ख्वाबों के पैरहन / भाग 12 / प्रमिला वर्मा
हाय मेरे परवरदिगार! यह कैसी खुसर-पुसर सुन रही हैं वे? अभी तो ताहिरा के निक़ाह को साल भर भी नहीं हुआ, जब शांताबाई ने उन्हें बताया कि ताहिरा भी अभी तक। हाँ शहनाज़ बेगम और बड़ी आपा कह रही थीं, अभी तक ताहिरा के कुछ अता-पता नहीं, क्या यह भी...? वे काँप उठी थीं। अभी तो निरी बच्ची है ताहिरा, इतनी जल्दी क्या है? शहनाज़ बेगम व्यंग्य से मुस्कुराती हैं, ताहिरा बच्ची है, लेकिन शाहजी की तो उम्र बढ़ रही है। जो भी है, जल्दी ही हो जाना चाहिए। शांताबाई कहती है, "बहुत घाघ है बड़ी बेगम। ...अन्दर-अन्दर तो यही चाह रही है कि ताहिरा भी बाँझ करार दे दी जाये और ऊपर-ऊपर शाहजी की हिमायती बनती है कि देखो इस घर के चिराग के लिए मैंने क्या नहीं किया, दो सौतनें सिर पर बिठा लीं।"
"बस और न कहो शांताबाई, ताहिरा बाँझ नहीं, मेरी बच्ची ज़रूर माँ बनेगी।" फिर उनसे वहाँ खड़े न रहा गया, लौट आईं। आकर पलंग पर लेट गईं। सिर दर्द से भारी हो रहा था। आजकलऐसा ही होता है, जरा-सीबात उनके हृदय की धड़कन को बढ़ा देता है और सिर दर्द से भारी हो जाता है। निक़हत चाय की गुहार लगाती आई, "उठिये फूफी जान, चाय लीजिए।" वे चुपचाप उठ बैठीं। चाय पी लेकिन फिर भी सर दर्द से भारी ही रहा।
"ज़रा ताहिरा को भेज दे, सिर पर बाम मल देगी।" निक़हत ने कहा-"लाइये मैं बाम मल देती हूँ।" उन्होंने मना कर दिया, "नहीं निक़हत, मुझे ताहिरा से कुछ बात भी करनी है।" थोड़ी देर बाद ताहिरा बाम की शीशी लेकर दौड़ती हुई आई।
"क्या हुआ फूफी?"
वे भीगी आँखों से ताहिरा को देखती रहीं। शाम का धुँधलका उनके सीने में उतर रहा था।
"ऐसे क्या देख रही हैं फूफी?"
वे कुछ क्षण चुप रहीं फिर बोलीं-"ताहिरा, तुझे ऐसा तो नहीं लगता कि शाहजी बूढ़े हैं?"
"अब यह सोचकर क्या होगा फूफी?"
ताहिरा ने अपनी फूफी का सिर गोद में लिया और बाम मलने लगी।
वे जो जानना चाहती हैं, कैसे पूछें इस लड़की से। कैसे जानें कि शाहजी से वह संतुष्ट हैं, अथवा नहीं? कोई उपाय नहीं, वे निरुपाय-सी आँखें बंद किए पड़ी रहीं। ताहिरा धीमे-धीमे बाम मलती रही। कब उनकी आँखें लगी पता ही नहीं चला। कब ताहिरा धीमे से उनका सिर गोदी से उठाकर तकिये पर रखकर चल दी यह भी उन्हें पता नहीं चला।
या अल्लाह! कैसा खौफनाक ख्वाब था वह! वह काँप रही थीं! देह पसीने से भीगी थी, पूरे कमरे में अँधेरा फैला हुआ था। ...उनके भीतर भी पोर-पोर में अँधेरा फैलता जा रहा था। ...नहीं! ऐसा नहीं हो सकता!-वे लोहे की सलाँखें, उनके पीछे ताहिरा। ताहिरा हवेली के तलघर में डाल दी गई है, वह सीखचों से दोनों हाथ निकालकर पानी माँग रही है, रोटीमाँग रही है। वे निरुपाय हैं क्या करें? शहनाज़ बेगम अट्टहास कर रही हैं। हम तो इसे लाए ही इसीलिए थे कि हवेली में चिराग जलाने वाला पैदा करेगी। और यह...इसका यही हश्र होना था, हुआ। उधर हवेली से बाहर खदेड़ी जातीं वे। भाईजान का सम्पूर्ण व्यापार छिन गया है और फिर वे वापिस साईकिल पर घूम रहे हैं।
'नहीं, मैं ऐसा होने नहीं दूँगी।' दृढ़ संकल्प कर, वे उठ बैठीं। ख्वाब के असर ने उनको समूचा जकड़ लिया था। वे उदास बैठी थीं। कभी टी.वी. खोलतीं, कभी बंद करतीं।
"कैसी हैं फूफी जान?" ताहिरा और निक़हत ने एक साथ कमरे में प्रवेश किया। "और चाय बना लाऊँ, फूफी?" निक़हत ने पूछा।
"नहीं, अब ठीक हूँ। थोड़ामुँह-हाथ धो लूँतो अच्छा लगेगा।"
"हाँ! मुँह-हाथ धो लीजिए। मैं तेल ठोंककर आपकी चोटी गूँथ देती हूँ। आपको अच्छा लगेगा।"
"फूफी, आपको शहनाज़ बेगम ने भी याद फर्माया है।"
"क्यों?"
"मालूम नहीं।" चुलबुली निक़हत उन्हें खूब प्यार करने लगी थी। तेल लगाकर वह उनकी चोटी गूँथती। कभी-कभी, किस्सेकहानियाँ पढ़कर सुनाया करती और अपनी अम्मी तथा अब्बू के मज़ेदार किस्से सुनाया करती।
"फूफी, मैं लौट जाऊँगी, तो आपकी बहुत याद आएगी मुझे।"
"तू भला क्यों जाएगी यहाँ से?"
"क्यों, मेरी अम्मी और अब्बा मुझे नहीं बुलायेंगे क्या?"
रन्नी उठीं, फ्रेश हुईं, कपड़े बदले और निक़हत से बालों में तेल डलवाकर चोटी करवाई।
दुपहर का ख्वाब, शांताबाई की बातें और फिर शहनाज़ बेगम का बुलावा, क्या हवेली को चैन नहीं है कि किसी को मोहलत तो दे कि वह कुछ सोचे-समझें?
"आइये! आइये, रेहाना बेगम" शहनाज़ बेगम अपने जहाज़ जैसे बड़े-से पलंग पर बैठी पान लगा रही थीं। वहीँ आराम कुर्सी पर ग्ल्नार आपा भी बैठी थीं।
"अभी शाहजी शहर की ओर गए हैं, तो सोचा आपको बुलवाकर बातें की जायें।"
"हाँ! हाँ! कहिये शहनाज़ बेगम, कोई ख़ास बात जरूर है जो इस तरह बुला भेजा।"
"मैं कह रही थी रेहाना बेगम, न हो किसी डॉक्टर को दिखा दें ताहिरा को।"
"डॉक्टर को? क्यों भला?"
सामने टी.वी. चल रहा था। ...मैं समय हूँ...कालचक्र...कितने ही राज्यों केविध्वंस और फलने-फूलने का चश्मदीदगवाह।
"आपने कुछ कहा नहीं रेहाना बेगम?"
"हाँ! हाँ! डॉक्टर को दिखा देते हैं, उसमें हर्ज़ ही क्या है? वैसे शहनाज़ बेगम, ताहिरा अभी बच्ची है, इतनी जल्दी क्या है?"
ज़ोरों से हँस पड़ीं शहनाज़ बेगम, ...वही खौफनाक ख्वाब वाली हँसी, हँसते हुए कहा-"अरे बेगम! आप भी जानती हैं कि जैसे ही मर्द का हाथ लगता है, लड़की बच्ची नहीं रहती, बड़ी हो जाती है। आप जानती हैं कि ताहिरा को जल्दीन हो लेकिन इस हवेली को तो जल्दी है। आपसे तो हमने पहले ही कहा था कि यह निक़ाह औलाद के लिए ही है। यूँ शाहजी को क्या ज़रुरत थी इस उम्र में निक़ाह करने की?"
