ख्वाबों के पैरहन / भाग 6 / प्रमिला वर्मा
नूराकहता है कि वह फूफी का बेटा है। रन्नी को भी नूरा से कुछ अधिक ही प्यार है। वर्षों बाद सूने घर में किलकारियाँ गूँजी थीं। रन्नीकी खुशी का तो कहना ही क्या? उसने अपनी पुरानीरेशमी साड़ी में रुई भरकर, महीन काथा वर्क के डोरे डाले। इतनी प्यारी नन्ही-सी रज़ाई बनाईथी कि खिलौने बनाते अम्मी मुस्कुरा पड़ी थीं।
'रन्नी की बच्चे की साध मानो हुलसकरसामने आई थी' लेकिन दूसरे ही पल अम्मी उदास भी हो गई-'या अल्लाह! मेरी रन्नी को निपूता रखने का सबब? क्याहमसे कोई गुनाह हुआ?' कुछ रोज़ पहले अम्मी के कानों तक यह ख़बर फुसफुसाहट बनकर पहुँची थी कि रन्नी का पति नपुंसक था, औलाद पैदा करने लायक न था। अम्मी अचंभे से अवाक़ थीं...उन्हें तो यही पता था कि रन्नी के पति की पहली बीवी प्रसव पीड़ा में मरी थी।
'अरे, सब धोखाधड़ी की बातें हैं आपा जान! कहाँ की जचकी! पहली मरी खाँसते-खाँसते तपेदिक से...दहेज़ के भूखे थे माँ-बेटे दोनों।' ख़बर लाने वाली अम्मी की सहेलीफातिमा बी ने कहा तो अम्मी के कलेजे को सुकून मिला। यूँ भी उनका कलेजा कबूतर जैसा बात-बात में सहम जाता था। अपनी आँखों खानदान की तबाही देखी थी, मौतें देखी थीं। छटाक भर का कलेजा कहाँ तक ताक़त बटोरता जो सुकून बाँटती सबको।
'छोड़ोबी! पोते की मुबारकबाद लो! जैसेई खबर मिली हम तो दौड़े आये।'
'अरेदुल्हन...बेटे को ले आओ... खाला आईं हैं तुम्हारी,' अम्मी ने आवाज़ दी, तब तक रन्नी रकाबी में बताशे और चाय का कप ले आई।
'लो बी, मूँ मीठा करो। ...'
'ऐ लो, बताशे से टरका रही हो। ...हम तो फीरनी, शीर-कोरमे कीउम्मीद किये बैठे थे।' फातिमा बी ने रन्नी की तरफ़ एक आँख मिचकाते हुए जुमला कसा।
'अय हड़बड़ाती क्यों हो, तसल्ली रखो, ...पोते के आगे फीरनी, शीर-कोरमा क्या चीज़!'
नूरा को गोद में लेकर भाभी सिर पर पल्लू डालकर आईं। गुलाबी किनारेदार आँचल से ढँकी और अफ़्शां से भरी उनकी माँग नूर बिखेर रही थी, फ़ातिमा बी ने दुआएँ दीं 'जीती रहो, आबाद रहो।' और लम्बी कुर्ती की जेबसेचाँदी का एक सिक्का टटोल कर नूरे को नज़र किया। अम्मी गद्गद् हो गईं। फ़ातिमा बी हंसोड़ तबीयत की इंसान थीं...बताशे चाय की मिठास से तंग आ फिर फिरकी ली-'मूँ खुजाने लगा मिठास से...नमकीन नहीं मँगवाओगी?'
'लो, खाली पेट चली आईं पोता देखने? ऐ रन्नी, बरनी में मसाले वाली मूंगफलियाँ तो देख, ले आ रक़ाबी में रख अपनी खाला के लिए।' दोनों हँस पड़ीं। अम्मी ने पानदान खींचकर पान की गिलौरियाँ लगानी शुरू कर दीं।
नूरा के दस महीने का होते-होते भाभी के पेट में शकूरा आ गया। रन्नी तो नूरा के लालन-पालन में अपने सब दर्द भूल चुकी थी। नूरा की हँसी उसके लिए ज़न्नत के ख्वाब सादृश थी...उसका रोना, किलकना सब उसे विभिन्न मनोभावों से भर देता। और फिर शकूराकेपैदाहोते ही मानो नूरा रन्नी की झोली में आ गिरा। भूल गईं रन्नी कि नूरा भाई की औलाद है। नूराभी अपनी फूफी का लम्बा कुरता पकड़कर घिसटता रहता। एकलकड़ी की बनी गाड़ी भाईजान खरीदकर लाये पर नूरा उसको पकड़कर चलता तब भी 'धम्म' से गिर पड़ता। मारे फिकर के रन्नी को रात भर नींद नहीं आती। आँखें बंद करती तो नूरा के नन्हे-नन्हे पाँव आँखों में आ जाते। पौने दो साल का बच्चा और चल नहीं पा रहा। अम्मी के साथ वे नूरा को लेकर हकीम के पास गईं। शहद में दवा चटातीं और दवाई वाले तेल से रोज़ उसके पैरों की दो बार मालिश करतीं। ऐसा नहीं था कि वे सिर्फ नूरा पर अपनी जान लुटातीं, शकूरा भी उनको उतना ही प्रिय था, लेकिन नूरा की देखभाल करते उन्हें शकूरा के लिए समय नहीं मिल पाता। इधर भाभी जान शकूरा की परवरिश में जुटी रहतीं। रन्नी की अथाह मेहनत, दुआ काम आई। नूरा के पैरों में शक्ति आई और वह खड़ा होने लगा। रन्नी छुपकर खुशी में रो पड़ी। देखते-देखते शकूरा के साथ नूरा भी दौड़ने लगा। दोनों भाई, सुंदर-सजीले, आँगन में निम्बोलियाँ बटोरते और कभी मुँह में रख लेते तो कड़वाहट से रोने लगते। इधर नूरा दौड़ा उधर अम्मी जान आँगन में गिरीं, तो फिर उठी नहीं। हक़ीम का इलाज चला, रन्नी जी-जान से अम्मी की सेवा-टहल में लग गई। मालिश के तेल से पैरों की मालिश करती, फिटकरी के पानी में पैर सेंकती, लेकिन उम्र दराज़ बदन चलने लायक नहीं हुआ। न जाने अम्मी को कौन-सा रोग लग गया कि हक़ीम साहब भी निदान नहीं कर पा रहे थे। हर तीसरे दिन दवा बदली जाती। रन्नी अपने हाथों से शहद में दवा चटाती तो अम्मी बच्चों जैसा बिलखने लगतीं 'रहने दो रन्नी, अब यह शरीर अच्छा न होगा। मैं तुम्हारे अब्बा का पास जाऊँगी। वहाँ अल्लाह भी होंगे उनसे जवाब तलब करूँगी कि मेरी रन्नी की झोली में खुशियाँ डालना क्यों भूल गया?'
