खोया पानी / भाग 23 / मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी / तुफ़ैल चतुर्वेदी

Gadya Kosh से
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'स्टूपिड काउ' से संवाद

ढाई-तीन महीने तक बिशारत का सारा समय, मेहनत, कमाई, दुआयें और गालियां नकारा कार पर खर्च होती रहीं। अभी बलबन का घाव पूरी तरह नहीं भरा था कि यह 'फोपा' हो गया। बेकौल उस्ताद कमर जलालवी

अभी खा के ठोकर संभलने न पाये

कि फिर खाई ठोकर संभलते-संभलते

कार अब अपनी मर्जी की मालिक हो गयी थी, जहां चलना चाहिये, वहां ढिठाई से खड़ी हो जाती और जहां रुकना होता वहां ख्वामखा चलती रहती। मतलब यह कि चौराहे और सिपाही के ग्रीन सिग्नल पर खड़ी हो जाती परंतु बंपर के सामने कोई राहगीर आ जाये तो उसे नजरअंदाज करती हुई आगे बढ़ जाती। जिस सड़क पर निकल जाती, उसका सारा ट्रैफिक उसके चलने और रुकने के हिसाब से चलता-रुकता था।

थक हार कर बिशारत उसी मेम के पास गये और खुशामद की कि खुदा के लिए पांच सौ कम में भी यह कार वापस ले लो। वो किसी प्रकार न मानी। उन्होंने अपनी फर्जी दरिद्रता और उसने अपने वैधव्य का वास्ता दिया। इंसाफ की उम्मीद न रही तो रहम की अपील में जोर पैदा करने के लिए दोनों अपने-आपको एक-दूसरे से अधिक बेचारा और बेसहारा साबित करने लगे। दोनों परेशान थे, दोनों दुखी और मुसीबत के मारे थे, लेकिन दोनों एक-दूसरे के लिए पत्थर का दिल रखते थे। बिशारत ने अपनी आवाज में बनावटी दर्द और जल्दी-जल्दी पलकें पटपटा कर आंखों में आंसू लाने चाहे, मगर उल्टा हंसी आने लगी। मजबूरी में दो-तीन बेहद दर्दनाक, परंतु एकदम फर्जी दृश्य (अपने मकान और दुकान की कुर्की और नीलामी का दृश्य, ट्रैफिक की दुर्घटना में अपनी असमय मृत्यु और इसकी खबर मिलते ही बेगम का झट से सफेद मोटी मलमल का दुपट्टा ओढ़ कर छन-छन चूड़ियों तोड़ना और रो-रो कर अपनी आंखें सुजा लेना) आंखों में भर कर रोने का प्रयास किया, लेकिन न दिल पिघला, न आंख से आंसू टपका। जीवन में पहली बार उन्हें अपने सुन्नी होने पर क्रोध आया। सहसा उन्हें अपने इन्कम-टैक्स के नोटिस का खयाल आ गया और उनकी घिग्घी बंध गयी। उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि 'मैं आप से सच कहता हूं, अगर यह कार कुछ दिन और मेरे पास रह गयी तो मैं पागल हो जाऊंगा या बेमौत मर जाऊंगा'।

यह सुनते ही मेम पिघल गयी, आंखों में दुबारा आंसू भर के बोली, 'आपके बच्चों का क्या बनेगा जिनकी ठीक संख्या के बारे में भी आपको शक है कि सात हैं या आठ। सच तो यह है कि मेरे पति की हार्ट अटैक से मौत भी इसी मनहूस कार के कारण हुई और उन्होंने इसी के स्टेयरिंग व्हील पर दम तोड़ा।'

उनके मुंह से बरबस निकला कि इससे तो बेहतर था मैं घोड़े के साथ ही गुजारा कर लेता। इस पर वो चौंकी और बड़ी बेसब्री से पूछने लगी।

"Your mean! a real horse?"

"Yes of course! why?"

