ख्वाबों के पैरहन / भाग 14 / प्रमिला वर्मा

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संतोष श्रीवास्तव, प्रमिला वर्मा » ख्वाबों के पैरहन »

फूफी ने कसकर ताहिराका हाथ पकड़ा। यह हाथ आश्वस्ति का था, दिलासा का था। ताहिरा फफककर रो पड़ी। उन्होंने कुछ देर ताहिरा को रो लेने दिया, फिर उसे अपने से चिपटा लिया। "ताहिरा, ज़िन्दगी इतनी सरल होती तो ज़िन्दगी का मज़ा ही क्या रह जाता? है, न?"

ताहिरा भौंचक्की-सी फूफी को देखती रही। खिड़की के बाहर बादल तैर रहे थे और रेहाना की आँखों में विशाल समुद्र। ...जब यूसुफ दुबई चले गए थे एकदम निर्मोही होकर, तब उन्होंने क्या इतना ही विशाल समुन्दर आँखों में नहीं समोया था? जुदाई का दुःख, मोहब्बत का अहसास उनसे अधिक कौन समझ सकता था? दोनों के बीच खामोशी पसरी पड़ी थी और बीच-बीच में ताहिरा की दबी सिसकियाँ रेहाना को विचलित किये हुए थी। धीमे-धीमे उन्होंने आँखें बंद कीं और सिर सीट से टिका लिया। कुछ देर यूँ ही टिकी बैठी रहीं कि लगा उन्हें किसी ने पुकारा हो...रेहाना! और फिर पलकों पर हल्का चुम्बन...चौंकपड़ीं वे। घबराकर आँखें खोलीं तो देखा कहीं कोई नहीं। दिमाग़में एक भयंकर शून्यता का अहसास था, लेकिन वे दावेसे कह सकती थीं कि यह आवाज़ यूसुफ की थी। कहीं यूसुफ उन्हें शिद्दत से याद तो नहीं कर रहे? ...फिर यह आवाज़? यह पलकों पर होंठों का अहसास...मेरे परवरदिगार, क्योंकलेजा हौल खा रहा है?

'यूसुफ, तुम ठीक तो हो न? देखो, अठ्ठारह वर्षों बाद भी आज तुम्हारी रेहाना तुम्हें वैसे ही याद कर रही है। ...वैसे ही आँखों में समुन्दर भरे हैं जैसे जब तुम बगैर जताए भाग गए थे। हाँ, मैंने तुम्हें कहा था नपुन्सक पुरुष...क्योंकि मेरे लिए एक पुरुष के मायने उसकी ज़बान, उसकी ग़ैरत थी, ना कि उसकी बेग़ैरती, उसका पलायन। तुम पुरुष होकर कैसे पीछे हट गए थे यूसुफ?'

जिस अहसास को उन्होंने अभी-अभी अपनी पलकों पर महसूस किया था उसे वे खो देना नहीं चाहती थीं। उन्होंने पुनः पलकें बन्द कीं! ...लेकिन आँखों का समुन्दर...? समुन्दर बहा तो बह चला। उन्होंने आँखें नहीं खोलीं। गाल चिपचिपा उठे। जब आँखें खोलीं तो देखा, ताहिरा लाल-लाल आँखों से उन्हीं की ओर देख रही थी, तो क्या ताहिरा भी रो रही थी? दोनों के अपने-अपने दुःख थे, जुदाई का ग़म था। लेकिन कहाँ क्या बदला था? रेहाना के आगे ढेरों प्रश्नचिह्न लगे थे। पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ गुज़रती रहती हैं लेकिन प्रेम का यही हश्र होता रहता है। रेहाना के समक्ष था ज़िन्दगी का एक निरर्थक अहसास। ...मानो फर्ज़ पूराहुआ ही चाहता है। फिर क्या होगा? वे अपने अतीत की पोटली से अपने भोगे क्षणों को बिथूनने लगीं। उनमें काँटे ही काँटे थे, हाथ लहूलुहान हो गया। उन्होंने हाथ वापिस खींचा...तभी उस लहूलुहान हथेली पर ताहिरा के नरम नाज़ुक हाथों की गर्माई उन्होंने महसूस की।

क्यों रोती हैं अकेले में फूफी, कौन-सा दुःख उन्हें तोड़े दे रहा है? कहीं वे फैयाज़ और उसे एक न होने देने के दुःख में अपने को गुनाहगार तो नहीं समझती हैं? ताहिरा खूब समझती है, अब...इसमें फूफी को क्या मिला? फूफी ने तो उसीका सुख चाहा था। ...फैयाज़ की टूटी आर्थिक स्थिति में और क्या चाह सकती थीं फूफी...? उसने पुनः फूफी का हाथ दबाया...तसल्ली से, मानो कह रही हो जो हुआ फूफीजान वह खुदा की मर्जी थी, भूल जाइए सब।

"फूफी, आपने तो कहा था कि हैदराबाद से अम्मी-अब्बू के पास जायेंगे।"

"नहींबेटी, वह ठीक नहीं होता, वहाँ शाहजी का हुक़्म था जल्दी लौटने का। हम चलेंगे न जल्दी ही वहाँ, पहले शाहजी से चलकर मिल तो लो।"

ताहिरा ख़ामोश हो गई। फूफी का कोई निर्णय कभी ग़लत नहीं होता।

विमान परिचारिका की उद्घोषणा सुनकर फूफी ने एक गहरी साँस ली। हम तो पहुँच भी गए और समय का पता ही नहीं चला।

एरोड्रम से दोनों बाहर आईं तो सामने शहनाज़ बेगम को यादवजी के साथ खड़े पाया। शाहजी कहाँ हैं? क्यों नहीं आए लेने? ताहिरा मुरझा गई। कई प्रश्न ताहिरा की जुबान पर आते-आते रुक गए। फूफी शहनाज़ बेगम से लिपट गई।

"बड़े दिन लगा दिए रेहाना बेगम?"

ताहिरा ने उन्हें आदाब किया और एक ओर खड़ी हो गई। शहनाज़ बेगम ने उसे ऊपर से नीचे तक गहरी नज़रों से देखा, फिर, कैफ़ियत देती-सी बोलीं-"शाहजी फार्म हाऊस गए हैं, वहीँ कुछ फॉरेनर्सआकर रुके हैं, मीटिंग है आज उन लोगों की।"

ताहिरा हवेली पहुँचने तक बिल्कुल खामोश रही। फूफी समझ नहीं पाईं किउसे शाहजी के लेने न आने का दुःख है, अथवा फ़ैयाज़ से दूर चले आने का। ...जैसे ही कार हवेली में दाख़िल हुई, सामने गुलनार आपा को खड़े पाया। ताहिरा ने झुककर उन्हें आदाब किया और लिपट गई। उन्होंने ताहिरा का माथा चूमा और फूफीकी ओर बढ़ी। अस्मां और मुमताज़ भीतर से भागती हुई आईं और ताहिरा से लिपट गईं।

"सचमुच, आपके बगैर हवेली में कितना सूनापन लगता था।" अस्मां ने कहा।

यादव जी ने डिक्की से सामान उतारा और वरांडे में रख दिया। अस्मां, मुमताज़ अटैची उठाकर अन्दर जाने लगीं। फूफीने अपनी अटैची हॉल में ही रुकवा ली। ताहिरा बैठी नहीं, अपने कमरे में चली गई। अस्मां चाय-नाश्ता लाने अन्दर चली गई। थोड़ी देर में शाहजी का फोन आया। मुमताज़ ताहिरा की गुहार लगाती उसके कमरे में चली आई। ताहिरा ख़ामोश अपने पलंग पर लेटी थी। आँखें ऊपर घूमते पंखे की ओर स्थिर। ताहिरा स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि यकायक उसे इतनी उदासी ने क्यों घेरा है? क्या कोई अपराध बोध उसके अन्दर तारी हो रहा है, या इतनी आज़ाद ज़िन्दगी से यूँ चले आने का ग़म? वह उठकर हॉल में आई तो देखा, सामने मेज़ पर चाय-नाश्ता रखा है और फूफी अपनी अटैची खोले बैठी मोती दिखा रही हैं सबको।