रन्नी रोने लगी-'अम्मी एक तुम ही तो हो...ऐसा न कहो, औलाद के सिर पर माँ-बाप का साया बना रहे। अम्मी चुप हो जाओ।' ...दोनों रोती रहीं, अम्मी अपने दुपट्टे से, रन्नी अपने दुपट्टे से एक दूसरे के आँसू पोंछती रहीं।
अँधेरा घिर आया था और सांय-सांय हवा चल रही थी। नीम का पेड़ हवा में आधा झुका जा रहा था। खिड़की-दरवाज़े बंद करने के बावजूद भी पूरा घर मिट्टी-धूल से भर गया था। अम्मी खाँस रहीं थीं, खाँसी का मानो अटैक आ गया था। भाईजान घर में नहीं थे, रन्नी घबरा रही थी, अम्मी की पीठ सहला रही थी, घबराहट में उन्होंने रात की दवा शाम को ही अम्मी को चटा दी। बिजली कड़की, तूफानी बारिश शुरू हो गई और इधर अम्मी को फिर खाँसी का दौरा पड़ा। नूरा-शकूरा भाभी-जान की गोद में सिर छिपाए नींद में उनींदे हो रहे थे।
'क्या करूँ भाभी, कब आयेंगे भाईजान? ...हक़ीम साहब को बुलाना होगा, अम्मी की हालत बिगड़ती ही जा रही है।'
'कहीं बारिश में फँस गए होंगे वरनासरेशाम तो घर आ जाते हैं,' भाभी भी कम चिन्तित नहीं थीं।
'रन्नी,' अम्मी ने मिचमिचाती आँखों से उसकी ओर देखा, 'बेटा, तेरीभारी फ़िकर लेकर जाऊँगी। क्याकोई नहीं है ऐसा मर्द जो मेरीजवान बेवा लड़की का हाथ थाम ले, सोने जैसी मेरी बेटी। ...' अम्मी ने रन्नी का हाथ पकड़ लिया और बिलखने लगीं। ऐसा कभी नहीं हुआ था। कभी अम्मी इतनी कमज़ोर नहीं पड़ी। छुप-छुप कर, पोटलीबगल में छुपाकर स्वतंत्रता सेनानियों को खाना पहुँचाती रहीं, क्या वैसी बहादुर अम्मी इतनी कमज़ोर हो सकती हैं? अब्बू की मौत उन्होंने आँखों के सामने देखी थी, धन को विदा होते देखा था, फिर अम्मी रन्नी के लिए इतना क्यों रो रही हैं?
अम्मी मानो अपनी बेटी के दिल के भावों को ताड़ गईं।
'बेटा, औलाद से बढ़कर कोई नहीं होता, औलाद की पीड़ा, माँ-बाप की पीड़ा होती है।' रन्नी हैरान थी, यूँ कैसे जान गईंअम्मी उसके दिल की उथल-पुथल। फिरबिजली कड़की और अम्मी के हाथ ने रन्नी का हाथ छोड़ दिया। रन्नी चीख पड़ी...'भाभी...भाईजान।'
एकदम तभी दरवाज़ा खटका। ...रन्नी ने दरवाज़ा खोला तो भाईजान भीगे खड़े थे, वह लिपट गई भाईजान से।
'देखो तो भाईजान, अम्मी।' ...भाईजान को देखते ही उसके सब्र का बाँध टूट गया। वह बिलखकर रो पड़ी।
'क्या हुआ अम्मी को?' वह भागे अम्मी के पास। हाथ टटोला, शरीर में गरमाई महसूस हुई। वे वैसे ही भागे हक़ीम जी को लिवाने। दरवाज़े से निकलते ही ज़ोरों से बिजली कड़की मानो आसमान फट गया हो भाभी चीखीं-'मेरे परवरदिगार रहम कर...वे बाहर गए हैं...रहम कर...' वे भी रो पड़ीं। रन्नी को कुछ नहीं सूझा वह अम्मी की पीठ मलने लगी। अम्मी कुनमुनाईं, आँखेंखोलीं। ऊपर-छप्पर की तरफ देखते हुए बुदबुदाईं-'आ रही हूँ। कितनेसाल हो गए तुम्हें बाट जोहते।' ज़बान लड़खड़ाने लगी, दो बार हिचकी आई और अम्मी ने असीम शांति से आँखें बंद कीं। बिलकुलउसी समय नीम की मोटी शाख टूटकर पेड़ से झूल गई। फिर बिजली कड़की, ऐसा लगा कहीं दूर बिजली गिरी है। उन्हें क्या मालूम था बिजलीउनकेघर पर ही गिरी है? दरवाज़ा खटका, भाईजान हक़ीम साहब को लेकर आए थे। भाभी टाट के पर्दे की ओट हो गईं। हक़ीम साहब ने नब्ज़ टटोली, फिर हाथ छोड़ दिया। सिर हिलाया और रन्नी दहाड़ कर रो पड़ी।
भाईजान ने बहन को बाँहों में समेट लिया। बहन का हृदयविदारक रोना देखकर वे अपना दुख भूल गए, दीवाल से सटाकर रन्नी को बिठा दिया। जब हक़ीम साहब को लेकर भाईजान बाहर निकले तब उन्होंने देखा आसमानसाफ था और रह-रहकर बिना आवाज़ के बिजली चमक जाती थी।
भाभीजान में गज़ब की फुर्ती आ गई। सामने के कमरे का सारा सामान उन्होंने उठाकर अंदर रख दिया। कमराएकदम खाली किया। उसमें चादर दरियाँ बिछा दीं। आस-पड़ोस के लोग आने लगे। अम्मी को उठाकर बाहर के कमरे में लाया गया। अम्मी को देखकर एक बार फिर रन्नी चीखकर रोई और उनसे लिपट गई। बड़ी मुश्किल से भाईजान ने अम्मी की देह से रन्नी को अलग किया।
सुबह-सुबह अम्मी की सहेली फातिमा बी आ पहुँची। छाती पर दोहत्तड़ मार कर रोईं, फिररन्नी को लिपटा लिया। ... 'खाला' ।
'हाँ बेटी, तेरा दुख लेकर गई है तेरी अम्मी।'
दोनोंफूट-फूट कर रोती रहीं। औरतें अंदर कमरे में बैठ गईं थीं और मर्दों को खड़े होने की जगह नहीं थी। बाहर पानी भरा था और नीम की डाली टूटने से चारों ओर नीम की लकड़ियाँ, पत्तियाँ, डंडियाँ बिखरी पड़ी थीं। सारा घर कीचड़ से भरा जा रहा था। जब अम्मी की अंतिम यात्रा शुरू हुई तब हवा में नमी और ठंडक थी। बरसों हो गए थे उन लोगों को इसमुहल्ले में रहते, सारी गली इकट्ठी थी, भीड़ से भरी हुई थी। रन्नी दूर तक अम्मी के जनाज़े के साथ दौड़ी। ...गली के छोटे-छोटे लड़कों ने अपनी रन्नी आपा, अपनी रन्नी फूफी को हाथों से पकड़ लिया और फिर उन्हें घर ले आए।
आँगन झाड़ते रन्नी रो रही थी। कैसा कहर बरपा था उस रात? नहीं वे अब इस घर में नहीं रहेंगी। हर कोने में अम्मी की याद है, हवा में गूँजती उनकी आवाज़ है। बदल देंगे वे लोग इस घर को। ...भाईजान से जब रन्नी ने कहा तो वे हैरत से बहन की ओर देखते रहे।
वह सोच रही थी क्यों इंसान यादों से दूर भागता है? क्या यादें इतनी डरावनी होती हैं? ...अभी तो अम्मी मरी हैं, फिर उनकी यादें मरेंगी। शनै: शनै: उनकी एक-एक चीज़ तितर-बितर होगी, सामान बाँटा जाएगा और फिर सम्पूर्ण रूप से अम्मीमर जायेंगी। वह दोनों घुटनों के बीच मुँह छुपाकर रो पड़ी। एक नन्हा-सा दुलार भरा हाथ उसकी पीठ सहला रहा था। वह चौंक पड़ी देखा नूरा का नन्हा हाथ उसकी पीठ पर था। सामने भाईजान खड़े थे, बोले-'सँभालो रन्नी अपने को, जाने वाला वापिस नहीं आता, हम शीघ्र ही यह मकान छोड़ देंगे, ...दसवाँ कर लें।'
