ख्वाबों के पैरहन / भाग 11 / संतोष श्रीवास्तव्

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संतोष श्रीवास्तव, प्रमिला वर्मा » ख्वाबों के पैरहन »

रेहाना बी जब से भाईजान के घर से लौटी हैं, अजब हाल है उनके दिल का। लगता है, पानी पर बिछी शैवाल-सा सब कुछ थिर गया है। भटकन ख़त्म है, जीवन की बैलगाड़ी पगडण्डियाँ नाप रही है हौले-हौले औरजिसके हर मोड़ पर यूसुफ़ का बीमार चेहरा अटका है। न सही संग-साथ, न सही प्यार का अंजाम लेकिन खुदाया, यूसुफ तंदरुस्त तो रहें। उनकी ख़ैरियत ही रेहाना की ज़िन्दगी है, वरना साँस लेना बेकार। अब देखो वक्त का बदलाव-उधर भाईजान व्यवस्थित, व्यापार खूब अच्छा चल रहा है। नूरा, शकूराभी ख़ानदानी कहलाने लगे। भाभी गहनों से लादी-तुपी अपनी गृहस्थी में मस्त और रेहाना! कुए की दीवार से सटकर ऊपर आती पानी से भरी बाल्टी-सी छलकती। कुएकी घिर्री में जीवन डोरलिपट गई है और बाल्टी अधबीच में लटकी रुकी है। इस कुए तक कोई नहीं आता, यह कुआँ हरियाली के महासमुद्र में गुँथा-सा पड़ा है। आदमज़ात तो क्या, कोई जानवर तक इस कुए के पानी से अपनी प्यास नहीं बुझाता। एक निकृष्ट, निरर्थक एहसास। रन्नी कुनमुना उठती है, बाल्टी छलकने लगती है।

अँधेरा घिर आया है। कोठी के सभी लोग न जाने कहाँ, कोने-आतड़ में छुपे से हैं। शहनाज़ बेगम और शाहजी तो ताहिरा को लेकर बाज़ार गए हैं। ताहिरा की नई गाड़ी जो शाहजी ने उसे ईद के मौके पर भेंट देने को कहा था, आज आने वाली है। ईद के वक़्त न आ सकी गाड़ी। ताहिरा के भाग्य पर रन्नी का सीना गर्व से फूल उठता है पर शहनाज़ बेगम और अख़्तरीबेग़म की सूनी कोख उनके अन्दर दहशत भी भर देती है। तब लगता है, ताहिरा दाँव पर लगी है जिसके एवज में भाईजान की चरमराती गृहस्थी को सम्हालते, सुख, खुशियाँ और ऐश बख़्शते शाहजी के हाथ हैं। औरत सदियों से दाँव पर लगाई जाती रही है चाहे द्रोपदी हो चाहे ताहिरा। जितना ज्ञान था उतना सोच डाला था रन्नी ने...आगे मानो तमाम प्रश्न अनुत्तरित ही रह गए।

कोठी के गेट पर एक साथ दो गाड़ियों का शोर सुन, निकहत, अस्माँ, मुमताज़सभी बरामदे की ओर दौड़ीं। चॉकलेटी रंग की ताहिरा की खूबसूरत सुज़ूकी गाड़ी गेंदे के फूलों की माला पहने कोठी के अन्दर प्रवेश कर रही थी। गैराज़ के नज़दीक गाड़ी रुकी। प्रफुल्लित ताहिरा और शहनाज़ बेगम उतरीं। आगे की सीट पर से शाहजी और एक नया चेहरा। लम्बा कद, भरी काठी, नीली जींस पर सफ़ेद टी शर्ट। रन्नी ने दुपट्टा सम्हाला। परिचय शहनाज़ बेगम ने कराया-"रेहानाबी, इनसे मिलो, हमारेचचाज़ातभाई शाहबाज़ख़ान, दुबई से आये हैं और शाहबाज़, ये हैं ताहिरा की फूफी रेहाना।"

शाहबाज़ ने आदाब किया और सरसरी निग़ाह से रन्नी का सर से पाँव तक मुआयना किया। रन्नी संकोच से गड़ गई। सब हॉल में आकर आराम से बैठ गए। मेहमाननवाज़ी में मुस्तैद निक़हत शरबत बना लाई। गुलाब की खुशबू से महकता, बर्फ के टुकड़ों से सजा शरबत नाज़ुक ग्लासों मेंखूब सज रहा था। शरबत के दौरान शाहबाज़ ने बताया-"अम्मी ने मन्नत माँगी थी कि मेरा बिज़नेस दुबई में खूब चमक जाये तो हिन्दुस्तान में मस्जिद बनवायेंगी, उसी सिलसिले में मैं यहाँ आया हूँ।"

"वरना न आते।" शहनाज़ बेग़म तपाक़ से बोलीं।

"ऐसी बात नहीं है आपा! बरसोंहो गए यहाँ आये, आप सबों से मिलना भी तो था। फिर आपकेखतों में ताहिरा का लाज़वाब ज़िक्र, कैसे रुकता दुबई में?"

"ऐ शाहबाज़, मुँह दिखाई निकालो पहले। यूँ ही दुल्हन देख लोगे?"

"दुल्हन कहाँ आपा? आपकेरिश्ते से तो वे भी बहन हुईं हमारी।"

"कंजूस! बहाने खूब गढ़ते हो। बिज़नेस मैन जो ठहरे।" शाहबाज़ हँसता हुआ फुर्ती से उठा। अटैची खोली और पाँच तोले का सोने का बिस्किट शहनाज़ बेग़म के हाथों में रख दिया-"यहलो आपा, दुल्हन की मुँह दिखाई।"

अब तक रन्नी ख़ामोश बैठी थी। माहौल की सहजता ने उसके मन का संकोचदूर कर दिया। अस्मां मटर के समोसे और गरमागरम सूजी का हलवा बना लाई। बड़ी-सी केतली में इलायची की खुशबू वाली गाढ़ी चाय। अदरक, लहसुन की चटनी ने समाँ बाँध दिया। देररात तक, समवेत कहकहे कोठी को गुँजाते रहे। रन्नीकी उदासी कोसों दूर छिटक गई और उसकी जगह चहल-पहल भरा सोता बह निकला।

दूसरे दिन, सुबह से ही घर में शादी जैसा उत्सव महसूस हो रहा था। शायद शहनाज़ बेगम ने मस्जिद के लिए पहले से ज़मीन मुक़र्रर कर ली थी। हॉल में घंटों की माथापच्चीसे एक बड़ा नक़्शा तैयार हुआ और शाहबाज़ तथा शाहजी ताहिरा की नईनवेली गाड़ी ले उड़नछू होगए।