शाहजी ने एरोड्रम न आने के लिए खेद प्रगट किया और शाम को भी देरसे लौटेंगे ऐसा बताया। उसने हूँ! हूँ! करके फोन रख दिया। जाने लगी तो अस्मां ने आवाज़ लगाई-"ताहिरा आपा...चाय तो पी लीजिए।"

ताहिरा आकर सोफे पर बैठ गई, सिर्फ चाय पी और गुमसुम-सी बैठी रही। सुबह होटल में नहा ही लिया था। पचपन मिनिट के सफर में यहाँ पहुँच गईं थीं, दुबारा कपड़े बदलने की भी ज़रुरत नहीं थी।

फूफी कह रही थीं-"ये काले, चमकीले मोती शहनाज़ बेगम के लिए। उनके गोरे-गोरे बदन पर खूब खिलेंगे। शहनाज़ बेगम मुस्कुराई भी और शर्माई भी। और यह सफेद मोती, नन्हे-नन्हे से, जैसे जौ के सच्चे दाने हों, आप सोने में बनवायेंगी तो कहर बरपा हो जायेगा, जब आपके जिस्म में सजेंगे। ...हाथ में काले मोती की माला और शनील के बटुए में मोती लिए शहनाज़ बेगम बैठी रहीं। यह कंगन, सफेद मोती की गुलनार आपा के लिए। अख़्तरी बेगम के लिए बेशकीमती कत्थई पत्थरों और मोतियों में सजा सेट और अस्मां, मुमताज़, शांताबाई के लिए भी इमीटेटेड ज्वेलरी। सब कुछ देने के बाद, जब गुलनार आपा ने बाबा के यहाँ की बातें जाननी चाहीं तो शहनाज़ बेगम के इशारे से अस्मां और मुमताज़ वहाँ से चली गईं। फूफीबोलीं-" बाबा की चौखट के तो रंग ही निराले हैं। हवाई जहाज जैसी लम्बी-लम्बी कारें उनकी चौखट पर खड़ी रहती हैं। क्या मुसलमान, क्या हिन्दू, सिक्ख, ईसाईसारी कौमें उन्हें मानती हैं। बाबा के पास से कोई ख़ाली हाथ नहीं लौटता। जिनके औलाद नहीं थी उनका तो भारी हुज्जूम था। पहले तो हम अकेले गए, फिर ताहिरा को ले गए। "

ताहिरा चौंकी, "अरे! फूफी!" कहते-कहते रुक गई। झूठबोलने की ज़रुरत क्यों पड़ी फूफी को। हम कब गए बाबा की चौखट पर? ताहिरा की उदासी और बढ़ गई।

फूफीने बैठे-बैठे ढेर सारी कहानियाँ गढ़ डालीं, हर दिन की कैफ़ियत दे डाली। फिर गंडे-ताबीज़ दिखाए, जो न जाने उन्होंने कब खरीद लिए थे। "इसे जुमेरात को बाँधना है...तो इसे जुम्मे के दिन, नमाज़ के बाद तकिए के नीचे रखना है। एक ताबीज़ तो स्वयं बाबा ने ताहिरा के कान में फूँक मारकर बाँधा।" फूफी कह रही थीं और ताहिरा आँख फाड़े फूफी का यह रूप देख रही थी...जबकि यह ताबीज़ कल सुबह होटल के कमरे में फूफी ने उसे बाँधा था।

ताहिरा का सिर भारी हो गया। वह उठकर अपने कमरे में अ गई। उदासी इतनी बढ़ी कि वह तकिये में मुँह गड़ाकर रोने लगी। फूफी का यह कौन-सा रूप सामने था? फूफी को मसीहा मानने वाली ताहिरा, आज क्या देख रही थी? होटल में बिताए एक-एक पल, किताब के पन्ने की तरह उसके समक्ष खुल रहे थे। तो क्या सब कुछ सोच समझ कर। लगता है दिमाग की नसें फट जाएँगी। कई काले-काले दैत्य लम्बे-लम्बे नाखून बढ़ाए उसकी ओर बढ़ते आ रहे थे। वह चीख पड़ने को हुई... क्याउसने अपने शौहर को धोखा नहीं दिया है? दग़ा किया है उसने। लेकिन फूफी ने तो कहा था कि-'बगैर खुदा की मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता।' अब क्या होगा? अम्मी तो कहा करती थीं, शौहर खुदा का भेजा बंदा है, जो औरत की हिफ़ाज़त करता है। औरत उसके साए तले एक बेल की तरह बढ़ती जाती है। शौहर से दगा करो तो दोज़खकी आग में जलना पड़ता है। ...यह मुझसे क्या हुआ? या खुदा, ...यह मैंने क्या किया? वह रो पड़ी। तभी उसकी पीठ को ममता भरा स्पर्श मिला। वहइस स्पर्श को पहचानती थी...इस छुअन को पहचानती थी।

"फूफी!" कहते हुए वह लिपट गई। फूफी ने भले ही उसे पैदा न किया हो, लेकिन ताहिरा के एक-एक ख़यालात से वे परिचित थीं।

"ताहिरा!" उन्होंने उसके मुलायम काले घने बालों पर हाथ फेरा। ताहिरा ने आँसू भरा चेहरा उठाकर उन्हें देखा और पुनः लिपटकर रो पड़ी।

"जानती हूँ बेटा, तू किस स्थिति को झेल रही है। तेरीफूफी ने आज पहली बार झूठ बोला है। तू बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। बेटा, इतने दिन रहने की कोई कैफ़ियत तो देनी होगी न? फिर फैयाज़ के साथ जो कुछ हुआ...बेटा, इसकी कानों कान ख़बर कभी किसी को न हो। न यहाँ, न तेरे अब्बू के घर में। तुम जानती हो न हम औरतें हैं और औरत की कोई नहीं सुनता। इसीलिए चुप ही रहना बेटा। कभी भी अपने हृदय में गुनाह को जन्म न देना। मोहब्बतएक पाक और नायाब तोहफ़ा है खुदा की इबादत का। तूने अपनी मोहब्बत को जिया है। वह गुनाह नहीं, बेटा, मैं हूँ न तुम्हारे साथ। सब खुदा की मर्ज़ी से होता है। अपने दिल और दिमाग़ से खौफ़ निकाल दो और वैसे ही जियो जैसे थीं हैदराबाद जाने से पहले। कुछ दिन बाद हम तुम्हारे अब्बू-अम्मी के पास चलेंगे।" वे ताहिरा को दुलार से थपथपाती रहीं और रोती रहीं। ताहिरा के दिल का मंथन क्या उनके हृदय में भी झंझावात नहीं मचाए था?

