ख्वाबों के पैरहन / भाग 4 / प्रमिला वर्मा
धूप कमरे में आ चुकी थी। निक़हत फूफी को झंझोड़ रही थी "उठिए फूफी जान...देखिए कितना दिन चढ़ आया है।"
फूफी घबराकर उठ बैठीं। रात कब तक जागती रहीं, याद नहीं। शाहजी को ताहिरा के कमरे में दाखिल होते देखा था। फिर यादों के झंझावात में कितनी ही देर वे जागती रहीं थीं। न जाने कितनी बातों को लेकर वे रोई थीं। गालों पर आँसू सूख गए थे, शायद रोते-रोते सोई होंगी।
या अल्लाह! ऐसे तो वे कभी नहीं सोईं? भाईजान के घर में तो पाँच बजे से ही काम शुरू हो जाते थे, न जाने कैसे वह इतना सोती रही। निक़हत उन्हें जगाकर भाग गई थी। अपना छोटा-सा फूलदार ट्रंक खोला और ताहिरा के ससुराल के भेजे रेशम के थान से बना सूट निकाला और गुसलखाने में घुस गईं।
गुसलखानेमें मौजूद आदमकद आइना देखकर वे खुद ही शरमा गईं। कहींइस तरह खुद को निहारते नग्न हुआ जाता है! महसूसकरती रहीं कि आईने की आँखें हैं जो उन्हें घूर रही हैं। ...उन्होंने अपनी गोरी, गदबदीदेहकोतौलिए में छुपा लिया... लेकिन आइना तो उन्हें लगातार देखे जा रहा था। हारकर उन्होंनेउतारे हुए कपड़े आईने पर डाल दिए और फिर निश्चिन्त होकर नहाने लगीं, गुसलखाने से निकलीं तो कमरे मेंशांताबाई खड़ी थी, "चाय लाई हूँ।"
"रख दो।"
"कैसी हो बुआ...यहाँ कैसा लग रहा है?"
"अच्छा लग रहा है, शांता बाई।"
शांता बाई नज़दीक खिसक आई, "भूखी शेरनी-सी डोल रही हैं बड़ी बेगम हवेली में। जानती हो बुआ क्यों?"
उन्होंने हैरत से शांताबाई की ओर देखा और 'नहीं' में सिर हिला दिया।
"तुम्हारीभतीजी और शाहजी सोए पड़े हैं अभी तक...इसीलिए... । इस हवेली की रीत है सभी एक साथ नौ बजे नाश्ता लेते हैं बड़े हॉल में। ...नौ कभी का बज गया" कहती हुई शांता बाई चली गई।
फूफी सहम गईं, पहली ही रात है। ...लड़की को क्या पता रीति-रिवाज़ का। लेकिन अभी तक सोना नहीं था। शाहजी भले ही सोएँ, वे मर्द ज़ात हैं। निक़हतसे बाकी बातें पूछेंगी कि इस घर के और क्या रीति-रिवाज़ हैं। चाय पी ही रही थी कि शांता बाई, एक बड़ी ट्रे में मीठा, नमकीन, दूध का गिलास, खूबसूरती से कटे फल जिनमें एक-एक काँटा चुभोया हुआ था, लेकर आ गई।
"बुआजी, बड़ीबेगम ने भिजवाया है। अबअपनेकमरे में ही नाश्ता कर लें..., हॉलसेनाश्ता हटा दिया गया है।" बहुत राज़ की बात हो ऐसे बताया शांताबाई ने और वहीँ बैठ गई।
"फूल गई हैं बड़की बेगम...अब जानो कि पहली रात है, कितना जागे होंगे, कौन जाने। हर समय कुढ़ती है परमेसवरी।"
"ये परमेसवरी कौन हैं?"
"अरेवहीबड़की और कौन?"
फूफीचुप ही रहीं, समझ गईं कि कोई हिकारत भरा शब्द ही होगा, "पहली बार जब मैं आई थी शांताबाई, तो तुम्हें अख़्तरीबेगम के साथ ही देखा था...कल भी तुम ही साथ थीं उनके।"
"हाँ! मुझे उनके लिए ही रखा गया है। वैसे मेरे बाबा और उनके बाप भी इस खानदान के नौकर रहे हैं। मैं इस हवेली के पिछवाड़े बनी खोली में पैदा हुई, पच्चीस बरस की हूँ। छोटी थी तब ही शाहजी की पहली शादी हुई थी। लेकिन उस पहली से मुझे कोई लगाव नहीं। मुझे तरस आता है बुआ जी, इस मँझली बेग़म पर...बेचारी...बीमार।"
"हाँ! बता रही थीं गठिया है" फूफी ने कहा। " अरे चलना-फिरना तक मुश्किल है। अब तो बगैर किसी के सहारे के चल भी नहीं पातीं। आईं थीं जब...देखतीं...लेकिन इस बड़ी बेगम ने कुछ महीने भी संग-साथ नहीं रहने दिया शाहजी के।
"क्यों, ऐसी क्या बात हुई?"
