खोल न्याय का बंद कपाट / सुरेश सर्वेद
"नीलमणी" भवन के सामने जीप चरमरा कर रुक गयी. वह भवन वनक्षेत्र पाल हिमांशु का था. जीप से आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो के कई आरक्षक सहित अधीक्षक नित्यानंद नीचे आये. उनकी द्य्ष्टि ने नीलमणी की भव्यता देखी. भव्यता ने स्पष्ट कर दिया कि इसके निर्माण में कम से कम पचास लाख का खर्च आया होगा. विजयानंद का आदेश मिलते ही आरक्षकों ने नीलमणी को घेर लिया. कुछ आरक्षक सहित विजयानंद भीतर गये. उन्होंने भीतर से मुख्य द्वार को भी बंद कर दिया. इस कार्यवाही से भगदड़ मचनी ही थी. आसपास के लोगो का ध्यान इस ओर खींच गया. लोग जिज्ञासा वश नीलमणी भवन के सामने जुट गये. वे आपस में कानाफूंसी करने लगे. भीतर वनक्षेत्रपाल हिमांशु उपस्थित था. विजयानंद ने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया. कहा- हमें आपके यहां छापा मारने का अधिकार मिला है. . . ।‘
फिर उन्होंने आरक्षकों को छानबीन करने का आदेश दिया. आरक्षक इधर उधर बिखर गये. हिमांशु को पूर्व से पता चल चुका था कि उसके घर छापा पड़ने वाला है. छापे से पूर्व स्वीकृति पत्र लेना पड़ता है. विजयानंद स्वीकृति लेने वनमंडलाधिकारी चन्द्रभान के पास गये वनमंडलाधिकारी चन्द्रभान वनसंरक्षक सीमांत की बैठक में गये थे. विजयानंद को वहां दौड़ना पड़ा । उन्होंने जब वनमण्डलाधिकारी से वनक्षेत्रपाल के घर में छापा मारने की स्वीकृति मांगी तो वनमण्डलाधिकारी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा- स्वीकृति देना मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है या नहीं मुझे इसकी जानकारी लेने दो तब ही मैं आपका सहयोग कर पाऊंगा. ‘ विजयानंद शंकित हो गये. उन्हें लगा- वनमण्डलाधिकारी वनक्षेत्रपाल को बचाना चाह रहे हैं. उन्होंने कहा- देखिये,यह शासकीय कार्य है. इसमें आपको सहयोग देना चाहिए. आप समय खराब मत करिये. इस बीच यदि हिमांशु अवैध सम्पति का अफरा तफरी करेगा या कहीं भाग जायेगा तो इसकी जिम्मेदारी आप पर आ सकती है. ‘ चन्द्रभान भला क्यों आफत मोल लेते. उन्होंने स्वीकृति दे दी. हिमांशु को अवसर मिल गया था. उसने बहुमूल्य वस्तुओं सहित पांच सौ ग्राम स्वर्णाभूषण कुछ जमीन के कागजात इधर उधर कर दिया. उसे लगा कि अब वह आर्थिक अपराधी के रुप में नही पकड़ा जायेगा. हिमांशु से विजयानंद पूछताछ करने लगे. यद्यपि हिमांशु निश्चिंतता व्यक्त कर रहा था पर उसकी बुद्धि अस्थिर थी. उसे कंपकंपी छूट रही थी. उसने उत्तर दिया- आपको गलत जानकारी मिली है. मेरे पास अवैध सम्पति नहीं है. ‘
लेकिन हिमांशु का कालाधन पकड़ाता गया. उसके यहां एक करोड़ रुपए की पासबुक मिली . बैंक लाकर से पांच सौ ग्राम स्वर्णाभूषण जप्त हुआ. पचास लाख के जमीन के कागजात पकड़े गये साथ ही नीलमणी भवन तो अवैध सम्पति का साक्ष्य था ही. हिमांशु का अपराध पकड़ा गया. उसके विरुद्ध मामला दर्ज किया गया. उस न्यायालय का न्यायाधीश निर्द्वन्द थे. हिमांशु का प्रकरण दर्ज होते ही उसकी निंदा शुरु हो गयी. अधिकारी मित्र उसकी स्तरीय जीवन पद्धति से जलते थे. उन्हें प्रसन्नता होने लगी. कुछ दिन हिमांशु अधिकारी मित्रों के बीच बैठ नहीं सका. मित्रों से सामना होता तो वे मुस्काते वह भी हिमांशु के लिए असहनीय होता. उसे लगने लगा था कि उनके फंसने से अधिकारी मित्र प्रसन्न है. हां ऐसा ही होता है. व्यक्ति का जीवन सामान्य रहता है तब तक उस पर ऊंगली नहीं उठती. जैसे ही उस पर कष्ट आया या किसी प्रकरण में फंसा तो वह दुनियाँ का सबसे बड़ा अपराधी बन जाता है. उसकी बदनामी शुरु हो जाती है. यह स्थिति हिमांशु के लिए भी उपस्थित हो रही थी. वह अपने अधिवक्ता पल्लवी से मिल कर आ रहा था कि रास्ते में भाविका मिल गयी. वह नगर निगम में आयुक्त थी. हिमांशु उसे देख कर कटना चाहा मगर आमने सामने हो ही गया.