शहनाज़ बेग़म ठीक लंच के टाइम पर फोन करतीं-"शाहजी! आपने खाया कुछ? लाहौल विलाकूवत। आपको अपनी तंदरुस्ती का ज़रा-सा ख़याल नहीं।" और फोन पटक सीधे बावर्चीख़ाने में। घंटे भर बाद वे ख़ुद ही बड़े से टिफिन कैरियर में खाना, थर्मस में चाय, फलों की डलिया और आठ-दस मिनरल वॉटर की बोतलें लिए गाड़ी में जा बैठतीं। पीछे-पीछे रन्नी पान की गिलौरियों से भरा डिब्बा लिए दौड़तीं। यह दस्तूर आठ-दस दिन चला। और जब मस्जिद के लिए ईंटों की जड़ाई शुरू हो गई, दीवारों पर बेल बूटे खुदने लगे तब जाकर सबको चैन पड़ा। कारीगरों का कहना था, महीने भर में मस्जिद बनकर तैयार हो जायेगी। गुलनारआपा हफ्ते भर के व्यापारिक दौरे से आज ही लौटी थीं, ख़ास इसी दिन के लिए मस्जिदबनने की इब्तिदा का काम रोका गया था। अलस्सुबह गुलनार आपा लौटीं और ऐन दुपहरीमस्जिद के लिए पहली ईंट रखी गई। शहनाज़ बेग़म ने छुहारे बाँटे। ये छुहारे कोई मामूली छुहारे न थे, शाहबाज़ की अम्मी जब हज के लिए गई थीं तब वहाँ से खजूर और छुहारे लाई थीं। रन्नी की भी बड़ी इच्छा थी कि वह भी जियारत पर जाये और रसूल की सुनहली दाढ़ी के बालों का दीदार करे पर अभी तक वह सुनहला दिन नहीं आया था। उसने छुहारों को बड़ी श्रद्धा से माथे से लगाया और खाया।

रन्नी ने, दबे पाँव आती मदिर शाम के धुँधलके में अपने को छुपाने की ख़ातिर, सिलेटी रंग का सूट पहना और लॉन की घास पर चहलक़दमी करने लगी। न जाने, क्या हो जाता है उसे? शाम होते ही मन डूबने लगता है, घबराहट बढ़ने लगती है। शायद आफ़ताब का गुम होना उसे बर्दाश्त नहीं। दूर क्षितिज पर सुरमई आसमान का गहराता काला रंग और उसमें धीरे-धीरे गुम होता आफ़ताब। पश्चिम की सारी कुदरत गहराजाती है। पंछी घोंसलों में लौट पड़ते हैं। दिवस के अवसान की कालिमा मन के भीतर कचोट जाती है। बड़ा अजीब द्वन्द्व-सा उठता है मन में। उसे लगता है, मानो वह ऐसे सूने खेतों से गुज़र रही है जहाँ उसके एहसास के नुकीले ठूँठ मुँह बाये खड़े हैं और उसके तलुवों को लहूलुहान कियेडाल रहे हैं। रन्नी ने घबराकर आँखें मूँद लीं। पलभर को लगा कोई पास आकर खड़ा हुआ है। किसीके बदन की हरकतबिल्कुल क़रीब है "कौन?"

"मैं, ...शाहबाज़, रेहानाजी, आप यहाँ? इस अँधेरे में?"

रन्नी अचकचा गई-"जी, ...यूँ ही।"

"लगताहै, आपको नेचर से मुहब्बत है, ...तभी तो ठंडी हवा में भी आप बग़ैर गरमकपड़े के... ।"

रन्नी ने दुपट्टा गले के चारों ओर लपेट लिया। शाहबाज़ के याद दिलाने पर हलकी-सी झुरझुरी भी लगी, अभी तक कैलाश ने कोठी के गेट के दोनों ओर लगे लाइट के हंडे भी नहीं जलाये थे। सहन अँधेरे की गिरफ़्त में था।

"आइये, इस बैंच पर थोड़ी देर बैठें।" कहते हुए शाहबाज़ ने तपाक़ से रन्नी का हाथ पकड़ लिया। रन्नी सिहर उठी पर हाथ छुड़ाया नहीं। बड़ी मुलामियत से हाथ उसकी हथेली में दिए-दिए बैंच तक आईं... बैठीं...हथेली जब गिरफ़्त से छूटी टी नम हो उठी थी।

"रेहानाजी, ...मेरी बीवी का इंतकाल हुए दो साल बीत गए।"

"ओह! कैसे?"

"कैंसर से। लगातार चौदह बरसों तक वह मेरे संघर्ष के दिनों में मेरे साथ रही और जब सुख का समय आया तो चल दी। एक बेटी है मेरी, तेरह साल की। बेहद शरीर और ज़हीन। अम्मी के पास ही रहती है।"

"तब तो आपको दूसरा निकाह कर लेना चाहिए था। किया क्यों नहीं अब तक?"

"आप जो अब मिली।" कहकर शाहबाज़ ठहाका मारकर हँस पड़ा।

गेट के हंडे जल उठे, जिसके दूधिया उजाले में जुही की लतरें...लॉन...फूलोंकी क्यारियाँऔर गेट से कोठी का रास्ता तक नहा उठा। फूलोंकी खुशबू बढ़तीठंड के साथ चहुँ ओर फैल गई। रन्नी के गाल आरक्तहो उठे। फिर रुका न गया। ठंड के बहाने वह अपने कमरे में आकर पलंग पर कटे पेड़-सी गिर पड़ी। चेहरा दुपट्टे में छुपा लिया-'अल्लाह! यह कैसा मज़ाक किया शाहबाज़ ने। क्यों किया? या तुम मेरा इम्तहान लेना चाह रहे हो? कि अपने तनहा जीवन में मैं यूसुफ की जगह किसे दे सकती हूँ? किसी को नहीं...किसी को नहीं।'

तकरीबन दो घंटे बाद ताहिरा कमरे में आई-"फूफी, क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?"

फूफी ने अपने दिल की कैफ़ियत ताहिरा से छुपाने की कोशिश की-"यूँ ही...नींद-सी आ रही थी।"

"सरेशाम!" ताहिरा ने ताज्जुब से फूफी को देखा-"और असर की नमाज़! आज भूल गईं? अब तो मग़रिब की नमाज़ का वक्त हुआ चाहता है।"

"या अल्लाह!" फूफी घबरा उठीं। वजू किया और जाँनमाज बिछाकर नमाज़ अता करने लगीं। ताहिरा ने भी वैसा ही किया। नमाज़ के बाद ताहिरा फूफी के करीब आ बैठी और धीरे-धीरे उनके बाल सहलाने लगी।

फूफी की ज़िन्दगी में यही एक सच्चा वक़्त है, यही मौजूदगी, उसकी अपनी ताहिरा की; जिसे घुटनों चलाते-चलाते सुहाग की सेज तक पहुँचाया है। इस बच्ची के लिए वे कुछ भी कर सकती हैं। ताहिरा की एक लट उसकेमाथे पर झूल आई थी। बहुत प्यार से उस लट को पीछे करते हुए जब उन्होंने ताहिरा को देखा तो ख़याल आया, ऐसी ही होगी शाहबाज़ की बेटी। कह रहा था बड़ी शरारती और होशियार है। उसकी अपनी ताहिरा कुछकम तो नहीं। अगर भाईजान के पास पैसे होते तो क्या वे ताहिरा को पढ़ाते नहीं? केवल स्कूल की पढ़ाई कराके ही नहीं रह जाते। यह धन की कमी ही तो ताहिरा को इस कोठी तक खींच लाई। ताहिरा के साथ वे भी पतंग में बँधी डोर-सी खींचती चली आईं। कैसा मोह है यह? क्योंहैं वे यहाँ? कैसीफ़िज़ूल-सी ज़िन्दगी जी रही हैं रेहाना बी!