"अब क्या बताएँ? हम भी, हमारा जी भी हौल खाता है। तुम्हीं बताओ बुआ...क्या महीने भर साथ सोने में हमल रह जाए, यह ज़रूरी है...? यह बाँझ है कहकर शाहजी को अपने पास घसीट लिया...तबसे शाहजी ने पलटकरमँझली बेगम की ओर देखा नहीं। हम तो जानते थे ऐसा होगा। गुलनार आपा तो गऊ हैं...बहुत भली। पर ये बड़की...बहुत सयानी हैं। उसी का हुक्म चले है हवेली में...जो चाहती हैं होता है।" फिर बाहर झाँकते हुए खुसखुसाकर बोली-"शाहजी उसके इशारे पर नाचे हैं...अब देखना ये तीसरी आई है न तुम्हारी भतीजी... फिरचौथी आएगी।"
"ऐसा न कहो शांताबाई।" फूफी थरथरा उठीं, "खुदा ने चाहा तो ताहिरा की गोद जल्दी ही भरेगी।"
"हाँ! भगवान करे ऐसा ही हो। कहाँ इत्ती-सी, फूल-सी बच्ची और सिर पर बैठी सौतनें," ऐसा ही तो कहा था भाभीजान ने भी, वे सचमुच घबरा गई थीं, "जानती हो बुआजी, अख़्तरीबेग़मभी बस ऐसे ही ग़रीब घर की हैं। ...सच कहूँ? बड़कीख़रीदकर ही लाई थी उसे। ढेर रुपया दिया था अख़्तरीबेगम के बाप को। चारलड़कियाँजो बैठी थीं ब्याहने, तभी तो उसके बाप मान गए। अबदेखती हैं न आप कि कैसे कूड़े-कचरे जैसा डाल रखा है। अरे खाने-पहननेको मिल जाए तो ज़िंदगी पूरी हो जाती है क्या? औरत को चाहिए... मर्द का प्रेम...कलेजे से लगकर सोना। फिरज़िंदगी कूड़ा नहीं है क्या उसकी? ...जब अख़्तरीबेगमरोती हैं बुआ, ...तो मैं भी उनके साथ रोती हूँ। उनके हाथ पैरों की मालिश करती हूँ... देखा नहीं तुमने बुआ...हाथ की उँगलियाँ कैसी टेढ़ी-टेढ़ी हो गई हैं। यह उमर तो खेलने खाने की थी, राज करने की थी। कोई रात दिन रोएगा तो रोग तो लगेगा ही। जानती हो बुआ, इसीहवेलीके पिछवाड़े मेरीअम्मा ब्याह कर आईं थीं। बताती थीं कि शाहजी की माँ बहुत नेक औरत थीं। उन्हीं का दान-धर्म है जोइस घर में माया ही माया है। शाहजी भी बहुत नेक इन्सान हैं। वैसी ही गुलनार आपा। इत्ते बड़े दुख में भी होश नहीं खोया उन्होंने। सदादूसरोंकी मदद ही की है। तभी तो मँझली और अब तुम्हारी भतीजी ग़रीब घर से लाए हैं। इसएबन के आने से मानो यह शाप लग गया किऔलाद का मुँह देखना दूभर हो गया। सात कक्षा पढ़ी हूँ मैं बुआ। सब जानती समझती हूँ...फिर मेरे मर्द ने भी यहीं नौकरी कर ली। इस घर की नस-नस मैं जानती हूँ।"
"अरे! शांताबाई, तू यहाँ काहे बैठी है, उधर बड़ी चाची जानतुझेढूँढ रही हैं," निक़हत आते ही बरजने लगी, "अरे फूफीजान, आपने नाश्ता नहीं किया?"
"हाँ करूँगी!"
फूफी ने बाल खोले और पोंछने लगीं...पानी की बूँदें उनकेसूट को भिगोने लगीं। "लाइए फूफीजान, आज हम आपकी चोटी गूँथ दें।" निक़हत ने फूफी के बालों को तौलिए से सुखाया और मोटे दाँतों के कंघे से बाल सुलझाने लगीं, "कैसे रेशम जैसे बाल हैं आपके फूफी!"