वे उठकर अपने कमरे में आ गईं। ताहिरा मालूम नहीं सोई थी अथवा आँखें बंद किए लेटी थी, लेकिन इस समय ताहिरा को अकेले छोड़ना ही उन्हें ठीक लगा।

अपने कमरे में आकर, वे कटे पेड़ की तरह भरभरा कर बिस्तर पर गिर पड़ीं। कैसीकठिन घड़ी थी उनके समक्ष, ताहर सभी कुछ समझ गई है...उनका झूठ बोलना और फैयाज़ का बुलाया जाना...भरपूर छूट।

अब वे भी रो रही थीं, असहाय-सी। रह-रहकर वह ख्वाब भी सामने आता था जब लोहे के सींखचों से हाथ बाहर कर ताहिरा रोटी माँग रही थी। हाँ, उन्होंने चाहा था कि ताहिरा इस हवेली में पराजित न हो। जब ओखली में सिर दिया था तो। नहीं, वे किसी का क्रूर अट्टहास नहीं सुनेगी। उन्हें पूरा यकीन था कि ताहिरा इस जंग को जीतेगी। फिर अपराध बोध क्यों? क्या वंश की रक्षा के लिए हिन्दू धर्ममें नियोग नहीं हुआ? ...वेदव्यासऋषिका आगमन और सत्यवती की आज्ञा...इसमें कहाँ था अपराध बोध? नहीं, उन्होंने कोई अपराध नहीं किया है। वे बिस्तर पर उठकर बैठ गई। बेचैनी में दो तीन बार कमरे के चक्कर लगाये, फिर पलंग पर लेट गईं। कमरा घूमता-सा लगा। आजकल यह क्या होता जा रहा है? रात को बिस्तरे पर आने तक इतनी थकान हो जाती है कि फिर उठकर पानी तक नहीं पी पातीं। हैदराबाद जाने से पहले भी ऐसा होता रहा था। लगता है, शरीर से कुछ निचुड़ता-सा जा रहा है। चारों तरफ कितना कुछ बिखरता जा रहा है? अपने फ़र्जों से मुक्ति पाती जा रही हैं। घंटोंआँखें मूँदकर लेटे हुए भी वे थक जाती हैं और जब उनका बिखराव सम्हाल सकने की सीमा भी तोड़ डालता है और हर आकृतिअजीब-अजीब नक़ाबों में आँखों के अँधेरे में नाचने लगती है तो वे घबरा जाती हैं। अँधेरे में ही वे दोनों खिड़कियाँ खोल देती हैं और जंगले से सिर टिकाकर, दूर आकाश में सूर्यास्त की कल्पना करने लगती हैं। सूर्यास्त के नाम से ही वे पहुँच जाती हैं, अठ्ठारहसाल पीछे। हाँ! ऐसे ही सूर्यास्तकातो पीछा किया था उन्होंने यूसुफ के साथ मिलकर। फिर ऐसी बिखरीं कि अपनी परछाईं को भी तरसने लगीं। सूरजमें रहने वाली उन परछाइयों को उन्होंने फिर कभी नहीं देखा। कोशिश भी नहीं की। याद नहीं कि फिर कभी सूरज का डूबता गोला उन्होंने नाले के उस पार देखा भी होगा। सूरजतो हमेशा निकला, निकलतारहेगापर फिर उनको अपनी परछाईं भी कभी नज़र नहीं आई। हाँ तब, तब उतरी थीं आँखों में नीली, सुनहरी रोशनियाँ जो बड़ी-बड़ी काली चट्टानों के पार दफ़न हो गई थीं। हाँ, वे चीखती रही थीं सारी रात, पर उनकी चीख और दर्द का कोई गवाह नहीं। उन्होंने भी चाहा था कोई एक जो उन्हें ममता से 'माँ' पुकारे। लेकिन वे काली-काली चट्टानें, टूटेपत्तोंसे भरी हवा की नन्ही-नन्ही लहरियाँ, पत्तों का मौन विषाद, उन्होंने ऐसा इस तरह कई बार देखा है। लेकिन सोचो, जब जीवन के कुछ लम्हे बिल्कुल इनके नज़दीक बीतते हैं और धूल-कीचड़ में लिथड़ कर खतम हुए पत्तों के निशान भी बाकी नहीं रहते तब? कैसा लगता है तब? जैसे इस तरह टूटना और मिटना लम्बी मुद्दत से वे देख रही हैं। वे सुनती हैं अपना नाम, सूरज के डूबते लाल गोले की सुनहरी आभा में 'रेहाना' । फिर गर्दन पर चुम्बन, चौंकपड़ीं वे। किसने पुकारा? यहाँ तो खिड़की के पार बियाबान घुप्प अँधेरा है। फिर यह डूबता सूरज? किसने पुकारा मुझे? यूसुफ, तुमने? देखो तुम्हारी रेहाना किस तरह बरसों से यूँ ही अँधेरे में खड़ी है। चारों तरफ अंधकार है। कहाँ है मेरा वजूद? यूसुफ क्यों इतने दूर चले गए तुम मुझसे? क्यों? क्यों? क्या ज़िन्दगी का यही मतलब था? तुमने किसको सज़ा दी यूसुफ, अपने को, मुझे या अपने अब्बू को? शायदतीनों को। औरत तो पुरुष के उजियारों में जीती है यूसुफ, तुमने क्यों छीना मुझसे यह उजियारा? ...तुम्हारेजाने के बाद यूसुफ मैं सिर्फ अपने फर्ज़ से बँधी रही, फिर जी नहीं सकी। यूसुफ, हर दिन मेरा जन्म होता रहा...और हर दिन मैं मरती रही। और अब तो जीने का कोई बहाना भी नहीं रहा। ...ताहिरा ज़रूर गर्भवती होगी। एक मकसद था जो पूरा होगा। उधर दोनों बेटे...भाईजान, भाभी सुख से हैं। अब तुम कहाँ जाओगी रेहाना? प्रेम तो भाईजान के पास दोनों बाँहें पसारे खड़ा है, लेकिन क्या तुम यूँ निरर्थक निरुद्देश्य ज़िन्दगी जी पाओगी? सीने में जलन हो रही थी। कितनी देर हो गई थी उन्हें यूँ खड़े-खड़ेजंगला पकड़े हथेलियाँ लाल हो गईं थीं। दूसरी बार तुमने मुझे यूँ पुकारा यूसुफ! उस दिन हवाई जहाज में और आज। ...क्यों सताते हो यूसुफ?

कुछ कहूँ अपने आप से तो सिर्फ़ दोहराना होगा। कितनी बार यह सब सोचा है। क्या तुमने कभी मेरे बारे में जानने की कोशिश की है यूसुफ? ...चेहरे पर जाने कैसी दर्द की परछाईयाँ उभरने लगीं। सचमुच आजकल कैसी होती जा रही है रेहाना 'सच' सचमुचभयंकर होता है और उसे सहना एक जानलेवा स्थिति। काली चट्टानें उनकी ओर सरकती आ रही हैं। उनका दम फूलने लगा, ...खिड़की के जंगले हाथ से फिसले और वे पसीने-पसीने हो उठीं।

वे बिस्तर पर लेट गईं। इतनी भीड़ में भी वे अकेली थीं? ...सिर्फ भाईजान जानते हैं कि वे अपना अकेलापन, दर्द-तकलीफ को बड़ी आसानी से छुपा जाती हैं। क्या भाईजान तमाम सुख पाकर उन्हें सुखी दिखे? हाँ, तब उन्होंने चाहा था कि उनके आँचल में भाईजान सुख डाल दें। कहें कि रेहाना तुम भी जवान हो तुम्हारे दिल में भी चाहत है, उमंग है, जी लो। लेकिन कुछ नहीं हुआ। भाईजान चाहकर भी कुछ न कर पाए। वहाँ गरीबी-अमीरी की दीवार थी। हाँ! सचमुच उन्होंने भी चाहा था फूलों में छा जाना, हरियाली में समा जाना। और मिला क्या? ...उनका सर्वांग कीचड़ में लिथड़ गया।

कमरे की छत पर घूमता पंखा था, खिड़की से आती तेज़ हवा थी लेकिन उनका दम घुट रहा था। उनके चारों तरफ क्या था? सिवा ख़लिश के। सपने यूँ फूटे मानोपानी से भरे नन्हे-नन्हे गुब्बारे। और अकेलेपन को किससे कहें, किस रूप में कहें? कोई समझेगा क्या कि भरे-पूरे परिवार में भी वे कितनी अकेली हैं? साथी तो उन्हें बहुत ही प्यारा मिला था...लेकिन गरीबी के भयानक काँटे उन्हें आगे न बढ़ने देने पर मजबूर कर गए। अब तो सिर्फ क़दमों के निशाँ बाक़ी हैं।