टी.वी. पर भीष्म पितामह माता सत्यवती से कह रहे थे-'जिस धर्म का अनुष्ठान करने से भरतवंश की वृद्धि हो, उसके लिए किसी ब्राह्मण को धन देकर महल में बुलाइये माते।' वह ध्यान से टी. वी. पर चलते महाभारतको देखने लगीं। महाभारत की कथा उन्हें मालूम थी। उनके अब्बू महाभारत की कथाएँ सुनाया करते थे और दोनों बच्चे ध्यान से सुना करते थे। अब्बू में थी एक विद्वत्ता कि उनके बच्चे हर धर्म की जानकारी रखें।
शहनाज़ बेगम बातें कर रही थीं, ...और वे खोई हुई थीं अपने आप में। हृदय में अँधेरा तारी था। वे वहाँ से उठ आईं और अपने कमरे में आकर लेट गईं। लाइट भी नहीं जलाई। अँधेरा मानो उन्हें धीमे-धीमे निगल जाएगा, उनसे कुछ भी छुपा नहीं था। डॉक्टर को दिखाने से फायदा? क्या शाहजी में कोई खोट...नहीं! ऐसा कौन कह सकता है? क्या दोनों बड़ी बेगम बाँझ थीं? मँझली बेगम ने कहा था-'उन्हें कब डॉक्टर कोदिखाया गया? बस दो-चार महीनों में ही बाँझ करार दे दिया गया। फिर शाहजी कभी उनके पास तक नहीं आए।'
क्या जवाब देंगी वे भाईजान को? भाभीजान इस निक़ाह केसख़्त खिलाफ थीं। उन्होंने ही भाईजान की गृहस्थी को सँवारने के लिए इस रिश्ते की मंजूरी जबरदस्ती कराई थी। उनके दिमाग में एक के बाद एक प्रश्न उठ रहे थे। उन्होंने ताहिरा के द्वारा अपने भाई, भावज और उनके दोनों बेटों का सुख देखा था। कितनी ही मेहनत के बाद भाईजान और उनके दोनों बेटों को दो जून की रोटी के अलावा कुछ मयस्सर नहीं था। ताहिरा और फैयाज़ का प्रेम प्रसंग...फैयाज़ भी उसी गरीबी की राह पर...क्या दे पाता वह ताहिरा को? गरीबी, मुफलिसी, जैसे उन्हें मिला था? टाट के पर्दे और सीलन भरा एक कमरा? किसी को कानों-कान खबर भी नहीं हुई और ताहिराइस निक़ाह के लिए मान गई थी। हृदयमें यदि कहीं फैयाज़ की याद भी होगी तो समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। वे जानती थीं, क्या उनके घाव नहीं भर गए?
घाव? क्या सचमुच भर गए? ...उन्होंने एक लम्बी साँस ली।
यूँ अपनी तर्ज़ पर जीती आईं थीं वे...लेकिन यहाँ वे ताहिरा के ससुराल में थीं। ताहिरा की ज़िन्दगी दाँव पर लगी है। 'हमने तो औलाद की ख़ातिर यह निक़ाह मंजूर किया था वरना क्या शाहजी की उम्र थी निकाह की...?' सारे वाक्य शूल की तरह चुभ रहे थे। वे अब सूर्यास्त से घबराने लगी थीं। सूर्यास्त होगा, रात घिरेगी और काला अँधेरा उन्हें जकड़ लेगा। दूसरा दिन फिर किसी नई चिन्ता से शुरू होगा। उन्हें भरपूर विश्वास था कि ताहिरा जिस बलि की वेदी पर जिबह हुई है, खुदा उसकी कुर्बानी को तरजीह देगा। लेकिन यहाँ तो जिबह भी हुए और चखने वाले को स्वाद भी न आया। ताहिरा के निक़ाह का मतलब था केवल औलाद। इस घर में ऐसा कुछ तो अतिरिक्त नहीं मिला था ताहिरा को। दौलत थी, इसलिए मिली...आराम था, इसलिए मिला। यहाँ के तो नौकरों को भी जो आराम हैं, वह उन्हें इससे पहले नसीब न था। उन्हें भाईजान की वे निरीहआँखें याद थीं, जब सूखी ज्वारकी रोटी के निवाले वे खालिस शोरबे में डुबोकर खाते थे। शोरबे में डूबे दो-तीन कतरे वे नूरा-शकूरा के लिए निकलवा देते थे। याद है उन्हें गरीबी के वे दुःख-भरे दिन, जब सिर्फ रात को खाना पकता था। बच्चे भूख में अधिक खाते थे और भाभीजानलकड़ियोंके कड़वेधुएँ से भरी आँखों में आँसू छलछला कर देखती थी, अभी तो रन्नी बी को खिलाना है। खुद तो वे भूखी रह लेंगी पर रन्नी बी? वह धुएँ की कड़वाहट से गीली हुई आँखें थीं या कुछ न कर पाने की असहायता से निरीह आँखें? परथन की एक रोटी बेल वे तवे पर डाल देती थीं। 'लो रन्नी बी, तवे पर की रोटी उतारकर खा लो, मेरा तो पेट बड़ा दुख रहा है।' क्या सचमुच उनका पेट दुख रहा होता था कि अपनी लाड़ली ननद को खिला देने का आग्रह? टुकड़ों-टुकड़ों में ज़िन्दगी की जद्दोज़हददेखी है उन्होंने। तेरह साल की ताहिरा स्कूल से कपड़े में बाँधी गई रोटी वापिस ले आती है कि शाम को चाय के साथ उसके दोनों भाई रोटी खा लेंगे। ...भाईजान असहाय आँखों से खपरैल की छत को निहारते, जिनके टूटे टुकड़ों से तीखी धूप छनकर घर में घुसती थी। ...कुछ न कर पाने की असहायता...रेशा-रेशा उन्होंने भोगा है दुःखों को। समय से पहले बड़े होतेबच्चों को देखा है। भाईजान की बीमारी और खाँसी सुनी है। ...और तब उन्होंने ताहिरा के लिए फैसला लिया था। यूँ सुना था, कितनी ही औरतें घर के सुख, भाई-पिता के जीवन के लिए कुर्बान हो जाती थीं। क्या हुआ यदि ताहिरा के कारण घर को सुख मयस्सर हो गया? औरत का नाम ही है सहना, कुर्बानी देना। लेकिन आज ताहिरा सुखी भी तो है। ...उसके कोमल पंख उन्होंने कुतर डाले थे। ...लेकिनसबके सुख के लिए... और आज वे इस घर में पड़ी हैं तो ताहिरा के लिए... क्या उनकी खुद्दारी उन्हें इस तरह पड़े रहने पर धिक्कारती नहीं? वे तो कभी भाईजान पर भी बोझ नहीं बनीं... 'हाँ! बस ताहिरा की गोद भर जाए... मैं रुखसत ले लूँगी यहाँ से...कहाँ जाऊँगी?' ...सब कुछ अनिर्णीत ही है। फिरएक निकृष्ठ, निरर्थक अहसास उन्हें घेर लेता है। यह गहरा पानी आगे बढ़ने ही नहीं देता। काई और फैले शैवाल पैरों को बाँध लेते हैं और वे गले भर पानी में अकबकाती हैं। कितनी ही बार उन्होंने साँस लेने को हाथ-पाँव मारे हैं...लेकिन साँस घुट-घुट जाती है। वे पानी में डूब जाती हैं, फिर उथलाकर बाहर आ जाती हैं। यूसुफ... शाहबाज़...एक समाज़ से डरा व्यक्ति, दूसरा समाज को चुनौती देता-सा उन्हें बाँधने को व्याकुल। फिरवही निर्णय कि तुम नहीं, तो कभी भी और कोई नहीं...और वे हमेशा की तरह अनिर्णीत। काश! भाईजान सामने आ जाते और उसका हाथ शाहबाज़ के हाथों में सौंपकर कहते-'नहीं! रेहाना बहुत सह लिया...और नहीं, आखिर तुम्हें भी तो जीने का हक है।' लेकिन बाज़ी तो हर बार उनके हाथ से छूट जाती रही और उनके हाथ रीते के रीते रह गए। माना कि शाहबाज़ को इंकारी उनकी अपनी दी हुई थी, लेकिन कहींहृदय में यह आकांक्षा भी थी कि कोई कह दे...कोई उनके आँचल में खुशियाँ डाल दे।
सुबह ही, शहनाज़ बेगम ने कहला भेजा कि ताहिरा को लेडी डॉक्टर के पास ले जाना है। रेहाना बेगम और ताहिरा दस बजे तक तैयार होकर निकल जायें, साढ़े दस बजे का अपॉइन्टमेंट ले लिया है। उनकादिल धड़-धड़ धड़कने लगा...ताहिरा का चेकअप होगा...कहीं वह सचमुच बाँझ करार न दे दी जाए? मेरे ख़ुदा! रहमकर, एक बार तो अपने रहमोकरम के तले हम लोगों को ले ले। ताहिरा सजी-संवरी आकर उनके सामने बैठ गई। वेउससे नज़रें चुराती रहीं।
"क्या बात है फूफी, ...आप तो कुछ बोल ही नहीं रहीं?"
