम नहीं होता।
बारात के पहले दिन मुनींद्र के घर पर पार्टी थी, जिसमें लोग बिना बुलाए ही पहुँच गए. अगर राष्ट्रीय मीडिया को इसकी खबर लग जाती तो देश के तमाम मुद्दे छोड़कर इस शादी को कवरेज मिलता शायद। लेकिन भला हो गाँव वालों का कि मीडिया को खबर नहीं दी और देश को इस नए मुद्दे से बचा लिया। पार्टी में लोग खाने-पीने का काम छोड़कर फुर्सत मिलते ही खोट की चर्चा में लग जाते।
जाते ही मैं मुनींद्र से मिला। इस मामले पर उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। क्योंकि जब इतनी चर्चा हो रही है, तब बात तो उसके कानों तक भी पहुँची ही होगी। मगर मुनींद्र का चेहरा किसी रहस्य में डूबा हुआ-सा था, वह कोई भी उत्तर देने को तैयार नहीं था। वह घुमा-फिराकर बात को टाल देता। औरतें मुनींद्र को ऐसे देख रही थीं, जैसे वह दुनिया का सबसे सुंदर मर्द हो और बेचारे की शादी किसी इनसान से नहीं जानवर से हो रही हो। लोगों की नजरों से उस पर बेहिसाब रहम की बारिश हो रही थी।
'अरे! उसको मार डालोगे।' अचानक मेरे ख्यालों का सिलसिला टूटा, तो मुनींद्र दालबाटियों के पास खड़ा था।
मैंने भी ज़्यादा गहराई में जाना उचित नहीं समझा और शादी की बधाई देकर पार्टी में शमिल हो गया। रात भर नाचने-गाने का सिलसिला चलता रहा, लेकिन अन्य शादियों से अलग इस शादी में नाचने-गाने में भी खोट थी। लोग कम नाच रहे थे, आँखें ज़्यादा नाच रही थी।
रात को देर से आने कारण सुबह वक्त पर नहीं उठ पाया था। जब आँखें खुलीं तो पता चला कि बारात तो जाने वाली है। जल्दी से तैयार होकर बारात में शामिल हो गया।
बारात लड़की के गाँव पहुँची, पूरी बारात ही बैंड पर नाच रही थी। मुझे लगा कि आखिर लोगों को हो क्या गया है? हर जगह लोग उछल रहे थे, चाहे बच्चा हो या बूढ़ा। जब लड़की को लाया गया तब तो हद हो गई, लड़की देखने के लिए लोग एक-दूसरे से हाथापाई पर उतर आए, मुझे चुनाव याद आ गया। मैंने भी उस लड़की को देखा मगर मेरी आँखें लाख कोशिशों के बाद उसमें कोई खोट नहीं निकाल सकी। या तो मैं पागल हूँ या फिर गाँव वाले।
शादी धूम-धड़ाके से हुई.
दूसरे दिन सुबह-सुबह मेरे एक दादाजी आए. वे बोले, 'तुम बारात में गए थे?'
मैंने कहा, 'हाँ।'
वे थोड़े से शरमाते हुए बोले, 'मैंने सुना है कि लड़की की मूँछ है।'
मुझे अचानक हँसी आ गई, 'नहीं तो।'
कुछ दिनों तक मुनींद्र की शादी के बारे में ऐसी ही उटपटाँग बातें सुनने को मिलीं, फिर गाँव वालों को कोई दूसरा टॅापिक मिल गया। तब शायद मुनींद्र ने चैन की साँस ली होगी। बहुत बार सोचा कि इस बारे में उससे बात करूँ, मगर बचकाना समझकर कर नहीं पाया। वह पहले बहुत ही अजीज था, अब इस शादी वाली बातों से बहुत ही अजीब हो गया है। जब भी मिलता है तो खोया-खोया रहता है, न मेरी बातों में दिलचस्पी लेता है और न ही कुछ बताता है। मुझे लगा कि अब शायद मैं उसे सहन नहीं कर पाऊँगा, एक रहस्यमयी चुपी सहन करना मेरे लिए सबसे खतरनाक है। धीरे-धीरे मुनींद्र से दूरी बनाना शुरू कर दिया, फिर भी वह मेरे दिमाग में उसी तरह छाया हुआ था। आजकल हम दोनों गाँव में ही रहते हैं, उसने पढ़ने का इरादा छोड़ दिया और मैंने कमाने का।
कुछ दिनों बाद मुनींद्र फिर से मेरी जहन में आया, लेकिन इस बार एक सवाल बन कर। हुआ यूँ कि उसकी बीवी की नौकरी लग गई. उसकी नियुक्ति जैसलमेर में हुई. गाँव में खबर फैली कि मुनींद्र की बीवी ने उसे तलाक दे दिया।
खोट तो उस लड़की में था फिर उसने मुनींद्र को तलाक क्यों दिया?
इस सवाल का गाँव वालों के पास कोई जवाब नहीं था मगर मुझे लगा कि मैं जवाब के बहुत नजदीक पहुँच रहा हूँ।
इतवार का दिन था, मेरे एक दोस्त डॉक्टर नरेंद्र ने मुझे मिलने के लिए बुलाया। आजकल आवारागर्दी कर रहा था तो वक्त की कोई कमी नहीं थी। इसलिए दस बजे के आस-पास ही डॉक्टर के यहाँ चल पड़ा। नरेंद्र गुप्त रोग विशेशज्ञ है, इतवार को फीस लेकर घर पर मरीजों को देखता है। जब मैं नरेंद्र की घर में घुसने लगा, तो अंदर से एक आदमी सर पर तौलिया डाले सीढ़ियों से गुजरा। पहले मैंने ध्यान नहीं दिया।
अचानक मेरे दिमाग को झटका-सा लगा-
'कौन हो सकता है?'
दिमाग ने एक स्केच बना लिया लेकिन चेहरा समझ में नहीं आ रहा था।
अंदर जाते ही नरेंद्र बोला, 'यार तुम भी अजीब हो, मैंने तो शाम को बुलाया और तुम सुबह ही टपक पड़े।'
मैंने कहा, 'यह अभी-अभी गया है उस मरीज को क्या बीमारी थी?'
'अरे यार, इतनी दवाइयाँ बाज़ार में हैं जिनके सेवन से इसकी मर्दागनी खराब हो गई, जब खोट हो गया तो बीवी छोड़कर चली गई, अब मेरे पास आया है।' नरेंद्र बड़े मजे से कह रहा था।
'खोट!'
'नाम क्या था इसका?' मुझे पसीना आ गया।
नरेंद्र हँसा, 'तुम लेखक लोगों को बीमारी में भी कहानी सूझती है, मुनींद्र नाम है।'
'मुनींद्र!'
कोई और भी हो सकता है लेकिन मैंने मन में तय कर लिया था कि खोट है तो ज़रूर मुनींद्र ही होगा।
आज अफसोस होता है कि गाँव वालों ने जीवन के लिए कहानी बुनने की खातिर और लेखक ने कहानी के लिए जीवन बुनने की खातिर कितना बड़ा बवंडर रच दिया।
मुनींद्र और सरोज आज भी एक सफल जीवन जी रहे हैं।