खोया पानी / भाग 11 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

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स्कूल मास्टर का ख्वाब

हर व्यक्ति के मन में ऐश्वर्य और भोग-विलास का एक नक्शा होता है। ये नक्शा दरअस्ल उस ठाट-बाट की नक्ल होता है जो दूसरों के हिस्से में आया है, परंतु जो दुख आदमी सहता है वो अकेला उसका अपना होता है, बिना किसी साझेदारी के, एकदम निजी, एकदम अनोखा। हड्डियों को पिघला देने वाली जिस आग से वो गुजरता है, उसका अनुमान कौन लगा सकता है। नर्क की आग में ये गर्मी कहां। जैसा दाढ़ का दर्द मुझे हुआ है, वैसा किसी और को न कभी हुआ, न होगा। इसके विपरीत ठाट-बाट का ब्लू-प्रिंट हमेशा दूसरों से चुराया हुआ होता है। बिशारत के दिमाग में ऐश्वर्य और विलास का जो सौरंगा और हजार पैवंद लगा चित्र था, वो बड़ी-बूढ़ियों की उस रंगारंग रल्ली की भांति था जो वो भिन्न-भिन्न रंगों की कतरनों को जोड़-जोड़ कर बनाती हैं। उसमें, उस समय का जागीरदाराना दबदबा और ठाट, बिगड़े रईसों का जोश और ठस्सा, मिडिल-क्लास दिखावा, कस्बाती-उतरौनापन, नौकरी-पेशा हुस्न, सादा-दिली और नदीदापन सब बुरी तरह गडमड हो गए थे। उन्हीं का कहना है कि बचपन में मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी कि तख्ती फेंक-फांक, किताब फाड़-फूड़ मदारी बन जाऊं, शहर-शहर डुगडुगी बजाता, बंदर, भालू, जमूरा नचाता और 'बच्चा लोग' से ताली बजवाता फिरूं। जब जरा अक्ल आई अर्थात बुरे और बहुत बुरे की समझ पैदा हुई तो मदारी की जगह स्कूल मास्टर ने ले ली और जब धीरजगंज में सच में मास्टर बन गया तो मेरी राय में अय्याशी की चरम-सीमा ये थी कि मक्खन जीन की पतलून, दो-घोड़ा बोस्की की कमीज, डबल कफों में सोने के छटांक-छटांक भर के बटन, नया सोला हैट और पेटेंट लैदर के पंप-शूज पहनकर स्कूल जाऊं और लड़कों को केवल अपनी गजलें पढ़ाऊं। सफेद सिल्क की अचकन जिसमें बिदरी के काम वाले बटन गले तक लगे हों, जेब में गंगा-जमनी काम की पानों की डिबिया, सर पर सफेद किमख्वाब की रामपुरी टोपी, तिरछी मगर जरा शरीफना ढंग से लेकिन ऐसा भी नहीं कि निरे शरीफ ही हो के रह जायें। छोटी बूटी की चिकन का सफेद कुर्ता जो मौसम के लिहाज से हिना या खस की खुशबू में बसा हो। चूड़ीदार पाजामे में सुंदर लड़की के हाथ का बुना हुआ रेशमी कमरबंद। सफेद सलीमशाही जूता। पैरों पर डालने के लिए इटालियन कंबल, जो फिटन में जुते हुए सफेद घोड़े की दुम और उससे दूर तक उड़ने वाले पेशाब-पाखाने के छींटों से पाजामे को सुरक्षित रखे। फिटन के पिछले पायदान पर 'हटो! बचो!' करते और उस पर लटकने का प्रयास करने वाले बच्चों को चाबुक मारता हुआ साईस। जिसकी कमर पर जरदोजी के काम की पेटी और टखने से घुटने तक खाकी नम्दे की पट्टियां बंधी हों। बच्चा अब सयाना हो गया था। बचपन विदा हो गया था, पर बचपना नहीं गया था।