'मेरे पहले पति की मृत्यु घोड़े से गिरने से हुई थी। वो भला-चंगा पोलो खेल रहा था कि घोड़े का हार्ट फेल हो गया। घोड़ा उस पर आ गिरा। वो मुझे बड़े प्यार से Stupid cow कहता था।' उसकी एंग्लो सेक्सन ब्लू ग्रे आंखों में सचमुच के आंसू तैर रहे थे।

वैसे बिशारत बड़े नर्म दिल के हैं। जवान औरत की आंखों में इस तरह आंसू देख कर उनके दिल में उसके आंसुओं को रेशमी रूमाल से पोंछने और उसकी विधवा की स्थिति तुरंत समाप्त करने की तीव्र इच्छा जागी

'कि बने हैं दोस्त नासेह'

इंसान का कोई काम बिगड़ जाये तो नाकामी से इतनी उलझन नहीं होती जितनी उन बिनमांगे मशवरों और नसीहतों से होती है, जिन्हें हर वो शख्स देता है जिसने कभी इस काम को हाथ तक नहीं लगाया। किसी ज्ञानी ने कैसे पते की बात कही है कि कामयाबी का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको कोई मशवरा देने का साहस नहीं कर सकता। हम अपने छोटे मुंह से न बड़ी बात कह सकते हैं, न छोटी, इसलिए यह नहीं बता सकते कि हम कामयाब हैं या नाकाम, लेकिन इतना अता-पता बताये देते हैं कि अगर हमारे स्क्रू और ढिबरियां लगी होतीं तो हमारे सारे मित्र, परिचित, शुभचिंतक, सब काम-धंधे छोड़-छोड़, अपने-अपने पेचकस और पाने ले कर हम पर पिल पड़ते। एक अपने चौकोर पाने से हमारी गोल ढिबरी खोलने का प्रयास करता, दूसरा तेल देने के सूराख में हथौड़े से स्क्रू ठोक देता, तीसरा दिन-रात की मेहनत से हमारे तमाम स्क्रू और 'टाइट' कर देता। आखिर में सब मिल कर हमारे सारे स्क्रू और ढिबरियां खोल कर फेंक देते, महज यह देखने के लिए कि हम इनके बिना भी सिर्फ दोस्तों की इच्छा-शक्ति से चल-फिर और चर-चुग सकते हैं या नहीं। हमारी और उनकी सारी उम्र इस खुड़पेच में समाप्त हो जाती। कुछ ऐसा ही हाल मियां बिशारत का कार के हर ब्रेकडाउन के बाद होता था। उन्हें बड़ी संख्या में ऐसी नसीहतें सुननी पड़तीं जिनमें कार की खराबियों के बजाय उनकी अपनी खामियों की ओर ऐसे इशारे होते, जिन्हें समझने के लिए बुद्धिमान होना आवश्यक नहीं। उधर पैदल चलने वाले बिशारत को देख-देख कर शुक्र करते कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि कार नहीं रखते।

नसीहत करने वालों में सिर्फ हाजी अब्दुर्रहमान अली मुहम्मद बांटू वाले ने काम की बात कही। उसने नसीहत की कि कभी किसी बुजुर्ग के मजार, इन्कम टैक्स के दफ्तर या डाक्टर के प्राइवेट क्लीनिक में जाना हो तो कार एक मील दूर खड़ी कर दो। एक सप्ताह पहले से पान खाने के बाद दांत साफ करना बंद कर दो। मुंह के दोनों ओर रेखाओं में पीक के ब्रेकेट लगे रहने दो और चार दिन के पहने हुए कपड़े और इतनी ही मुद्दत का बढ़ा हुआ शेव लेकर उनके सामने जाओ। अगर फैक्ट्री के मालिक हो तो रेहड़ी वाले का-सा हुलिया बना लो 'नईं तो साला लोग एक दम चमड़ी उतार लेंगा और कोरे बदन पे नमक-मिर्ची लगा हवा बंदर को भेज देंगा। ऐ भाई! हम तुमारे को बोलता है, कभी इन्कम-टैक्स अफसर, पुलिस, जवान जोरू और पीर फकीर के पास जाओ तो सोल्जर की माफिक खाली हाथ हिलाते, डबल मार्च करते नईं जाओ, हमेशा कोई डाली, कुछ माल-पानी, कुछ नजर-नजराना ले के जाओ। नईं तो साला लोग खड़े-खड़े खाल खिंचवा के उसमें अखबार की रद्दी भरवा देंगा। सब्ज (सौ रुपये का नोट) देख के जिसकी आंख में टू हंडेरेड केंडल पावर का चमकारा नईं आये तो समझो, साला सोलह आने कलर ब्लाइंड है या औलिया अल्लाह बनेला है, नईं तो फिर होये न होये बैंक का गवर्नर है जो नोटों पर दसखत करता है।'