रन्नीचौंकउठी, ...हफ़्ता भर हो गया अम्मी को गये और उसे होश नहीं कि नूरा कहाँ है? शकूरा कहाँ है? उसने ज़ोरों से नूरा को भींच लिया। शकूरा भी दौड़ता आया और उसकी गोद में बैठ गया। शकूरा को गोद में लिया, नूरा की उँगली पकड़ी और घर के अंदर चली गई। भाईजानने देखा कि आज सातवें दिन बहन ने बच्चों की तरफ देखा है। आज रात उसने खाना भी खाया। ...रन्नी की देह पीलीपड़ गई थी, कब किसने उसे दो-चार निवालेखिलाया होगा याद नहीं।
अम्मी का सामान समेटते हुए वह रोए जा रही थी। चादरें, तकिया, कथड़ी, चारपाई जमादार को दे दिया गया था। कथड़ी में अभी भी अम्मी की गंध थी, वह रो पड़ी। बड़े ड्रम में चौके का सामान भर दिया गया था, बाकी सामान अलग-अलग बक्सों में। दूसरेमकानमें जाने के बाद अम्मी की यादें भी मानो दूर कहीं विलुप्त हो जायेंगी। भाईजान ने बताया था शहर से चार किलोमीटर दूर मकान है। आसपास कोई बस्ती नहीं है, पीछे कई सौ एकड़ में फैला हुआ आम का बगीचा है। पड़ोस में एक पेट्रोल पंप है। सामने सड़क पार खेत ही खेत हैं, जिनमें उड़द मूँग और चावल की खेती होती है, सब्ज़ियाँ उगाई जाती हैं। खेतों को पार करो तो साफ पानी का पहाड़ी नाला है। एक बड़े मकान की नींव खुदी पड़ी है और वहीँ पर पेट्रोल पंप के मालिक अहमदभाई का ईंटों का भट्टा है। दिनभरमज़दूर रहते हैं और शाम ढलते ही वहाँ खामोशी छा जाती है। मज़दूर भी रोज़ नहीं आते, ऑर्डर पर ही ईंट बनाई जाती है। पेट्रोल पंप से लगा एक छोटा-सा क्वॉर्टर है जहाँ पेट्रोल पंप और ज़मीन की देख रेख के लिए जाकिर भाई परिवार समेत रहते हैं। उनकी दो लड़कियाँ हैं-बड़ी सज्जो पाँच साल की, छुटकी तीन साल की। जाक़िर भाई की पत्नी ने अपने क्वॉर्टर के पिछवाड़े खूब सब्ज़ी लगाई है और उसी की देख-भाल में उसका सारा दिन निकल जाता है।
रन्नी को मकान बेहद पसंद आया था। गली की तमाम भीड़भाड़ और गंदगी से राहत मिली थी। खुले आसमान के नीचे रन्नी खिल उठी थी। यहाँ खिलौनों के लिए भरपूर मिट्टी उपलब्ध थी। सामने खेत और पीछे अमराई देखकर उसका मन मचल उठा। उसी दिन वह ज़ाकिर भाई की पत्नी के साथ पहाड़ी नाले तक हो आई। घंटों पानी में पैर डाले वे डूबते सूरज को देखती रहीं, डूबते सूरज की लालिमा उसके गोरेगालों को गुलाबी बना गई। ज़ाकिर भाई की पत्नी ने निहारा-'इतना सौन्दर्य और इतने गरीब खानदान में' लौटते हुए उसने ढेरों पीले, सफेद फूल तोड़े। हाथ में गुच्छालिये अहाते में प्रवेश किया कि देखा एक तीस-पैंतीसवर्ष के आसपास का खूबसूरत नौजवान उन्हें चाहत की निगाह से देख रहा है। वहअकबका गई। हाथ से फूलों का गुच्छा गिर गया। नाक और माथे पर पसीना चुहचुहाया। वहभागी और सीधे घर के अंदर। ...कैसी अनुभूति हुई कि बड़ी देर तक सामान्य ही नहीं हुई। ...उसने भाभी से कहा कि चाय बना लो और नूरा-शकूरा को पास बुलाकर प्यार करती रही। हाथ काँपते रहे और आँखों के समक्ष वही नौजवान। ...चाय आई तो वह जल्दी से पी गई, भाभी उसकी असामान्य हरक़त आश्चर्य से देखती रह गईं।
सुबह भाईजान और वह खुदी हुई नींव के पास जा पहुँचे और मिट्टी ढोते रहे। दुपहर के समय मिट्टी छानकर सानी गई और फिर तीनों मिलकर साँचों में गुड्डे, गुड़िया, तोता, चिड़िया, हठी घोड़ा बनाने लगे। ज़ाकिर भाई की पत्नी को बड़ा मजा आया। उसने पहली बार खिलौने बनते देखे थे, वह भी साँचा उठाकर बनाने लग़ी। खिलौने 72 घंटे सूखते थे, फिर उन पर रंगबिरंगा पॉलिश किया जाता था।
शाम को फिर रन्नी ज़ाकिर भाई की पत्नी, जिसे अब वह आपा कहने लगी थी, के साथ निकली। लेकिन खेतों के पार न जाकर आमों की अमराई देखने निकली। वह आमों की ऐसी अमराई देखकर हैरान रह गई। कतार से आम के पेड़ खड़े थे। मानो सैनिक कवायद कर रहे हों। जहाँ तक निगाह जाती थी आम ही आम। वह उमंग से दौड़ने लगी, दुपट्टा उड़ रहा था। जवानी की सारीउमंगें उसके भीतर अंगड़ाई ले रही थी। आपा पीछे छूट गई थीं। वह दौड़ रही थी, अचानक दुपट्टा उड़ा और एक पेड़ की डाल पर जाकर अटक गया। ...वह हँसती-खिलखिलाती उचक-उचक कर दुपट्टा उतारने की कोशिश करने लगी। किसी को सामने पाकर वह अचकचा उठी। वही, कल वाला नौजवान सामने था।
'लाइए, मैं उतर देता हूँ आपका दुपट्टा।' उसने कहा, वह चुपचाप खड़ी रह गई। वह उचका और दुपट्टा उसके हाथ में था। धीरे से वह उसके नज़दीक आया, दुपट्टा ओढ़ाते हुए कहा-'फुरसत में गढ़ा है आपको खुदा ने...बेहद खूबसूरत हैं आप।' वह मुड़कर चला गया।
वह ठिठकी खड़ी रही। ...तभी आपा हाँफती हुई उसके पास पहुँची और दूर जाते हुए उस पुरुष को देखते हुए बोली-'यूसुफ हैं यह, अहमद भाई के बड़े बेटे। पेट्रोल पंप, ईंट का भट्टा, आमों की अमराई, तुम्हारा मकान और ये खेत, सब कुछ इन्हीं का है। इनके घर के सभी लोग बेहद अच्छे हैं। यूसुफभाई की पत्नी का दो बरस पहले इंतकाल हो गया। सुनते हैं उसी औरत की यादों में ज़िन्दगी बिता रहे हैं। ...बहुत मुहब्बत करते थे अपनी बीवी को। ...बस, एक बेटा है जो पाँच वर्ष का है। अहमद भाई ने लाख कहा, एक से एक रिश्ते सामने लाए पर वे ना करते हैं। ये लोग तीन भाई हैं...सबसे बड़े यही हैं।'