"फूफी, क्या सोचने लगीं? आप अम्मी, अब्बू के पास इतने दिन रह आईं, मुझे तो जाने को नहीं मिलता। मैं रोज़ अम्मी को ख़्वाब में देखती हूँ। देखती हूँ कि न जाने किसनेमुर्गियों के दड़बे खोल डाले हैं और सारी मुर्गियाँ आज़ाद होकर भाग रही हैं। आगे-आगे मुर्गियाँ...पीछे...पीछेअम्मी। लेकिन दड़बा टूटे तो अरसा हो गया फिर यह ख्वाब फूफी।"

"नहीं मेरी बेटी, अब इस जलालत से छुटकारा मिल गया है। अब न मुर्गियाँ हैं न दड़बे। एक शानदार घर है तुम्हारी अम्मी का, शानदार बिज़नेस है तुम्हारे अब्बू का! यह सब तुम्हारी बदौलत मेरी बच्ची।"

ताहिरा गंभीर हो गई, धीरे-धीरे उसने फूफी की गोद में अपना सिर रख दिया, कुछ पल ख़ामोशी रही। बाहर बगीचे में से कुछ चिटख़ने जैसी आवाज़ आई।

"फूफी...फैयाज़ से मिलीं आप?"

रन्नी चौंकी, यह क्या सूझा ताहिरा को?

"ताहिरा?" उन्होंने उसका चेहरा दोनों हाथों से भर लिया-"बता...क्या तकलीफ है तुझे यहाँ?"

"क्यों फूफी, क्या तकलीफ में ही याद करूँगी उसे? मैंने उसे प्यार किया है फूफी, मैं उसे भूल नहीं पाती।"

सहसा फूफी उठ खड़ी हुईं, उनकी आवाज़ की मुलामियत उड़न छू हो गई।

"ऐ ताहिरा, दोबारा नाम न लेना फैयाज़ का। अब तू शाहजी की सुहागन है और सब भुला दे। यही हक़ीकत है, यही ज़िन्दगी है।" और तेजी से वे पानदान के टेबल तक पहुँची। पान लगाया, सुपारी की छालियाँ काँपते हाथों से कतरीं कि अँगूठा चिर गया, खून चुहचुहा आया। फूफी ने सिसकारी तक नहीं भरी पर ताहिरा ने देख लिया था। दौड़कर उनका अँगूठा मुँह में रख, जो फूफी की ओर देखा तो फूफी पिघलने लगीं। ताहिरा की ऑंखें डबडबा आईं थीं-"फूफी, मुझे माफ़ कर दो।"

उन्होंने ताहिरा को अपने सीने में छुपा लिया।

शहनाज़ बेग़म को बुखार ने जकड़ लिया था। इन दिनों मस्जिद के सिलसिले में ज़िन्दगी अस्तव्यस्त-सी हो गई थी। सुबह का नाश्ता दोपहर का होता, दोपहर का खाना शाम को। रात को दो-दोबजे तक नक्शे बनते, बेल-बूटों के डिज़ाइन ढूँढे जाते। नींद पूरी न होने से शहनाज़ बेग़म बीमार पड़ गईं। उनके बीमार पड़ते ही घर का ढाँचा चरमरा-सा गया। अख़्तरीबेगम अपने शरीर से तंग, ताहिरा ग़ैरतजुर्बेकार। बची फूफी...सोलाज़िमी हैउन पर सारी जवाबदारी आ गई। कभी वे अब्दुल्ला को बावर्चीख़ानेमेंनिर्देश दे रही होतीं तो शाहबाज़ आ जाता-

"रेहाना जी, हम कुछ हेल्प करें?"

"नहीं, नहीं, सब हो गया। हम तो यूँ ही जायज़ा ले रहे हैं, करता तो अब्दुल्ला ही है सब कुछ।"

"रोज़ तो आप अब्दुल्ला के हाथ का खाती हैं, आज मैं आपको मशरूम गोभी बनाकरखिलाऊँगा, उँगलियाँ चाटती रह जायेंगी।"

रन्नीमना नहीं कर पाई। फौरन नौकर को बाज़ार दौड़ाया, मशरूम और गोभी लाने। तब तक शाहबाज़ के निर्देशन में अब्दुल्ला ने मसाले तैयार कर लिए।

"मैं बड़ा ही शरारती हूँ रेहाना जी, वही असर मेरी बेटी पर आया है। मेरा बचपन लखनऊ में गुज़रा। वहाँ अब्बा पोस्टमास्टर जनरल थे। मुहर्रम के दिन मुहल्ले भर के बच्चे ताज़िए के चारों ओर रंगीन छड़ी लेकर कूदते थे। मेरे गले में अम्मी गंडा-ताबीज बाँध देती। कमर में छोटी-छोटी चाँदी की घंटियाँ बाँधती जो टुन-टुन आवाज़करतीं।"

रन्नी हँस पड़ी, अब्दुल्ला भी हँसने लगा। नौकर सामान ले आया था। भूनते मसाले की सुगंधफैलने लगी।

"लाइए, मैं भूनती हूँ," रन्नी ने शाहबाज़ के हाथों से झारा लेना चाहा।

"अरे नहीं, आप बस पास खड़ी रहिए, हौसला मिलता है। हाँ, तोघंटियाँ बाँधकर उन बच्चों के साथ मैं भी कूदता था। धीरे-धीरे ताजिए कर्बला की ओर जाते। उफ, क्या नज़ारा रहता था। दिन भर उछलकूद, तमाशा, ढेरों मिठाईयाँ। कर्बला से लौटकर वह पैर दुखते कि पूछो मत। पिंडलियाँ सूज जातीं। गरम पानी की सिंकाई चलती साथ-साथ अम्मी की डाँट भी। अब वह बात कहाँ? ज़माना बदल गया है।"

सब्ज़ी तैयार हो चुकी थी। शाहबाज़ का चेहरा भी यादों में खोया बुझ-सा गया था। रन्नी अचकचा गई-"चलिये, हॉल में चलकर बैठते हैं।"

शाहबाज़ रन्नी के साथ आज्ञाकारी बच्चे-सा हॉल में आ गया जहाँ निक़हत क्रोशिये पर थालीपोशबुन रही थी।

रन्नी ने छेड़ा-"देखिये शाहबाज़ जी, पढ़ना-लिखना छोड़ शादी की तैयारी में जुटी है निक़हत।"

"धत्" निक़हत ने उँगली में लिपटा डोरा खोल डाला।

"ब्याह का तो अब हमारा भी दिल हो आया है।" शाहबाज़ दीवान पर आराम से बैठ गया था। निक़हत शरमाती हुई कब की कमरे से रफूचक्कर हो गई थी।

"दिलहै तो रोकिये नहीं।" रन्नी ने लापरवाही से कहा। अचानक शाहबाज़ की आवाज़ रन्नी को लरजती हुई-सी लगी। "रेहाना जी... आप मुझे बहुत पसंद आई हैं।"

रेहाना का पोर-पोर सन्न रह गया। यह क्या सुन रही है वह? भान तो कुछ-कुछ हुआ था उसे शाहबाज़ के यूँ उसके आगे-पीछे डोलनेसे। जब से वह आया है रन्नी के संग-संग लगा रहता है। कभी कपड़ों की तारीफ़ करता, कभी आँखों की, तो कभी दाँतों की। रन्नी के चेहरे पर सबसे आकर्षक उसके गुलाबी अधर थे और उनके बीच से झाँकते अनार के दानों से दाँत, जिन्हेंपान खाने के बावजूद भी रन्नी साफ रखती। रन्नी ने महसूस किया, वह मरी नहीं है, उसके अन्दर के बहते जल पर शैवाल जम गई है पर हिलोरें बदस्तूर जारी हैं, जो मौक़ा पड़ते ही शैवाल को छिटका देती हैं। ताज्जुब है उसका दिल अभी तक जवाँ है, अभी तक शब्दोंकी हरारत उसे छू पाने में समर्थ है...अभी तक।