"नहीं! बेटा, ...तबीयत कुछ अच्छी नहीं लग रही।"
"तो जाना रद्द कीजिये न, इतना भी क्या ज़रूरी है।"
"नहीं, चलेंगे। शाहजी गये क्या?"
"जी"
चलो, इस इम्तहान को और पास कर लें उन्होंने सोचा और हवेली से बाहर आईं। पोर्च में ताहिरा की गाड़ी खड़ी थी। डिसूज़ा हुक़्मके इंतज़ार में ड्राइवर की सीट पर बैठा था।
वे दोनों पीछे की सीट पर बैठ गई। रन्नी ने सिर पीछे टिका लिया। हवा के साथ विचार आते रहे, जाते रहे। क्यापता डॉक्टर क्या कहे? ...भाभीजान को भी ताहिरा की चिन्ता है। खाला ने भी कहा था कि हैदराबाद चली जाओ। बाबा ताबीज़ बाँधते हैं, काम हो जाता है, कितनों की गोद हरी हुई है, कितनों के ब्यौपार जमे हैं। चलते समय भी भाभीजान ने कहा था-न हो, एक बार तुम हैदराबाद ज़रूर चली जाओ। देखो, औलाद की खातिर तो शाहजी वहाँ जाने देंगे। फैयाज़ से भी मिल लेना, वहीँ हैदराबाद मन है। बाबा! ... फैयाज़...फैयाज़...बाबा। एक झटके से गाड़ी रुकी, बाहर झाँका तो देखा, किसी हिन्दू की शवयात्रा थी, वे कार सेउतरकर खड़ी हो गईं...ताहिरा बैठी रह गई। मालूम नहीं, किसने बताया था कि आप यदि कुछ सोच रहे हों...और यदि शवयात्रा दिख जाये तो वह कार्य पूरा होता है। एक तरफ मातम है, तो दूसरी तरफ कार्य पूरा हो जाने की राहत।
वापिसकार में बैठते हुए उन्होंने कहा-"हमारेअब्बू ने सिखाया था कि मरे हुए व्यक्ति की इज्ज़त के लिए हमेशा खड़े हो जाना चाहिए, भले ही आप उसे पहचानते हों, अथवा नहीं। यदि आप किसी वाहन में बैठे हों तो वाहन रोककर खड़े होना चाहिए।"
ऐसा लगा, डिसूजा खिसिया गया। और ताहिरा बोल पड़ी-"मुझे तो मालूम है फूफी...लेकिन इस तरफ भीड़ थी। मैं कैसे उतरती?"
"हाँ! ठीक है, चलिए डिसूजा जी।"
लेडी डॉक्टर के साथ ताहिरा बाहर आई। "सब ठीक है बेगम, खुदा ने चाहा तो शीघ्र हीमाँ बनेगी छोटी बहू बेगम। घबराने की कोई बात नहीं है, मन से दुश्चिन्ताओं को निकाल दीजिए। सब ठीक है।" डॉक्टर ने कहा।
"शुक्रिया डॉक्टर! आपनेतो सारा खौफ मेरे दिल से निकाल दिया।"
"जानती हूँ बेगम आपकी फ़िक्र। मैं तो पिछले बीस सालों से बड़ी आपा और शाहजी के घर की मेम्बर जैसी हूँ। अप दिल में हौसला रखिये, खुदा आपकी मुराद और हवेली को वारिस अवश्य देगा।"
रास्ते-भर वे चुप बैठी रहीं, बावजूद ठंडी हवा के, उनके भीतर कुछ उफनता रहा। क्या करें कि ताहिरा की गोद हरी हो जाए? दिलासाएँ उन्हें अच्छी नहीं लगतीं, दिलासाओंने उन्हें कुछ नहीं दिया। ...भोगती ही रहीं और ज़िन्दगी से जूझती रहीं। हमेशा ज़िन्दगी उनसे रूठकर भागती रही। शिकस्तखाती रहीं...और जूझती रहीं। लेकिन यह शिकस्ततो वे बर्दाश्त नहीं कर पाएँगी। हैदराबाद जाना ही है। दुआ से बढ़कर कोई दवा नहीं। हो सकता है बाबा का चमत्कार हो जाए, फैयाज़ से भी मिलना हो जाएगा। फैयाज़...उनके दिमाग में बिजली कौंधी। महाभारत के दृश्य सामने आ गए। भीष्म और सत्यवती की सलाह से महल में वेदव्यास बुलाये जाते हैं। सत्यवती उनसे कहती हैं-'पुत्र, अपने स्वर्गवासी भाई की कुलवृद्धि के लिए, भीष्मकेअनुरोधऔर मेरी आज्ञा से, प्रजा तथा भरतवंशकी रक्षा केलिए तुम विचित्रवीर्यकी दोनों पत्नियों के गर्भ से अनुरूप पुत्र उत्पन्न करो'-पुत्र...हैदराबाद...बाबा...फैयाज़। वे काँप उठीं, मेरे मौला...क्या सोच डाला उन्होंने? ...फैयाज़! ...फैयाज़! ख़ैर! वे बाबा के पास जायेंगी। हो सकता है, कुछ चमत्कार हो जाए? क्यों उनके दिमाग में 'हैदराबाद' आ रहा है? क्या यह भाग्य का इशारा है कि जाओ कामयाबी मिलेगी? कार गेट के अन्दर प्रविष्ट हो रही थी और उनके विचारों ने आकार ग्रहण कर लिया था।
भीतर घुसते हुए उनमें एक अनोखा आत्मविश्वास आ चुका था। सारा शरीर हल्का लग रहा था। सामने शहनाज़ बेगम खड़ी थीं। आँखों में प्रश्न तैर रहे थे।
"डॉक्टर ने कहा है, सब ठीक है।"
"हाँ! हम डॉक्टर से कुछ देर पहले पूछ चुके हैं।"
उन्होंने फिर भी शहनाज़ बेगम की आँखों में प्रश्न देखे। क्या पूछना चाह रही हैं? वे बेपरवाही से अपने कमरे में चली गईं। थोड़ी देर बाद शांताबाई ने आकर कहा-"मँझली बेगम ने आपको याद किया है।"
"हाँ, थोड़ा सुस्ता लूँ, फिर आऊँगी। कैसी हैं मँझली बेगम?"