सामने फिर ताहिरा खड़ी हो गई। आपने-आपने ही फूफी...यह पाप। नहीं, पाप नहीं है बच्चे। कैसे समझाएँ वे अपने मन को। यह सचमुच पाप है तो इसकी सज़ा मुझे ही देना खुदा। तो क्या हस्तिनापुर का अंत इसलिए हुआ कि...नहीं, अंत कहाँ हुआ था? वह तो आपसी बैर में मारा गया। मैंने तो इस हस्तिनापुर को बचाने की मामूली कोशिश की है। हाँ, मैं गुनाहगार हूँ। लेकिन एक परिवार यदि खुश रहता है तो यह गुनाह कैसा? मेरे परवरदिगार, मेरे मौला मैं सज़ा पाने को तैयार हूँ। मुझे बुला लो अल्लाह, अब तो मैंने सारी सीमाएँ पार कर लीं। ज़िन्दगी का कोई मक़सद भी नहीं रहा। वे घबरा उठीं। अकेलापन, निरुद्देश्य जीवन। यूसुफ, देखो तो मेरा कौन-सा अंग बचा है जो तुम्हारी साधना में न तपा हो? हमें तो खुदा ने इसलिए इस पृथ्वी पर भेजा था कि हम सुख भोगें, सुख से जियें और खुदा की इबादत करें। फिर यह कतरा-कतरा लुटते सुखों का मंजर हमें क्यों दिखा, क्यों मिला? ...

"आप सू रही थीं फूफीजान गहरी नींद में, इसलिएमैं वापिस लौट गई। मैं चाय लेकर आई थी, शाम साढ़े चार बजे।" अँधेरे कमरे में अस्मां का स्वर गूँजा। वे झटपट उठ बैठीं। शाम का धुंधलका कमरे में पैबिस्त हो रहा था।

"आपको अख्तरी बेगम ने याद फर्माया है।" कहते हुए उसने बिजली क बटन ऑन कर दिया।

"नहीं, रहने दे अस्मां, अँधेरा अच्छा लग रहा है। तू चाय ले आ।" जब तक अस्मां चाय लेकर आई वे हाथ-मुँह धोकर बैठी थीं। तभी शांताबाई आकर कमरे में बैठ गई।

"आजकल बड़ा दर्द उठा है मँझली बेगम को। कोई देखने वाला नहीं है। मैंने ही उबलते गरम पानी में अजवायन छोड़ी और ऊपर जाली ढककर कपड़ा गर्म किया और उनके घुटने, टखने, कोहनी, उँगलियाँ सेंकी। एक बार तो शाहजी आकर देख जाते न! कैसे देखे? वह बड़ी आने दे तब न! ...अरे, यह भी कोई ज़िन्दगी हुई? ऐसी ज़िन्दगी तो भगवान दुश्मनों को भी न दे। जब आप लोगों में ज्यादा शादी का चलन है बुआ जी, तो सबको बराबर का हक़ क्यों नहीं देते आप लोग?"

"शांताबाई, हक़ तो बराबर का देते हैं। ...अब इसमें कोई क्या करे कि घर में क्या और कैसा माहौल है। ख़ैर छोड़ो, अब कैसी हैं अख्तरी बेगम?"

"लेटी हैं, आपको याद किया है। बुआ जी, कहती हैं मैं कैसे आऊँ मिलने, चला-फिरा नहीं जाता। छोटी को देखने का मन लगा है।"

"हाँ! हम चलते हैं, ज़रा ताहिरा तैयार हो ले। शाहजीभी आते होंगे।"

उनके मुँह से इतना निकला ही था कि सामने ताहिरा खड़ी थी। उन्कोनेताहिरा की तरफ देखा और मानो जम गईं। इतना अनुपम सौन्दर्य। अनुराग से भरी ताहिरा सामने खड़ी थी। सफेदशरारा-कुर्ता, सुनहरे काम की वैसी ही दूधिया चुनरी, शरारे पर मुकेश टँके हुएऔर हैदराबाद से लाया हुआ सफेद मोती का सेट। बालों में सफेद फूलों का लम्बा गजरा। नाक में हीरे की लौंग चमचमा रही थी। कितनी ही बार, ताहिराकाऐसा रूप देखकर शहनाज़ बेगम का सिंहासन डोला था। बेबात को वे सबके ऊपर चिड़चिड़ाई थीं। क्या वे समझती नहीं थीं। अपनी तरफ फूफी को यूँ देखता पाकर ताहिरा शरमा गई।

"फूफी जान, चाय" अस्मां ट्रे में चाय लेकर खड़ी थी, वे चौंकी "हाँ! रख दो।"

"आप भी लीजिए, ताहिरा आपा" अस्मां ने कहा, "नहीं! मैंने पी ली।"

"लो, शांताबाई तुम पी लो।"

"हमें तो चाय खूब पसंद है," कहते हुए शांताबाई ने चाय का प्याला लिया और जल्दी-जल्दी चाय सुड़कने लगी।

"ताहिरा, बैठो बेटा, अपनीमँझली आपा बेगम को आदाब करने चलना है, उनको गठिया की बहुत तकलीफ उठी है।"

"अच्छा" ताहिरा एक ओर बैठ गई।

चाय पीकर फूफी उठीं, बालों में कंघा किया, चुनरी संभाली और ताहिरा तथा शांताबाई के साथ पिछवाड़े बने कमरों की ओर चल पड़ीं। अख्तरी बेगम के कमरों की तरफ जाते हुए रास्ते में नृत्य का बड़ा हॉल पड़ता था, जहाँ कभी महफिलें जमा करती थी। शाहजी के दादाजी शहर की सबसे खूबसूरत कमसिन और पप्रसिद्ध नृत्यांगना को बुलाकर इस हॉल में महफिल जमाते थे। शराब के दौर चलते थे और दादाजी के चमचों से हॉल भरा रहता था। फिर खाने का दौर चलता था जिसमें इतने तरह के व्यंजन होते थे कि लोग देखकर हैरान रह जाते। गुलनार आपा ने ही एक बार रन्नी बी को बताया था-'रेहाना बेगम, हमारी दादी अम्मां तो बेहद खफ़ा रहतीं। रात गुज़र जाए, दादाजी आने का नाम न लें। फिर दादी हफ़्तों के लिए बोलचाल बंद कर देतीं। लेकिन दादी अम्मां कभी जमकर लड़ न पातीं, डरती थीं। बहुत रौब था दादाजी का। जब दादाजी कारोबार से लौटते तो घर के नौकर हाथ बाँधे खड़े रहते। क्या पता, वे क्या फरमाएँ? ...सभी उनसे थर-थर काँपते थे। बाद में शराब बढ़तीही गई, यहाँ तक कि दिन को भी लेने लगे। बाद में ऐसी हालत हो गई कि उनके हाथ काँपते थे, क़लम तक नहीं पकड़ पाते थे। कारोबार की बागडोर दादी अम्मां ने संभाल ली।' ...फिरशहनाज़ बेगम की तरफ हँसते हुए देखा था उन्होंने और कहा था 'इस खानदान का कारोबार तो औरतें ही देखतीआईं हैं। एक हमारे शाहजी हैं, दीन दुनिया का होश नहीं, एकदम मासूम। ... हमारी शहनाज़ बेगम जैसी होशियार, हौसला परस्त औरत न होती तो क्या मुझसे यह सब अकेले सम्हलता? क्या मजाल रेहाना बेगम कि एक आम का बगीचा भी इनकी नज़र से रह जाए। सब काम समय पर करती हैं ये। अरब देशों तक फैले व्यापार को संभालना क्या सरल काम है।' रन्नी बी देखती हैं कि गुलनार आपा शहनाज़ बेगम को कितनी अहमियत देती हैं। यूँ कहें कि अब शहनाज़ बेगम की खबरस्टाम्प हैं गुलनार आपा, औरशाहजी मुट्ठी में कैद। इतने भोले कि बीवी और बहन ने चाहा तो दो शादियाँ कर लीं। बीवी ने चाहा तो फिर मँझली की तरफ नहीं गए। ...'अरे रेहाना बेगम' बताया गुलनार आपा ने 'इस नाचघर में ईरान का कालीन बिछा था। ...लंदन से झाड़फानूस आया था जिसकी कीमत उस ज़माने में एक लाख रुपये थी। पूरा हॉल उस झाड़फानूससे जगमगा जाता था।' जब पहली बार रन्नी बी उस हॉल में गुलनार आपा के साथ गईं थीं तो उन्हें घूँघरूओं की झंकार...और शराब के प्याले टकराये जाने की आवाज़ सुनाई दी थी और फिर दादी, अम्मांकी हिचकियाँ। 'नहीं! पहले तो खूब रोती थीं दादी अम्मां, ऐसा बताते थे सब लोग, ...बाद में दादी ने व्यापार में ऐसा दिल लगाया कि लोग हैरान...घर में ही मौलवी से पढ़ी दादी, व्यापार में इतनी तेज़ थीं कि व्यापार के सारे समझौते...सब कुछ अच्छे से सम्हाल लिया।' कितने किस्से थे इस हवेली के...