बच्चा अपने खेल में जिस उत्साह और सच्ची लगन के साथ तल्लीन होता है कि अपने-आप को भूल जाता है, बड़ों के किसी मिशन और मुहिम में इसका दसवें का दसवां भाग भी दिखाई नहीं पड़ता। इसमें शक नहीं कि संसार का बड़े-से-बड़ा दार्शनिक भी किसी खेल में मग्न बच्चे से अधिक गंभीर नहीं हो सकता।

खिलौना टूटने पर बच्चे ने रोते-रोते अचानक रौशनी की ओर देखा तो आंसू में इंद्रधनुष झिलमिल-झिलमिल करने लगा। फिर वो सुबकियां लेते-लेते सो गया। वही खिलौना बुढ़ापे में किसी जादू के जोर से उसके सामने लाकर रख दिया जाये तो वो भौंचक्का रह जायेगा कि इसके टूटने पर भला कोई इस तरह जी-जान से रोता है। यही हाल उन खिलौनों का होता है, जिनसे आदमी जीवन भर खेलता रहता है। हां, उम्र के साथ-साथ यह भी बदलते और बड़े होते रहते हैं। कुछ खिलौने अपने-आप टूट जाते हैं, कुछ को दूसरे तोड़ देते हैं। कुछ खिलौने प्रमोट होकर देवता बन जाते हैं और कुछ देवियां दिल से उतरने के बाद गूदड़ भरी गुड़ियां निकलती हैं। फिर एक अभागिन घड़ी ऐसी आती है, जब वो इन सबको तोड़ देता है। उस घड़ी वो खुद भी टूट जाता है।

'तराशीदम, परस्तीदम, शिकस्तम'

(मैंने तराशा, मैंने पूजा, मैंने तोड़ दिया)

आज इन बचकानी इच्छाओं पर स्वयं उनको हंसी आती है। मगर यह उस समय की हकीकत थीं। बच्चे के लिए उसके खिलौने से अधिक ठोस और अस्ल हकीकत पूरे ब्रह्मांड में कुछ और नहीं हो सकती। सपना, चाहे वह आधी रात का सपना हो या जागते में देखा जाने वाला सपना हो, देखा जा रहा होता है तो वही और केवल वही उस क्षण की एकमात्र वास्तविकता होती है। यह टूटा खिलौना, यह आंसुओं में भीगी पतंग और उलझी डोर, जिस पर अभी इतनी मार-कुटाई हुई, यह जलता-बुझता जुगनू, यह तना हुआ गुब्बारा जो अगले पल रबड़ के लिजलिजे टुकड़ों में बदल जायेगा, मेरी हथेली पर सरसराती यह मखमली बीरबहूटी, आवाज की रफ्तार से भी तेज चलने वाली यह माचिस की डिब्बियों की रेलगाड़ी, यह साबुन का बुलबुला - जिसमें मेरा सांस थर्रा रहा है, इंद्रधनुष पर यह परियों का रथ - जिसे तितलियां खींच रही हैं इस पल, इस क्षण बस यही और केवल यही हकीकत है।


यह किस्सा खिलौना टूटने से पहले का है

उन दिनों वो नये-नये स्कूल मास्टर नियुक्त हुए थे और फिटन उनकी सर्वोच्च आकांक्षा थी। सच तो यह है कि इस यूनिफार्म यानी सफेद अचकन, सफेद जूते, सफेद कुर्ते-पाजामे और सफेद कमरबंद की खखेड़ केवल अपने आपको सफेद घोड़े से मैच करने के लिए थी। वरना इस बत्तखा भेस पर कोई बत्तख ही आशिक हो सकती थी। उन्हें चूड़ीदार से सख्त चिढ़ थी। केवल सुंदर कन्या के हाथ के बुने सफेद कमरबंद का प्रयोग करने के लिए यह सितार का गिलाफ टांगों पर चढ़ाना पड़ा। इस हवाई किले की हर ईंट सामंती गारे से निर्मित हुई थी, जो संपन्न सपनों से गुंथा था। केवल इतना ही नहीं कि प्रत्येक ईंट का साइज और रंग भिन्न था, बल्कि उनकी आकृति भी उकेरी हुई थी। कुछ ईंटें गोल भी थीं। बारीक-से-बारीक बात यहां तक कि शालीनता की उस सीमा को भी तय कर दिया गया था कि उनकी उपस्थिति में सफेद घोड़े की दुम कितनी डिग्री के कोण तक उठ सकती है और उनकी सवारी के रूट पर किस-किस खिड़की की चिक के पीछे किस कलाई में किस रंग की चूड़ियां छनक रही हैं, किसकी हथेली पर उनका नाम मय बी.ए. की डिग्री, मेंहदी से लिखा है और किस-किस की सुरमई आंखें पर्दे से लगी राह तक रही हैं कि कब इंकलाबी शाहजादा ये दावत देता हुआ आता है कि -