"ठीक हैं, आज घुटनों में दर्द कुछ ज़्यादा है, वरना वे ही आतीं।"
"नहीं, वे तकलीफ न करें, मैं आधे घंटे में आती हूँ।"
"क्या लेंगी फूफी जान, आज शहनाज़ चाची ने बेल का शर्बत बनवाया है, लेकर आऊँ? आज अस्माँभी आने वाली है।"
"क्योंअस्माँ कहाँ थी इतने महीने? मैंने तो ताहिरा के निक़ाह के समय ही देखा था। और हाँ, जा ले आ शर्बत, लेकिनबर्फ कम डालना।"
"जी फूफी ठीक है, अभी लाती हूँ। अस्माँ गई थी निक़ाह की खातिर। लेकिन मंगनी टूट गई, उसका मामा बड़ा जल्लाद है। अस्माँ के अब्बा का इंतकाल हो चुका है। मामा अस्माँ को और उसकी अम्मी को खूब मारता है। अस्माँ की अम्मी कहती हैं कि यहाँ मरने से तो अच्छा है कि हवेली में काम करे। रुपये भी जुड़ जाते हैं। अस्माँ वहाँ दिन भर काम करती है और मामा-मामी की मार और ताने सहती है। सगाई भी उसके जल्लाद मामा ने ही तोड़ी। वहदूल्हे मियाँ से रुपये चाहता था। अस्माँ की अम्मी ने ऐसा करने से मना किया तो सगाई भी तोड़ी और दोनों माँ-बेटी को खूब पीटा भी।" कहकर शांताबाई बेल का शर्बत लाने चली गई।
शर्बत पीकर, वे मँझली बेगम के कमरे की तरफ चलीं। मँझली बेगम लेटी हुईं थीं, देखकर उठने लगीं। शांताबाई ने उन्हें सहारा दिया और पलंग से टिकाकर बैठा दिया।
"आदाब! रेहाना बेगम।"
"खुदा सलामत रखें।"
मँझली बेगम ने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी। "बद्दुआ क्यों देती हैं रेहाना बेगम? अब तो यह शरीर ढोया नहीं जाता। नफरत हो चली है ऐसी अमीरी से। जानती हैं रेहाना बेगम, पहले गुलनार आपा ही इस हवेली का सारा कारोबार सम्हालती थीं, लेकिन जबसे उन्होंने देखा कि उतनी ही मुस्तैदी से शहनाज़ बेगम व्यापार को समझ रही हैं तो वे आराम में आ गईं।"
"देखती तो अभी भी हैं गुलनार आपा ही सब कुछ।"
"नहीं, वह बात नहीं, जो पहले थी। गुलनार आपा ने व्यापार की सारी बारीकियाँ शहनाज़ बेगम को समझा दीं, नहीं तो क्या कुछ होता उनसे? अरे इंटर पास तो हम भी हैं, लेकिन हमें तो। अब बरसों होगए, बड़ी ही सारा हिसाब-किताब सम्हाल रही है। हवेली पर उनकी हुकूमत है। शाहजी का स्वभाव तो आप भी अब तक समझ गई होंगी। सीधे हैं, एकदम सरल, बच्चों जैसे। जैसा गुलनार आपा और बड़ी कहती हैं, वैसा ही वे करते हैं। न जाने मुझसे दोनों को क्यों नफरत है। यही नफरत शाहजी को मेरे पास फटकने नहीं देती।" दीर्घ निश्वास लेकर चुप हो गईं मँझली बेगम।
"जाने दो अख़्तरीबेगम, ज़िन्दगी में नसीबों का फल भुगतना ही होता है।"
"हाँ, शायदयही सच हो। मुझे मेरे नसीबों का फल भुगतना पड़ रहा है।"
कितनी ही बार रेहाना बेगम हवेली की इन सब बातों को सुन चुकी हैं। जानती हैं कि शाहजी गुलनार आपा और शहनाज़ बेगम के कहने में हैं। शाहजी को तो मानो किसी चीज़ से लगाव है ही नहीं...छत पर लगी बड़ी दूरबीन...तारे, नक्षत्र और उनकी गणना...और उन्हीं में उनका डूबे रहना। व्यापार से अलग यह उनका ऐसा शौक है, जिसमें वे घंटों डूबे रहे हैं।
"शांताबाईने बताया कि आप ताहिरा को लेकर आज डॉक्टर के पास गईं थीं।" फिर स्वतः बुदबुदाईं-"वही होगी बेसमय की शहनाई कि ताहिरा कब गर्भवती होगी? अब और सुनो बी, यहक्या अपने हाथ में है। लेकिन रेहाना बेगम, मुझे तो बड़ी दया आती है। अरे, ज़रा-सी बच्ची है, खेलने-खाने के दिन हैं, लेकिन धीरज कहाँ है उन्हें? दो-चार महीने बीतेंगे, फिर किसी गरीब की छोकरी को सोने के निवाले दिखाते ले आयेंगे हवेली में। अरे, लड़कियों की कोई कमी है क्या हमारे देश में?"
रन्नी बी सिहर उठीं-"ऐसा न कहिये मँझली बेगम, मैं ताहिरा को लेकर हैदराबाद जाऊँगी। जानती हैं न, वहाँ एक पीर-बाबा हैं। ...कितनी ही सूनी गोद हरी हुई हैं। ...इस हवेली को एक चिराग दे दें, शाहनूर बाबा है।"
अख़्तरीबेगम चौंकी-"अरे! हैदराबादकेगोरेबाबा की तो आप बात नहीं कर रहीं?"
"हाँ! वही तो।"
"लो और सुनो! गोरे बाबा को तो पीर शाहनूर बाबा का आशीर्वाद प्राप्त है। मेरी चचीजान ने कितनाकहा था, बड़ा नाम है उन बाबा का। कोई खाली हाथ नहीं लौटा वहाँ से, लेकिन मुझे कहाँ जाने को मिला, दोनों ने नहीं जाने दिया।"
"लेकिन मैं तो जाऊँगी ताहिरा को लेकर, सोच लिया है।"
"खुदा ने चाहा तो ताहिरा की गोद अवश्य भरेगी। रेहाना बेगम, मेरे दिल में ताहिरा के प्रति मुहब्बत और दया दोनों है। लेकिन गोरे बाबा कोई विपरीत काम नहीं करते।"
"विपरीत, कैसा?" रन्नी बी को भी जिज्ञासा हो आई थी।
"जैसे कि किसी का शौहर दूसरी औरत के पास जावे तो उस औरत को मारने-मूरने का काम।"
देर तक कमरे में ख़ामोशी पसरी रही। रन्नी बी सोचती रही कि कोई अपने सुखों की तलाश में इतना, हद दर्ज़े तक, नीचे भी गिरता होगा? मँझली बेगम की साँसें उनके सीने का दर्द उंडेल रहीथीं। रन्नीबी किसी उधेड़बुन में लगातार मुब्तिला थीं। वे हैदराबाद जाने की बात आज ही ताहिरा द्वारा शाहजी से करवाना चाह रही थीं। इधर वे शहनाज़ बेगम और गुलनार आपा से बात कर लेंगी।
जब वे अख़्तरी बेगम के पास से उठीं तो उनका विश्वास डगमगा रहा था...पिछले दिनों देखा ख्वाब उन्हें डरा रहा था।
दूसरे दिन ताहिरा ने कहा-"फूफी, मैंने शाहजी से बात की थी, वे कहते हैं कि आपा से इज़ाजत लेकर जाओ। क्या हैदराबाद चलेंगी फूफी?"