वेकमरे में दाखिल हुईं तो देखा दर्द से पीली पड़ी मँझली बेगम, पलंग से टिकी बैठी हैं। ताहिरा दौड़कर उनसे लिपट गई। उन्होंने ताहिरा को भर आँखों देखा और मुस्कुरा पड़ीं-"कैसी हैं हमारी छोटी बेगम?"

"बहुत अच्छी, मँझली आपा..."

रन्नी बी ने आदाब किया और उनके हाल चाल पूछे। उनके हाथों में मोतियों का सेट रखा तो दर्द और दुःख से काँप गईं अख्तरी बेगम। "अब क्या मोती, क्याहीरेरेहाना बेगम? जब शौहर ही पास होकर दूर कर दिया गया हो तो औरत के लिए हीरे-मोती का क्या मूल्य? अब ये मोती मेरी कब्र पर रख देना।" आहत अभिमान से भर उठीं मँझली बेगम "देखती हैं न रेहाना बेगम, मर भी जाऊँ तो कोई देखने वाला नहीं..."

"मरे आपके दुश्मन अख्तरी बेगम, ऐसा क्यों कहती हैं आप?"

मँझली बेगम ने गहरी साँस ली। मोतियों के सेट का डिब्बा एक ओर रख दिया और डबडबायी आँखों से एक ओर देखने लगीं।

फूफी माहौल को हल्का बनाने की गरज से गोरे बाबा की चौखट के किस्से सुनाने लगीं। बकरी गुम हो जाने का किस्सा सुनाया तो दर्द में भी मँझली बेगम हँस पड़ीं।

"मुझेबहुत इच्छा थी उनके पास जाने की।" गहरी साँस लेकर अख्तरी बेगम ने कहा। उनकी आँखों में मजबूरी और हताशा फैल गई। फूफी ने शाहनूर मियाँ के दरबार की चिरौंजी और गुलाब की पंखुड़ियाँ अख्तरी बेगम को दीं। उन्होंने चिरौंजी मुँह में डालकर, पंखुड़ियोंको माथे से छुआया। तभी उन्हें घुटनों में टीस उठी और कराहकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं। ताहिरा ने घुटनों पर हाथ रखा और दबाने लगी। उन्होंने आँखें खोल दीं। स्नेहिल और अपनत्व से भरा स्पर्श पा उनकी आँखें डबडबा आईं, "न छोटी बेगम, पाप में मत डालो...शांताबाई तो दबाती है न?" उन्होंने ताहिरा का हाथ पकड़ लिया, फिर कहा-"खुदा से माँगूँगी कि अगले जन्म में तुम्हें मेरी बेटी बनाकर भेजे।" फिरबुदबुदायी-"सौत शब्द बड़ा घिनौना लगता है।" कमरे में ख़ामोशी छा गई। कार की आवाज़ से ताहिरा उठ खड़ी हुई...

"हम जाते हैं मँझली आपा, शायदशाहजी आ गए?" वह सलाम करके भागी। मँझली बेगम की आवाज़ कानों में पड़ी-"जाओ जल्दी...वरना बड़ी ख़फ़ा होगी कि शाहजी के स्वागत में ताहिरा वहाँ मौजूद न थी।"

कार से शाहजी के उतरने से पहले ताहिरा बरांडे में खड़ी थी। शाहजी कार से उतरे और ताहिरा को अपलक देखते रहे। "आदाब छोटी बेगम। कैसी हैं, मिजाज़ कैसे हैं? कितने दिन लग दिए, क्या हमारी याद नहीं आई?" ताहिर अचकचा गई। उसने झुककर आदाब किया..."जी अच्छी हूँ" याद? क्या झूठ बोले ताहिरा कि सचमुच उसने उन दिनों एक बार भी शाहजी को याद नहीं किया। सिर्फ़अपनी मुहब्बत को जिया है।

"अरे! ख़ामोशकैसे हैं छोटी बेगम? और खूबसूरती तो देखिए, कमाल की नज़र आ रही हैं। क्याहैदराबादका कमाल है? ..."

"जी... " शरमा गई ताहिरा। उन्होंनेकंधों पर हाथ रखकर ताहिरा को अपने से लिपटा लिया और वैसे ही हॉल में प्रवेश किया। सामने शहनाज़ बेगम को देखकर तुरन्त हाथ हटा लिया और मुस्कुरा कर सोफे पर बैठ गए।

"आज हम एकदम थक गए। पचास लाख की डील थी, साठ पेपर्स टाइप करवाए।"

"सब ठीक हो गया न? ..." शहनाज़ बेगम ने पूछा।

"हाँ, सब ठीक हो गया। पुराने पेपर्स पर अब्बा हुज़ूर के दस्तखत थे, वहाँ भी नए दस्तखत डलवाए। अब आप भी दस्तखत कर दे, दस्तखत आपके होंगे। हमपेपर्स ले आए हैं। आज पार्टी, वहीँ, फार्महाऊस पर ठहरेगी। कल पेपर्स एक्सचेन्ज होंगे और फिर रात की फ्लाईट है उन लोगों की। अब अब्बा हुज़ूर तो दस्तखत करने की हालत में हैं नहीं, सो मजिस्ट्रेट को बुलाकर यहीं पर अब्बा हुज़ूर के सामने हम दोनों के दस्तखत होंगे। कल ग्यारह बजे मजिस्ट्रेट तशरीफ़ लायेंगे।"

"अच्छा! चलिए, सबठीक हो गया। वर्षोंपुरानीपार्टी है, मुझे तो लग रहा था कि अब्बा हुज़ूर की बीमारी के कारण ये वेन्डर न हमारे हाथ से निकल जाएँ। वरना..."