भाविका ने हिमांशु से कहा- तुम्हारे बारे में सुना तो अच्छा नहीं लगा. मुझे तो लगता है- तुम्हारे किसी परिचित जलनखोर ने ही तुम्हें फंसाया है. ‘ भाविका की बातों ने हिमांशु को अप्रभावित रखा. उसने कहना चाहा- तुम मेरे हितैषी नहीं, तुम तो जले में नमक झिड़क रही हो. मेरे फंसने पर तुम्हें भी उतनी ही प्रसन्नता हो रही है जितनी मेरे विरोधियों को. . . ।‘ पर कुछ नहीं कह सका. वह अपनी पीड़ा दबा गया. भाविका आगे बढ़ गयी. वह ठेकेदार कामेश्वर के घर गयी. दरअसल शासन ने पांच स्थानों पर सुलभ शौचालय बनाने की स्वीकृति दी थी. भाविका इसका ठेका कामेश्वर को देना चाहती थी. उसने कहा-तुम्हें पाँच स्थानों पर सुलभ शौचालय का निर्माण करवाना है. जिसके लिए प,ीस लाख की स्वीकृति मिली है. उसमें पांच प्रतिशत मुझे देना पड़ेगा. ‘ कामेश्वर ने भाविका की शर्त स्वीकार कर ली. उनमे इधर उधर की चर्चा होने लगी. इसी मध्य भाविका ने हिमांशु के संबंध में चर्चा करते हुए कहा- मैं तो हिमांशु की कर्तव्य निष्ठा से प्रभावित थी. वह तो भ्रष्ट निकला. वास्तव में वन विभाग ही भ्रष्टाचार का केन्द्र है. जब अपराधी को कठोर दण्ड मिलेगा तभी बेईमानी खत्म होगी. ‘ जब तक व्यक्ति स्वतः फंस नहीं जाता, वह अपने आप को निर्दोष ही मानता है. कामेश्वर को अपना स्वार्थ सिद्ध करना था. वह भाविका की बातों से असहमत होते हुए भी हामी भर रहा था. हिमांशु की अधिवक्ता पल्लवी थी. पल्लवी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि तुम्हारे विरुद्ध साक्ष्य है. कानूनी कार्यवाही से अपराध प्रमाणित होने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं. तुम्हें सजा भी हो सकती है. पर तुम घबराना मत यहां हार गये तो हम आगे न्यायालय तक लड़ेगे. . . . ।
हिमांशु सजा की बात सुन कर कांप उठा था. वह परेशान सा रहने लगा. इधर न्यायाधीश निर्द्वन्द अपने बंगले के बरामदे में बैठे थे. उनकी दृष्टि चहचहाती गौरैया चिड़ियों पर थी. वस्तुतः वहां चिड़ियों की पंचायत जुड़ी हुई थी. उसमें काली नामक चिड़िया के विरुद्ध कार्यवाही हो रही थी. दरअसल चिड़ियों ने अन्न के दाने संचय कर रखे थे ताकि भविष्य में अन्न का अभाव होने पर उसकी पूर्ति हो सके. काली ने संचित अन्न से आधे को ही चुरा लिया था. सभी चिड़ियां काली के अपराध से उत्तेजित थी. सुनहरी ने कहा- काली का अपराध अक्षम्य है. उसे कड़ा से कड़ा दण्ड मिलना चाहिए. ताकि दूसरी चिड़ियां अपने समाज को हानि पहुंचाने का दुस्साहस न कर सके. ‘ - हमारे समाज की दण्ड संहिता में अपराधी को जान से मारने या एक पैर और चोंच तोड़ने का प्रावधान है. भूरी ने वजनी शब्दों में कहा- यही दण्ड काली को भी मिलनी चाहिए. ‘ पीली गंभीर मुद्रा में बैठी थी. वह पूर्व के नियमों में संशोधन कराना चाहती थी. उसने अपना तर्क प्रस्तुत किया- नहीं,हमें इस लीक से हटना चाहिए. वरना हमारे प्रजाति के लुप्त होने का खतरा बढ़ जायेगा. साथ ही जो प्रजाति बचेगी वह अपंग रहेगी. अतः दण्ड में परिवर्तन आवश्यक है. ‘
