खोया हुआ आदमी / रमेश बतरा
वह अपनी धुन में मस्त चला जा रहा हा। सहसा सड़क के बीचों-बीच लगी भीड़ को देखकर यह जानने को उत्सुक होते हुए भी कि वहाँ क्या हो रहा है , वह उसे नज़रअन्दाज़ करके निकल गया।
— भाई साहब ! ... भाई साहब ! — वह अभी कोई दस-बारह क़दम ही आगे गया था कि भीड़ में से एक आदमी उसे पुकारने लगा।
— क्या है? — पीछे घूमकर उसने वहीं से पूछा।
— इधर आइए, यहाँ आपके मित्र की हत्या हो गई है।
वह परेशान सा वापस लौट पड़ा ... और याद करने लगा कि उसे पुकारनेवाला आदमी कौन है, जो उसे और उसके मित्र दोनों को जानता है। दिमाग पर काफ़ी ज़ोर देने के बाद भी वह केवल यही तय कर पाया कि वह उसका परिचित तो है, लेकिन यह याद नहीं रहा कि वह कौन है और उसकी उससे पहली, पिछली या कोई भेंट कब और किस सिलसिले में हुई थी।
भयभीत सा वह भीड़ के पास पहुँचा तो भीड़ ने उसके लिए रास्ता छोड़ दिया। वह कुछ क़दम दूर से ही सामने पड़े शव को देखने लगा और मिनट भर बाद उसे पहचान कर हंस पड़ा — यह तो मेरा शत्रु है।
— ज़रा ध्यान से देखिए।
— शत्रु ही है।
— शत्रु कौन?
— कौन हो सकता है ! — वह दुविधा में पड़ गया ... फिर मेरा तो कोई शत्रु नहीं।
— आप ज़रा गौर से पहचानिए।
इस बार वह शव के नज़दीक चला गया और उसे घूरते-घूरते हैरान रह गया ... वह तो वही आदमी था, जिसने उसे पुकारा था।
उसने भीड़ में चारों ओर देखा, वह आदमी वहाँ नहीं था।
वह घबरा गया और घबराहट में ऐनक उतारकर फिर से शव पर झुक गया।
— पहचाना? — किसी ने पूछा।
— हूँ, — वह बड़बड़ाया, — पहचान लिया।
— कौन है?
— अन्धे हो क्या ... दिखाई नहीं देता? — उसे गुस्सा आ गया और चिल्लाते-चिल्लाते सहसा रुँआसा होकर उसने दोनों हाथों से अपना मुँह ढाँप लिया, — यह मैं हूँ ... मैं ही तो हूँ ... मुझे पहचानो !