"मैं और अस्मां भी चलेंगी।" निक़हतने कमरे में घुसते हुएकहा।
"अरे, तुम लोग मुझे फजीहत में न डालो, वैसे भी मैं तंग हो रही हूँ।"
"अरे, फूफी जान हमारे चलने से आप क्यों तंग होंगी।" अस्मां ने कहा।
"नहीं, मैं ताहिरा के साथ अकेले जाना चाहती हूँ, मुझेबख्शो।" रन्नी बी ने कहा।
"हाँ, जाइयेफूफी जान, आपकी बिटिया तो ताहिरा ही है, हम थोड़े ही हैं।" निक़हत ने मुँह फुलाकर कहा।
"ऐसी बात नहीं है बेटी, हम किसी ख़ास मकसद के लिए जा रहे हैं। हमें ख़ामोशी चाहिए और तुम तीनों मिलकर हुल्लड़ मचाओगी।"
रन्नी बी बिल्कुल नहीं चाहती थीं कि घर का अन्य सदस्य साथ चले, वे बाबा के पास तो जा रही थीं, मन में और भी कई ख्याल आ-जा रहे थे।
"जब शाहजी ने 'हाँ' कह दिया तो, समझोरेहाना बेगम, हम सभी की रज़ामंदी है।" गुलनार आपा बोलीं।
"आप ज़रूर जाइये रेहाना बेगम, जो भी इंतज़ाम कराना है करवा लीजिये। बल्कि किसी को साथ ले जाना हो तो कहिये।" शहनाज़ बेगम बोलीं। "नहीं, हम ताहिरा के साथ जायेंगे बस।" रन्नी बी प्रसन्नता से बोलीं। उन्हें यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि हैदराबाद जाने के लिए इतनी जल्दी सब रजामंद हो जायेंगे।
तीसरे ही दिन वे ताहिरा को लेकर हैदराबाद रवाना हुईं। फोन करके शाहजी ने होटल में कमरा बुक करवा दिया था, लेकिन रन्नी बी ने सोच लिया था कि उस होटल में नहीं रुकेंगी। ऐसी जगह रुकेंगी जहाँ शाहजी का कोई जानने-पहचानने वाला न हो। वे नहीं चाहती थीं किकहींजाएँ-आएँ भी तो पूरी खबर शाहजी को मिलती रहे। वे फैयाज़ से भी मिलना चाहती थीं, इस यात्रा का मक़सद भी था। निक़हत और अस्माँ ने मिलकर ताहिरा का सूटकेस पैक कर दिया था। एकडलिया में मेवे, मिठाई और नमकीन पैक कर दिया गया था। रन्नी बी के पास रुपया दे दिया गया था। शाहजी ने अलग से नोटों की गड्डी ताहिरा के सूटकेस में रखवा दी थी।
हैदराबाद स्टेशन पर उतरकर उन्होंने अच्छी-सी होटल में जाना तय किया। टैक्सी वाला ही उन दोनों को बढ़िया होटल में ले गया।
होटल का सजा कमरा देखकर ताहिरा खुश हो गई। "लेकिन फूफी, शाहजी ने तो दूसरा होटल बुक किया था?" उसने कहा।
"जानती हो ताहिरा, मैंने तुम्हें बतलाया नहीं, इसी शहर में फैयाज़ भी है, क्या उससे मिलना नहीं चाहोगी?"
ताहिरा हैरत से उनकी ओर देखने लगी। फैयाज़ की याद ने उसके ज़ख्म फिर हरे कर दिए। वह डबडबाई आँखों से दूसरी ओर देखने लगी।
"जानती हूँ बेटी, तुम्हारा प्यार कुचला गया है। मैं इतनी निर्मोही नहीं हूँ। तुम्हारी अम्मी ने बताया था, फैयाज़ हैदराबाद में है। तभी मैंने सोच लिया था तुम्हें मिलवाने ले जाऊँगी।"
"अब क्या फ़ायदा फूफी जान?" दीर्घ निःश्वास लेकर ताहिरा ने कहा।
उन्होंने देखा कि फैयाज़ के प्यार का सोता ताहिरा के भीतर सूखा नहीं है। "नहीं! बेटी फैयाज़ गरीब है। यहीं, हैदराबाद में किसी मामूली नौकरी में लगा है। उसकी बहन भी बैठी है अभी तक, निक़ाह नहीं हुआ। क्या तुम उसकी थोड़ी मदद नहीं कर सकतीं?" ताहिरा हैरत से उनकी ओर देखने लगी, यह क्या हो गया है फूफी को, कहाँ उन्होंने शादी के वक्त उसे धमकाया कि फैयाज़ का नाम भी होठों पर न लाए। और अब स्वयं। वे फूफी के उन तिलिस्मों से परिचित नहीं थी जो फूफी के अन्दर धीमे-धीमे खुलते जा रहे थे।
"और जो शाहजी को पता चला तो, फूफी?"
"नहींबेटी, कुछ पता नहीं चलेगा। तू फैयाज़ की मदद करके उस बेवफाई से मुक्त हो जायेगी जो तूने उससे की है।"
"लेकिन क्या फैयाज़ मानेगा?"
"यह तुझपर ही बेटी। मैं तुझे सम्पूर्ण छूट देती हूँ कि तू इस हैदराबाद में पाँच-सात दिन फैयाज़ के साथ जी ले।"
कहाँ तक चौंकेगी ताहिरा? ठीक ही तो कह रही हैं फूफी। पलटकर अपने लबों पर कभी फैयाज़ का नाम नहीं लाई। अपने वालिद की उम्र के शौहर के साथ क्या कभी उसे फैयाज़ की याद नहीं आई, वह अपने आपसे पूछ रही थी। देखा, फूफी ने होटल में एक कमरा फैयाज़ के नाम का बुक कराया, फिर फोन किया तो पता चला वह अपनी वालिदा की बीमारी में गाँव गया है, दो रोज़ में लौटेगा। होटल के रिसेप्शन से कमरे तक आते उनके पाँव शिथिल हो रहे थे, अगर पाँच-सात दिन फैयाज़ नहीं लौटा तो? रात को उन्होंने शहनाज़ बेगम को भी फोन कर दिया कि वे दोनों ठीक-ठाक पहुँच गई हैं।
बचपन की आँखों में कितने सुहाने ख्वाब होते हैं, ऐसे ही ख्वाब कभी उनकी आँखों में थे। ...अल्ला-ताला ने ऐसी सज़ा दी कि वे अपनी ज़िन्दगी को लेकर कभी मुस्कुरा तक नहीं सकीं। क्यों यूसुफ आकर गाहे-बगाहे उनकी तनहाइयों में खड़े हो जाते हैं। कतरा-कतरा, रेशा-रेशा उन्होंने मुहब्बत की थी यूसुफ से। शाहबाज़ ने ज़रूर वक्ती तौर पर शायद उनका हाथ थामना चाहा था। सिर्फ एक बार, न जाने क्यों इच्छा हुई थीकि काश, भाईजान सामने अ जाते और उनके आँचल में खुशियाँ डाल देते! तब वे शायद यूसुफ की याद दिल में लिए शाहबाज़ खान के साथ विदा हो जातीं। ...फिर वही आलम था...खौफनाक ख्वाब उनका पीछा नहीं छोड़ता था, अतीत उनके साथ भयावह सच की तरह चिपका था और वे पाती थीं कि तमाम यक़ीन के बावजूद कहीं वे इतनीतनहांहैं कि भाई-भावज भी उनका साथ नहीं देंगे। उनकी छाती फटने लगी। आज भाई, भावजउनसेक़ैफियत-सीमाँगतेखड़ेथे, 'तुम्हारीही तो ज़िद थी रन्नी कि ताहिरा उस हवेली की बहू बने, तो भुगतो अब।'
" नहीं! ' उनकी चीख घुटकर रह गई। बगलके बिस्तर पर मासूम ताहिरा गहरी नींद में सो रही थी। उसकीभी आँखों में फैयाज़ को लेकर कितने हसीन ख़्वाबहोंगे? क्या किया यह तुमने रेहाना? यह कैसी बलि चढ़ाई तुमने अपनी बच्ची की, वे आर्त्तनादकर उठीं, देर तक रोती रहीं, ताहिरा गहरी नींद में सोती रही। पता नहीं कितने बजे सोईहोंगी, लेकिन जब उठी तो दिन का ग्यारह बज रहा था, ताहिराराम कुर्सी पर बैठी उपन्यास पढ़ने में मग्न थी।
"फूफी, कितना सोईं आप? मैं तो बिलकुल उकता गई।"
"हाँ बेटी, रात नींद नहीं आई। तुम चाय मंगवा लो, तब तक मैं नहाकर आती हूँ।"
वे नहाकर बाहर निकलीं तो देखा, मेज पर आलू के पराठे, कटलेट, मक्खन, सॉस, ऑमलेट और चाय रखीथी।
"लो, तुमने इतना कुछ मंगवा लिया। अब खाना क्या ख़ाक खायेंगे?"