पीली के विचारों पर सबने ध्यान दिया. उनमें जोरदार बहस छिड़ी. वे कानून में परिवर्तन करने तैयार हो गये. पंचायत ने अपने निर्णय से काली को अवगत कराया- काली,पंचायत इस निर्णय पर पहुंची है कि तुम्हें शारीरिक दण्ड न दिया जाये. तुमने आर्थिक अपराध किया है. तुम्हें इंक्यावन चोंच अन्न के दाने क्षतिपूर्ति के रुप में लाने होगे. तुम्हें यह निर्णय स्वीकार है या नहीं. . ?‘ काली अपंगता या मृत्यु दण्ड की आशंका से भयभीत थी. पर पंचायत के सौहाद्रपूर्ण निर्णय से उसके प्राण लौट आये. वह मन ही मन प्रसन्नता से बड़बड़ायी-मैं परिश्रम से और पेट काटकर अन्न जमा कर दूंगी. उसने पंचायत से कहा- मुझे कोई आपत्ति नहीं . पंचायत का निर्णय मुझे स्वीकार्य है. ‘ काली अपने कार्य में जुट गयी. उसे अन्न के दाने लाने थे. वह उड़ी तथा न्यायाधीश के बंगले की ओर गयी. वह सीधा पाकगृह में घुसी. न्यायाधीश निर्द्वन्द की जिज्ञासा प्रबल थी. उनकी द्य्ष्टि काली को खोजने लगी. अंततः उसने खोज ही निकाला. काली चांवल के भरे ड्रम पर बैठी थी. काली ने न्यायाधीश को देख लिया. उसने चांवल निकालना बंद कर दिया. वह चुपचाप बैठी दूसरी ओर देखने लगी. तथा वह तिरछी नजर से न्यायाधीश की ओर देखने लगी. न्यायाधीश ने जानबूझ कर द्य्ष्टि दूसरी ओर कर ली. काली को अवसर मिला. उसने चांवल पर चोंच मारा और फूर्र से उड़ गयी. न्यायाधीश देखते ही रह गये. काली को अपने कार्य की सफलता पर प्रसन्नता थी.
न्यायाधीश के भी विचारों में उथल पुथल मचने लगा - हमारी भी न्याय व्यवस्था का जल रुककर गंदा हो गया है. समयानुसार उसका प्रवाहमान होना आवश्यक है. परिवर्तन होना चाहिए तभी मानव समाज को लाभ मिलेगा. आज हिमांशु के प्रकरण का निर्णय था. वह न्यायालय जाने निकला कि नित्यनंदन मिल गया. नित्यनंदन ने कृतज्ञता ज्ञापित करने पहले से नमस्कार किया. हिमांशु ने उसे सम्मान देने हाथ मिलाया. नित्यनंदन वन विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी था. वह अस्थायी था. उसे कभी बिठा दिया जाता. कभी काम पर बुला लिया जाता. वह परेशान था. नित्यनंदन ने अपनी समस्या हिमांशु को बतायी. हिमांशु ने दौड़धूप कर नित्यनंदन को स्थायी वनरक्षक का पद दिलवा दिया. इससे नित्यनंदन हिमांशु का आभारी था. नित्यनंदन को ज्ञात था कि हिमांशु का आपराधिक प्रकरण दर्ज है. उसका निर्णय आज है. उसकी द्य्ष्टि हिमांशु पर जा टिकी. वह कह रही थी- इसने मेरी रोजी रोटी की व्यवस्था की. मेरा भविष्य बनाया. मैं इसकी विपत्ति के समय सहायता करने में असमर्थ हूं. हिमांशु वहां से न्यायालय पहुंचा. न्यायाधीश निर्द्वन्द अपनी कुर्सी पर बैठ चुके थे.