गुलनार आपा ने डॉक्टर बुला लिया था। आज उनके अब्बाजान की तबीयत भी कुछ ज़्यादा नासाज़ थी। रात भर गुलनार आपा सोई नहीं थीं। ऐसा अक़्सर हो जाता था। अब्बाजान का गिरता हुआ स्वास्थ्य कोठी के लोगों की आदत बन चुकी थी लेकिन गुलनार आपा के लिए तनाव की वजह। क्योंकि वह यह मानती थीं कि कोठी के लिए गुलनार आपा का वजूद तब तक है जब तक अब्बाजान ज़िन्दा हैं। निक़हत प्लेट में जो खाना परोस कर ले आई थी वह भी ढँका रखा रहा था। इधर शहनाज़ बेग़म भी बीमार थीं।

डॉक्टर आ चुके थे। पीछे-पीछे दवाईयों का बैग लिए कैलाश। संग-संग शाहजी। शहनाज़ बेगम का बुख़ार अब उतर चुका था, कमज़ोरी बाकी थी। शाहबाज़ और रन्नी उन्हीं के कमरे में थे।

"डॉक्टर साहब! चलने-फिरने की इजाज़त दे दीजिए, ज़रूरी काम रुके पड़े हैं।" शहनाज़ बेगम ने तकिये के सहारे उठते हुए कहा।

"नहीं, अभी नहीं। दो दिन का आराम जरूरी है। यूँ भी चुनाव के दिन करीब है, शहर भर में चुनाव की सरगर्मी है, ऐसे में अपने ज़रूरी काम मुल्तवीरखिए।"

डॉ. अग्रवाल ने सीरिंज में इंजेक्शन भरा। तब तक ताहिरा ओवल्टीन बना लाई।

"लीजिए, ओवल्टीन पीजिए शाहबेग़म। आपको इतने टेंशन की क्या ज़रुरत? टेंशनतो मुझे है, पार्टी के लिए रात-दिन एक कर रहा हूँ।"

"कौन-सी पार्टी के हैं आप डॉ. अग्रवाल।" शाहजी ने पूछा।

"हम तो बी.जे.पी. के हैं। सही मायनों में देश को सम्हालने का दम बी. जे. पी. में ही है। कांग्रेस तो गई अब।"

"ज़रा सम्हलकर डॉ. शाहजी कांग्रेस के हैं।" ओवल्टीनपीते हुए शहनाज़ बेग़म बोलीं।

"अच्छा...क्या मस्जिद के लिए ज़मीन भी कांग्रेस से पास कराई है शाहजी ने?"

"नहींडॉ. साहब, यह तो हमारी निजी ज़मीन है। पहले हम इसी शहर में रहते थे। तभी अब्बाजान ने कुछ प्लॉट ख़रीद लिए थे।" शाहबाज़ ने कहा।

"ओह, आई सी, तो बेग़म मस्जिद बनवाने की आप सबको बधाई।" और डॉक्टर अब्बाजान के कमरे की ओर चल दिए।

उनके रुखसत होते ही चुनावों पर चर्चा चल पड़ी। शहनाज़ बेगम कभी भी वोट देने नहीं जातीं लेकिन शाहजी चुनाव के दिन सुबह-सुबह पहला काम वोट देने का ही करते हैं। यह उनके कर्तव्यों की फेहरिस्त में शामिल है। चुनाव के दरमियान लगातार टी.वी. चलता रहता है। तमाम अखबार-रिसाले ख़रीदे जाते हैं। चुनाव का रिज़ल्ट गेस किया जाता है। कुछ यूँ घर का आलम रहता है जैसे चुनाव में खुद शाहजी खड़े हुए हों। कभी-कभी कहते भी हैं शाहजी-"अगर बिज़नेस में नहीं होते, तो हम राजनीति में होते।"

शहनाज़ बेगम चिढ़ जाती हैं उनकी इस बात से-"कोई दम है राजनीति में? कोई भी पार्टी सच्ची है, जिसके होकर रहो? अरे, कोई पार्टी ज्वाइन करो तो उस पार्टी की तमाम गंदगी भी ओढ़ लो। वह दिन गए जब नेता देश के होकर जीते थे, अब कुर्सी के होकर जीते हैं।"

"ठीक है बेग़म...स्ट्रेन मत डालो, बीमार हो। हम ज़रा अब्बाजान की मिजाज़पुर्सी करके आते हैं। बड़े शर्मिन्दा हैं कि आपा को अकेले ही सब देखना पड़ता है।"

"आपा तो मिसाल हैं जो अपने लिए नहीं जीतीं। आप और अब्बाजान किस्मत वाले हैं जो आपा जैसी बहन, बेटी मिली।" शाहजी ने शहनाज़ बेगम की इस तारीफ़ पर उन्हें लाड़ से देखा और ताहिरा से कहते गए कि खाना लगवायें। आज थकान है, जल्दी सोने का मूड है।

शाहजी के इतना कहते ही भगदड़ मच गई। दस्तरख़ानपलक झपकते ही सज गया। शहनाज़ बेगम भी काँखते हुए आईं...थोड़ा बहुत चखा, गोभी मशरूम की तारीफ़ हुई। शाहजी ने कहा-"मियाँ शाहबाज़, शादी कर लो, बीवी को ख़ुश रखोगे।" शाहबाज़ की निगाहें रेहाना की ओर उठीं। रेहाना सकपका गईं। जल्दी-जल्दी ट्रे में रखी पुडिंग की कटोरियाँ सर्व करने लगी। शाहबाज़ ने उसे अजीब पशोपेश में डाल दिया है। साफ़ नज़र आता है कि अगर वे ज़रा-सा इशारा करें-तो शाहबाज़ निक़ाह कर ले पर यूसुफ़ के बाद मन टुकड़े-टुकड़े हो गया है जो किसी भी तरह जुड़ता नहीं। हर इंसान बुज़दिल, फ़रेबी नज़र आता है। रन्नी तड़प उठी-यह सोचकर कि यूसुफ़ भी तो दुबई चला गया और शाहबाज़ दुबई से आया है। यह दुबई क्यों उनकी जाना का दुश्मन हो गया जो गाहे बगाहे उन्हेंटौंचता रहता है। कभी एहसास को बुलंदियों पर पहुँचाकर, कभी एकदम धूल में मिलाकर। नहीं, अब वे दुबई के हाथों नहीं ठगी जायेंगी, हरगिज़ नहीं। उन्होंने बेबाक़ नज़र शाहबाज़ पर डाली और शाहजी के उठते ही खुद भी उठ गईं। हाथ मुँह धोकररोज़मर्रा की तरह पान लगाने लगीं, ताहिरा पास बैठी पान में लौंग इलायची डालती गई।

लेकिन शाम होते-होते शाहबाज़ ने बगीचे में रन्नी को अकेली पा कह ही डाला। रन्नी अपने कमरे से असर की नमाज़ पढ़कर निकली थीं और हाथों में तस्बीहके दाने की माला थी। उनकेचेहरे पर गज़ब का नूर था जो उनके पाक दिल का गवाह था।

"रेहाना जी, क्या आप मेरी उजड़ी दुनिया बसा सकती हैं, मुझसे निक़ाह करके?" आप कहें तो मैं आज ही आपा को यह ख़बर दे दूँ। मस्जिद चार-पाँच दिन में बनकर तैयार हो जायेगी। मेरी वापसी सोलह तारीख़ की है, आप कहें तो..."