नीम की निंदा में संवाद

कभी ऐसा भी होता कि कार की बुराइयों पर से पर्दा उठाते-उठाते खलीफा अपनी कर्म-कुंडली खोल के बैठ जाता और अपनी करतूतों को करिश्मों की तरह बयान करने लगता। यह तो कोई स्वभाव समझने वाला ही बता सकता था कि हकीकत कह रहा है या अतृप्त इच्छाओं के मैदान में खयाली घोड़े दौड़ा रहा है। एक दिन फकीर मुहम्मद रसोइये से कहने लगा, 'आज तो सईद मंजिल के सामने हमारी घोड़ी (कार) बिल्कुल बावली हो गयी। हर पुर्जा अपना-अपना राग अलापने लगा। पहले तो इंजन गरम हुआ, फिर radiator जिसके लीक को मैंने साबुन की लुगदी से बंद कर रखा था, फट गया। फिर पिछला टायर लीक करने लगा। मैंने हवा भरने के लिए कार की ही उम्र का पंप निकाला तो मालूम है क्या हुआ! पता चला कि पंप से हवा लीक कर रही है। फैन बेल्ट भी गर्मी से टूट गयी। अंग्रेज की सवारी में रहने से इसका मिजाज सौदावी (वात रोग संबंधी) हो गया है हकीम फहीमुद्दीन आगरे वाले कहा करते थे कि स्त्री सौदावी स्वभाव की हो तो पुरुष आतिशी (अग्नि संबंधी) मिजाज का चाहिये ही चाहिये। यार! आतिशी मिजाज पे याद आया, अब्दुल रज्जाक छैला को, अबे! वही छैला, नाज सिनेमा का गेट कीपर, उसी को गुप्त रोग हो गया है। साला अपने अंजाम को पहुंचा। कहता है, अंग्रेजी फिल्में देखने, गुड़ की गजक खाने और नूरजहां के गानों से खून गर्मी खा गया है। पुराने जमाने में हमारे यहां यह नियम था, पता नहीं तेरी तरफ था कि नहीं, कि तमाशबीनी के चक्कर में किसी को ऐसा रोग हो जाये तो उसे टखनों से एक बालिश्त ऊंचा तहमद बंधवा के नीम की टहनी हाथ में थमा देते थे। जवानी में मैंने अच्छे-अच्छे शरीफ लोगों को मुहल्ले में हरी झंडी लिए फिरते देखा है। मशहूर था कि नीम की टहनी से छूत की बीमारी नहीं लगती, पर मेरे विचार से तो केवल ढिंढोरा पीटने के लिए यह ढोंग रचाते थे। खून और तबियत साफ करने के लिए मरीज को ऐसा कड़वा चिरायता पिलाया जाता था कि हल्क से एक घूंट उतरते ही पुतलियां ऊपर चढ़ जातीं। अगले वक्तों में इलाज में सजा छुपी होती थी। मौलवी याकूबअली नक्शबादी कहा करते थे कि इसीलिए देसी (यूनानी) इलाज को हिकमत कहते हैं!