"नहीं तो" फूफीकी तंद्रा भंग हुई, आज दूसरा ही दिन है इस घर में। पहलीसुबह, कितनी सारी बातें मालूम हो गईं। ...कहाँ ला पटका है उन्होंने अपनी बच्ची को? कहीं यह ग़लत हुआ है तो कैसे मुँह दिखाएँगी भाईजान को, भाभी को? "चढ़ाईं बलि छोकरी की" भाभी सामने खड़ी कह रही थीं।
"नहीं तो..." वे चौंक पड़ीं। "क्या नहीं तो फूफी..., क्या सोच रही हैं? देखिए चोटी ह गई। अच्छा, आप बड़ी चची से बड़ी हैं या छोटी? आपकाएक भी बाल सफेद नहीं और बड़ी चाची व चचा जान बालों को रंगते हैं। ख़ैर चचाजान को तो कोई फिक्र नहीं जब बड़ी चची ज़बरदस्ती बैठाती हैं तो रंग लेते हैं, परन्तु बड़ी चची का तो एक भी सफेद बाल कभी दूसरों को नहीं दिख सकता। मालूम है फूफी जान, हमारी अम्मी बताती हैं कि गुलनारआपा बालों में मेंहदी लगाती थीं। मेंहदी के घोल में नील भी डालती हैं, नील डालने से बालों में आबनूसी चमक और रंग आ जाता है। उनके लिए नील का पाउडर खासतौर से ईरान से आता था। यहाँ के तो सभी नील पाउडर में कैमिकल मिलाया जाता है, सो बाहर से आता था। गुलनार आपा ने सदा सिल्क की प्लेन साड़ी पहनी, हल्के-हल्के गहने। अम्मी कहती थीं कि बिचारी ने कैसे सारीज़िंदगी तन्हा काट दी। लेकिन इसका असर कभी चचा पर नहीं आया। चचा जान को बचपन से तारों में गहरी दिलचस्पी थी सो आपा ने इसी शौक को आगे बढ़ाया और चचा जान ने कितनी तो रिसर्च किए, नए तारों पर...पूरा आसमान छान दिया उन्होंने।"
'बड़ी बोलती है छोकरी, लेकिनहै बहुत प्यारी' फूफीने सोचा, "चलें फूफी जान छोटी चची के पास...वे नहाकर आ गई होंगी।"
"हाँ चलो।"
ताहिराके कमरे में जब वे दोनों पहुँचीतो देखा कि एक लड़की ताहिरा की चोटी गूँथ रही है, एक फूलों की वेणी लिए खड़ी है। फूफीपास जाकर खड़ी हो गईं, "बैठिएफूफीजान" निक़हत ने कहा। वे पलंग के पायताने बैठ गईं। चोटीगूँथकरवेणी लगाईं और सफेद जुही के फूलों की माला भी चोटी में लटका दी। तभी अज़रा ने कमरे में प्रवेश किया, "तुम लोगों को तो न जाने कितनी देर लगती है हर काम में, अभी चोटी ही गूँथी है," बड़बड़ाते हुए उसने सोने के कंगन मुमताज़ के हाथ में पकड़ा दिये "लो, जल्दी गहने पहनाओ।" सोने के सेट को पहनाकर, फिर मोतियों की लम्बी माला ताहिरा के गले में पहनाई गई। ताहिरा का रूप देखकर फूफी ने मन ही मन उसकी बलाएँ लीं। "खुदा! किसी की नज़र न लगे मेरी बच्ची को।"
ताहिरा ने फूफी को अपनी ओर देखते पाया तो शरमा गई। दोनों लड़कियाँ जब ताहिरा को सजा चुकीं तो चली गईं।
"फूफी, ये दोनों लड़कियाँ बड़ी चची की ख़िदमत में रहती हैं एक का नाम अस्माँ है, जो वेणी लिए खड़ी थी वह मुमताज़ है। वैसे इस घर में बहुत नौकर हैं, बड़ी चची कहती है कि अस्माँ, मुमताज़ ही तेरी छोटी चची की देखरेख करेंगी," एक साँस में निक़हत ने सब बता दिया।
"आपके लिए नाश्ता लाती हूँ छोटी चची, आज तो यहीं खा लीजिये, कल से समय पर बड़े हॉलमेंपहुँचनापड़ेगा।" "निक़हत के जाते ही फूफी ने ताहिरा से कहा-" बेटी, तुम इतनी देर से क्यों सोकर उठी, औरत ज़ात हो...क्या इतनी देर तक सोना ठीक है? चाहे सारी रात जागो पर उठना अलस्सुबह ही है, समझी, तेरी बड़ी सौतन कुढ़ी बैठी हैं। "
"वह क्यों फूफी?" भोलेपन से ताहिरा ने पूछा।
"नाश्ते का नियम है यहाँ, सभी बड़े हॉल में एक साथ नाश्ता करते हैं, कल से सुबह नौ बजे से पहले तैयार हो जाया करो।"
"जी फूफी।"