रन्नी ने माला अपनी कलाई में झूलते छोटे-से हरे मख़मली बटुवे में रखी और इत्मीनान से बैंच परपहलू बदला-"शाहबाज़ जी... आपने मेरी राय तो जानी नहीं और निक़ाह की हद तक पहुँच गए? आप नहीं जानते कि मेरा दिल कितना चूर-चूर हुआ पड़ा है जिसे कुदरत की न तो कोई फ़िजांबहला सकती न आप जैसे मुहब्बत भरे दिलों के लफ़्ज ही। मैं मर चुकी हूँ शाहबाज़ जी... अब इसमें कहाँ से धड़कनें आयेंगी?" और रन्नी की आँखों में पानी की हलकी-सी परत तैर आई जिसमें शाहबाज़ की प्रार्थना करती शक्ल झलकने लगी। रन्नी ने आँखें बन्द कर लीं।

"मैं आपके दिल के हर ज़ख्म को भर दूँगा। मुझे पता है, उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचते हुए ख़ुदा का हर बंदा सौ बार ठगा जाता है, सौ बार ठोकरें खाता है, ज़िन्दगी के तल्ख़ तजुर्बों को झेलता है। मैं भी उसमें शामिल हूँ रेहाना जी।"

माहौल गंभीर हो उठा, हवा के ज़ोर से पत्ता भी खड़कता तो दोनों चौंक पड़ते-"मेरी बीवी कैंसर से तड़प-तड़पकर मर गई। मैं पल-पल उसे मरते देखता रहा। उसका खूबसूरत चेहरा राख में तब्दील होता गया, बेरौनक हो गया, बाल सारे झड़ गए और मैं कुछ न कर सका। रेहाना जी, मेरी बीवी मुझे पागलपन की हद तक प्यार करती थी, मैं भी उसे? उसी ने तो मुझे हुक़्म दिया है कि मैं आपके संग बाकी का जीवन बिताऊँ।"

रन्नी चौंक पड़ी-"उसने हुक्म दिया?"

"हाँ, ...आप नहीं जानतीं, वह आज भी मेरे तसव्वुर में मौजूद है, मुझे किसी भी उलझन में देखती है तो झट उसका उपाय बता देती है। असल में वह मुझे उलझन में देख ही नहीं सकती।"

रन्नी ने बड़ी बारीकी से शाहबाज़ को देखा। नहीं, वहाँ यूसुफ जैसी बुज़दिली न थी, ...एक पाकीज़गी थी। जो आज भी अपनी दिवंगत बीवी को नहीं भूला। वह किसी को भी कैसे धोखा दे सकता है? तो क्या? नहीं, नहीं...अब यह शोभा न देगा। लोग क्या कहेंगे? भाईजान, भाभी, ताहिराऔर फिर शाहजी का ख़ानदान। नहीं...जलने दो रन्नी को अगरबत्ती की तरह धीरे-धीरे...कौन देखता है अगरबत्ती का रफ़्ता-रफ़्ता राख़ होना? सभी उसकी खुशबू का ही तो लुत्फ़ लेते हैं।

"अम्मी की मन्नत थी यहाँ मस्जिद बनाने की, जानती हैं क्यों?" बीवी के इंतकाल के बाद मैं होश गँवा बैठा था। रात-रात भर जागता, शराब पीता। कारोबारठप्प होता जा रहा था। न किसी से मिलता न कोई ताल्लुक रखता। अम्मी न होतीं तो मेरी बेटी भी मेरे पागलपन में शहीद हो जाती। तब अम्मी ने मेरे अच्छे होने, अच्छी-सी ज़िन्दगी बसर करने की मन्नत माँगी थी। सब कुछ तो सँवर गया पर दिल का जो कोना ख़ाली पड़ा है, उसका क्या करूँ? "

"शाहबाज़, मुझे बताइए, मैं आपके लिए क्या करूँ? काश! मैं वह कर पाती जो आप कह रहे हैं। लेकिन मैं मजबूर हूँ, मुझे माफ़ करिए।" कहते-कहते रन्नी की आवाज़ भीग गई। उन्होंने दोनों हाथों में अपना चेहरा छुपा लिया। शाहबाज़ की हिम्मत बढ़ी। बगीचा सुरमई अँधेरे में डूब रहा था। चहुँ ओर सन्नाटा था। शाहबाज़ पास सरका और उसने रन्नी का चेहरा अपने सीने में छुपा लिया-"आ जाओ रेहाना, इस दिल में समा जाओ। इसका ख़ालीपन भर दो। मैंतुम्हें ताउम्र यहाँ से हिलने न दूँगा।"

कुछ पल तो रन्नी वैसी ही रही फिर आहिस्ता से अलग...खड़ी हुई। एक बार चारों ओर देखा, कहीं कोई हलचल न थी अलबत्ता लिली के सफेद फूल हवा में मुस्कुरा रहे थे।

"चलिये, अन्दर चलें, शाहजी आते होंगे। हम न मिलेंगे तो परेशान हो जायेंगे। शाहबाज़, आप जानते हैं रेहाना की इस कोठी में हैसियत? इन लोगों ने मुझे अपने ख़ानदान का मान लिया है। मैं कोठी का एक हिस्सा बन गई हूँ।"

मायूसी से शाहबाज़ ने रन्नी के साथ कोठी की ओर कदम बढ़ा तो दिए लेकिन दिल में जैसे जूनून-सा चढ़ गया था। सीधा पहुँचा शहनाज़ आपा के कमरे में।

"कैसी तबीयत है आपा, इधर क्यों लेती हैं? चलिए हॉल में बैठते हैं, आपका दिल भी बहलेगा।"

शहनाज़ बेग़म भी ऊब चुकी थीं, शाहबाज़ का सहारा ले उठीं-"थे कहाँ अब तक तुम?"

"अपनी तक़दीर को मोड़ देना चाह रहा था पर नाक़ामयाबी हाथ लगी।"

"मतलब?"

शाहबाज़, शहनाज़ बेग़म को धीरे-धीरे हॉल तक ले आया जहाँ रेहाना सोफे पर आँख बन्द किए सर टिकाये बैठी थीं। शाहबाज़ ने शहनाज़ बेग़म को दीवान पर गाव तकियों के सहारे बिठा दिया और ख़ुद उनके पैरों के पास बैठ गया-"आपा, मैंरेहाना जी से निकाह करना चाहता था पर।"

एकाएक शहनाज़ बेग़म ने पैर समेट लिए-"क्या! ...यह तुम क्या कह रहे हो शाहबाज़? क्या रेहाना बेगम के लिए यह मुनासिब होगा?" सारी बातें रेहाना के कानों में पिघलते सीसे-सी पड़ीं। शहनाज़ बेग़म के तल्ख़ शब्द उनके दिल में तल्ख़ी घोलते रहे-"नहीं, शाहबाज़...यह इरादा दिल से निकाल दो, यह मुमकिन नहीं। ...रेहाना बेग़म कोभी ऐसा सोचना तक नहीं चाहिए। अरे! औरत का ख़ानदान होता है, भाई भावज होते हैं...अब उनका मान-सम्मान हमसे भी तो जुड़ गया है।"