'यार उन दिनों साले नीम ने भी जान आफत में कर रखी थी। गरीबों को यह रईसों का रोग लग जाये या मामूली फोड़े फुंसियां निकल आयें तो गांव कस्बे के हकीम शुरू से आखिर दम-तलक नीम ही से इलाज करते थे। सारी दवायें नीम से ही बनती थीं। नीम के साबुन से नहलवाते, नीम की निंबौली और जल का लेप बताते। नीम का मरहम लगाते, नीम की सींकों और सूखे पत्तों की धूनी देते। जवान खून जियादा गर्मी दिखाये तो नीम के बौर और कोंपलों का रस पिलाते। नीम के गोंद की दवा चटाते। निंबोली का पाउडर जहर-मार कराते। हर खाने से पहले नीम की दातुन करवाते ताकि हर खाने में उसी का मजा आये। खून साफ करने के बहाने जोंकों को आये दिन सेरों खून पिलवा देते, यहां तक कि अगला एक-दम चुसा आम हो जाता और हरमजदगी तो दूर नमाज भी पढ़ता तो घुटने चट चट चटखने लगते। नासूर को नीम के गरम पानी से धारते ताकि रोग के कीटाणु मर जायें और रोगी कीटाणुओं से पहले ही हकीम को प्यारा हो जाये तो घड़े में नीम के पत्ते उबाल, शव को नहला के जनाजा नीम के नीचे रख देते। फिर ताजा कब्र पे तीन डोल पानी छिड़क के सिरहाने नीम की टहनी गाड़ देते। दफ्ना के घर आते तो मरने वाले की विधवा की सोने की लौंग उतरवा कर उसी नीम की सींक नाक में पहना दी जाती, जिसमें झूला डाल के वो कभी सावन में झूला करती थी। फिर उसे सफेद दुपट्टा उढ़ाते और एक हाथ में सरौता और दूसरे में कव्वे उड़ाने के लिए नीम की झंडी थमा कर नीम की छांव तले बिठा देते।

खलीफा की पापबीती

खलीफा की मुसीबत यह थी कि एक बार शुरू हो जाये तो रुकने का नाम नहीं लेता था। बूढ़ा हो चला था, परंतु उसकी डींगों से ऐसा लगता था कि बुढ़ापे ने फैंटेसी को भी सच बना दिया था कि बस सब मान लेते थे और यह कोई अनोखी बात नहीं थी। एक पुरानी कहावत है कि बुढ़ापे में मनुष्य की यौन-शक्ति जबान में आ जाया करती है। उसकी शेखी-भरी दास्तान सच्ची हो या न हो, दास्तान कहने का अंदाज सच्चा और खरा था। उससे सीधे-सादे सुनने वाले ऐसी सम्मोहित होते थे कि खयाल ही न आता कि सच बोल रहा है या झूठ, बस जी चाहता यूं ही बोले चला जाये। खलीफा की कहानी उसी की जबानी जारी है। हमने केवल नयी सुर्खी लगा दी है।