वहां भृत्य पक्षकारों की पुकार करने लगा. हिमांशु कारावास की सजा मिलने के डर से भयभीत था. उसकी पुकार हुई तो वह कटघरे में जा खड़ा हुआ. न्यायाधीश निर्द्वन्द उत्साहित दिख रहे थे. मानों किसी विजय यात्रा पर निकले हो. उन्होंने निर्णय दिया- हिमांशु का अपराध प्रमाणित हो गया है. न्यायालय इस निर्णय पर पहुंचा है कि हिमांशु पद पर पूर्ववत बना रहेगा. उसे पदोन्नति का भी अवसर दिया जायेगा. लेकिन उसके वेतन से पच्चीशस प्रतिशत की कटौती होगी और पेंशन से बीस प्रतिशत. वह धनराशि शासकीय कोष में जमा होगी. ‘ इस निर्णय से हिमांशु ही नहीं अपितु अधिवक्ता पल्लवी भी अवाक रह गयी. कानून में उपरोक्त दण्ड का प्रावधान नहीं था. पल्लवी ने हिमांशु से कहा-न्यायालय का निर्णय तुम्हारे लिए हानिकारक है. तुम्हारा वेतन कटेगा. पेंशन में भी कटौती होगी. तुम क्या खाओगे. तुम्हारा भविष्य अंधकार में चला जायेगा. इसके विरुद्ध तुम उच्चो न्यायालय में मुकदमा लड़ो. तुम्हें बचाने मैं हर संभव प्रयास करुंगी. तुम निरपराध सिद्ध होकर रहोगे. हिमांशु को अधिवक्ता का कहना अपने पक्ष में लगा. उसके बहकावे में आता कि उसे न्यायालय की दौड़धूप का स्मरण आ गया. उसे कई पेशी दौड़नी पड़ी थी. आर्थिक हानि तो उठानी पड़ी साथ ही मानसिक त्रासदी के साथ समय भी गंवाना पड़ा था. अब वह इस क्रमबद्धता को दुहराना नहीं चाहता था. उसने सोचा-अपराध प्रमाणित होने पर भी मेरी नौकरी नहीं गयी. कारावास का दण्ड नहीं मिला. हां,वेतन और पेंशन में कटौती होगी. मैं उ,स्तरीय जीवन यापन से वंचित रहूंगा लेकिन निकिृष्ट जीवन तो जीना नही पड़ेगा और फिर पदोन्नति के लिए भी तो बाधक नहीं है. उसने उच्चं न्यायालय मे अपील करने की बात अस्वीकार कर दी. हिमांशु के प्रकरण की जानकारी भाविका को मिली.