एक सप्ताह बीत चुका है। मेहमान सारे विदा हो चुके हैं। शादी की अस्तव्यस्तता के बाद मानो ज़िन्दगी लीक पर आ गई है। घरकी ढेरों बातें शांता बाई और निक़हत से पता चल चुकी हैं। फूफी भी टोह में रहती हैं कि कहाँ क्या हो रहा है उन्हें पता चलता जाए। वे अख़्तरी बेगम के कमरे में भी बैठ आतीं। शहनाज़ बेगम के कमरे में भी जातीं। लेकिन उन्हें सबसे अच्छा लगता गुलनार आपा का कमरा। एकदमसादगी-पूर्ण। तमाम वैभव से परे, अछूता कमरा। पूरे कमरे में तमाखू रंग का बिछा कालीन, उस पर जहाज जैसा एक बड़ा पलंग। शनील का सादा चादर, गाव तकिये और उसी रंग के खिड़की-दरवाज़े पर टंगे पर्दे। गुलदस्ते में हमेशा ही सफेद गुलाब...मानो उनकी एकांकी और उदास ज़िंदगी का प्रतीक। शेल्फ में उर्दू की कुछ किताबें, कुछ रिसाले, मेज़ पर दूधिया रोशनी का एक टेबिल लैम्प और काले शीशम की लकड़ी से बनी आराम-कुर्सी। कमरा एकदम शांत...बात करते भी डर लगता। मानो शोर से कमरा कुम्हला जाएगा। इसी के विपरीत था शहनाज़ बेग़म का कमरा जिसमें रंगबिरंगी काँचे थीं। झाड़फानूस, शोख पर्दे, शोख रंगकी चादर...और बड़े-बड़े गुलदस्ते, पेंटिंग्ज़, मक्का-मदीना का सुनहला रेखाचित्र...बड़ी-बड़ी अलमारियाँ।
फूफी कभी-कभी बगीचे में टहलती रहतीं, बीचों-बीच बने फव्वारे पर जाकर रंग बदलते पानी के बुलबुलों को देखतीं। निक़हतदबे स्वर में बताती है कि बड़ी चचीजाननियम कायदों में बहुत सख़्त हैं, वे तो चचाजान को भी कुछ न कुछ कहती रहती हैं, परन्तु वे कुछ नहीं बोलते। निक़हत सारे दिन छोटी चची की गुहार लगाए रहती, अब तो उसे ताहिरा के पास बैठे रहना ही अच्छा लगता था।
दुपहरठीक एक बजे बड़े हॉल में दूध-सा सफेद दस्तरख्वान बिछा दिया जाता। गाव तकिये रखे जाते। बावजूद सारे आधुनिक उपकरणों के नीचे खाने का सिलसिला बरसों से चला आ रहा था। गुलनार आपा को छोड़कर सभी समय पर खाना खाने हॉल में आ जाते थे। इस घर के नियमों में एक नियम यह भी शामिल था कि चाहे कोई नाराज़ हो या खुश, सभी को हॉल में आना ही है। सर्वप्रथम शाहजी निवाला तोड़ते फिर सभी 'बिस्मिल्लाह' करके खाना खाते। बिमारी से पहले शाहजी के वालिद यहीं हॉल में आकर खाना खाते थे। लम्बी बीमारी और चल-फिर न सकने के कारण अब वे कमरे में ही खाते हैं। उनके साथ गुलनार आपा खाती हैं। बड़े-बड़े डोंगों में सब्ज़ियाँ, पुलाव, सलाद, मिठाई आदि रहता। अख़्तरीबेगम को शांताबाई थामे हुए आतीं। कभी दर्द बढ़ने पर वे कमरे में ही खाना मंगवा लेती थीं। उम्र दराज़ अब्दुल्ला बावर्ची की जवानी इसी हवेली में थी। वह इस घर के हर व्यक्ति की रूचि-अरुचि का ध्यान रखता था। अस्मां औरमुमताज़भाग-भागकर खाना परोसतीं...गरम-गरम चपाती लातीं।
मुमताज़ के हाथ से शाहजी ने डोंगा ले लिया और बगल में बैठी ताहिरा को परोसा। शाहजी के दूसरी तरफशहनाज़ बेगम बैठती थीं। ताहिराने भर नज़र शाहजी को देखा और शरमा गई। शाहजीकी आँखों में ताहिरा के लिए मुहब्बत का अथाह समन्दर लहरें लेता दिखा। कभी ताहिरा निर्लिप्त-सी बैठी रहती, कभी-कभी हौले से मुस्कुरा देती। लेकिन फूफी ने स्पष्ट जाना है कि ताहिरा कहीं खो भी जाती है। क्या लड़की अभी भी फैयाज़ को ही याद करती है? यदि नहीं, तो शाहजी की मुहब्बत भरी निगाहों का मुस्कुरा कर स्वागत क्यों नहीं करती? फूफी के दिल में एक टीस उठती है।
मुहब्बत! हाँ उन्होंने भी तो की थी मुहब्बत। मुहब्बत की टीस बड़ी गहरी होती है। वे वेदना से देखती हैं ताहिरा की ओर...एकाएक चौंक पड़ती हैं। सामने बैठी अख़्तरीबेग़म मुस्कुरा रही हैं। शाहजी ताहिरा की खाली कटोरी में रबड़ीपरोसे जा रहे हैं और ताहिरा सिर हिलाकर मना कर रही है। शाहजी रबड़ी से भरी चम्मच ताहिरा के मुँह तक ले गए, तभी झमक कर शहनाज़ बेग़म उठ खड़ी हुईं और हाथ धोने के लिए वॉशबेसिन की ओर बढीं। यह क्या? सभी चौंक गये। शाहजी के उठे बगैर तो कोई दस्तरख्वान से उठता नहीं! अख़्तरी बेगम व्यंग्य से मुस्कुरा रही थीं। कोई तो है जो बड़ी को पछाड़ने आई है। महसूसहुआफूफीको कि मौसम में गर्माहट आ गई है। एकाएकशहनाज़ बेग़म को अपने एकछत्रसाम्राज्यमें किसी का दख़ल नज़र आया। बग़ैरकिसीओर देखे शहनाज़ अपनेकमरे में चली गईं। हमेशाखिलखिलातेहुए शाहजी के मुँह में पान का बीड़ा खिलानेवाली शहनाज़ बेग़म ने अपने कमरे से शाहजी के लिए पान भिजवाया। निक़हत ने हैरत से फूफी की ओर देखा, मानोकह रही हो कि बस अब तूफान आने ही वाला है। शाहजी उसी समय बड़ी बेग़म के कमरे में प्रविष्ट हुए।