तुम परचम लहराना साथी मैं बरबत पर गाऊंगा

यहां ये निवेदन करता चलूं कि इससे बढ़िया तथा सुरक्षित कार्य विभाजन क्या होगा कि घमासान के रण में परचम (युद्ध ध्वज) तो साथी उठाये, कटता-मरता फिरे और खुद शायर दूर किसी संगे-मरमर के मीनार पर बैठा एक फटीचर और वाहियात वाद्य 'बरबत' पर वैसी ही कविता यानी खुद अपनी-ही कविता गा रहा है। गद्य में इसी सिचुएशन को 'चढ़ जा बेटा सूली पर भली करेंगे राम' में जियादा फूहड़ ईमानदारी से बयान किया गया है।

लीजिये! प्रारंभ में ही गड़बड़ हो गयी, वरना कहना सिर्फ इतना था कि मजे की बात यह थी कि इस सोते-जागते सपने के दौरान बिशारत ने स्वयं को स्कूल मास्टर के ही 'शैल' में देखा, पद बदलने का साहस सपने में भी न हुआ! संभवतः इसलिए भी कि फिटन और रेशमी कमरबंद से केवल स्कूल मास्टरों पर ही रोब डाल सकते थे। जमींदारों और जागीरदारों के लिए इन चीजों की क्या हैसियत थी। अपनी पीठ पर बीस वर्ष बाद भी उस आग की लकीर की जलन वो अनुभव करते थे जो चाबुक लगने से उस समय उभरी थी जब मुहल्ले के लौंडों के साथ शोर मचाते और चाबुक खाते वो एक रईस की सफेद घोड़े वाली फिटन का पीछा कर रहे थे।


चौराहे बल्कि संकोच - राहे पर

शेरो-शायरी छोड़कर स्कूल-मास्टरी अपनायी। स्कूल मास्टरी को धता बताकर दुकानदारी की और अंततः दुकान बेच खोंच कर कराची आ गये, जहां हरचंद राय रोड पर दोबारा लकड़ी का कारोबार शुरू किया। नया देश, बदला-बदला सा रहन-सहन, एक नयी और व्यस्त दुनिया में कदम रखा, मगर उस सफेद घोड़े और फिटन वाली फेंटेसी ने पीछा नहीं छोड़ा। Day dreaming और फेंटेसी से दो ही सूरतों में छुटकारा मिल सकता है। पहली जब वह फेंटेसी न रहे, वास्तविकता बन जाये, दूसरे इंसान किसी चौराहे बल्कि संकोच-राहे पर अपने सारे सपने माफ करवा के विदा हो जाये Heart breaker, dreammaker, thank you for the dream और उस खूंट निकल जाये, जहां से कोई नहीं लौटा यानी घर-गृहस्थी की ओर, परंतु बिशारत को इससे भी लाभ नहीं हुआ। वो भरा-पूरा घर औने-पौने बेचकर अपने हिसाब से लुटे-पिटे आये थे। यहां एक-दो साल में खुदा ने ऐसी कृपा की कि कानपुर तुच्छ लगने लगा। सारी इच्छायें पूरी हो गयीं, अर्थात घर अनावश्यक वस्तुओं से अटाअट भर गया। बस एक कमी थी।

सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है घोड़े के सिवा

अब वो चाहते तो नयी न सही, सेकेंड-हैंड कार आसानी से खरीद सकते थे। जितनी रकम में आज कल चार टायर आते हैं, इससे कम में उस जमाने में कार मिल जाती थी, लेकिन कार में उन्हें वह रईसाना ठाट और जमींदाराना ठस्सा नजर नहीं आता था, जो फिटन और बग्घी में होता है। घोड़े की बात ही कुछ और है।


घोड़े के साथ वीरता भी गयी

मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग कहते हैं कि मनुष्य जब बिल्कुल भावुक हो जाये तो उससे बुद्धिमानी की कोई बात कहना ऐसा ही है जैसे बगूले में बीज बोना। इसलिए बिशारत को इस फिजूल शौक से दूर रखने के बजाय उन्होंने उल्टा खूब चढ़ाया। एक दिन आग को पेट्रोल से बुझाते हुए कहने लगे कि जबसे घोड़ा रुखसत हुआ, संसार से बहादुरी, जांबाजी और दिलेरी की रीत भी उठ गयी। जानवरों में कुत्ता और घोड़ा इंसान के सबसे पहले और पक्के मित्र हैं जिन्होंने उसकी खातिर हमेशा के लिए जंगल छोड़ा। कुत्ता तो खैर अपने कुत्तेपन के कारण चिपटा रहा, लेकिन इंसान ने घोड़े के साथ बेवफाई की। घोड़े के जाने से मानव-संस्कृति का एक सामंती-अध्याय समाप्त होता है।

वो अध्याय जब योद्धा अपने शत्रु को ललकार कर आंखों में आंखें डाल के लड़ते थे। मौत एक भाले की दूरी पर होती थी और यह भाला दोनों के हाथ में होता था। मृत्यु का स्वाद अजनबी सही, पर मरने वाला और मारने वाला दोनों एक-दूसरे का चेहरा पहचान सकते थे। बेखबर सोते हुए, बेचेहरा शहरों पर मशरूम-बादल की ओट से आग और एटमी मौत नहीं बरसती थी। घोड़ा केवल उस समय बुजदिल हो जाता है, जब उसका सवार बुजदिल हो। बहादुर घोड़े की टाप के साथ दिल धक-धक करते और धरती थर्राती थी। पीछे दौड़ते हुए बगूले, नालों से उड़ती चिंगारियां, भालों की नोक पर किरण-किरण बिखरते सूरज और सांसों की हांफती आंधियां कोसों दूर से शहसवारों के आक्रमण की घोषणा कर देती थीं। घोड़ों के एक साथ दौड़ने की आवाज से आज भी लहू में हजारों साल पुराने उन्माद के अलाव भड़क उठते हैं।


हमारी सवारी : केले का छिलका

फिटन और घोड़े से बिशारत के लगाव की चर्चा करते-करते हम कहां आ गये। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने एक बार बड़े अनुभव की बात कही कि 'जब आदमी केले के छिलके पर फिसल जाये तो फिर रुकने, ब्रेक लगाने का प्रयास कदापि नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे और अधिक चोट आयेगी। बस आराम से फिसलते रहना चाहिये और फिसलने का आनंद लेना चाहिये। तुम्हारे उस्ताद जौक के कथनानुसार -

तुम भी चले चलो ये जहां तक चली चले

केले का छिलका जब रुक जायेगा तो स्वयं रुक जायेगा। Just relax! इसलिए केवल कलम ही नहीं कदम या कल्पना भी फिसल जाये तो हम इसी नियम पर अमल करते हैं। बल्कि साफ-साफ क्यों न मान लें कि इस लंबी जीवन-यात्रा में केले का छिलका ही हमारी एक मात्र सवारी रहा है। ये जो कभी-कभी हमारी चाल में जवानों की-सी तेजी और स्वस्थ प्रकार की चलत-फिरत आ जाती है तो यह उसी के कारण है। एक बार रपट जायें तो फिर यह कदम चाल जो भी कुएं झंकवाये और जिन गलियों-गलियारों में ले जाये, वहां बिना इरादे के लेकिन बड़े शौक से जाते हैं। खुद को रोकने-थामने का जरा भी प्रयास नहीं करते और जब दवात फूट कर कागज पर बिखर जाती है तो हमारी मिसाल उस बच्चे की-सी होती है, जिसकी ठसाठस-भरी जेब के सारे राज कोई अचानक निकालकर सबके सामने मेज पर नुमाइश लगा दे। सबसे अधिक संकोच बड़ों को होता है, क्योंकि उन्हें अपना भूला-बिसरा बचपन और अपनी वर्तमान मेज की दराजें याद आ जाती हैं। जिस दिन बच्चे की जेब से फिजूल चीजों की बजाय पैसे बरामद हों तो समझ लेना चाहिये कि अब उसे चिंता-मुक्त नींद कभी नसीब नहीं होगी।