ताहिरा को अपना बैठना निरर्थक-सा लगा, जिस उत्साह से वह बाहर भागी थी, वह क्षीण पड़ गया। उठकर जाने लगी तो शाहजी जैसे उस माहौल में लौटे।

"अरे! आप कहाँ चलीं छोटी बेगम? बैठिए।"

"जी! मैं चाय..." ताहिरा ने कहा।

"चाय? यह क्या नई बात? चाय अस्मां, मुमताज़ कोई भी ले आएगी।" शहनाज़ बेगम कीआवाज़ में सख्त झिड़की थी।

"आप बैठिए।" शाहजी ने फिर कहा। तभी फूफी गुलनार आपा के साथ ड्राइंग रूम में दाखिल हुईं। शाहजी उठकर खड़े हो गए, उनके साथ ताहिरा भी।

"आइए फूफीजान, आदाब। कैसी हैं आप?"

गुलनारआपा आकर सोफे पर बैठीं तब शाहजी और ताहिरा भी बैठ गए।

"हाँ! तो कैसी रही, आप दोनों की हैदराबाद की ट्रिप? कहाँ-कहाँ घूमीं हमारी छोटी बेगम? ...हम तो काम में यूँ मुब्तिला रहे कि आपको कहीं लेकर जा भी नहीं सके।"

ताहिराख़ामोश रही और फूफी संक्षिप्त में हैदराबाद के हाल सुनाती रहीं।

रात में, शाहजी ने ताहिरा को अपने से लिपटा लिया। ताहिरा फिर भी बुझी-बुझी-सी रही। इतनीधन-दौलत के बाद आदमी और-और की क्यों लालसा रखता है? मैं दस दिन पश्चात् लौटी हूँ और सिर्फ़ बिज़नेस की ही बातें? ...लाखों की डील, बाग़-बगीचे, ज़मीन। कुवैत, दुबई, अरब देश-बस यही बातें। ...न जाने क्यों ताहिरा शाहजी की बाँहों में लिपटी फैयाज़ को याद करने लगी। जहाँ सिर्फ मोहब्बत थी, मुहब्बत का ऐसा वृत्त जिसके भीतर दोनों समोए थे। उमंग-उमंगकरआलोड़ित-समर्पित होती वह और अपनी बलिष्ठ युवा बाँहों में भींचता फैयाज़। फ़र्क़ तो है न? ...यहाँबाँहों में समर्पिता का कोई मूल्य नहीं। पैसा है तो वह लाई गई और भी आ जायेंगी। ऐसे ही बंद कमरों में शाहजी उनके शरीर में अपने चिराग को टटोलेंगे। रोटियों का मूल्य ये लोग कभी समझ ही नहीं सकते।

"तबियत नासाज़ है बेगम की?" शाहजी ने उसे हैरत से देखते हुए पूछा।

"जी, ऐसा कुछ नहीं," वह अनमनी हो उठी।

"फिर, आज हमारे प्रति यह बेरुखी क्यों?"

"जी, बिल्कुलनहीं, अम्मी-अब्बू याद आ रहे हैं। पूरे दस महीने हो गए। एक ही बार चंद घंटों के लिए गई थी। आप इजाज़त दें तो एक बार देख आएँ।"

"ज़रूर जाइए बेगम साहिब, ...कल ही हम आपा से बात करते हैं। अब थोड़ा तो इधर मुखातिब होइए... आपका यह बंदा कितना तड़पा है पूरे दस दिन...आपके दीदार को, आपकी मुहब्बत को।" शाहजी ने कसकर ताहिरा को पकड़ लिया।

ताहिरा ने अपने आपको शाहजी की बाँहों में छोड़ दिया। वे उसके अनावृत्त बदन को चूमते हुए बुदबुदाते रहे "गज़ब का हुस्न है आपमें बेगम। मैं तो बस मजनूँ बन गया, आपके पीछे...सचमुच बेगम।"

थोड़ी ही देर में शाहजी थककर लेट गए और फिर उनकी नाक बजने लगी। ...हो गई मुहब्बत? ताहिरा सोचने लगी। वह इसलिए तो यहाँ लाई गई है। अरे! ताहिरा तुम क्या-क्या सोचती हो? क्यों तुलना करती हो किसी से? अब यही तुम्हारा घर है। यहीं सब कुछ। मन क्यों विचलित होता है मेरे खुदा? ...अब फैयाज़ क्या सिर्फ़ एक याद बनकर रहेगा? कभी और भी उसकी मुहब्बत परवान चढ़ेगी? सोचते-सोचते ताहिरा सो गई। सुबह नींद खुली तो उसने चुपचाप कपड़े उठाए और पहनने लगी। शाहजी कुनमुनाए और फिर उसकेहाथसे कपड़े छीन लिए-"क्या गज़ब करती हैं बेगम? हमारी बेताबी का कुछ अंदाज़ा है आपको?"

गुलनार आपा के कमरे में फूफी पहले से ही बैठी थीं। शहनाज़ बेगम भी बैठी थीं। गुलनार आपा के पैरों के तलुओं में अस्मां तेल ठोंक रही थी। ताहिरा ने आदाब किया और एक ओर खड़ी हो गई।

"अरे, बैठो ताहिरा।" शहनाज़ बेगम ने कहा।

ताहिरा दूर पलंग पर सिकुड़कर बैठ गई। वह गुलनार आपा के समक्ष अपने आपको सिकुड़ा-सिमटा ही पाती है।

"शाहजी कह रहे थे, तुम मायके जाना चाहती हो?" गुलनार आपा बोलीं।

"जी, बहुत मन लगा है अब्बू-अम्मी में।"

"सो तो ठीक है ताहिरा, लेकिन तुम हैदराबाद गईं, ...शगुन बँधवा कर आई। ताबीज़ लाई, उनका एक खास समय होता है। इस समय तुम्हारा जाना उचित नहीं। कम से कम एक महीना उसके असर की बाट जोहनी होगी, फिर चली जाना। क्यों, ठीकहै न रेहाना बेगम?" शहनाज़ बेगम ने बोलते हुए फूफी की ओर देखा।

"बिलकुल, दुरुस्त फर्माया आपने। ...बेटा ताहिरा, हम इतनी दूर गए, बाबा के आशीर्वाद और उनकी दुआ को यूँ फ़िज़ूल न करो। तुम्हारी बड़ी आपा ठीक कह रही हैं, ...महीना भर कहीं नहीं जाना है।" फूफी ने कहा, ताहिरा हैरत से फूफी की ओर देखने लगी। आँखें भर आईं। थोड़ी देर वहाँ बैठी रही और फिर उठकर अपने कमरे में चली आई।

ताहिरा उदासी में डूबती जा रही थी। उँगलियों पर दिन गिनती, मानो अब अब्बू के पास जाएगी तो वहाँ फैयाज़ मिलेगा। वह समझ नहीं पाती थी कि फूफी ने उसकी सोयी हुई मुहब्बत को उकसा कर अच्छा किया है, या बुरा किया है। वह दो पार्टी के बीच झूल रही थी। हर दिन शाहजी उसके कमरे में आते और चंद बातों के पश्चात् देह से देह का सिलसिला शुरू हो जाता। मानो बाँहों और कलाइयों में बंधे इन गंडे-ताबीजों का हिसाब ले रहा हो कोई। शाहजी या पूरी हवेली। अब बचे हैं केवल पन्द्रह दिन, फिर वह अब्बू अम्मी के पास जाएगी। अपनेचहुँ ओर फैली वैभव से निर्लिप्त-सी, ताहिरा फैयाज़ के बारे में सोचती। कभी फूफी के निर्णयों पर आक्रोश होता, कभी दया से भर उठती। काश! उस दौरान फूफी साथ देतीं तो आज वह फैयाज़ की बाँहों में होती। न सही वैभव, निहायत अपना तो कोई होता। यूँ टुकड़ों में बँटा शौहर और शौहर का मतलब केवल देह। शायद ही उसे याद हो कि शाहजी के साथ वह इन दस महीनों में कभी यूँ ही बातें करती सोयी हो? नहीं, शाहजी का कमरे में आने का मतलब ही था कि वह अब भोगी जाएगी। कभी दिल में तूफान उठता तो अपने मायके का सुख देखकर वह उस बवंडर को गहरे में दबा देती। ऐसीइच्छा होती कि चीख-चीखकर कहे 'मत ढूँढो मेरे जिस्म में हवेली के चिराग़ को...मैं तो फैयाज़ की हूँ, फैयाज़ की रहूँगी।' फिर ग्ल्नार आपा, शहनाज़ बेगम, शाहजी उसे रुखसत करेंगे और वह फैयाज़ की बाँहों में समा जाएगी। किन पलड़ों पर वह झूल रही है? एक ओर शाहजी उसके शौहर और दूसरी और उसकी मुहब्बत। आँखें बंद करती है तो फैयाज़ सामने होता है। आँखें खोलती है तो शाहजी सामने होते हैं।