रन्नी तड़प उठी। क्यों, उम्रदराज़ शाहजी के लिए आप कमसिन ताहिराको चुन सकती हैं, तीन-तीन शादियाँ हो सकती हैं उनकी? और रन्नी को इतना भी हक़ नहीं कि अपनी ज़िन्दगी खुशहाल कर सके? दिल हुआ शाहबाज़ से कह दें कि वे निक़ाह के लिए तैयार हैं। पाँव में पड़ी बेड़ियाँ उन्हें ऐसा कहने से रोकती रहीं। वे धीरे-धीरे उठीं और अपने कमरे में आ गईं। खुद को बिस्तर के हवाले करना था कि इतनी देर से रोका बाँध टूट गया, न जाने कब तक आँखें बरसती रहीं, किसी ने न जाना।

सुबह रन्नी गर्विता होकर जागी, गालों पर बहकर सूख गए आँसुओं की चुभन बरक़रार थी। यह चुभन दिल तक उतर गई। शहनाज़ बेग़म को किसने हक दिया उसकी ज़िन्दगी का फ़ैसला करने का? हाँ या नावे स्वयं करेंगी। इस मामले में उन्हें किसी की दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं। ज़िन्दगी उनकी अपनी है। अकेले ढोयी है अब तक। किसी पर अपने दर्दोंग़म ज़ाहिर नहीं किए, किसी को शामिल भी नहीं किया अपनी पीड़ा में। फिर उनके लिए फैसला करने वाला भी कोई न हो। केवल भाईजान और भाभी...बस उन्हीं का हक है इसका। उन्होंने ही उनकी डूबती कश्ती को सहारा दिया था जब वे विधवा हुई थीं, जब यूसुफ़ के नाजायज बच्चे की माँ बनने वाली थीं। शायद रन्नी ने इतना ही सबाब लूटा है कि भाईजान, भाभी उसे मिले...वरना।

मस्जिदसे अजान की आवाज़ दूर-दूर तक सन्नाटे में गूँज रही थी-"अल्लाहो अकबर अल्ला..." रन्नी ने भी रूटीन निभाते हुए फज़र की नमाज़ अता की और देर तक आँख मूँदे बैठी रही। जब कोठी चहल-पहलसे आबाद होने लगी तो वह उठी, नहाया, गीलेबालों को पीठ पर लापरवाही से झटक दिया। पानी की बूँदें मोती बनकर फर्श पर बिखरतीरहीं। बाहर जाड़ों की धूप ने घास पर गिरी शबनमकी बूँदें सोख ली थीं और अपनी फतहपर इतराती खिड़की से अनधिकार प्रवेश कर चुकी थी। रन्नी ने हलकी गरमाई में दुपट्टे की जगह शॉल ओढ़ लिया।

"सलाम फूफी।" ताहिरा की मीठी आवाज़ रन्नी को हल्का-सा सेंक दे गई।

"खुश रहो, आबाद रहो।" और बाँहें फैलाकर ताहिरा को अपने आगोश में ले, उसका माथा चूम लिया।

ताहिरा को देखकर ऐसा क्यों नहीं लगता कि वह इस घर की दुल्हन है। दुल्हन का रुतबा होता है, डोली में आना और जनाजे में विदा होना। हमेशा ऐसा ही क्यों एहसास रहता है जैसे वे दोनों यहाँ कोई मक़सद से आई हैं। मक़सद केवल इतना कि शाहजी को वारिस दें और बदले में भाईजान के ख़ानदान की खुशियाँ लें। आख़िर कैसे इस एहसास से छुटकारा पायें? कैसे मान लें कि यह घर ताहिरा का ही है। घर की हर बेशकीमती चीज़, यहाँ तक कि शाहजी तक उसी के हैं? यह तो तय है कि ताहिरा के साथ नाइंसाफ़ी हुई है लेकिन ख़ुदा की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता। तब क्या शाहबाज़ का प्रस्ताव! उसमें भी खुदा की मर्ज़ी है? ओह...अल्लाह! मेरी सोच को अंजाम दो...मैं भटक रही हूँ।

"फूफी...आह उदासी क्यों? रात ठीक से नींद तो आई न।"

"बाक़ायदा...अब तेरी फूफी को कुछ नहीं सालता बेटी... देख, मैंने गुसल भी कर लिया, नमाज़ भी पढ़ ली।"

तभी निक़हत वहाँ आ गई-"सलाम फूफीजान! चाययहीं ले आऊँ या हॉल में चलेंगी?"

"चलो, वहीँ चलते हैं।"

तीनों हॉल में आ गए। जहाँ पहले से ही शाहजी और शहनाज़ बेग़म बैठे थे। आज तो मँझली बेग़म भी दीवान पर बैठी मिलीं। कुछ यूँ मानो कचहरी लग चुकी है और मुवक्किल का इंतज़ार है।

"आइए रेहाना बेग़म...अस्मां चाय निकालो।"

शहनाज़ बेग़म ने हुक़्म दिया। पहले से बेहतर लग रही थी उनकी तबीयत। फिर भी रन्नी ने फ़र्ज़ पूरा किया-"अब कैसी तबीयत है बेगम?"

"बेहतर...अब्बाजान भी बावजूद जाड़े के इत्मीनान की नींद सोये। डॉ. अग्रवाल की दवाई जादुई असर करती है। आप सुनाइए... नींद अच्छी आई?"

"या सोचती रहीं शाहबाज़ के बारे में?" शाहजी ने चुटकी ली।

सब मुस्कुरा पड़े। रन्नी का चेहरा शर्म से तमतमा आया। तो बात शाहजी तक पहुँच गई। चलो अच्छा ही है...आख़िर उन्हें पता तो होना ही था। रन्नी ने आवाज़ को काबू में किया और बड़े आत्मविश्वास से बोलीं-

"पहल शाहबाज़ ने ही की थी शाहजी और जिन हालातों से वे गुज़र रहे हैं, ऐसा सोचना नामुमकिन तो नहीं। मेरी बात दीगर है। मुझे निकाह करना होता तो क्या मैं इतने बरस इंतज़ार करती? आप शायद मुझे ठीक से समझ नहीं पाये। मुझे किसी की परवाह नहीं। जो मेरा ज़मीर कहता है मैं वही करती हूँ। मेरी सोच में कभी किसी की दख़लंदाज़ी नहीं रही। अभी भी चाहूँ तो निक़ाह कर सकती हूँ शाहबाज़ से। लेकिन अब इस सबसे दिल उचट गया। अब ये बातें आकर्षित नहीं करतीं। अब मैं अपनी उम्र का बक़ाया ख़ुदा के बंदों की ख़िदमत में गुज़ारना चाहती हूँ, अपने लिए एक साँस भी जीने की ख्वाइश नहीं है।"

हॉल में सन्नाटा छा गया। देर तक कोई कुछ न बोला। केवल चाय की चुस्कियाँ सन्नाटे को तोड़ती रहीं। और तभी शाहबाज़ उनींदी आँखें लिए आया-"गुडमॉर्निंग एवरीबॉडी।" दरवाज़े पर से ही ज़ोर से बोला और आकर सोफ़े पर बैठ गया। सबने ख़ामोशी से हाथ माथे तक ले जाकर उसके गुडमॉर्निंग का जवाब दिया। अस्मां ने चाय की प्याली उसके आगे छोटी-सी तिपाई पर रख दी। शाहबाज़ ने माहौल की गंभीरता भाँपते हुएकहा-"क्या हुआ? कोई गंभीर बात?"