रेसकोर्स से तांगे तक

जैसे-जैसे बिजनेस में मुनाफा बढ़ता गया, फिटन की इच्छा भी तीव्र होती गयी। बिशारत महीनों घोड़े की तलाश में भटकते रहे। ऐसा लगता था जैसे घोड़े के बिना उनके सारे काम बंद हैं और राजा रिचर्ड तृतीय की भांति घोड़े के लिए वह हर चीज का त्याग करने के लिए तैयार हैं -

"A horse! a horse! my kingdom for a horse!"

उनके पड़ौसी चौधरी करम इलाही ने सलाह दी कि जिला सरगोधा के पुलिस स्टड-फार्म से संपर्क कीजिये। वहां पुलिस की निगरानी में धारू ब्रीड और ऊंची जात के घोड़ों से नस्ल बढ़वाते हैं। घोड़ों का बाप, विशुद्ध और अस्ली हो तो बेटा उसी पर पड़ेगा। कहावत है कि बाप पर पूत, घोड़े पर घोड़ा, बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा। मगर बिशारत कहने लगे, 'मेरा दिल नहीं ठुकता। बात यह है कि जिस घोड़े की पैदाइश में पुलिस का हस्तक्षेप बल्कि गर्भक्षेप हो, वो विशुद्ध हो ही नहीं सकता। वो घोड़ा पुलिस पर पड़ेगा।'

घोड़े के बारे में यह बातचीत सुनकर प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस एम.ए.बी.टी. ने वो मशहूर शेर पढ़ा और हमेशा की तरह गलत अवसर पर पढ़ा, जिसमें देखने वाले की पैदाइश में होने वाली पेचीदगियों के डर से नर्गिस हजारों साल रोती है। मिर्जा कहते हैं कि प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस अपनी समझ में कोई बहुत ही बुद्धिमानी की बात कहने के लिए अगर बीच में बोलें तो बेवकूफ लगने लगते हैं, अगर न बोलें तो अपने चेहरे के सामान्य भाव के कारण और अधिक बेवकूफ दिखाई पड़ते हैं।

प्रोफेसर साहब के सामान्य-भाव से तात्पर्य चेहरे पर वो रंग हैं जो उस समय आते और जाते हैं जब किसी की जिप अध-बीच में अटक जाती है।

खुदा-खुदा करके एक घोड़ा पसंद आया जो एक स्टील री-रोलिंग मिल के सेठ का था। तीन-चार बार उसे देखने गये और हर बार पहले से अधिक संतुष्ट लौटे। उसका सफेद रंग ऐसा भाया कि उठते-बैठते उसी के चर्चे, उसी की स्तुति। हमने एक बार पूछा 'पंच-कल्याण है?'

'पंच-कल्याण तो भैंस भी हो सकती है। केवल चेहरा और हाथ-पैर सफेद होने से घोड़े की दुम में सुर्खाब का पर नहीं लग जाता। घोड़ा वो, जो आठों-गांठ कुमैत हो, चारों टखनों और चारों घुटनों के जोड़ मजबूत होने चाहिये। यह भाड़े का टट्टू नहीं, रेस का खानदानी घोड़ा है। यह घोड़ा उनके दिमाग पर इस बुरी तरह सवार था कि अब उसे उन पर से कोई घोड़ी ही उतार सकती थी।