शाम का समय था, वह अपने कमरे में पलंग से टिकी बैठी अस्मां के साथ रेशम के धागों को पुट्ठे में लपेट रही थी। गुलनार आपा ने ये रेशम के धागे के लच्छे कुवैत से मँगाए थे। उन्होंने कहा था-'अस्मां बहुत बारीक कश्मीरी कढ़ाई करती है, इससे अपनी साड़ी कढ़वाना।' पलंग पर हल्के गुलाबी रंग की रेशम की साड़ी पड़ी थी, जिस पर कढ़ाई होनी थी। अचानक ताहिरा का सिर चकराया और हाथ से रेशम की लच्छियाँ छूट गईं। मुँह पर हाथ रखे वह गुसलखाने की तरफ भागी। रोकते-रोकते कै हो गई। अस्मां भागकर गिलास में पानी ले आई। ताहिरा ने कुल्ला किया और आकर लेट गई लेकिन फिर उसकी तबीयत घबराई और वहभागी तो गुसलखाने के दरवाज़े पर ही उल्टी हो गई। उसने गुसलखाने का दरवाज़ा पकड़ा और दीवाल से टिक गई। सिर चकरा रहा था। वह काँपने लगी। अस्मां ने उसे अपने कंधे से टिकाकर पलंग तक पहुँचाया। अस्मां फूफीजान के कमरे की तरफ भागी। फूफीजानमाज बिछाकरमगरिब की नमाज़ के बाद सज़दे कर रही थीं। वह घबराई-सी खड़ी रही और चिल्लाकर कहा-"फूफीजान, ताहिरा आपा उल्टी कर रही हैं उनकी तबीयत बहुत खराब है।" फूफी ने उत्सुकता भरी नज़र अस्मां पर डाली। जांनमाज़को तह किया, और ताहिरा के कमरे की ओर चल पड़ी। ताहिरा अब शांत-सी तकिए के सहारे अधलेटी-सी थी।

"क्या हुआ बेटी?" बेहद घबराहट में उन्होंने पूछा।

"पता नहीं फूफी, चक्कर आ रहे हैं। जी मिचला रहा है और दो बार कै हो चुकी है।" उठते हुए ताहिरा बोली, फूफी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। मानो उछलकर बाहर आ जाएगा। उन्होंने अस्मां को नींबू-शर्बत बनाकर लाने को कहना चाहा लेकिन अस्मां तो कब की वहाँ से जा चुकी थी। मानो क्षणांश में ही सब कुछ घटित हो गया। फूफी स्वयं शर्बत बना लाने के लिए कमरे से बाहर निकलीं तो देखा, सामने से शहनाज़ बेगम अस्मां के साथ आ रही थीं।

"क्या हुआ ताहिरा को?"

"पता नहीं, कै हुई है, जी मिचला रहा है। मैं शर्बत बना कर लाती हूँ।" फूफी ने कहा।

"नहीं! शर्बत अस्मां बनाकर लाएगी। आप ताहिरा के पास बैठे, मैं डॉक्टर को फोन करती हूँ," कहती हुई शहनाज़ बेगम एकदम पलटकर चल दीं।

ताहिरा शर्बत पीकर, कटोरी में बर्फ के टुकड़े रखकर चूस रही थी। अब उसका जी अच्छा लग रहा था। फूफी का हृदय अब सामान्य था। लेकिन मन में यह आशा दृढ़ हो चुकी थी कि डॉक्टर भी आकर वही बतायेंगी जो वह सोच रही हैं। उनकासोचना सही निकला। कमरे के बाहर फूफी, अस्मां, मुमताज़ खड़े थे। अंदर डॉक्टर जाँच कर रही थी। पन्द्रह मिनिट के बाद जब डॉक्टर मुस्कुराती हुई बाहर निकली तब तक शहनाज़ बेगम गुलनार आपा के साथ आ चुकी थीं।

"मुबारक हो गुलनार आपा, आपकी छोटी बहू बेगम उम्मीदों से हैं।" डॉक्टरने कहा। गुलनार आपा ख़ुशी से चीख पड़ीं"रेहाना बेगम, बधाई हो।" और फूफी से लिपटकर रो पड़ीं। फूफी की आँखों से भी खुशी के आँसू बहने लगे। शहनाज़बेगमनेभी दोनों को बधाई दी। वे मुस्कुरा पड़ीं। वे डॉक्टर का हाथ पकड़कर हॉल में आ गईं। क्या सचमुच वे विश्वास करें कि ताहिरा माँ बनने वाली है? डॉक्टरको बिठाकर वे गुलनार आपा को बुलाने जा रही थीं कि गुलनार आपा ने हॉल में प्रवेश किया। मानो किसी को किसी बात का होश ही नहीं था। सभी अपने-अपने ढंग से खुशियाँ ज़ाहिर कर रहे थे। डॉक्टर ने दवाइयाँ लिखकर दीं। गुलनार आपा ने प्रश्नोंकी झड़ी लगा दी। ...चल फिर सकती है ताहिरा कि बेडरेस्ट पर रहेगी? क्या खाएगी, क्या नहीं? ...क्या-क्या करना होगा? डॉक्टर मुस्कुरा कर सब बता रही थी। डॉक्टर को मालूम था कि इस विशाल हवेली में, अपार धन-दौलत के बीच बस इसी एक बात का इंतज़ार था सबको।

फूफी दौड़कर ताहिरा से लिपट गईं। वे रो रही थीं और ताहिरा को चूमती जा रही थीं। "मेरी बेटी, तूने यह जंग जीत ली। ...तू माँ बनने वाली है। हाँ बेटी, सच। डॉक्टर बेगम अभी कहकर गई हैं। देख तू उठना नहीं, चलना नहीं...मैं हूँ ना" वे रो रही थीं। जिस खुदा को वे बेमुरौव्वत समझने जा रही थीं अब उसी की इबादत में वे घुटने टेके बैठी थीं।

शाहजी को फोन करके तुरन्त आने के लिए गुलनार आपा ने कहा। इस उम्र में भी उनके पैरों में गज़ब की फुर्ती आ गई मानो अपने भाई की इस खुशी में उन्होंने अपनी उम्र बरसों पीछे छोड़ दी हो। वे शाहजी का बेसब्री से इंतज़ार करने लगीं।

ताहिरा को मुमताज़ ख़ास तरीके से तैयार करने लगी। वहदो उल्टियों के पश्चात्हीमुर्झायी-सी दिखने लगी थी। फिर भी भीतरसे वह बहुत उल्लासित थी। इतने दिनों की उदासी दूर हो गई और वह बड़ी शिद्दत से शाहजी का इंतज़ार करने लगी। उसके कपड़े बदलवाकर मुमताज़ ने उसकी चोटी गूँथी। ...सुवासित फूलों की माला चोटी में लगायी और आँखों में सुरमा लगाकर, कपड़ों के रंग की चूड़ियाँ ताहिरा की कलाइयों में चढ़ाने लगी। अस्मां ने आकर कहा कि शाहजी आ गए हैं। ताहिरा उठने लगी फिर यह सोचकर कि वह शाहजी से अकेले में मिलेगी पुनः पलंग पर बैठ गई।