ताहिरा अपने कमरे में अकेली लेटी थी, निक़हत ने ख़बर दी थी कि आज चचाजान बड़ी चची के कमरे में सोयेंगे।
"तुम्हें कैसे पता निक़हत?" फूफी ने बेजान आवाज़ से पूछा, "चचाजान बड़ी चची का खूब ध्यान रखते हैं। उनके चेहरे पर उदासी की एक लकीर नहीं देख सकते। जब भी बड़ी चची नाराज़ हुई हैं, चचा जान यूँ ही पीछे-पीछे डोले हैं।"
फूफीरात भर जागती रहीं, हवेली के भेद परत-दर-परत खुल रहे थे। एक चम्मच रबड़ी मुँह में खिलाना आफत बन गया था। रात को वे ताहिरा को देखने गई थीं। घुटनों को सीने से लगाए वह सो रही थी। कितनी मासूम है ताहिरा, सोचतीरहीं वे। साँसों के उतार चढ़ाव से बालों की वेणी हिल रही थी। यह लड़की जो उनके एक बार कहने मात्र से दो सौतनों के नीचे इस घर में आने को तैयार हो गई थी। जाने कितने अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती हैं वे। आज शादी हुए आठ दिन हुए हैं और बच्ची अकेली सो रही है। क्यागलती हुई उनसे वे एक पति भी इस लड़की को ऐसा न दे पाईं, जो सिर्फ़ उसका होता। ...अभी तो वह बच्ची ही है और उसमें विरोध करने की शक्ति भी नहीं, वरना क्या कोई लड़की सिर पर बैठी सौतनों को बर्दाश्त कर सकती थी? क्या कभी ताहिरा उन्हें माफ कर पाएगी? सोचते हुए उन्होंने ताहिरा को चादर ओढ़ा दी, वह कुनमुनाई और चादर को सीने तक खींच कर पाँव पसार लिए।
फूफी वापिस लौटीं तो जागती ही रहीं। ताहिरा का ऐसा खिला रूप...भला कौन उससे शादी को इन्कार कर सकता था। भाभी तो इस निक़ाह के लिए ज़रा भर तैयार ही नहींथीं। नूरा-शकूराऔर उनकी दुल्हनें तो सिर्फ रुपया ही देख रहे थे।
क्या करें वे? नहीं! इस लड़की को उसके सम्पूर्ण हक़ वे दिलवाकर ही रहेंगी। हम ग़रीब हैं तो क्या! शाहजी को कोई अमीर घराने की तो मिलती नहीं, उम्र और दो-दो औरतें पहले से तैनात देखकर कौन अमीर घराना अपनी बेटी ब्याहता इनसे? इस्लाम में चार-शादियाँ जायज़ हैं...लेकिन वे किन्ही खास परिस्थितियों में। ...अब मुसलमान इतने दकियानूस भी नहीं रहे कि वही पुराना ढोल पीटते रहें। हर कोई औलाद का सुख चाहता है। अब ये सब बातें किताबी हैं, वे उठकर बैठ गईं। साँस घुट रही थी। नींद कोसों दूर थी...क्या कहें शहनाज़ बेगम से कि शाहजी सिर्फ ताहिरा के हैं...क्यों दिल में उफान उठ रहा है? जितना हक शाहजी पर ताहिरा का है उतना ही शहनाज़ बेग़म का...फिर वे उनके कमरे में सोए हैं, तो क्यों वे उद्विग्न हैं? यह तो होगा ही। बँटा-बँटा प्यार और बँटी-बँटी चाहतें। हमेशा यह सहना होगा ताहिरा को...हमेशा...हमेशा। सुबह की पहली किरन भी धरती पर नहीं आई होगी तभी फूफीकी आँख लगी और निक़हत जगाने पहुँच गई।
फिर वही दिनचर्या शुरू थी। ताहिरा नहाकर तैयार थी और अस्माँ उसे सजा रही थी। फूफी भी तैयार होकर ताहिरा के कमरे में पहुँच गईं और ताहिरा के साथ-साथ नाश्ते के लिए बड़े हॉल में।
शहनाज़ बेग़म कुछ अधिक चहक रही थीं। विदेशी साटन का गुलाबी कुर्ता और शरारा पहने थीं। हाथ में जड़ाऊ कंगन, वैसा ही हार, कान में झूलते बुंदे, भर-भर हाथ मेंगुलाबी चूड़ियाँ। शहनाज़ बेग़म ने मानो हिकारत से दोनों छोटी बेग़मों की ओर देखा कि देखो इस उम्र में भी दम-खम रखती हूँ अपने पति को लुभाए रखने का।
शाहजी ने चोर नज़रों से ताहिरा की ओर देखा और निगाहें झुका लीं...जैसे अपराधी हों। ताहिराहमेशा की तरह चुप और खोई-खोई बल्कि उदास भी। उससे कुछ खाया नहीं जा रहा था और वह एक-एक निवाला टूँग रही थी। कोईकिसी से कुछ नहीं कह रहा था। बस शहनाज़ बेगम ही बोल रही थीं-"आज ही जाना है हमें रामप्रसाद जी की तरफ। इस बार फिर से आमों का ठेका चाह रहे हैं। देखा है न हमारा आमों का बगीचा, बौर से लदा पड़ा है, इस बार दुगुनी फसल होगी।" शाहजीअनमनस्क से 'हूँ' 'हाँ' किये जा रहे थे, सारा कुछ बोलकर शहनाज़ बेगम बोलीं-"अरी मुमताज़! यादव जी आए नहीं?"