सेठ ने उन्हें ऐसोसिएटिड प्रिंटर्ज में प्रकाशित कराची रेस क्लब की वो किताब भी दिखाई जो उस रेस से संबंधित थी, जिसमें उस घोड़े ने हिस्सा लिया और प्रथम आया था। इसमें उसकी तस्वीर और स्थिति पूरी वंशावली के साथ दर्ज थी। नाम - व्हाइट रोज, पिता - वाइल्ड ओक, दादा ओल्ड डेविल। जब से यह ऊंची-नस्ल का घोड़ा देखा, उन्होंने अपने पुरखों पर गर्व करना छोड़ दिया। उनके कथनानुसार, इसके दादा ने मुंबई में तीन रेसें जीतीं। चौथी में दौड़ते हुए हार्ट फेल हो गया। इसकी दादी बड़ी नरचुग थी। अपने समय के नामी घोड़ों से उसका संबंध रह चुका था। उनसे फायदा उठाने के नतीजे में उसकी छः पुत्र संतानें हुई। प्रत्येक अपने संबंधित बाप पर पड़ी। सेठ से पहले व्हाइट रोज एक बिगड़े रईस की संपत्ति था। जो बाथ आइलैंड में 'वंडर-लैंड' नाम की एक कोठी अपनी एंग्लो इंडियन पत्नी ऐलिस के लिए बनवा रहा था। री-रोलिंग मिल से जो सरिया खरीद कर ले गया, उसकी रकम कई महीने से उसके नाम खड़ी थी। रेस और सट्टे में दीवाला निकलने के कारण वंडर-लैंड का निर्माण रुक गया और एलिस उसे वंडर की लैंड में छोड़ कर, मुल्तान के एक जमींदार के साथ यूरोप की सैर को चली गयी। सेठ को एक दिन जैसे ही यह खबर मिली कि एक कर्ज लेने वाला अपनी रकम के बदले प्लाट पर पड़ी सीमेंट की बोरियां और सरिया उठवा के ले गया, उसने अपने मैनेजर को पांच लट्ठ-बंद चौकीदारों को साथ लेकर बाथ-आइलैंड भेजा कि भागते भूत की जो भी चीज हाथ लगे खसोट लायें। इसलिए वो यह घोड़ा अस्तबल से खोल लाये। वहीं एक सियामी बिल्ली नजर आ गयी, उसे भी बोरी में भर कर ले आये। घोड़े की ट्रेजडी को पूरी तरह समझाने के लिए बिशारत ने हमसे हमदर्दी जताते हुए कहा 'यह घोड़ा तांगे में जुतने के लिए तो पैदा नहीं हुआ था। सेठ ने बड़ी जियादती की, मगर भाग्य की बात है। साहब! तीन साल पहले कौन कह सकता था कि आप यूं बैंक में जोत दिये जायेंगे। कहां डिप्टी कमिश्नर और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की कुर्सी और कहां बैंक का चार फुट ऊंचा स्टूल!'

शाही सवारी

उन्हें इस घोड़े से पहली नजर में मुहब्बत हो गयी और मुहब्बत अंधी होती है, चाहे घोड़े से ही क्यों न हो। उन्हें यह तक सुझायी न दिया कि घोड़े की प्रशंसा में उस्तादों के जो शेर वो ऊटपटांग पढ़ते फिरते थे, उनका संबंध तांगे के घोड़े से नहीं था। यह मान लेने में कोई हरज नहीं कि घोड़ा शाही सवारी है। शाही रोब और राजसी आन-बान की कल्पना घोड़े के बिना अधूरी, बल्कि आधी रह जाती है। बादशाह के कद में घोड़े का कद भी बढ़ाया जाये, तब कहीं जा के वो कद्दे-आदम दिखाई पड़ता है। परंतु जरा ध्यान से देखा जाये तो शाही सवारियों में घोड़ा दूसरे नंबर पर आता है। इसलिए कि बादशाहों और तानाशाहों की मनपसंद सवारी दरअस्ल जनता होती है। ये एक बार उस पर सवारी गांठ लें तो फिर उन्हें सामने कोई कुआं, खाई, बाड़ और रुकावट दिखाई नहीं देती। जोश में वो दीवार भी फलांग जाते हैं। ये लेख वो तब तक नहीं पढ़ सकते जब तक वो Brailie में न लिखा हो।