शाहजी ने जैसे ही हॉल में प्रवेश किया, गुलनार आपा दौड़ीं और उनसे लिपट गईं। शाहजीहक्का-बक्का खड़े। गुलनार आपा की आँखों में खुशी के आँसू छलक रहे थे। आवाज़ गले में घुल रही थी। तभी "मुबारकहो" कहती हुई शहनाज़ बेगम आगे बढ़ीं और गुलनार आपा को खींच लिया। गुलनार आपा पुनः अपने भाई से लिपटीं और बड़ी मुश्किल से कह पाईं-"ख़ुदा ने हमारी दुआ कुबूल कर ली शाहजी, ताहिरा उम्मीदों से है।"

शाहजी इतने ज़ोर से चौंके मानो कहीं तेज़ बिजली कड़की हो फिर मुस्कुरा पड़े और ताहिराके कमरे की ओर तेज कदमों से भागे। गुलनार आपा बैठ गईऔर रुमाल से आँसू पोंछने लगीं। शहनाज़ बेगम खड़ी ही रह गईं, शायद पहली बार, इन बीस बरसों में पहली बार ऐसा हुआ कि शाहजी उनकी तरफ मुखातिब हुए बगैर निकल गए हों। लेकिन उनके दिल में फिलहाल कोई मलाल पैदा नहीं हुआ क्योंकि हवेली में इससे बढ़कर खुशी की बात शायद कोई दूसरी नहीं थी।

ताहिरा ने शाहजी को देखा तो उठकर खड़ी हो गई। उसने देखा, शाहजी की आँखों में जमाने भर की मुहब्बत हिलोरें ले रही है, वह सब कुछ भूल गई और उमगकर शाहजी की बाँहों में समा गई। देखा उसने एक पुरुष की आंखोंमें आँसू, वे ताहिरा को बेतहाशा चूम रहे थे। फिर माथे का चुम्बन लेते हुए उन्होंने आँखें मूँद लीं और कहा-"बेगम! आप मेरे लिए बेशकीमती हीरा साबित हुईं, आपने हवेली को वह सौगात बख्शी है कि यह हवेली सदियों आपकी शुक्रगुज़ार रहेगी। आपने इस हवेली का इतिहास रचा है बेगम।" आज पहली बार ताहिरा को महसूस हुआ कि उसका शौहर सचमुच उसे बेइन्तहा प्यार करता है।

शाहजीने ताहिरा को कंधों से पकड़ा और साथ लिए हुए हॉल की तरफ बढ़ने लगे। "धीरे चलें छोटी बेगम, अब आपको अपना ख़ास ख़याल रखना है।" मानो आज शाहजी को किसी की फिक्र ही नहीं थी। ताहिरा को थामे जब वे हॉल में दाखिल हुए तो ताहिरा ने देखा, गुलनार आपा, शहनाज़ बेगम, फूफी सभी वहाँ बैठी हुई हैं। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि शहनाज़ बेगम के सामने शाहजी ने ताहिरा का हाथ भी थामा हो। यदि शहनाज़ बेगम अचानक सामने आ जातीं तो वे हाथ छोड़ देते और एक सामान्य दूरी बनाए रखते। लेकिन आज वे ताहिरा को कंधों से थामे हॉल में दाखिल हुए। ताहिरा लाज से दुहरी हो गई। उसके गाल अनुराग से तप्त हो गए। फूफी ने असीम सुख से आँखें मूँद लीं और जब आँखें खोलीं तो देखा, शाहजी के बाजू में ताहिराबगलगीरथी। इस एक दृश्य को सच में बदलता देखने के लिए फूफी ने मानो दस महीने दस सदियों की तरह बिताये थे। अब उनके हृदय में कोई ख़ौफ़ नहीं था। ताहिरा की स्थिति इस हवेली में सुदृढ़ हो चुकी थी।

"आपा! क्या जश्न मनाएँ जो आज का दिन और दिनों से अलग दिखाई दे?" शाहजी ने गुलनार आपा से पूछा।

"शाहजी! जश्न के तौर पर हम आलीशान डिनर तैयार करवायेंगे, लेकिन अभी सबको बुलाकर ऐसा कोई फंक्शन नहीं करेंगे। नज़र लग जाती है। हम सातवें महीने ऐसा फंक्शन करेंगे कि हवेली जगमगा उठेगी।" गुलनार आपा ने कहा। "ठीक है।" शाहजी ने गुलनार आपा की इस बात का समर्थन किया।

"ताहिरा, डॉक्टर नगमा दवाएँ, टॉनिक लिखकर गईं हैं। तुम उछलोगी, कूदोगी नहीं, अधिकतर आराम करोगी। सुबह उठकर बगीचे में टहलना है। इमली नहीं खाना है बल्कि नींबू की फाँकें और फल बहुत खाना है।" फिर अस्मां की ओर देखकर कहा-"ताहिरा को सुबह छुहारे के साथ उबला दूध देना है। साथ में कच्चा नारियल का टुकड़ा और मिश्री। इससे बच्चा चाँद जैसा सुन्दर होगा।" ताहिराबैठी लगातार शरमा रही थी। रह-रहकर उसके गाल गुलाबी हो जाते, वह नीचे नज़रें गड़ाए हुई थी।

"कल सुबह अब्बा हुज़ूर से आशीर्वाद लेने चलना है।" कहती हुई गुलनार आपा अपने कमरे में चली गईं।

अब्बा हुज़ूर से ढेरों असीसें लेकर जन ताहिरा लौटी तो उसके हाथ में एक छोटी-सी डिब्बी थी, जिसमें अब्बा हुज़ूर द्वारा दिया बेशकीमती हीरा था जिसे उन्होंने इस मुबारक मौके पर ताहिरा को दिया था। रात में ही गुलनार आपा को याद आया था कि शहनाज़ बेगम से निक़ाह के दौरान यह हीरा अब्बा हुज़ूर ने एक बड़ी हीरों की प्रदर्शनी से खरीदा था कि वे इसे अपने पोते की पैदाइश पर देंगे। वह हीरा बीस वर्षों से गुलनार आपा की अलमारी में भूला-बिसरा पड़ा था, जिसे उन्होंने याद दिलाकर अब्बा हुज़ूर के द्वारा ताहिरा को दिलवाया था।

सभी ने उत्सुकता से ताहिरा की मुट्ठी में दबी डिब्बी देखी और हीरा देखकर अस्मां-मुमताज़ तो लगभग चीख ही पड़ीं। इतना बड़ा हीरा उन्होंने पहली बार देखा था। शांताबाई का सहारा लेकर अख्तरी बेगम भी ताहिरा के कमरे तक आईं और उसे लिपटाकर, ढेरों आशीर्वाद दिए।

सभी आकर हॉल में बैठ गए। गुलनार आपा बोलीं-"अब ताहिरा मायके जा सकती है। शबरात नज़दीक है। शबरात की खुशियों के साथ यह खुशी भी उसे मायके में मनाने दो।"

"वजा फरमाया आपा आपने, मैं आज ही डिसूज़ा को गाड़ीतैयार करने के लिए कहती हूँ।" कहकरशहनाज़ बेगम हॉल से बाहर चली गईं।

ताहिरा उठकर उस कमरे में आई, जहाँ पहले से फूफी बैठी हुई थीं। उसने हीरे की डिब्बी उनकी गोद में डाल दी और गोद में ही सर रखकर अपनी आँखें मूँद लीं। शायद खुशी से, शायद फैयाज़ की याद से।