"बात तुम्हारे निक़ाह की चल रही थी शाहबाज़...रेहाना बेगम को निक़ाह से सख़्त ऐतराज़ है।"

शहनाज़ बेग़म के ये लफ़्ज रन्नी के लिए ढेरों सुकून उँडेल गए। फतह उसकी हुई। उसने भरपूर नज़रों से शहनाज़ बेग़म को देखा। फिर वे पल भर भी वहाँ रुक न सकी। चाय ख़तम की, मँझली का हालचाल पूछा और गर्वीली चाल से अपने कमरे की ओर चल दी।

मस्जिद बनकर तैयार थी। कोठी में जैसे हंगामा-सा बरपा था। तीनों बेग़मों की कारें धो-पोंछकर चमकाई गई थीं। सभी औरतें नहा-धोकर रेशमी कपड़ों में लकदक नज़र आ रही थीं। मस्जिद में मर्द ही नमाज़ अता करेंगे लेकिन कोठी की तमाम औरतें तो मस्जिद के दीदार के लिए बेचैन थीं। हफ्तों जिन बेलबूटों को नक्शों में देखती आई थीं, मस्जिद के जिस परिसर के लिए बेला, चमेली की लतर और चंपा तथा बोगनवेलिया के ख़ास पेड़ शाहबाज़ ने खरीदे थे, मस्जिद की छत पर लटकाने के लिए बड़ा-सा झूमर खरीदा गया था और फ़र्श पर बिछाने के लिए रंगबिरंगी चटाईयाँ...यह सब देखने की लालसा थी उन्हें। ताहिरा, शहनाज़ बेगम और शाहजी, निकहत समेत एक कार में बैठे, दूसरी में शाहबाज़, रन्नी, अस्मां और मुमताज़। तीसरीगाड़ी में मँझली बेगम, गुलनार आपा और शांताबाई। कैलाश और एक नर्स अब्बाजान कीख़िदमत केलिए कोठी में तैनात किए गए। ताहिरा की कार चलाने के लिए नया ड्राइवर मुकर्ररकिया गया था डिसूज़ा। मझोलेक़द और चालीस की उम्र का बड़ा ही हँसमुख व्यक्ति था डिसूज़ा। अब्बाजान के ढेरों आशीर्वाद के बाद कारोंका कारवाँ चल पड़ा। तभी अब्दुल्ला दौड़ा-दौड़ा आया। आज सुबह से शहनाज़ बेग़म ने ख़ास, नवाबी ढंग का खाना पकाने का हुक़्मदिया था उसे-'बैंगन का रायता, शीरमाल, शामी कबाब, पुलाव, मीठा-नमकीन दोनों तरह का अलग-अलग, गोश्त के शोरबे में खूब लाल तली हुई मुलायम अरबी और रुमाली रोटियाँ।' इसी बाबत वह देर तक, कार की खिड़की से लगा शहनाज़ बेगम से कुछ पूछता रहा। शाहजी भी बेहद खुश मूड में थे-"बेगमअचार, चटनी और आम का वर्क लगा मुरब्बा भी होगा न दस्तरख़ान पर।"

"मियाँ...आपके लिए हम कोताही करेंगे? जान हाज़िर है।"

शहनाज़ बेगम की इस बात पर ताहिरा दुपट्टे में मुँह छुपाकर हँसने लगी। कारें चल पड़ीं। लगभग घंटे भर का सफ़र था। शहरसे दूर जंगलों का रास्ता। खेत, आमों के झुरमुट, केले के बगीचे, दोनोंओर छिटपुट मकान, छोटी-छोटी देवी-देवताओं का मड़िया, मड़ियामेंटिमटिमाता कलश, लंगूर, गिलहरियाँ। अचानक, सीट पर धीरे-धीरे हाथ बढ़ाकर शाहबाज़ ने रन्नी का हाथ पकड़ लिया। रन्नी ने छुड़ाना चाहा पर गिरफ़्त कसती गई। शाहबाज़ के मज़बूत हाथों में रन्नी की मुलायम हथेलियाँ मसली जाती रहीं। विरोध भी ठंडा पड़ गया। रन्नी ने धीरे-धीरे सीटके सिरहाने सर टिका लिया। शाहबाज़ ने भी वैसा ही किया। फिर धीरे से उसके कान में फुसफुसाया "मैं क़यामत तक तुम्हारा इंतज़ार करूँगा रेहाना।"

रन्नी पानी में डूबती चली गई। अथाह जल...कहीं पैर टिकाने का ठौर नहीं। ज़रा-सा हाथ पैर चलाती तो पानी में लतरें सेवार उसके क़दमों में गुत्थमगुत्था हो जातीं। वह साँस लेने को मुँह सतह पर निकालना चाहती पर न सतह है न तलहटी। यह कैसी जलराशि है? यह कैसी गहराई है? गहराई में नीचे की ओर जाती एक अँधेरी गुफ़ा...जो पूरी ताक़त से उसे अपनी ओर खींच रही है। गुफा की पत्थरी दीवारों पर मकड़ी के तमाम जले...जालों में फँसी उसके माज़ी की यादें कीड़ों-सी कुलबुला रही हैं। कहाँ जाये वह? गुफा का कोई छोरनहीं...उजाले की कोई किरन नहीं...बस, एक बदहवास सच्चाई... जहाँ उसकी परछाईं भी उसका साथ छोड़ चुकी है।

कार झटके से रुक गई-'उठो रेहाना, मुक़ाम आ गया।' रन्नी आँखें मलती हुई उठी। दिल से एक सूखी सिसकीउठी जो होंठों तक आकर बिला गई। सामने हरी-भरी धरती पर खूबसूरत गुंबद वाली मस्जिद बनकर तैयार खड़ी थी। लोगों का हुजूम जंगल में मंगल सिद्ध हो रहा था। कोठी के नौकरों ने मिलकर ऊँचीटीलेनुमाजगह पर मख़मली चादर बिछा दी, रेशमीपोटलियों में ख़ास अरब के छुहारे और खजूर बँधे थे। रन्नी, शहनाज़ बेग़म और गुलनार आपा की बगल में बैठ गई। मँझली कोठी से लाई कुर्सी पर बैठी। ताहिरा, निकहत ढलान पर दुबक कर बैठ गईं। ढलवाँ रास्ता पीले बैंगनी फूलों से सजा था, हरी-हरी दूब मख़मल-सा आभास देती। मस्जिदकी दाईं ओर पत्थर के चबूतरे पर बड़े-बड़े घड़ों में शरबत तैयार हो रहा था। कुछ मौकापरस्त खोमचेवाले रेवड़ियाँ, गज़क, फूलमाला अगरबत्तियों के खोमचे सजाये खड़े थे। क्या नज़ारा था? मुँह अँधेरे निकले थे सब और अब नई नवेली मस्जिद में पहली बार नमाज़ की शुरुआत जोहर की नमाज़ से हुई। शहनाज़ बेग़म गद्गद् हो उठीं। दुपट्टा फैला हुआ दुआ माँगी...'या अल्लाह, शाहबाज़को दुल्हन और शाहजी को बेटा नसीब हो।'