वह सकते में आ गयी. वह विचारने लगी- जो व्यक्ति घूस देता है वही पकड़वा देता है. मुझे भी किसी ने फंसा दिया तो प्रकरण दर्ज होगा. अपराध प्रमाणित होने पर वेतन कटेगा. उसके विचार ने दूसरा पहलू बदला-शासन आराम से मुझे खाने पीने लायक परिवार चलाने लायक रुपये दे रहा है फिर घूंस लेकर कर मुसीबत मोल लेने का प्रयास क्यों करुं ? वह कामेश्वर के पास गयी. कहा- देखो,सुलभ शौचालय को मजबूत और टिकाऊ बनाना है. उसमें उ, स्तर का छड़ सीमेंट ईंट लगना चाहिए. रुपये जनता के है. जनहित में कार्य होना चाहिए. अगर किसी प्रकार की धांधली हुई या शिकायत मिली तो बिल रोक दूंगी. ‘ कामेश्वर क्षण भर भाविका का मुंह ताकता रहा. उसमें शंका उत्पन्न हो गयी-भाविका को अधिक प्रतिशत देने वाला कोई दूसरा ठेकेदार तो नहीं मिल गया. उसने कहा- यदि आपको पांच प्रतिशत कम पड़ रहे हैं तो मैं और बढ़ा सकता हूं. ‘ - मुझे लेन देन से मतलब नहीं है. बस रुपयों का सदुपयोग होना चाहिए. ‘ भाविका अपनी बात पर अटल थी. अंततः कामेश्वर को उसकी बात माननी ही पड़ी. कहा- ठीक है. आपकी मंशा के अनुरुप ही सुलभ शौचालय बनेंगे. ‘ भाविका को लगा कि अपराध के फंदे से उसका गला मुक्त हो गया. साथ ही उसके वेतन की कटौती नहीं हो रही है. . . . . ।
न्यायाधीश निर्द्वन्द जितने भी निर्णय दे रहे थे वह द. प्र. सं. के अनुसार न होकर स्व विवेक से लिये गये निर्णय के अनुसार था. उनके निर्णय स्वस्थ और मौलिक थे. वे आरोपियो के हित में थे. लाभकारी निर्णय पक्षकारों पर भारी नहीं पड़ रहा था. पर अधिवक्ताओं को इसमें अपना अहित दिखा. पक्षकार दण्डित होने पर उसे सहजता से स्वीकार कर लेते. वे उकसाने पर भी आगे मुकदमा लड़ने से इंकार कर देते. साथ ही वे अधिवक्ताओं से बचने लगे. इससे अधिवक्ताओं की रोजी रोटी छिनने लगी. उन्होंने न्यायाधीश निर्द्वन्द का विरोध करना शुरु कर दिया. अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करना था अतः वे षड़यंत्र रचने लगे. इसे कार्य रुप में परिणित करने वे कानून का सहारा लेने लगे. अधिवक्ताओं का संघ था. उसने न्यायाधीश निर्द्वन्द की कार्य विधि के विरुद्ध उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दिया. दायर याचिका में कहा गया कि न्यायाधीश निर्द्वन्द ने न्याय प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया है. उन्होंने शासन के संहिता के अनुरुप निर्णय न देकर घर का कानून लागू कर दिया है. उनका निर्णय दप्रस के अनुसार नहीं है. इससे दप्रस की अवमानना हुई है. उनकी मनमानी से लगता है कि उनकी बुद्धि विक्षिप्त हो चुकी है.
न्यायपालिका का भविष्य खतरे में है अतः न्यायाधीश निर्द्वन्द को निर्णय देने के अधिकार से वंचित रखा जाये. अधिवक्ता संघ के कर्मों की जानकारी न्यायाधीश निर्द्वन्द को मिली. वे विचलित हो उठे. वे अंर्तसोच में पड़ गये- क्या मेरी बुद्धि विक्षिप्त हो चुकी है ? ‘ उन्होंने अपने निर्णय का विश्लेषण किया. पुनर्परीक्षण से दिया गया निर्णय सही लगा. पर उन्हें बुद्धि विक्षिप्तता पर अभी भी शक था. वे परीक्षण कराने मनोचिकित्सक अनुश्री के पास पहुंचे. वहां सचिन भी था. वे न्यायाधीश के निर्णय से अवगत हो चुके थे. अनुश्री ने सचिन से कहा-न्यायाधीश निर्द्वन्द ने न्यायक्षेत्र में नया रास्ता खोला है. इससे दण्डित व्यक्ति अपराध की ओर उन्मुख नहीं होगा. वह समाज से अपमानित-उपेक्षित भी नहीं होगा. हर स्थिति में न्यायाधीश की बुद्धि कौशल एवं विवेक को प्रतिष्ठा मिलनी ही चाहिए. ‘ न्यायाधीश निर्द्वन्द ने मनोचिकित्सक के मुंह से अपनी बुद्धि स्वस्थता की प्रशंसा सुनी. वे पूर्ण आश्वस्त हो गये. उन्हें किसी प्रकार के परीक्षण कराने की आवश्यकता नहीं थी. वे मनोचिकित्सक से मिले बगैर ही लौट गये. यद्यपि न्यायाधीश निर्द्वन्द की विचारधारा की प्रशंसा यत्र तत्र सर्वत्र हो रही थी पर अधिवक्ता संघ द्वारा दायर याचिका की याद आते ही उनका चित्त छिन्न-भिन्न हो जाता. उस रात उनकी आँख देर से लगी. स्वप्न में उन्होंने स्वयं को न्यायालय में पाया. वे वहां एक न्यायाधीश के रुप में नहीं अपितु एक अभियुक्त के रुप में वहां उपस्थित थे. न्याय की कुर्सी में न्यायाधीश प्रेमपाल बैठे थे.