'और यार फकीरा! गुलबिया नटनी तो जानो आग-भरी छछूंदर थी। उचटती-सी भी नजर पड़ जाये तो झट नीम की टहनी हाथ में थमा देती थी। यार! झूठ नहीं बोलूंगा, कयामत के दिन अल्लाह मियां के अलावा अब्बा जी को भी मुंह दिखाना है। अब तुम से क्या पर्दा मैं कोई पीर-पयंबर तो हूं नहीं। गोश-पोश का इंसान हूं और जैसा कि मौलवी हशमतुल्लाह कहते हैं, इंसान गलतियों का पुतला है। तो यार! हुआ यूं कि नीम की टहनी मुझे भी लहरानी पड़ी। मीठा बरस भी नहीं लगा था। सत्रहवां चल रहा था कि कांड हो गया। पर यकीन जानो तमीजन एक नंबर की शरीफ औरत थी। ऐसी-वैसी नहीं, ब्याही-त्याही थी। पड़ोस में रहती थी। सच तो यह है कि मैंने जवानी और पड़ोसी के घर में एक साथ ही कदम रखा। उम्र में मुझसे बीस नहीं तो पंद्रह बरस जुरूर बड़ी होगी पर बदन जैसे कसी-कसायी ढोलक। हवा भी छू जाये तो बजने लगे। मैं उसके मकान की छत पर पतंग उड़ाने जाया करता था। वो मुझे आते-जाते कभी गजक तो कभी अपने हाथ का हलवा खिलाती। जाड़े के दिन थे, उसका आदमी उससे बीस नहीं तो पंद्रह बरस तो जुरूर ही बड़ा था, औलाद का तावीज लेने फरीदाबाद गया हुआ था। खी...खी...खी...खी..., मैं चार पतंगें कटवा के चर्खी बगल में दबाये छत पे से उतारा तो देखा वो छिदरे बानों की चारपायी की आड़ करके नहा रही है। आंखों में अब तलक बान की जालियों के पीछे का नजारा बसा हुआ है। मुझे आते देख कर एक दम अलिफ नंगी खड़ी हो गयी। यार! तुझे क्या बताऊं मेरी रग-रग में फुलझड़ियां छूटने लगीं। घड़ी भर में उलट के रख दिया, गजक की तासीर गर्म होती है।

मेरी बीमारी का भांडा फूटा तो अब्बा, अल्लाह उनको करवट-करवट जन्नत बख्शे, आपे से बाहर हो गये। जूता तान कर खड़े हो गये, कहने लगे 'तू मेरी औलाद नहीं! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी गर्दन उड़ा दूंगा।' हालांकि तलवार तो दूर, घर में भोंटी (कुंद) छुरी तलक न थी, जिससे नकटे की नाक भी कट सके। फिर मैं उनसे कद में डेढ़ बालिश्त बड़ा था, पर उनका इतना रुआब था कि मैं अपने रंगीन तहमद में थर-थर कांप रहा था। मां मेरे और उनके बीच ढाल बन के खड़ी हो गयी और उनका हाथ पकड़ लिया। मुझे एक-एक बात याद है। बीच बचाव कराने में चूड़ियां टूटने से मां की कलाई से खून टपकने लगा। दिन-रात मेहनत-मजदूरी करती थी। जहां तक मेरी छुटपन की याद्दाश्त काम करती है, मैंने उसके चेहरे पर हमेशा झुर्रियां ही देखीं, आंसू उसकी झुर्रियों से रेख-रेख बह रहे थे। मुझे आज भी ऐसा लगता है जैसे मां के आंसू मेरे गालों पे बह रहे हैं। वो कहने लगीं 'अल्लाह कसम! मेरे लाल पे दुश्मनों ने झूठा इल्जाम लगाया है' मैंने अब्बाजी से बहुत कहा कि 'पुराने बाजरे की खिचड़ी और पाल के आम खाने से गर्मी चढ़ गयी है। सुनिये तो सही, काले घोड़े की नंगी पीठ पे बैठने से मुझे यह रोग लगा है। तुखमरैयां (एक पौधे के बीज, गर्मियों में फालूदे में डाल कर पीते हैं) से गर्मी निकल जायेगी।' पर वो भला मानने वाले थे! कहने लगे, 'अबे तुखमरैयां के बच्चे! मैंने गुड़िया नहीं खेली हैं। तूने नाइयों की इज्जत खाक में मिला दी, बुजुर्गों की नाक कटवा दी।' मां के अलावा किसी ने मेरी बात पर भरोसा नहीं किया। छोटे भाई रोज मुझसे झगड़ने लगे, इसलिए कि मां ने उनके और अब्बा के आम और घी में तरतराती बाजरे की खिचड़ी बंद कर दी थी। यार फकीरा! कभी-कभी सोचता हूं कि अल्लाह मियां को अपने बंदों से इतनी भी मुहब्बत हुई जितनी मेरी अनपढ़ मां को मुझसे थी तो अपना बेड़ा पार जानो। हश्र के दिन सारे गुनाह माफ कर दिये जायेंगे और मौलवियों की खिचड़ी और आम बंद हो जायेंगे! इंशाअल्लाह!