रात में लेटी तो यादों में युसूफ खड़े थे दुपट्टा लिये, वह शरमा गई। ...न जाने क्या-क्या सोचती रही। ...कोई किसी को इतनी मुहब्बत कर सकता है कि उसी के लिए ज़िन्दगी गुज़ार दे? उसने क्या पाया? मुहब्बत? अट्टहास करने को मन हुआ। क्या होती है मुहब्बत-एक शराबी पुरुष जो सदैव लात-जूतों से बात करता था। ...जिसकी मुहब्बत सिर्फ़ रात के अँधेरों में 'रेहाना' का शरीर था। पसीने से सराबोर, हाँफता, ...शराब की गंध और छोटी-सी उम्र में कुचली-मसली जाती वह। क्यों समर्पित होती है स्त्री? ...बस इसीलिए कि वह शौहर है? ...अनिच्छा से, कुंठा से...शोषित होती रही वह। जिस व्यक्ति ने कभी उसे मुहब्बत से देखा तक नहीं।
'बहुत खूबसूरत हैं आप।'
उसने उठकर लाइट जलाई, पीलीरोशनी कमरे में फैल गई। आइना उठाकर देखा, सत्ताइस साल की उम्र में पहली बार किसी ने उसकी खूबसूरती को देखा था, सराहा था। आइना देखते वह शरमा उठी, दुपट्टा उठाकर अपना शरीर ढँक लिया और ख़ामोश लेट गई। गड्डमड्ड हो रहे थे चेहरे। वह बेवा थी। सामने पति का चेहरा, पीछे से झाँकता युसूफका चेहरा। 'नहीं रेहाना, नहीं तुम बेवा हो। ...क्या सोच रही हो?' ...क्यों 'मुहब्बत' की परिभाषा ढूँढ रही हो? तुम्हारी क़िस्मत में अब कुछ नहीं। वह ख़ामोश रोती रही, हज़ार बार निर्णय लिया कि वह इस तरफ नहीं सोचेगी, लेकिन सुबह उठी तो फिर वही हालत थी। 'बहुत खूबसूरत हैं आप।'
नूरा, शकूराको नहला कर वह खुद नहाई। खाना बनाया और ननद-भाभी दोनों बैठ गईं खिलौनों में रंग भरने। सामने अहाते में खिलौने बिखरे पड़े थे। टीन के डिब्बों में घुले हुए रंग थे और सधे हुए हाथ। ... दोनोंरंग लगाती जा रही थीं, अभी आँखें बनेंगी...नाक को शेड दिया जाएगा। बाल बनेंगे, सुनहरी रंग से चूड़ियाँ पहनाई जाएँगी, और ज़ेवर। रेहाना को चूड़ियों का बेहद शौक था, छोटी थी तभी अम्मी से ज़िद करती-'अम्मी, हरी लाल चूड़ियाँ पहनूँगी, भर-भर हाथ।' अम्मी भी हमेशा उसे चूड़ियाँ खरीद कर देतीं, लाल सुनहरी चूड़ियों से नन्हे-नन्हे हाथ खनकते रहते। ससुरालगई तब अम्मी ने हरी चूड़ियाँ भर-भर हाथ पहनवादीं और चूड़ी का एक बक्सारखाजिसमें अनेक रंगों की चूड़ियाँ थीं। कितनी ही बार, जब शौहर ने उसकी पिटाई की तो चूड़ियाँ ही टूटती रहीं। ...सब कुछ वह बर्दाश्त कर सकती थी लेकिन चूड़ियों का टूटना नहीं। ... पीठ पर झारे से पड़े नील के निशान होते लेकिन चूड़ियों के टूटने से कलाई पर चुभतेनिशान उसे ज़्यादा उद्वेलित करते। लम्बे-लम्बे रेशम से बाल, वह ढीली-सी एक चोटी करती और चोटी आगे ही रखती। ...पहनावा कितना ही सादा हो वह हमेशा खूबसूरत दिखती। सास जो काली-मोटी-पहाड़ की मानिद थी, अपनी दुल्हन को देखकर खुश होने के बजाय जलती रहती, 'लानत है ऐसी खूबसूरती पर, बाँझ औरत' ...सास हमेशा जली-कटी सुनाया करती।
'भाभी कड़ी धूप है, शाम को रंग का काम करें?'
'हाँ! ठीक है, तुम जाओ, मैं हाथ का काम करके उठूँगी,' वह अंदर आई तो देखा नूरा-शकूरा झगड़ रहे थे। एक बार पंडित काका ने कहा था-'बेटी! नूरा-शकूरा की जोड़ी राम-लक्ष्मन की लगती है।' उस दिन वे पहने भी थे पीले रंग की शर्ट, जिस पर स्वयं रन्नी ने सुनहरे धागों से कढ़ाई की थी। सचमुच आज दोनों को देखकर उसे वैसा ही लगा। गोरा रंग, तांबई बाल, बेहद प्यारे दोनों बच्चे। कोई नहीं बता सकता कि कौन छोटा है और कौन बड़ा? उसने दोनों के हाथ छुड़ाए और अपने कमरे में लेकर आ गई। ट्रंक खोला और हल्का फ़िरोज़ी सूट निकाला। थोड़े से कोयले डालकर प्रेस गरम होने रख दी। प्रेस के अंगारे चिटखने लगे... इधर रन्नी का मन। बरसों बाद सूट निकाला था। दोनों बच्चे भागे और अपनी भी शर्ट ले आए। रन्नी ने मुस्कुराते हुए शर्ट भी प्रेस किया।
शामहोने पर उसने वही सूट पहना, अपने लम्बे बालों को सुलझाया और एक ढीली चोटी गूँथी। आईने के सामने खड़ी हुई तो हैरत से अपने को देखने लगी।
पिछले छै: सात बरसों में तो शायद ही उसने इस ढंग से आइना देखा हो। सिर्फ कंघी-चोटी करते समय माँग निकालने के लिए आइना देखा करती थी। सूनी कलाइयों पर भर-भर हाथ फ़िरोज़ी चूड़ियाँ पहनने को दिल मचला। नंगा गला। 'क्या हो गया है, रेहाना तुम्हें?' वह अपने आपसे पूछने लगी। पैरों में चप्पल डालीं और ज़ाकिर भाई के घर की ओर चल पड़ी।
आपा के साथ वह रोज़ नाले पर, आम की अमराई या दूर खेतों में घूमने जाती थी। आपा ने उसे भरपूर नज़र देखा तो वह सकुचा गई। दोनोंबाहर निकलीं, तभीकार आकर रुकी। आपाबोल पड़ीं-'युसूफ भाई आए हैं।' उसके तलवे पसीज उठे। माथे पर पसीने की बूँदें आ गईं। सामान्य होने में वक्त लगा। पहाड़ी नाले की ओर जाते हुए ढलवाँ रास्ता शुरू हो गया था। उसने चप्पलें हाथ में लीं और खिलखिलाती दौड़ पड़ी। दूर-दूर तक पीले फूलों की झाड़ियाँ थीं। वहझाड़ियों के बीच में जाकर छुप गई। ...आपा मोटी थीं, साँस फूलने लगी, वे पीछे-पीछे लुढ़कती आ रही थीं। जब तक वे रेहाना के पास आतीं उससे पहले उन्होंने देखा कि सज्जो दौड़ती आ रही है, आते ही उसने कहा-'चलो अम्मी, अब्बू बुलाते हैं ज़रूरी काम है।' रन्नी ने सुना तो उदास हो गई, लेकिन फिर निर्णय लिया कि अकेली ही नाले किनारेबैठेगी। आपा सज्जो के साथ लौट गईं।
पहाड़ी नाला कल-कल बह रहा था। उसने पैरों को पानी में डाला और बैठ गई। सामने पहाड़ थे, पेड़ थे। दूर-दूर तक कोई बस्ती नहीं, पंछी घर लौट रहे थे। कैसी होती है ज़िंदगीपंछियों की...इतना-सा पेट और दिन भर सिर्फ़ खाने की मशक्कत फिर शाम को अपने बसेरे की ओर लौट जाना। सभी का एक नीड़ होता है जहाँ वह पहुँचकर आराम की साँस लेता है। एक वह है जिसे कोई नीड़ मिला ही नहीं, मिला भी तो ऐसा जहाँ से वह शौहर के इंतकाल के बाद खदेड़ दी गई। यहं भाई-जान और भाभी बहुत अच्छे हैं...वरना वह आज कहाँ होती?