न्यायालय ने उनसे पूछा-आपने नियमों का उल्लंघन करके दप्रस की अवमानना की है. आप अपराध पर अंकुश लगाने नियुक्त हुए है पर स्वयं आपने अपराध किये है. आप अपराधी है ? ‘ न्यायाधीश निर्द्वन्द छटपटा उठे. उन्होंने कहा- नहीं,मैं अपराधी नहीं. मैंने अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा में कार्य किया हैं. न्यायाधीश का कर्म अपराधियों को दण्डित करना ही नहीं है. वे व्यक्ति को सही दिशा देने और स्वस्थ समाज निर्मित करने नियुक्त होते है. . . . । चिकित्सक रोगी की प्राण रक्षा के लिए दवाईयाँ बदल देता है. अध्यापक विद्यार्थी को उत्तीर्ण करने कृपांक देता है तो जनहित में दण्डसंहिता में परिवर्तन क्यों संभव नहीं. मैने कानूनों की पुस्तकों के अनुरुप निर्णय न देकर भी न्यायापालिका की शाख बढ़ाई है. मैं निरपराध हूं. . . . . . . . . । ‘ अचानक उनकी नींद टूट गयी. यद्यपि स्वप्न के द्य्ष्य लुप्त हो गये पर वे असुरक्षा के भय से मुक्त नहीं हो पाये. स्वतंत्र न्यायपालिका में पदस्थ होकर भी वे चारों ओर से घिर गये थे. दूसरे दिन न्यायाधीश निर्द्वन्द ने अपने द्वारा दिये निर्णय की प्रतियां उच्चे न्यायालय को भेज दी. ताकि उसमें निष्पक्ष मंथन हो सके. साथ ही त्यागपत्र भी प्रस्तुत कर दिये. उच्चय न्यायालय ने न्यायाधीश निर्द्वन्द के प्रपत्रों और अधिवक्ता संघ की याचिका को उ,तम न्यायालय को विचारार्थ प्रेषित कर दिया. उ,तम न्यायालय जांच कार्य में संलग्न हो गया. उसने तीन न्यायाधीशों की एक खण्डपीठ बिठायी. खण्डपीठ ने प्रश्न रखा- न्यायाधीश के निर्णय से क्या शासन और समाज पर आर्थिक बोझ पड़ा? उनका अहित हुआ? ‘
उत्तर मिला- नहीं,न्यायाधीश के निर्णय से अभियुक्तों को कारावास नहीं हुआ. कारागृह में बंदियों की संख्या कम हुई. इससे शासन के खर्च में बचत हुई साथ ही उसे नकद लाभ भी मिला. पक्षकारों ने दण्डीत होने के बावजूद अपील करने से इंकार कर दिये इससे स्पष्ट होता है कि निर्णय अनुचित नहीं. इससे न्यायालय में प्रकरणों की संख्या कम हुई. न्यायालय में पड़े प्रकरणों को समय पर निदान का अवसर मिलेगा. ‘ प्रश्न- क्या अपराधी को उचित दण्ड नहीं मिला? क्या आपराधिक कार्यों को बढ़ावा मिला ? ‘ - नहीं, आपराधियों को उचित दण्ड ही मिला, यही कारण है कि अपराध की संख्या में कटौती आयी हैं । अधिकारी वर्ग में धन संचय का भय व्याप्त है । उनमें वेतन और पेंशन कटौती का दहशत है । अन्य आपराधिक प्रवृत्तियों में भी गिरावट आयी है ।‘ खण्डपीठ ने न्यायाधीश निर्द्वन्द से कहा - आपके प्रकरण पर खण्डपीठ विचार कर रही है । कार्यवाही पूर्ण होने पर आपको सूचना दी जायेगी । आप अपने पद पर रह कर कार्य करें।‘