जिसे वो अपना दरबार समझते हैं, वो वास्तव में उनका घेराव होता है, जो उन्हें यह समझने नहीं देता कि जिस मुंहजोर, सरकश घोड़े को केवल हिनहिनाने की इजाजत दे कर सरलता के साथ आगे से काबू किया जा सकता है, उसे वो पीछे से काबू करने की चेष्टा करते हैं, अर्थात लगाम की बजाय दुम मरोड़ते हैं। लेकिन इस सीधी-सादी लगने वाली सवारी का भरोसा नहीं, क्योंकि यह अबलका सदा एक चाल नहीं चलती। परंतु जो शासक होशियार, पारखी, और शासन में भले-बुरे के भेद से परिचित होते हैं वो पहले ही दिन गरीबों का सर कुचल कर सभी को पाठ समझा देते हैं।

वैसे बड़े और विशिष्ट व्यक्तियों को किसी और अंकुश की आवश्यकता नहीं होती। जो भी उन पर सोने का हौल, चांदी की घंटियां, जरबफ्त की झूल और तमगों की माला डाल दे, उसी के निशान का हाथी बनने के लिए कमर बांधे रहते हैं। चार दिन की जिंदगी मिली थी, सो दो जीहुजूरी की इच्छा में कट गये, दो जीहुजूरी में।


हमारा कजावा :

हमने एक दिन घोड़ों की शान में कुछ कह दिया तो बिशारत भिन्ना गये। हमने तो ठिठोली के उद्देश्य से एक ऐतिहासिक हवाला दिया कि जब मंगोल हजारों के झुंड बना कर घोड़ों पर निकलते तो बदबू के ऐसे भभके उठते थे कि बीस मील दूर से पता चल जाता था। कहने लगे, क्षमा कीजिये, आपने राजस्थान में, जहां आपने जवानी गंवायी, ऊंट ही ऊंट देखे। जिनकी पीठ पर कलफदार राजपूती साफे, चढ़वां दाढ़ियां और दस फुट लंबी नाल वाली तोड़ेदार बंदूकें सजी होती थीं और नीचे... कंधे पर रखी लाठी के सिरे पर तेल पिलाये हुए कच्चे चमड़े के जूतों को लटकाये अर्दली में नंगे पैर जाट।

'कमर बांधे, और हाथ पैर बांधे, फिर मुंह बांधे'

घोड़ा तो आपने यहां आन के देखा है। मियां अहसान इलाही गवाह हैं, उन्हीं के सामने आपने उन ठाकुर साहब का किस्सा सुनाया था जो महाराजा की ऊंटों की पल्टन में रिसालदार थे। जब रिटायर होकर अपने पुरखों के कस्बे... क्या नाम था उसका - उदयपुर तोरावाटी - पहुंचे तो अपनी गढ़ी में भेंट करने आने वालों के लिए दस-बारह मूढ़े डलवा दिये और अपने लिए अपने सरकारी ऊंट जंग बहादुर का पुराना कजावा, उसी पर अपनी पल्टन का लाल रंग का साफा बांधे, सीने पर तमगे सजाये, सुब्ह से शाम तक बैठे हिलते रहते। एक दिन हिल-हिल कर जंग बहादुर के कारनामे बयान कर रहे थे और मैडल झन-झन कर रहे थे कि दिल का दौरा पड़ा। कजावे पर ही आत्मा का पंछी पंचभूत-रूपी पिंजड़े से उड़ कर अपनी यात्रा पर रवाना हो गया। वापसी के क्षणों में होंठों पर मुस्कान और जंग बहादुर का नाम, क्षमा कीजिये, ये सब आप ही के द्वारा लिए गये स्नेप शाट्स हैं। आप भी तो अपने कजावे से नीचे नहीं उतरते। न उतरें! मगर यह कजावा इस अधम की पीठ पर रखा हुआ है। साहब! आप घोड़े का मूल्य क्या जानें। आप तो यह भी नहीं जानते कि खच्चर का 'क्रास' कैसे होता है? खरेरा किस शक्ल का होता है? कनौतियां कहां होती है? बैल के आर कहां चुभोई जाती हैं? चिल्गोजा किस भाषा का शब्द है? अंतिम दो प्रश्न आवश्यक और निर्णायक थे क्योंकि इनसे पता चलता था कि बहस किस नाजुक मोड़ पर आ चुकी है।