नमाज़ के बाद छुहारे, खजूर बाँटे गए। शरबत पिलाया गया...ख़श की खुशबू से पगा पुरलुत्फ़ शरबत और लौंग-इलायची डली चाँदी के वर्क लगीमगही पान की गिलौरियाँ। जश्न-सा हो गया वहाँ। जितने मुँह, मस्जिद की उतनी ही तारीफ़। रन्नी ने शाहबाज़ को बधाई दी और काफिला कोठी की ओर लौट पड़ा जहाँ अब्दुल्ला ने नवाबी दस्तरखान सजाकर तैयार रखा था।

शाम तक रन्नी थक कर चूर हो गई थी। सुबह से जुटी थी। यों काम कुछ न था पर हर काम को होते देखते रहना भी थका डालता है। रन्नी अपने कमरे में पहुँचते ही बिस्तर पर ढेर हो गई।

ख़तम। यह रात भी ख़तम। अरसे से जिस चीज़ का इंतज़ार था वह जश्न भी ख़तम। रन्नी ने बहुत चाहा था कि किसी घटना, किसी एहसास में अपने दिल को शामिल नहीं करेगी। लेकिन दिल के, मानो दो हिस्से हो गए। एक पूरी तरह आज़ाद...किसी की दखलंदाज़ी बर्दाश्त नहीं, किसीके पीछे पागल नहीं...अपनी सोच से करने पर उतारू। औरदूसरा विवश, लाचार, घुटन भरे प्रताड़ित अतीत से टीसता, लुटी मुहब्बत के दर्द को झेलता और अब शाहबाज़ की ओर रफ़्ता-रफ़्ता बढ़ता। क्या करे वह? इन भावनाओं के थपेड़ों को दिल के कौन से भाग से टकराने दे?

"फूफी, आज सोलह तारीख़ है। आज रात, शायद तीन बजे की फ्लाइट है शाहबाज़ भाईजान की, आप चलेंगी रुख़सत करने?"

यह ताहिरा थी। ओह, तो रुख़सत होनेका वक्त आ गया। लगभग महीने भर की दिमाग़ी जद्दोजहदको विराम लगाने का वक्त आ गया? रन्नी हड़बड़ाकरउठी, अपना बक़्सा खोला और बक़्से की तलहटी से प्लास्टिक कीथैली निकाली। इसमें महीन मलमल के करीब दर्जन भर मर्दाने रुमाल थे जिनके कोनों पर उन्होंने कशीदाकारी की थी। इनमें से सबसे सुन्दर छः रुमाल निकालकर, उन्होंनेउन पर गरम आयरन फेरी...गुलाब का परफ़्यूम छिड़का और एक आकर्षक पारदर्शी प्लास्टिक के चौकोर डिब्बे में उन्हें सहेज कर रख दिया। बाकी के छः बक्से की तलहटी में फिर से रख दिए। बक़्सा बन्द करते-करते उनकी उँगलियाँ अपने ब्याह के दुपट्टे से जा टकराईं जो था तो मामूली जॉर्जेट का किरन गोटा टँका, लेकिन उनके लिए वह बहुत ख़ास था। इसे ही ओढ़कर वे चंद महीनों के लिए सुहागन बनी थीं। धीरे-धीरे उनकी उँगलियाँ दुपट्टे को सहलाने लगीं। उन्हें लगा, सुहाग के लाल जोड़े से सजी वे दुपट्टा ओढ़े बैठी हैं-चारों ओर चहल-पहल है। कोई एक खूबसूरत नटखट लड़की उन्हें घेरे औरतों के बीच ठुमक-ठुमक कर नाच रही है, उनकी कोहनी तक मेंहदी रची हुई है और यह क्या! ...सामने सेहरा बाँधे शाहबाज़! ओह, यह क्या सोच डाला रन्नी ने। ये हसरतें उड़ान क्यों भरने लगीं? कम-से-कम उड़ने से पहले अपने पर तो तौल लेने थे उन्हें।

सारे दिन रन्नी उदास रही। शाहबाज़ उनसे बात करने के लिए उनके आसपास मँडराता रहा पर उन्होंने जानबूझकर स्थिति टाली। आख़िररुख़सत होने के घंटे भर पहले शाहबाज़ ने उन्हें पकड़ लिया-"क्यों बाख रही हो रेहाना मुझसे? आख़िर मेरा क़सूर क्या है?" रन्नी के होंठ काँपे-"शाहबाज़, मुझे भूल जाना, इसी में हम दोनों की भलाई है। मैं दुआ माँगती हूँ, मुझे और न तोड़ो।"

रन्नी की आवाज़ भर आई। शाहबाज़ ने उस दर्द कोमहसूस किया, शायद कुछ समझा भी-"ठीक है रेहाना, मैं अपने दिल पर पत्थर रख लूँगा। लेकिन एक बात याद रखना, शाहबाज़ दोबारा निक़ाह नहीं करेगा।"

"नहीं, ऽऽ" रन्नी तड़प उठी-"नहीं शाहबाज़ नहीं।"

क्षोभ, पीड़ा और एहसास से बिलबिलाती रन्नी वाक्य पूरा नहीं कर पाई... सभी हॉल में आ गए थे और नौकर शाहबाज़ का सामान कार की डिक्की में रखने के लिए ले जा रहे थे। इन्टरनेशनल एयरपोर्ट जाने में करीब चार घंटे लगेंगे, ट्रेफ़िककी वजह से। इसलिए अभी निकलना ठीक है...जिन्हें पहुँचाने जाना था, वे तैयार थे। शाहजी, ताहिरऔर निक़हत, रन्नी नहीं जायेंगी, उन्होंने तबीयत के अनमने होने का बहाना किया। शाहबाज़ रुख़सत हो रहा है। शहनाज़ बेग़म विदाई की रस्म निभा रही हैं। नौकर हाथ बाँधे खड़े हैं...शाहबाज़ ने नौकरों की मुट्ठियाँ रुपयों से भर दी हैं। फिर वह रन्नी के नज़दीक आया। रन्नी ने रुमालों का डिब्बा आगे बढ़ाया-"जानता हूँ, रुमाल हैं इसमें? जानती हो रेहाना? अंग्रेज़ किसी को रुमाल तोहफ़े में नहीं देते, उनकी मान्यता है कि तोहफ़ा देने और लेने वाले हमेशा के लिए बिछुड़ जाते हैं। मुझे हमेशा के लिए रुख़सत कर रही हो न रेहाना?" रन्नी हथेलियों में चेहरा छुपाकर फुसफुसाई-"खुदा हाफ़िज शाहबाज़...रेहाना का आपको सलाम, रेहानामर कर भी आपके लिए दुआ माँगेगी। बाकी मिलन और जुदाई तो ऊपर वाले के हाथों में हैं।"

"खुदा हाफ़िज़।" और झटके से मुड़कर शाहबाज़ कार में आ बैठा...पल भर में कार कोठी के बाहर थी। रह गई माहौल में केवल धूल, कार के पहियों से उठी धूल।

क्योंजुड़जाती है वह? क्यों जीने लगती है किसी के साथ? क्यों आत्मीयता, अपनत्व जाग उठता है? जबकिकहीं कुछ नहीं है। है तो केवल टीसों के मुँह बाये गड्ढे जिन्हें ढँकते, तोपते अरसा लग गयाऔर जब यह एहसास हो गया कि गड्ढे ढँक गए हैं तो सहसा ही किसी के आगमन की चोट ने फिर गड्ढों का मुँह खोल दिया। फिर टीसने लगा सब कुछ। फिर रिसने लगे घाव।

रन्नी ने घबराकर चारों ओर देखा, सिवा सन्नाटे के वहाँ कुछ न था।