"आ गए हैं बड़ी बेगम।"
"उन्हें नाश्ता दे आ और सुन, गाड़ीतैयार करने को कहना। मैं अभी रामप्रसाद जी की तरफ जाऊँगी। आप मेरे साथ चल रहे हैं शाहजी?"
"नहीं बेगम, आप ही तो सदा ठेका देती आ रही हैं। आप हो जाइए। मुझे काम है।"
नाश्ते पर से सभी उठे, ताहिरा अदब से शहनाज़ बेगम के समक्ष झुकी और हमेशा की तरह अपने कमरे में जाने की इजाज़त माँगी। कनखियों से शाहजी की ओर देखा और अस्मांके साथ अपने कमरे की ओर चल पड़ी।
"देखिए! रेहाना बेगम, मैं तो अभी जा रही हूँ। आज गुलनार आपा भी शाहजी के साथ कारखाना जायेंगी। आज ही अरब देश से हमारा माल आ रहा है। सो शाहजी शायद दुपहर के खाने पर नहीं अ सकेंगे। आप अब्दुल्ला से कहकर अपनी देख-रेख में खाना बनवा लीजियेगा। अख़्तरी बेगम तो किसी काम की नहीं हैं। ...ध्यान रखिएगा, शाहजी सलीका पसंद हैं। ड्राइवर के हाथ शाहजी और आपा का खाना भिजवा दीजिएगा। हमें भी लौटते में शाम हो जाएगी, आप सब दुपहर का खाना खा लें।"
तख़त पर रखी चाँदी की बड़ी-सी ट्रे में ढेरों पान लगाकर शहनाज़ बेग़म रख रही थीं। मुमताज़ जल्दी-जल्दी चाँदी के डिब्बों में पान के बीड़ा बनाकर रखती जा रही थी। एक पान का डिब्बा शाहजी के ड्राइवर मामू को देती हुई वे बोलीं-"ठीक पौन बजे आकर खाना ले जाना। एक बजे शाहजी खाना खाते हैं।" हर बार शहनाज़ बेगम एक ही बात को बोलती थीं जबकि सभी को मालूम था कि शाहजी एक बजे खाना खाते हैं। "
"अरी अस्मां, कहाँ मर गई?" वे चिल्ला रही थीं, "कहाँ हैं मेरी जूतियाँ?" अस्मां भागकर कपड़ों के रंग की सुनहले तारों से बुनी उनकी जूतियाँ ले आई और उन्हें पहनाने लगी। मुमताज़उन्हें बुरका पहनाने लगी। अस्मांने पान का डिब्बा, पानी की बोतल कार में रखी और बड़ी बेगम के बाजू में जा बैठी। कार चल दी।
निक़हत ने ज़ोरों से साँस ली और हँस पड़ी, "कहीं भी जाती हैं चाची तो ऐसे ही तूफान मचा देती हैं।" और फिर वह भाग गई ताहिरा के कमरे की तरफ।
देर रात शाहजी के साथ शहनाज़ बेगम ने खिलखिलाते हुए प्रवेश किया। निक़हत के कहने से सभी ने खाना खा लिया था। शाहजी फिर बड़ी बेगम के कमरे में चले गए थे। फूफी ताहिरा के पास लेटी थीं। आज ताहिरा बहुत संजीदा थी, देह भी उसकी गरम हो रही थी। 'शायद बुखार आएगा,' सोचा फूफी ने और अपना हाथ ताहिरा के माथे पर रख दिया। "आप छोटी चाची के पास ही सो जाइए फूफी" निक़हत आकर कह गई थी।
फूफी धीमे-धीमे ताहिरा को थपकियाँ देने लगीं, ताहिरा सो गई। रात उसने पानी माँगा तो उन्होंने देखा कि उसे तेज़ बुखार है। अब किसे जगाएँ वे इतनी रात को? वे सुबह होने का इंतज़ार करने लगीं। रात को कई बार ताहिरा जागी और फूफी भी जागीं, यूँ भी इस घर की राजनीति को देखकर उनकी नींद उड़ हीगई थी। रोज ही वे देर तक जागती थीं, लेकिन आज रात तो वे जागती ही रही। बुखार से या कैसे ताहिरा की आँखों में बार-बार आँसू आ जाते थे।
सुबह फूफी उठ गईं, लेकिन ताहिरा सोती रही। फूफी ने जगाया भी नहीं, जब ताहिरा की नींद खुली तो फिर देर हो चुकी थी।