'खैर और तो जो कुछ हुआ सो हुआ, पर मेरे फरिश्तों को भी पता नहीं था कि तमीजन पर मेरे चचा जान किसी जमाने में मेहरबान रह चुके हैं। जवानी कसम! जरा भी शक गुजरता तो मैं अपना दिल मार के बैठ रहता। बुजुर्गों की शान में गुस्ताखी न करता। यार! जवानी में यह हालियत थी कि नब्ज पे उंगली रखो तो हथौड़े की तरह चोट लगती थीं। शक्ल भी मेरी अच्छी थी। ताकत का यह हाल कि किसी लड़की की कलाई पकड़ लूं तो उसका छुड़ाने को जी न चाहे। खैर! वो दिन हवा हुए। मैं कह रहा था कि इलाज रोग से कहीं अधिक जानलेवा था। बाद को गर्मी छांटने के लिए मुझे दिन में तीन बार यह बड़े-बड़े पियाले ठंडाई, धनिये के अर्क और कतीरा गोंद के पिलाये जाते। दोनों समय फीकी रोटी, हरे धनिये की बिना नमक मिर्च की चटनी के साथ खिलाई जाती। अब्बा को इस घटना से बहुत दुःख पहुंचा। शक्की तो थे ही, कभी खबर आती कि शहर में किसी जगह नाजायज बच्चा पड़ा मिला है तो अब्बा मुझी को आग-भभूका नजरों से देखते। उन्हें मुहल्ले में कोई लड़की तेज-तेज कदमों से जाती नजर आ जाये तो समझते कि हो न हो मैं पीछा कर रहा हूं। उनकी सेहत तेजी से गिरने लगी। दुश्मनों ने मशहूर कर दिया कि तमीजन ने एक ही रात में दाढ़ी सफेद कर दी। खुद उनका भी यही खयाल था। उन्होंने मुझे शर्मिंदा करने के लिए रेलवाई गार्ड की झंडी से भी जियादा लहूलुहान रंग का तहमद बंधवा दिया और टहनी के बजाय नीम का पूरा गुद्दा - मेरे कद से भी बड़ा - मुझे थमा दिया। मैंने संक्रात के दिन उससे आठ पतंगें लूटीं। लड़कपन बादशाही का जमाना होता है। उस जमाने में कोई हजरत सुलैमान का तख्त, हुदहुद, (पक्षी जिसके सर पे ताज होता है) महारानी साब के साथ भी दे देता तो वो खुशी नहीं होती जो एक पतंग लूटने से होती थी। यार! किसी दिन तले मखाने तो खिला दे। मुद्दतें हुई मजा तक याद नहीं रहा। मां बड़े मजे के बनाती थी। फकीरा मैंने अपनी मां को बड़ा दुःख दिया' अपनी मां को याद करके खलीफा की आंखों में एकाएक आंसू आ गये।