"खाना नहीं खायेंगे फूफी, यही खाकर अब हम घूमने चलेंगे।"
"नहीं, मैं अकेली ही बाबा के पास जा रही हूँ। तुम यहीं, कमरे में रहना।"
लोभान और अगरबत्ती की सुगंध से पूरा कमरा भरा था। एक बड़े, सफेद गद्दे पर गोरे बाबा बैठे थे। पास ही पीतल का चमकदार लोटा रखा था। तरह-तरह के मोतियों की माला पास ही लटकी थी। धागे की रील, छोटी-बड़ी सूईयाँ तथा फूलों की माला रखी थी। एक जगह मिट्टी के सकोरे में भभूत रखी थी। गद्दे पर फारसी-उर्दू की किताबें, बने हुए ताबीज़ें, गंडे, नक्शे आदि रखे थे। बाबा नाम पढ़ते जाते थे और एक तरफ बैठे हुए लोगों को ताबीज़, नक़्शे थमाते जा रहे थे। बाबा के सामने औरतों का हुजूम लगा था। एक ओर मर्द बैठे थे। सभी धीमे स्वर में बाबा से बात कर रहे थे, औरतें और पुरुष एक-एक करके आगे की ओर खिसकते जा रहे थे।
वे अन्दर गईं और दूर से ही झुककर बाबा को आदाब किया। अपार श्रद्धा से वे भर उठीं, उन्होंने देखा कि भव्य व्यक्तित्व वाले, बेहद गोरे, सफेद लम्बे बाल और सफेद दाढ़ी वाले बाबा सफेद पाजामा, कमीज़और बंडी पहने बैठे हैं। बैठने से लग रहा है कि उनकी ऊँचाई भी अच्छी-खासी होगी।
"कितना महँगा केसर हो गया, यह आप देखो। ...पूरानक्शा, ताबीज़ के अन्दर कागज़ की इबारत का एक-एक हर्फ़ हम केसर से लिखते हैं। एकनक्शा बनाने में ढाई से तीन घंटे लग जाते हैं। फिर आप लोग कहते हो कि इतना महँगा है? काम कराते को लाखों का और सौ रुपया देने में जान जाती है?" बाबा सामने बैठे आदमी से कह रहे थे। वह आदमी खिसियानी हँसी हँसता नक्शा सम्हाल रहा था।
लोग फिर खिसके आगे की ओर।
"लो और सुनो, इनकी बकरी गुम हो गई है, अब हम बकरी का पता लगाये कि किधर गई।" बाबा बोले, औरत शायद कोई मराठी थी, लांग वाली धोती, चांदी के गहने पहने हुई, माथे पर एक रुपये के सिक्के के बराबर का टीका लगाए हुए।
"बाबा! हमारी तो वही कमाई है।" औरत फिर घिघियाई। सब हँस पड़े। बाबा को औरत पर गुस्सा आ गया।
"पीछे जाकर बैठो, बाद में देखेंगे।" घंटा भर हो चुका था, वहाँ बैठे-बैठे। रन्नी बी नहीं चाहती थीं कि वे किसी के सामने कुछ बोले। वे चाह रही थीं कि बाबा के समक्ष वे अकेली ही हों। उनके समक्ष फलों और नारियल का ढेर लगा था, चिरौंजी और मिठाई भी रखी थीं। वे सबको नारियल, चिरौंजी बाँट रहे थे। रन्नी बी देख रही थीं कि बाबा के समक्ष चीजों का कोई मोह नहीं है।
घंटे-डेढ़ घंटे में बाबा ने कई पानखाये थे। चाय कई कप पी थी और बीच-बीच में टोंटीदार लोटे से पानी लेकर कुल्ला भी कर रहे थे।
बाबा ने एक बार नज़रें उठाकर रन्नी बी की तरफ देखा तो वे थोड़ा घबरा गईं। वातावरण में अब लोभान की सुगंध और सन्नाटा था।
एक औरत काफी देर से पीछे बैठी थी, वह आगे बढ़ी और अपने बैग से काजू, बादाम के बड़े-बड़े पैकेट निकाले और गद्दे पर रख दिये। उसने अपना बुरका पलटा तो, वे चौंक पड़ीं। बुरके वाली औरत की देह सफेद संगमरमर जैसी थी। ठोस सोने के गहनों से लदी हुई... इतनी समृद्धता में कैसी परेशानी जो यहाँ आना पड़ा?
बाबा ने उन्हें देखा तो चीख पड़े-"आप फिर आ गईं बेगम? मैंने कहा था न, मैं गलत काम नहीं करता। तुम क्या चाहती हों कि तुम्हारा शौहर जिस औरत के पास जाता है, उस औरत को मैं मार दूँ? नहीं, कभी नहीं, मुझे भी एक दिन खुदा के सामने हाज़िर होना है।" फिर वे सबकी तरफ मुखातिब होकर बोले-"एक-एक ताबीज़ और नक्शा बनाने में कितने मंत्रों को पढ़ना पड़ता है, देखो! अपनी सारी ताकत लगानी पड़ती है। ये पैर देखो...कैसे फट गए हैं, यह सब गर्मी और मंत्रों की शक्ति...जो ताबीजों में भरी जाती है, आप जा सकती हैं बेगम।"
"बाबा, मैं आपकी खिदमत में पूरी दौलत लुटाने को तैयार हूँ, लेकिन मुझे मेरा शौहर वापिस दिला दीजिए।" औरत बाबा के चरणों में लोटने लगी। बाबा उठकर खड़े हो गए, "उठिये बेगम, मैं कोशिश करूँगा। उधर जाते तो आपके शौहर को कई बरस हो चुके हैं, क्या आप नहीं जानतीं कि उस औरत के हक में यह बुरा होगा? कहाँ जाएगी वह औरत?" बाबा ने कहा।
"मैं कहाँ जाऊँ बाबा? शौहर के बगैर हवेली काट खाने को दौड़ती है।"
रन्नी बी को लगा, बाबा के सामने मँझली बेगम बैठी है। फिर बाद में ताहिरा ऐसी ही? नहीं, वे काँप उठीं। ऐसा क्यों सोचती हैं वे? वह औरत गई नहीं थी। बुरके से मुँह ढक कर एक ओर खिसक गई। बीच-बीचमें उसके रोने का स्वर उभर आता था। सामनेचार-पाँच हिन्दूऔरतें दिख रही थीं। बाबा ने रन्नी बी को इशारा किया, "आप आइये बेगम, कहीं दूर से आई लगती हैं।"
"जी बाबा।" उन्होंने पुनः बाबा को आदाब किया।
"ये औरतें तो रोज़ अपना दुखड़ा लिए चली आती हैं। शौहर इनसे सम्हलते नहीं हैं। घरआए शौहर से तो लड़-लड़कर उसकी जान निकाल देती हैं, फिर वह किसी दूसरी के चक्कर में फँस ही जाएगा। अरे, मुहब्बत करना सीखो।"
बाबा ने उन औरतों को पीछे खिसका दिया, ढेर सारी अगरबत्तियाँ जलाकर अगरबत्ती दान में खोंसने लगे। पूरा कमरा गुलाब की सुगंध से भर गया। "बोलिये बेगम?" बाबा ने अगरबत्ती खोंसते हुए कहा।
"बाबा, बहुत आस से हम लोग उतनी दूर से आईं हैं, मेरी भतीजी औलाद की ही खातिर उस घर की तीसरी बहू बनी। शाहजीकी दोनों बेगमें औलाद से मरहूम हैं, बाबा।" कहते-कहते रन्नी बी की आँखों में आँसू झलमला गए।
बाबा ने उन्हें भर नज़र देखा। शाहजी के बारे में आवश्यक जानकारी ली और एक कागज़ पर जोड़-गुणा-भाग करने लगे।
"नामुमकिन!" बाबा ने चश्मा उतारते हुए कहा-"घर की औरतों में कोई कमी-ख़ामी दिखाई नहीं देती। ...नहीं, उन्हें औलाद नहीं हो सकती। तीन नहीं, सौ निकाह कर लें, तब भी नहीं। वे इस लायक ही नहीं हैं।" बाबा ने कागज़ को उठाकर फाड़ दिया। रन्नी बी 'सन्न' रह गईं। उनके गालों पर आँसू बह रहे थे। बाबा देर तक उनकी ओर देखते रहे। सहसा वे खड़े होकर बोले-"जाइये बेगम यहाँ से, तुरन्त बाहर...आपके दिल में जो है, वह गुनाह है। आप पाकस्थान पर बैठकर पाप सोचती हैं," बाबा उत्तेजित हो उठे। रन्नी बी थरथराते पाँवों से उठी, सिसकती हुई औरत ने तुरन्त बुरका पलटा और हैरत से रन्नी बी की ओर देखने लगी, कई जोड़ी आँखें रन्नी बी के चेहरे पर चिपक गईं। झुककर, बाबा की कदमबोसी करने के बाद रन्नी बी निकलीं, तो लगा कि पीठ में छेद हो गए हैं उन कई जोड़ी आँखों से।
कमरे से बाहर निकलीं तो देखा, सामने की हौद से पानी छलक रहा है। कहा जाता है कि चाहे सूख पड़े या घनघोर बारिश हो इस हौद का पानी न तो बहता है, न ही सूखता है। उन्होंने चुल्लू में पानी लेकर मुँह धोया, थोड़ा-सा श्रद्धा के साथ मुँह में डाला। इस हौद का पानी मुँह में डालने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। वे टैक्सी लेकर होटल वापस लौटी। ताहिरा सोई नहीं थी, फूफी का उदास चेहरा देखकर वह घबरा गई-"चाय मंगवाऊँ फूफी?"