पक्षियों के लौटना और सामने पहाड़ की ओट में सूरज छुपने का दृश्य वह आँखों में भर भी नहीं पाई कि कंधों पर किसी का स्पर्श महसूस हुआ। ...वह चौंकी...पलटकर देखा तो युसूफ खड़े थे। वह हड़बड़ा गई, दुपट्टे को सिर पर ओढ़ा औरउठने को हुई। यूसुफने उसे बैठे रहने का इशारा किया और उसके बाजू में आकर बैठ गए।
'रेहाना'
'जी' वह सकुचा उठी 'मैं घर जाऊँगी, सूरज भी अब डूबने को है अँधेरा हो जाएगा फिर।'
'इतना डरती हो सूरज के डूबने से?'
'जी' वह नासमझ हो उठी।
यूसुफने उसके कंधे पर हाथ रखा, दूसरे हाथ से उसकी ठोड़ी को पकड़ते हुए चेहरा अपनी तरफघुमाया। डूबते सूरज की लाल रोशनी में रेहाना का चेहरा सुरमई दिख रहा था। ...बाल ढलती सूर्य की किरणों में सुनहरे...और आँखें कत्थई रंग की।
'सुभानअल्लाह! इतनी खूबसूरती!'
रेहाना ने आँखें बंद कर लीं, यूसुफने झुककर सोनो पलकों को चूम लिया, एक सिहरन से काँप उठी वह। यूसुफके होंठ फिसले, हाथ मचले और क्षणों में वह युसूफ की बाँहों में समा गई।
सूरज कब डूबा पता ही नहीं चला।
'रेहाना'
'जी'
'मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ, मुझे पता ही नहीं चला कब? लेकिन यह एक नाम' रेहाना'तो बरसों से मेरा पीछा करता रहा था। तब बीवी का इंतकाल नहीं हुआ था, तब से...जब भी कोई नॉवेल पढ़ता, कोई कहानी तो यह नाम मुझे बार-बार उद्वेलित करता। तुम क्या कहोगी इसे महज़ एक इत्तफ़ाक या...'
रेहाना उठने को हुई, दुपट्टा सँभाला। ...यूसुफने हाथ पकड़ लिया, आँखों में बेपनाह मुहब्बत भरकर कहा-'रेहाना, तुम मुझसे मुहब्बत करती हो?' उसने आँखें झुका लीं।
अत्यन्त संजीदा स्वर में बोली-'मेरे बारे में कितना जानते हैं आप?'
'क्या फ़र्क पड़ता है? तुम्हारा शौहर नहीं रहा, लेकिन इसमें तुम्हारा तो दोष नहीं। तुमने कौन-सा सुख पाया उससे?' रेहाना हैरान नज़रों से यूसुफको देखती रह गई। यूसुफ ने रेहाना की सूनी कलाइयाँ पकड़लीं-'अगर इन कलाइयों में मेरे नाम की अनेक चूड़ियाँ होतीं?'
'जी, मेरे लिए यह सब सोचना पाप है।'
ढलवाँपगडंडी पर वह तितली की तरह उड़ गई। लगभग दौड़ती हुई घर पहुँची। भाभी ने उसका चेहरा देखा तो हैरान रह गई।
'कब से आई फ़ातिमा खाला बैठी हैं, कहाँ गईं थी तुम रन्नी बी।' भाभी ने शिकायती लहज़े में कहा।
'आदाब खाला!'