बुजुर्गों का कत्ले -आम

खलीफा अपने वर्तमान पद और कर्तव्यों के लिहाज से कुछ भी हो, उसका दिल अभी तक घोड़े में अटका हुआ था। एक दिन वो दुकान के मैनेजर मौलाना करामत हुसैन से कहने लगा कि 'मौलाना हम तो इतना जानते हैं कि जिस बच्चे के चपत और जिस सवारी के चाबुक न मार सको वो कयामत के दिन तलक काबू में नहीं आने की। नादिरशाह बादशाह तो इसीलिए हाथी के हौदे से कूद पड़ा और झूंझल में आ के कत्ले-आम करने लगा। हमारे सारे बुजुर्ग कत्ले-आम में गाजर मूली की तरह कट गये। गोद के बच्चों तक को बल्लम से छेद के एक तरफ को फेंक दिया। एक मर्द जिंदा नहीं छोड़ा' मौलाना ने नाक की नोक पर रखी हुई ऐनक के ऊपर से देखते हुए पूछा 'खलीफा पिछले पांच सौ साल में कोई लड़ाई ऐसी नहीं हुई जिसमें तुम अपने बुजुर्गों को चुन-चुन कर न मरवा चुके हो। जब कत्ले-आम में तुम्हारा बीज ही मारा गया, जब तुम्हारे सारे बुजुर्ग एक-एक करके कत्ल कर दिये गये तो अगली पीढ़ी पैदा कैसे हुई?' बोला, 'आप जैसे अल्लाह वाले लोगों की दुआओं से!'

बुजुर्गों में सर्वाधिक गर्व अपने दादा पर करता था। जिसके सारे जीवन का इकलौता कारनामा ये लगता था कि पिचासी वर्ष की उम्र में भी सूई में धागा पिरो लेता था। खलीफा इस कारनामे से इतना संतुष्ट बल्कि प्रभावित था कि यह तक नहीं बताता था कि सूई पिरोने के बाद दादा उससे करता क्या था।


कार की काया पलट

एक दिन राब्सन रोड के तिराहे के पास कार का ब्रेक डाउन हुआ। उसी समय उसमें गधागाड़ी जोत कर लारेंस रोड ले गये। इस बार मिस्त्री को भी रहम आ गया। कहने लगा, 'आप शरीफ आदमी हैं, कब तक बर्बाद होते रहेंगे। ओछी पूंजी व्यापारी को और मनहूस सवारी मालिक को खा जाती है। कार के नीचे आ कर आदमी मरते तो हमने भी सुने थे लेकिन यह डायन तो अंदर बैठे आदमी को खा गयी! मेरा कहना मानें, इसकी बॉडी कटवा कर ट्रक की बॉडी फिट करवा लें। लकड़ी लाने ले जाने के काम आयेगी। मेरे साले ने बॉडी बनाने का कारखाना नया-नया खोला है। आधे दामों में आपका काम हो जायेगा। दो सौ रुपये में इंजन की reboring मैं कर दूंगा, औरों से पौने सात सौ लेता हूं। काया-पलट के बाद आप पहचान नहीं सकेंगे।

यह उसने कुछ गलत नहीं कहा था। नयी बॉडी फिट होने के बाद कोई पहचान नहीं सकता था कि यह है क्या? आरोपियों को अदालत ले जाने वाली हवालाती वैगन? कुत्ते पकड़ने वाली गाड़ी? बूचड़खाने से थलथलाती रासें लाने वाला खूनी ट्रक? इस शक्ल की या इससे दूर परे की समानता रखती हुई कोई चीज उन्होंने आज तक नहीं देखी थी। मिस्त्री ने विश्वास दिलाया कि आप इसे दो-तीन महीने सुब्ह-शाम लगातार देखते रहेंगे तो इतनी बुरी नहीं लगेगी। इस पर मिर्जा बोले कि तुम भी कमाल करते हो यह कोई बीबी थोड़ी है! पुरानी कार यानी नये ट्रक के पीछे ताजा पेंट किया गया निर्देश 'चल रे छकड़े तेनू रब दी आस' पर उन्होंने उसी समय पुचारा फिरवा दिया। दूसरे फिकरे पर भी उन्हें आपत्ति थी। इसमें जगत यार यानी 'पप्पू यार' को चेतावनी दी गयी थी कि तंग न करे। चौधरी करमदीन पेंटर ने समझौते के अंदाज में कहा कि जनाबे-आली अगर आपको यह नाम पसंद नहीं तो बेशक अपनी तरफ का कोई मनपसंद नाम लिखवा लीजिये। इसी प्रकार उन्होंने इस शेर पर भी सफेदा फिरवा दिया :