उन्होंने इशारे से मना किया और भरभराकर बिस्तर पर गिरकर, फूट-फूटकर रोने लगीं। ताहिरा पूछती रही कि क्या हुआ लेकिनउन्होंनेकुछ नहीं बताया। अपने कलेजे से ताहिरा के सिर को चिपकाये रहीं। मानो ताहिरा को अब फाँसी होने जा रही हो। ताहिरा भी रोने लगी।
"कल चलेंगे बेटे, चारमीनार, दरगाह, गोलकुंडा वगैरह घूमने।" थोड़ी देर चुप रहकर वह बोलीं-"दो-तीन दिन हम सिर्फ़ घूमेंगे, फिर फैयाज़ आ जायेगा, उससे मिलकर हम तुम्हारे अब्बू और अम्मी के पास चलेंगे।"
"सच फूफी" ताहिरा खुश हो गई। दो बार फूफी अब्बू, अम्मीके पास हो आई थीं, लेकिन उसका जाना नहीं हुआ था। एक दिन के लिए गई थी, ऐसा क्या जाना?
रात पलकों में ही बीती। बाबाका लताड़ना याद आया, यदि यह पाप भी है तो भी वे इसे करेंगी। ताहिरा को उस घर में तिरस्कृत नहीं होने देंगी। कुफ्र के दिन उन्हें ही तो जवाब देना पड़ेगा उस परवरदिगार को जिसने कभी उनकी झोली में सुख का एक कतरा नहीं डाला।
ताहिरा बैठी टी. वी. देख रही थी। वे पलंग पर तकिए के सहारे बैठीं गहन सोच में मुब्तिला थीं। हाँ, मैं दोज़खी बनूँगी ताहिरा के लिए। मैं एक-एक सवाल का जवाब माँगूंगी खुदा से और उनके एक-एक सवाल का उत्तर भी दूँगी। अगर ताहिरा को औलाद नहीं होनी थी तो क्यों हमें जन्नत दिखाई? हम तो अपने पैबंदों में जी रहे थे। क्यों हमारे सामने जन्नत के दरवाज़े खोले? ताहिरा ऊँघ रही थी। फिर वह खिसकी और सो गई। उन्होंने टी. वी. बंद कर, ताहिरा को चादर ओढ़ाया, बत्ती बंद की, परन्तु खुद तकिएकेसहारेअधलेटी बैठी सोचती रहीं। -कैसी हैबतनाक रात है यह। दोनों के मिजाज़ में कितना फर्क था। यूसुफ ख़ामोश और ग़मगीन से रहते थे। पुरुषहोते हुए भी समाज, परिवार से लड़ने की हिम्मत नहीं थी उनमें। वे अपने ही घर से डरे हुए थे तो समाज से क्या लड़ते? लेकिन वह तो आज भी यूसुफ की याद में कतरा-कतरा डूबी हैं। क्या उनका ज़ख्म भर पाया था? फिर किस हक़ से तुमने ताहिरा कीआँखों के ख़्वाबछीने थे? औरत हर पल क्यों अपराध बोध में डूबी रहती है? यदि फैयाज़ के साथ निक़ाह को रज़ामंदी वह दे देतीं तो? तो फिर यह अपराध बोध कि ताहिरा को गरीबी, मुफ़लिसी में ढकेल दिया। ताहिरा मासूम थी लेकिन वह तो न थीं और यदि फैयाज़ नहीं...तो भी अपराध बोध। दूसरी तरफ़ थे शाहबाज़ ख़ान, निहायत बातूनी। बातों-बातों में कह-कहे, खुले दिल-दिमागके, अपनेफैसले स्वयं करने वाले। अपनी नाकामयाब ज़िन्दगी के कितने ही आँसू उनकी आँखों में तैरते हैं, लब थरथराते हैं। यदि यूसुफ उस समय अपने अब्बू से कह पाते, तो उनकी ज़िंदगी के पृष्ठ जो अब आँसुओं में भीगे रहते हैं, तब शायद उन्हेंज़िन्दगी दे जाते। कितने साल बीत गए लेकिन आज भी उनके जीवन के क़रीब रहते हैं यूसुफ। हाथ बढ़ाया और उस अहसास को छू लिया। आज वे सोचती हैं कि यूसुफ ने ऐसा क्यों किया? क्या वे अपनी ज़िंदगी का अहम फैसला स्वयं नहीं कर सकते थे? जबकि वे स्वयं एक बच्चे के ज़िम्मेदार पिता थे। सब जानते-बूझते किस मंजर में छोड़ा था उन्हें कि न वे रो सकती थीं, नहँस सकती थीं। जिस औरत को बाँझ करार देकर प्रताड़ित किया जाता था, वही औरत माँ बनी थी...अगर आज वह औलाद होती तो? ताहिरा की हम उम्र होती। उनकाघर होता और होते यूसुफ साथ और...आँखों से फिर आँसू बहने लगे। 'यूसुफ...यूसुफ...तुम कहाँ हो यूसुफ...?' आज, अठारहवर्ष बाद वे यूसुफ को कैसे पुकार रही थीं। क्या यूसुफ भी उन्हें ऐसे ही याद करते होंगे? अब तो उनका बेटा भी बीस-इक्कीस बरस का होगा, आपा ने तो उन्हें यही बताया था कि यूसुफ ने दूसरे निक़ाह सेमना कर दिया था, भाभीजान को भी उड़ती-उड़ती ख़बर मिली थी कि युसूफ ने कहा था-' कि जब दुबारा निक़ाह का मन हुआतो अब्बू माने नहीं और वे रेहाना के अतिरिक्त किसी के साथ रह नहीं सकते। एक दो बार और बीच-बीच में खबर मिली थी कि यूसुफ बीमार हैं। तब वे तड़पीं थीं और चाहा था कि यूसुफ की तीमारदारी के लिए कोई उन्हें जाने को कह दे।