'जीती रहो बेटी।' ऊपर से नीचे तक खाला ने एक मुग्ध दृष्टि डाली रन्नी पर। ख़ुदा ने बेपनाह खूबसूरती दी है, लेकिन क़िस्मत? एक ठंडी आह भरी खाला ने।
'मैं चाय बनाती हूँ खाला, आप बैठिए।'
'अरी, बैठिए नहीं, आज मैं यहीं रहूँगी। खानाबना लो। जल्दी से, जल्दी खाने की आदत है।'
'जानती हूँ, खाला, अम्मी भी तो जल्दी ही खाती थीं।'
'हाँबेटी, अब उम्र हो गई है, जल्दी खाओ तो पेट ठीक रहता है।' भाभी नूरा-शकूरा को दूध में रोटी मोड़ कर खिलाती रहीं, रेहाना चौके में घुस गई। सभी साथ खाने बैठे। खाला की चारपाई उसके कमरे में ही डाल दी गई। दोनों लेट गईं और रात देर तक बातेंकरती रहीं। खाला अम्मी की याद करते-करते रो पड़ीं।
'कितना कहती थी मैंतुम्हारी अम्मी से दूसरा निकाह कर दो, अरे कोई ऐसा थोड़े ही है कि में अच्छे इंसान हैं ही नहीं। माना कि मज़हब में औरत का दूसरा निकाह ज़रा कठिन है पर। ...अरे, बच्चा वाला कोई दुहिजवां लड़का मिल ही जाता। कितने मैंने सुझाए लेकिन तेरी अम्मी चुप ही रहीं।'
'खाला! मेरा मन नहीं मानता था। अम्मी तो इसी फ़िकर को लेकर गई हैं।'
यहखाला ही थीं...जिन्होंने कहा था रेहाना हल्के-हल्के रंगों के रंगीन कपड़े पहनेगी।
'आज फ़िरोजी जोड़े में तू कितनी खिल रही थी? रेहाना, क्या ऐसी ज़िन्दगी कट जाएगी तेरी? कब तक भाई के द्वारे पड़ी रहोगी?' खाला रोने लगी।
खाला यूँ तो अम्मी की सहेली थीं परन्तु इस घर से इतनी जुड़ी थीं कि सभी को अपने बच्चों की तरह समझती थीं, कभी रेहाना ने भी नहीं महसूसा कि फ़ातिमा खाला उनकी सगी नहीं। कैसे होते हैं सगे रिश्ते...? जहाँ घर से निकाल दी जाती होऔर कैसे होते हैं पराए जो तुम्हें सुखी देखने के लिए रोते हैं।
आज की रात भी उसका मन मचलता रहा। ...वह तो खाला आ गईं थीं वरना भाभी उससे ज़रूर पूछतीं। दो-तीन दिन से भाभी उसका असंतुलित व्यवहार महसूस क्र रही थीं। भागकर खिलौनों में रंग भरने लगना, नूरा-शकूरा को गोद में उठा लेना, बार-बार ट्रंक खोलकर कपड़ों को उलटना-पलटना, वरना यही रेहाना कभी शादी-ब्याह तक के मौकों पर अच्छे कपड़ों में नहीं दिखी।
'अम्मी! औरत दो घर होते हुए भी बेघर क्यों होती है।' एक रात अम्मी की बगल में लेटी रन्नी ने पूछा था। अम्मी रोने लगी थीं। कहाँ से सुखों की पोटली उठाकर लाएँ और रेहाना के हाथ में पकड़ा दें। फिर अम्मी के सीने में मुँह छुपाकर वह खूब रोई थी, बिलख-बिलखकर। खाला के खर्राटे गूँजने लगे थे। अपने होंठ, पलकों, गले-माथे पर युसूफ के होंठों की गर्माई अभी भी वह महसूस कर रही थी। एक नाम था रेहाना...जिसने मुझे हमेशाउद्वेलितकिया। रेहाना! रेहाना! रेहाना! मुहब्बत की उमंगों ने उसके शरीर में अंगड़ाईली।
घर के सामने लगा था चिलबिल का विशाल दरख्त। फिर कुछ दूर पर पीपल और बरगद। मकान के दोनों ओर थी शिकाकाई और रीठे की झाड़ी, गेट के पास आंवले का विशाल दरख्त। पेट्रोल पंप के ऊपर छाया था जामुन का दरख्त, घनी शाखाओं से छनकर आती थी सुबह की नरम धूप। एक ओर पड़ी थी बिना पहियों वाली ज़मीन में धँसी पुरानीकार जिस पर भाभी बच्चों के छोटे-छोटे कपड़े सूखने डाल देती थीं। सुबह की नरम धूप में चाय के साथ टोस्ट खाकर खालाजान विदा हुईं और उन्हीं के साथ भाईजान भी बाज़ार की ओर चले गए। भाभी और रन्नी खिलौनों को अंतिम टच देने बैठ गई। दुपहर तक खिलौने सूखजायेंगे, फिर उन्हें पैक किया जाएगा। बड़े-बड़े थैलों में खिलौने पैक करके भाईजान माल ले जायेंगे। इस तरह करीब तीन महीनों का माल भेजा जाएगा।
कार के हॉर्न की आवाज़ सुनकर रन्नी के हाथ काँप गये। चाहकर भी मुड़कर नहीं देख पाई। विलावजह कार का हॉर्न दो बार बजा। भाभीजान अपनी ननद के चेहरे को निहारनेलगीं। क्या कुछ था भाभी की आँखों में, कौन-सा मौन प्रश्न कि वह पसीने से नहा उठी, भाभी और हैरत में पद गई।
'क्या हुआ रन्नी? तबीयत कुछ अच्छी नहीं दिखती?' उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
'जाओ, थोड़े ही तो खिलौने बचे हैं मैं कर लूँगी, शायदनींदपूरी नहीं हुई तुम्हारी? खालाजान ने सोने नहीं दिया होगा वे बहुत बातूनी हैं।'
रन्नी चुपचाप उठ गई। अपने कमरे में पहुँची और धीमे से खिड़की से बाहर झाँका तो देखा कि यूसुफपेट्रोल पंप के पास खड़े इधर ही टकटकी लगाकर देख रहे हैं। आँखें मिलीं...वह घबरा उठी...चुपचाप पर्दा खींच दिया।
कुछ देर बाद साजिदा ने आकर एक लिफाफा उसके हाथ में पकड़ाया।
'क्या है यह सज्जो?'
'मालूम नहीं, छोटे मालिक ने आपको देने को कहा है।'
उसने लिफाफा खोला, काली स्याही से खूबसूरत लिखावट में कुछ शेर थे, कुछ गज़लें थीं। गजलों की लिखाई तो बरसों पुरानी लगती थी। ...कागज़ भी ऐसे मानो धूल झाड़कर लाए गए हों। ...और यह क्या? वह चौंक पड़ी, रेहाना...रेहाना...कितनी ही जगह यह नाम था, उर्दू में, हिन्दी में। हैरान हो उठी वह, ऐसा इत्तफ़ाक। इस एक नाम से कैसे जुड़े युसूफ। कई बार वह उन पन्नों को पढ़ गई, फिर तहाकर तकिए के नीचे रखदिया। खिड़की से झाँका तो देखा यूसुफ कार में बैठ रहे थे। उसने इतना भर पर्दा सरकाया कि एक आँख से देख सके। लेकिन न जाने क्यों उसे लगा कि कार में बैठे यूसुफ ने उसकी एक आँख ही झाँकते हुए पकड़ ली है। वह अपने को सम्हाल नहीं पाई, तभी नूरा ने उसका कुर्ता पकड़कर खींचा। वह बुरी तरह चौंक पड़ी। पलटकर नूरा को गोद में उठाया, फिर झाँका, कार जा चुकी थी।