यह बहस हमें इसलिए और अधिक नागवार गुजरी कि हमें एक भी सवाल का जवाब नहीं आता था। स्वभाव के लिहाज से वो टेढ़े नहीं, बड़े धीमे और मीठे आदमी हैं, लेकिन जब इस प्रकार पटरी से उतर जायें तो हमें दूर तक कच्चे में खदेड़ते, घसीटते ले जाते हैं। कहने लगे जो व्यक्ति घोड़े पर न बैठा हो वो कभी संतुष्ट स्वाभिमानी और शेर, दिलेर नहीं हो सकता। ठीक ही कहते होंगे क्योंकि वो स्वयं भी कभी घोड़े पर नहीं बैठे थे।


जनाजे से दूर रखना

लंबे समय से उन्हें जीवन में जो खालीपन खटकता था वो इस घोड़े ने पूरा किया। उन्हें बड़ा आश्यर्च होता था कि इसके बिना अब तक कैसे बल्कि काहे को जी रहे थे।

I wonder by my troth what thou and I did till we loved-done.

इस घोड़े से उनका प्रेम इस हद तक बढ़ चुका था कि फिटन का विचार छोड़ कर सेठ का तांगा भी साढ़े चार सौ रुपये में खरीद लिया, हालांकि तांगा उन्हें जरा-भी पसंद नहीं आया था। बहुत बड़ा और गंवारू-सा था, लेकिन क्या किया जाये। सारे कराची में एक भी फिटन नहीं थी। सेठ घोड़ा और तांगा साथ बेचना चाहता था। यही नहीं उसने दाने की दो बोरियों, घास के पांच पूलों, घोड़े के फ्रेम किये हुए फोटो, हाज्मे के नमक, दवा और तेल पिलाने की नाल, खरेरे और तोबड़े का मूल्य - साढ़े उंतीस रुपये - अलग से धरवा लिया। वो इस धांधली को 'पैकेज-डील' कहता था। घोड़े के भी मुंहमांगे दाम देने पड़े। घोड़ा यदि अपने मुंह से दाम मांग सकता तो सेठ के मांगे हुए दामों यानी नौ सौ रुपये से कम ही होते। घोड़े की खातिर बिशारत को सेठ का तकिया कलाम 'क्या' और 'साला' भी सहन करना पड़ा। हिसाब चुकता करके जब उन्होंने लगाम अपने हाथ में ले ली और उन्हें यह विश्वास हो गया कि अब संसार की कोई शक्ति उनसे उनकी इच्छा के स्वप्नफल को नहीं छीन सकती, तो उन्होंने सेठ से पूछा कि आपने इतना अच्छा घोड़ा बेच क्यों दिया? कोई ऐब है?

उसने जवाब दिया, 'दो महीने पहले की बात है। मैं तांगे में लारेंस-रोड से ली-मार्केट जा रहा था। म्यूनिस्पिल वर्कशाप के पास पहुंचा होगा कि सामने से एक साला जनाजा आता दिखाई पड़ा... क्या? किसी पुलिस अफसर का था। घोड़ा आल-आफ-ए-सडन बिदक गया, पर कंधा देने वाले इससे भी अधिक बिदके। बेफिजूल डर के भाग खड़े हुए... क्या? बीच सड़क पे जनाजे की मिट्टी खराब हुई। हम साला उल्लू के माफिक बैठा देखता पड़ा। वो दिन है और आज का दिन, बेकार बंधा खा रहा है। दिल से उतर गया... क्या? वैसे ऐब कोई नहीं, बस जनाजे से दूर रखना। अच्छा, सलामालेकुम।' 'आपने पहले क्यों नहीं बताया?' 'तुमने पहले क्यों नहीं पूछा? सलामालेकुम।'