कैसे रीते-रीते बरस गुज़र गएउनकी हथेलियों से और चारों तरफ एक भयानक शून्यउपस्थित हो गया। आज क्यों, इतने बरस बाद अपनी पिछली ज़िंदगी इस तरह सामने आकर उन्हें सता रही है। अब उनकी ज़िंदगी में सिर्फ ख़लिश है। ...ऐसानहीं था कि वे कुछ भी भूली थीं। भुलाने की कोशिश मेंउलझती गईं थीं। लगभग प्रत्येक रात ऐसी ही बीतती थी और उनके अन्दर एक खालीपन समाता जा रहा था। क्या उन्हें अपनीउम्र का अकेलापन सता रहा था, या बुढ़ापे की दस्तक उन्हें भयभीत कर रही थी? भाई-भावज और भतीजों की बेहतर आर्थिक हालत, ताहिरा की शानो-शौकत, इस सब में वे कहाँ थीं? क्या सचमुच उन्होंने इससबके बीच कुछ चाहा था? क्या उन्होंने आने वाले वक्त के लिए कुछ रखा था? न रूपया, ना ही सोना-चाँदी। नहीं, उन्होंने अपने लिए तो कुछ चाहा ही नहीं। आज वे अपना सलीब अपने कंधों पर लिए घूम रही हैं। भाईजान के अपने दर्द हैं, लेकिन फिर भी आर्थिक रूप से अब वे लोग सशक्त तो हैं, भतीजेव्यापार में चमक रहे थे। ...कहीं तो वे ही निमित्त थीं, इन सब बातों की। और ताहिरा, ताहिरा उस हवेली को एक चराग़ दे दे। बस, तब उनका रोल ख़त्म, कहाँ जायेंगी वे? मानो वे पैदा ही हुईं थीं इसलिए। खुद्दार रन्नी बी, कभी किसी पर बोझ नहीं बनीं। जहाँ रहीं, ताक़त से अधिक काम सम्हाला और इतना तो कमाया ही किखुद जी सकने का अभिमान रख सकें। फिर! अब क्यों इतनी विचलित हो रही हैं? ...मानो वे विशाल समुद्र में एक जहाज़ की मानिंद डोल रही हैं। जिसे दिशाओं का ज्ञान नहीं हो पा रहा है, लगता है उनका कुतुबनुमा कहीं खो गया है। दिग्भ्रमित-सी वे चंचल लहरों में बहती जा रही हैं। कभी अहसास होता है कि पानी ठहरा हुआ है, पैरों में शैवाल लिपटे जा रहे हैं। और कभी पानी इतना गहरा कि वे डूबी जा रही हैं, तो कभी चंचल लहरें उन्हेंबहा ले जा रही हैं। वे घबरा उठीं। कमरे में एयरकंडीशन्ड के बावजूद, वे पसीने से नहा रही थीं। जाकरखिड़की खोल दी, पर्दे सरका दिए, ठंडी हवा का झोंका उन्हें दुलरा गया। यही क्षितिज, यही आकाश, यही तारे, तुम भी तो देखते होगे यूसुफ? कहींतुम्हें भी यह आकाश तो छूता ही होगा? यूसुफ, देखो मैं आज भी तुम्हारी वह अँगूठी पहने हूँ, आज भी। अब तुम कभी नहीं कहोगे यूसुफ कि 'फिरोज़ीसूट तुम पर खूब फबता है रेहाना, और ये तुम्हारे घने रेशम जैसे लम्बे-लम्बे बाल।' जानते हो यूसुफ, फिर मैंने कभी वह फिरोज़ी सूट नहीं पहना, बालों की परवाह नहीं की। देखते हो न यूसुफ, मैं कितनी टूट गई हूँ, ज़र्रा-ज़र्रा...रेशा-रेशा। ऐसा क्यों लगता है यूसुफ कि लम्हा-लम्हा मौत करीब आती जा रही है? युसूफ! इस निरुद्देश्य ज़िंदगी का क्या करूँ? बस इतनी मोहलत दे-दे खुदा कि ताहिरा का संसार आबाद होते देख लूँ।
वे निराश और हताश-सी खड़ी थीं, खिड़की का जंगला पकड़े हुए। और खिड़की के पार नीरव रात्रि पसरी पड़ी थी।
सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी। वे चौंक पड़ीं, यहाँ, इतनी सुबह कौन फोन करेगा? ...रिसीवर उठाया, फैयाज़ बोल रहा था। ओह! वे पुलक उठीं, आवाज़ संयत की, बोलीं-"फैयाज़, कैसे हो बेटे? मैं ताहिरा की फूफी बोल रही हूँ।"
"सलाम वालेकुम फूफीजान।"
"जीते रहो बेटा...मैं ताहिरा को उठाती हूँ।"
"जी! यहाँ ऑफिस में आपने फोन किया होगा। कल रात मेरे दोस्त ने मुझे ख़बर दी। आप जान सकती हैं फूफीजान कि रात मैं सो नहीं सका। सुबह का इंतज़ार भी तरीके से नहीं कर सका।"
"जान सकती हूँ बेटे, बस तुम होटल आ जाओ और बेटे जब तक हम हैदराबाद में हैं, हमारे साथ ही रहना होगा समझे?"
"जी, लेकिन मेरा ऑफिस..."
"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, ...अपनी फूफी की आईटीआई-सी बात भी नहीं रखोगे?"
"जी, मैं आ रहा हूँ," फैयाज़ ने फोन रख दिया। बातचीत सुनकर ताहिरा उठ बैठी थी, फूफी ने बताया कि फैयाज़ आ रहा है तो सुनकर ताहिरा का चेहरा खुशी और लाज से भर उठा।
रन्नी बी खुश थीं, आज उन लोगों को आए तीसरा दिन था। खुदा का शुक्र मनाया उन्होंने कि फैयाज़ आ गया। उनके कमरे के बाजू वाला कमरा फैयाज़ के लिए बुक था। वे रिसेप्शन पर जाकर ख़बर कर आईं कि उस कमरे के गेस्ट आ रहे हैं, साफ-सफाई करवा दें। ताहिरा नहाकर निकली तो वे नहाने चली गईं। वे नहाकर गीले बालों को तौलिये में लपेट ही रही थीं कि रूम की घंटी बजी। उन्होंने गुसलखाने से बाहर निकलकर ताहिरा को इशारा किया। ताहिरा उठी, सिर पल्लू से ढंका। जब तक वह दरवाजे तक पहुँची...वे जान-बूझकर उस छोटी-सी लॉबी में खड़ी रहीं। कुछ समय बादलौटीं तो देखा, दोनों आमने-सामने खड़े मंत्र मुग्ध से एक दूसरे को देख रहे हैं। ताहिरा की आँखों से आँसू बह रहे हैं...फैयाज़ सचमुच अच्छा दिख रहा था, शायद उन्होंने आज ग़ौर किया था कि फैयाज़ सचमुच सुन्दर है। ताहिरा के लायक ही।
"अरे बच्चों, इस तरह खड़े ही रहोगे या बैठोगे भी?"
फैयाज़ बैठ गया। ताहिरादुपट्टे से अपने आँसू पोंछती रही।
रन्नी बी ने इंटरकॉम से चाय-नाश्ते का ऑर्डर दिया। पलटकर देखा तो पाया कि फैयाज़ बेपनाह मुहब्बत से ताहिरा को अपलक देख रहा था। उनके ज़मीर ने उन्हें लताड़ा यह क्या किया तुमने रेहाना? कैसे मासूम दिलों के साथ तुमने खेला? क्या मुहब्बत का दर्द तुमसे अछूता था जो तुमने ऐसा किया? उनकी भी आँखें छलक पड़ीं।