आमों में बौर आ चुके थे। शाम को आपा के साथ रन्नी जब अमराई की ओर घूमने जाती तो आम के बौरों की महक उसके नथुनों में घुस जाती, आपा कहतीं-'बस, अब अमराई ठेके पर दे दी जाएगी। यहाँ ठेकेदार का नौकर अपनी छोटी-सी खोली बनाएगा। पिछले साल तो इतनी हवा चली, तूफान आया कि अहमद भाई का भारी नुकसान हुआ। ...ठेके पर देने से पहले ही नन्हे-नन्हे आम गिर गए। कितने तो हम बटोरकर लाए। सूखनेडाल दिए, पर उनमें कुछ नहीं निकला, अमकरियाँ भी नहीं निकलीं।' तूफान के नाम से उसे वह रात यादआ गई जब अम्मी का इंतकाल हुआथा...वह भरी आँखों से आसमान में छाए उस छोटे से बादल का टुकड़ा देखने लगी, मानोउसमें अम्मी का चेहरा नज़र आ जाएगा। आसमान में बादल सफेद रुई के गले से छितरे हुए थे। डूबते सूरज की सुरमई आभा चारों तरफ फैली हुई थी। जब वह घर से निकली थी तब खुश-खुश थी और अब बेहद उदासी ने उसे घेर लिया था। 'आपा आज लौट चलते हैं, कहीं दिल नहीं लग रहा।' आपा ने रन्नी का उदास चेहरा देखा और स्वीकृति में सिर हिला दिया।
लौटी तो भाईजान आ चुके थे और मूढ़े पर बैठे चाय पी रहे थे। खिलौनों की पैकिंग का सामान और थैले सामने रखे थे। सारे खिलौने भाभी ही उठाकर बरामदे में ले आईं थीं। पीली रोशनी उदासी की तरह चारों तरफ पसरी पड़ी थी। वह सचमुच उदास थी। भाभी के हाथों की चूड़ियों की बोझिल आवाज़ उसे और थका रही थी। साल हो रहा था अम्मी को गुज़रे। ...वह चुपचाप चौके में चली गई और खाना बनाने की तैयारी करने लगी।
रात को मद्धिम पीली रोशनी में हरे, लाल, केसरी दुपट्टों में वह मुकेश का काम करती, बारीकसुनहरे जाल कुर्तों पर काढ़ती और शादी-ब्याह के जोड़े तैयार करती। गोटे, किनारी, मुकेश, सलमा-सितारे काढ़ने का काम वह कई वर्षों से कर रही थी। अब शहर से दूर यह घर था तो भाईजान ही लाकर काम देते और पूरा होने पर ग्राहकों तक पहुँचा आते। कुर्तों पर सुनहरी जाली का काम वह इतना बारीक करती कि दूर-दूर से कार पर बैठकर अमीर घरों की सेठानियाँ उसके पास आतीं। जब उन सेठानियों ने यह सुना कि रेहाना बेगम इधर रहने लगी हैं, तो सेठानियों की कार इधरभी आने लगी और धीमे-धीमे रन्नी के पास अपने आप काम आने लगा। वह कभी अपने भाई पर बोझ नहीं बनी, बल्कि इन कामों से जो कमाई होती वह भाभी के हाथ पर रख देती। जब से वह अपने ससुराल से लौटी थी तब से उसके सामने ज़िन्दगी के कोई मायने नहीं रह गए थे। रात भी वैसी ही, जैसा दिन। भाभीजान के हाथ से सारा काम लेकर उसने भाभी को इतना आराम पहुँचाया कि उन्हें रन्नी का आना खला ही नहीं, बल्कि अब भाभीजान रन्नी के बगैर अधूरीही थीं। रात देर तक भाभी और भाईजान मिलकर खिलौने पैक करते रहते और वह उसी मद्धिम पीली रोशनी में बैठी कढ़ाई करती रहती। तीन जोड़े आए थे जो जल्द ही पहुँचाने थे।
मन न जाने क्यों उखड़ा हुआ था। देर रात भाईजान ने थकान महसूस की और सोने चले गए, वह भी उठ गई। चारपाई पर लेटकर उसनेतकिए के नीचे से लिफाफा निकाला और उसमें अपने आपको ढूँढती रही। रेहाना...रेहाना...बहुत उदासी का आलम है, रेहाना...तुम कहाँ हो? आश्चर्य होता रहा...यूसुफ किसे पुकारते थे, क्यों रेहाना नाम की लड़की को वे खोजते थे? ...बार-बार वह आश्चर्य में पड़ जाती। देर रात तक उसे नींद नहीं आई। गालों पर आँसू ढुलकते रहे। क्यों थका देती है ज़िन्दगी इतना? पता नहीं कब नींद लगी थी, सुबह आँखखुली तो धूप बरामदे में पसरी पड़ी थी। ऐसातो कभी नहीं हुआ, ...कभी वह इतनी देर सोई नहीं। सुबह-सुबह वह खेतों के पास जाती थी और उड़द-मूँग की पत्तियों पर पड़ी ओस की बूँदों को हथेलियों में समेटलेती। जब से वह इस मकान में आई है आश्चर्य करने लगी है अपने आप पर कि उसे प्रकृति से इतना प्यार था। न उससे सूर्योदय छोड़ा जाता न ही सूर्यास्त। मानो सूरज को मुट्ठी में पकड़े रखना चाहती हो। रात की पढ़ी वह पंक्ति याद हो आई-बहुत रह लिए अँधेरों में अब रोशनी की तरफ जाने को जी चाहता है। क्या उसके अन्दर भी यही ललक नहीं पैदा हो रही थी। क्यों सूरज को मुट्ठी में दबोचने का उसका जी चाहता है? क्यों अंधकार से उसे खौफ लगता है?
भाईजान ने कहा कि आज उसकी भाभी भी उनके साथ बाज़ार जायेंगी। जबभी भाईजान खिलौने लेकर बाज़ार जाते तो चौबीस घंटों में लौटते थे। इस बार भाभी को रमज़ान ईद के लिए खरीदी करनी थी अतः तय हुआ कि नूरा साथ जाएगा और शकूरा इधर रन्नी के पास रुकेगा। उसनेशकूरा का हाथ पकड़ा और घर के आगे एक ओर लगी शीकाकाई तोड़ने लगी। कल भाभी पेड़ के नीचे से रीठे तो बीन लाईं थीं। आज उसे सिर धोना था तो वह शीकाकाई तोड़ने झाड़ियों में चली गई थी। शकूरा झुक-झुककर फल्लियाँ इकट्ठाकरता जा रहा था। तभी कार का हॉर्न बजा और उसने पलकें उठाईं तो सामने यूसुफ खड़े थे। वह चंचल हो उठी, मुस्कुराई और दुपट्टा सम्हालने लगी। दुपट्टा झाड़ियों में उलझ गया, तेज़ हवा में उसके रेशमी बाल उड़-उड़कर मुँह पर छाने लगे। यूसुफनज़दीक आए और शीकाकाई की कँटीली झाड़ियों में उलझा उसका दुपट्टा निकालने लगे। ...दोनों के हाथ उलझ गए। वह शरमा उठी।
'रेहाना।'
'जी'
'शाम को अमराई में आओगी।'
'जी, आज तो घर पर ही रहना पड़ेगा। भाईजान, भाभी और नूरा आज खिलौने देने बाज़ार जा रहे हैं। ...'
'मैं आऊँ?'
वह निरुत्तर यूसुफ की तरफ देखती रही, आँखों में एक मौन निमंत्रण था, पलकें झुक गईं। वह यूसुफ की आँखों का सामना नहीं कर पाती। कितनी अथाह मुहब्बत दिखती है उनकी आँखों में!