निक़हत को बड़ी बेग़म ने भेजा कि ताहिरा को बुला लाओ। ताहिरा बिना नहाए लेटी थी, निक़हत के कहने से उठी और झटपट मुँह-हाथ धो आई। तैयार होते फिर आधा घंटा लगा और जब वह हॉल में पहुँची तब तक शहनाज़ बेग़म गुस्से से भर चुकी थीं।
ताहिरा को आया देखकर तुरन्त फूफी के समक्ष जा खड़ी हुईं, "देखिये रेहाना बेगम, ताहिरा को इस घर के तौर-तरीके मालूम होते जा रहे हैं, फिर इस देर का मतलब?" फूफी ख़ामोश खड़ी रहीं, मुँह कड़वाहट से कसैला हो गया, बहुत कुछ कहना चाहा...पर चुप रहीं। दस्तरख्वानपर बैठते हुए शाहजी ने शांत स्वर में कहा-"ऐसे नाराज़ नहीं होइए बेग़म, अभी नई हैं छोटी बेग़म, धीमे-धीमे सब समझ जायेंगी।" शहनाज़ बेग़म पुनः भड़कीं-" कल से समय पर अ जाएँ ताहिरा...ताहिराके समय से घर नहीं चलेगा, उन्हें इस घर के अनुसार चलना होगा। डब...डब...ताहिरा की आँखें भर आईं, बुखार से चेहरा लाल हो रहा था। चाहकर भीफूफी नहीं बता पाईं कि ताहिरा रात भर बुखार मेंतपती रही थी।
दिन भर ताहिरा उदास, गुमसुम-सी पलंग पर टिकी बैठी रही। निक़हत आई, फूफी आई, लेकिन उसने किसी से बात नहीं की। यदिफूफी न होतीं यहाँ तो? कौन था देखने वाला? तेज़ बुखार में वह रोने लगी। कहाँ थीं खुशियाँ? क्या इसी को कहते हैं जीवन? भाइयों की खुशियों के लिये ज़िबह होती वह। एक उम्रदराज़व्यक्तिसे निक़ाह, अम्मी की उम्र की सौतनें। यूँ भी उसके अंदर किसी का विरोध करने की क्षमता ही कहाँ थी? फूफीसे कितनी उम्मीदें थी उसकी, फूफी ही उसके जज़्बातों को समझ सकती थीं...लेकिन उन्होंने भी ऐन समय कुछ न समझने का दिखावा किया। आँखों से आँसू बह चले और गालों पर लुढ़कने लगे। ...सामनेफैयाज़खड़ा था...वह आखिरी मुलाक़ात। देहतो कर्त्तव्य की बेदी पर बलि चढ़ चुकी लेकिन दिल वह कभी किसी को नहीं देगी। वह तो फैयाज़ का है और रहेगा। इस पर मनमानी नहीं चल सकती। एक चीज़ तो उसकी है जिस पर सिर्फ उसका अधिकार है। ...सारे अरमान, सब कुछ ग़रीबी में स्वाहा हो गए... दिल फैयाज़ को दिया है...उसका है...रहेगा। मुझेक्यामिला? मैं क्यों मन पर दूसरों का हक़ मानूँ? नहीं, यह पाप नहीं है...क़तई पाप नहीं है...क्यामेरे साथ पाप नै हुआ? सब कुछ जानते हुए मुझे इधर नहीं ब्याह दिया गया? मुस्लिम मज़हब में तो लड़की की भी अनुमति निक़ाह के समय ली जाती है। तब वह फैयाज़ की जुदाई के आँसू बहा रही थी...सिसकी को उसकी 'हाँ' समझा गया और कहा गया कि "निक़ाह कबूलकर लिया है।" वह बेसाख्ता रो पड़ी, दोनों घुटनों के बीच सिर घुसाए वह सिसक रही थी, तभी पीठ पर वात्सल्य भरा हाथ पड़ा।
"नहीं, मेरे बच्चे, रोते नहीं हैं" फूफी ने उतनी ही वेदना से कहा, उनका हृदय दुख और पीड़ा से काँप रहा था।
"मैं तेरा दुख समझती हूँ मेरी बच्ची, लेकिन अब तो यही है तेरा घर, औरत का दूसरा नाम है सहन करना, तुझेभी यह सब सहन करना ही होगा।"
"फूफी" बहुत कुछ कहनाचाहा ताहिरा ने लेकिनचुप रही और उनकी गोद में सिर डालकर फफक कर रो पड़ी-"फूफी, मुझे अम्मी के पास जाना है।"
"हाँ! बेटी, ज़रूर चलेंगे, लेकिन यहाँ के रीति रिवाज़ों के अनुसार। ...जब शाहजी का हुक्म होगा तभी जायेंगे," वे बहुत देर तक ताहिरा की पीठ सहलाती रहीं।
"फूफी, फैयाज़ में क्या बुराई थी? वह ग़रीब था, सिर्फ यही न, लेकिन होता तो मेरा ही! ...बँटा-बँटा तो नहीं न।" ताहिरा को फिर बुखार आ गया था, वह बड़बड़ारही थी...फूफी काँप उठीं...अनर्थ न कर बेटी, दीवारों के भी कान होते हैं...उसका यहाँ नाम न ले, कभी उसका यहाँ नाम न लेना बेटी।
शाम गहरा चुकी थी और रात का साया शाम को अपने आगोश में दबोच रहा था, फूफी ताहिरा को अपने से लिपटाए बैठी थीं। एक की ज़िंदगी के सारे सुनहले वर्ष दुख, अपमान, तिरस्कार ज़िल्लतों में बीते थे और यह ताहिरा 'उसघर' की दूसरी लड़की। नहीं, वे ताहिरा को कतई उदास न होने देंगी...उसे उसके हक़, प्यार, सभी कुछ इस ख़ानदान में मिलके रहेंगे, बार-बार अख़्तरीबेग़म का चेहरा सामने आ रहा था-'कितने में खरीद लाई बड़ी इस फूल जैसी बच्ची को?' "नहीं ऽऽऽऽऽ" चीख पड़ने को दिल हुआ उनका।
'फिर कभी शाहजी ने मँझली बेग़म की तरफ रुख नहीं किया' शांताबाई के शब्द कोड़े की तरह लगे, 'अरे कोई महीने भर में किसी केहमल ठहर जाता है, क्या यह ज़रूरी है?'
निक़हत भागती हुई आई, "आप दोनों दादाजान के कमरे में फ़ौरन पहुँच जाएँ," कहती हुई तुरन्त लौट गई। 'या ख़ुदा...कुछ अनर्थ तो नहीं हो गया,' फूफी ने सोचा अभी तो मेरी बच्ची के मुबारक क़दम पड़े हैं इस घर में। सारीकडुवाहटसे मेरी बच्ची को बचाना खुदा! ...उन्होंने ताहिरा को झटपट खड़ा किया और दोनों वालिद साहब के कमरे की तरफ चल पड़ीं।
वालिदसाहब के कमरे में डॉक्टर, नर्स, मौजूद थे। उन्हें मुँह पर ऑक्सीजन का मास्क लगाया गया था और बोतल से ग्लूकोज़ उन्हें चढ़ाया जा रहा था। शाहजी पास ही खड़े थे। शहनाज़ बेग़म और गुलनार आपा सोफेनुमा कुर्सियों पर बैठीं थीं, अख़्तरी बेग़म दीवार से टिकी खड़ी थीं। ताहिरा भी जाकर दीवार से टिककर खड़ी हो गई। बुख़ार की कमज़ोरी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी, टाँगें काँप रही थीं उसकी। मुमताज़ने कुर्सी फूफी की ओर सरका दी, वे शहनाज़ बेग़म के पास ख़ामोश बैठ गईं। नौकर, नौकरानियोंऔर दोनों ड्राइवरों का जमघट था वहाँ। फूफी खुदा से दुआ कर रही थीं...कुछ अनर्थ न हो वरना ताहिरा को अपशकुनी माना जाएगा। हालाँकि वालिद साहब की उम्र ही ऐसी थी...लेकिनकौन मानेगा इसे?
अख़्तरी बेग़म अधिक देर खड़ी या बैठी न रहने की वजह से लौट गईं, तो शहनाज़ बेग़म बड़बड़ाने लगीं-"सब नाटक है, दिन भर पड़ी ही तो रहती हैं अख़्तरी बेग़म और काम ही क्या है? इधर वालिद साहब की जान पर बनी है, उन्हें आराम की सूझ रही है।"
शाहजीने उन्हें चुप रहने का इशारा किया। वे स्वयं दूसरी कुर्सी पर बैठ गए उनके पीछे ताहिरा भी बैठ गई।
क़रीबतीन घंटे की भाग दौड़ केपश्चात् डॉक्टर ने कहा कि अब वालिद साहब खतरे से बाहर हैं। फूफी ने खुदा का शुक्रिया अदा किया। नर्स और अस्मां को वहीँ छोड़कर सभी लौट गए। शहनाज़ बेग़म ने बड़ी बेबाकी से शाहजी का हाथ पकड़ा और अपने कमरे की तरफ बढ़ गईं, ...फूफी को हैरानी हुई... ताहिराथके क़दमों से अपने कमरे की तरफ लौट गई।