शिकाकाई, रीठे उबालने उसने रख दिए। एक टिफिन में सब्जी पराठे बनाकर तीनों के लिए रख दिए।
न जाने कितना इंतज़ार था कि यूसुफ आयेंगे, लेकिन दिल धक-धक कर रहा था। रन्नी ने सिर धोया, बरामदे में खड़े होकर अपने रेशमी बालों को सुलझाया औरहल्का गुलाबी चिकन का सूट निकाला और पहन लिया। ...आईने में देखा तो दोनों गालों में गुलाबी आभा सूट के ही रंग की छाई थी। अपने आप से ही रन्नी शरमा उठी।
आज नदी पार हाट का दिन था। ज़ाकिर भाई, उनकी पत्नी और दोनों बच्चे जाते थे। हफ्ते भर का सामान-सुलुफ लेकर वे रात तक लौटते थे। पेट्रोल पंप पर कोई नहीं था। जाकिर भाई परिवार सहित जा चुके थे। शकूरा बरामदे में पड़ी दरी पर सो रहा था। वह वहीँ पर बैठकर कुर्ते में सुनहरी जाल काढ़ने लगी। पिछले कई दिनों से बंदर की एक फौज इस तरफ आ गई थी। इस फौज का एक बड़ा बंदर घर की औरतों को खूब सताता था। और जैसे ही भाईजान या जाकिर भाई या अन्य किसी पुरुष को देखता तो पेड़-दर-पेड़ छलांग लगाता भाग जाता। कितनी ही बार भाभी ने डर कर पूरा मंडा आटा उसके समक्ष फेंका था, रोटियाँ फेंकी थीं, आपा तो कितनी बार चीखती-चिल्लाती आतीं और भाभी पर भरभरा कर गिर जातीं। रन्नी ने बन्दर के डर से दरवाजा बंद कर लिया था। बरामदे में लोहे की जाली लगी थी।
दोपहर कब बीत गई पता ही नहीं चला। बैठे-बैठे उसकी पीठ दुखने लगी। वह वहीँ शकूरा के पास बरामदे में बिछी दरी पर लेट गई। लोहे की जाली से शाम की हल्की धूप छनकर भीतर आ रही थी। रन्नी को झपकी लग गई। अचानकही उसे सुनाई पड़ा कि दरवाज़े पर खट-खट हो रही है। वह उठ बैठी, शायद आपा हों, लेकिन आपा तो ज़ाकिर भाई के साथ चली गई थीं। हड़बड़ाकर उठी तो देखा जाली के दूसरी तरफ यूसुफ खड़े थे।
उसने अजीब-सी घबराहट में दरवाज़ा खोला। वे भीतर आ गए।
'अकेली हो?'
'जी, सभी बाज़ार गए हैं, खिलौनों की सप्लाई देने। यहशकूरा ही है जो नहीं गया।' उसने लेटे हुए शकूरा की तरफ इशारा करते हुए कहा-
'बैठने को भी नहीं कहोगी?' यूसुफ अभी तक भीतर आकर दरवाज़े पर ही खड़े थे। वह फिर हड़बड़ागई, उनके सामने से हटी और कहा-'जी आइए।' यूसुफ अन्दर आए। तखत पर साफ-सुथरा, हल्का-नीला रन्नी के हाथ का काढ़ा हुआ चादर बिछा था। दो गाँव तकिये रखे थे, लकड़ी के बिना हाथ की दो टूटी कुर्सियाँ। कुल मिलाकर यही बैठक थी इस घर की। भाईजान के कमरे से वह टेबिलफेनउठा लाई और तिपाई पर रखकर चला दिया। भारी खड़-खड़ाहट के साथ पंखा चला फिर खड़खड़ाहट थम गई। पंखे ने गति पकड़ ली थी। घुमते पंखे की हवा में उसके बाल उड़ने लगे।
'आपका लिफाफा दे दूँ?' वह उठने लगी।
'रहने दो, जल्दी क्या है।' उन्होंने हाथ पकड़कर रन्नी को अपनी तरफ खींचा और आलिंगन बद्ध कर लिया। यूसुफ के चौड़े सीने में रन्नीसमा गई। यूसुफ की पकड़ ढीली नहीं हुई। ...एक भरपूर चुम्बन होठों का लिया और फिर सारे जिस्म पर चुम्बनों की बौछार कर दी। यूसुफकी पकड़ ढीली हुई तो वह उठकर खड़ी हो गई।
'मैं चाय बनाती हूँ।'
वहचौके में जाकर स्टोव जलाने लगी। दिल धक-धक कर रहा था। अभी की आ जाए, भाईजान या आपा? यूसुफ चौके के सामने आकर खड़े हो गए। उसनेदो प्याली चाय बनाई, थोड़े बिस्कुट निकाले, एक ट्रे में रखा और बैठक में आ गई। दोनों ने चाय पी। यूसुफ अपने घर की बातें बताते रहे।
इस बीच शकूरा उठ गया। रन्नी ने दूध गरम किया, दो रोटी उसमें मीड़ी और शकूरा को खिलाया। घर खाली देखकर शकूरा फिर सो गया। नूरा होता तो वह जागा रहता और दोनों खेलते। यूसुफके बहुत मना करने पर भी रन्नी ने अंडे की भुर्जी बनाई, टमाटर-प्याज़ का सलाद और पराठे। भाईजान, भाभी को डिब्बे में दी गई सब्ज़ी भी थोड़ी रखी थी, यह सब लेकर वह उस कमरे में आ गई जहाँ यूसुफ बैठे थे। रन्नीशर्मायी-शर्मायीहो रही थी। यूसुफ ने जब उसे पराठे और भुर्जी का एक निवाला खिलाया तो वह सिर से पाँव तक पसीने-पसीने हो उठी। दोनों ने एक ही प्लेट में खाना खाया। बाहर गाढ़ा अँधेरा था। कभी कोई जुगनू चमक जाता था। पेड़ों की कतार प्रेत की तरह खड़ी नज़र आ रही थी।
'मुझे अब जाना चाहिए, कार भी मैं दूर खड़ी करके आया हूँ तुम्हारे घर के सामने खड़ी करता तो अच्छा नहीं लगता।' यूसुफ उठकर खड़े हो गए।
वह भी खड़ी हो गई। यूसुफ ने उसे पुनः आलिंगन-बद्ध किया। होठों का चुम्बन लिया और फिर धीमे-धीमे हाथ फिसले। वह मंत्रमुग्ध-सी यूसुफ केहाथों में ढीली पड़ती गई। यूसुफ ने रन्नी को तखत पर बैठा दिया। दोनोंकी साँसें तेज़ चलने लगी थीं। यूसुफ के हाथ आगे बढ़े, कोई विरोध था नहीं। यह समर्पण की बेला थी, रन्नी समर्पित होती जा रही थी। नंगे स्तनों के बीच यूसुफ ने एक दीर्घ चुम्बन लिया। ...कब दोनों एक हो गए, कब क्या हुआ? मानो एक स्वप्न था। रेहाना का गोरा माँसल बदन यूसुफ की बाँहों में कैद था। पूरे बदन पर एक दृष्टि डालकर यूसुफ ने पुनः रन्नी को लिप्त लिया। 'कितनी खूबसूरत हो तुम, रेहाना, खुदा ने तुम्हें खासतौर पर गढ़ा हो।' रन्नी शरमा गई। आँखें बंद कर लीं। साँसों का ज्वार तो थमा था लेकिन आकुलता कम नहीं हुई थी। ...यूसुफ तो पागलों की भाँति चूमे जा रहे थे। पत्तों पर खड़-खड़ हुई, दोनों की देह अलग हुई। जाकिर भाई के मकान की बिजली जली। यूसुफ ने धीमे से दरवाज़ा खोला, रेहाना की ठोड़ी ऊपर करके पलकों का पुनः चुम्बन लिया और अँधेरे में खो गए।
वह मंत्रमुग्ध-सी शकूरा के पास आकर लेट गई। उसने आँखें बंद कर लीं। ...बरसों बाद, नहीं शायद पहली बार, उसने देह को देह की तरह जाना। क्या यूसुफ मुझसे निकाह करेंगे?
दूसरे दिन ग्यारह बजे ही यूसुफ पेट्रोल पम्प पर आ गए। आज ईंट का भट्टाभीलगना था और ठेकेदार भी आम के पेड़ों का निरीक्षण करने आया था। बीच-बीच में उसकी नज़रें यूसुफ से मिल जातीं। वह शरमा कर निगाहें झुका लेती। यूसुफ अपने पाँच वर्षीय बेटे को साथ लाए थे जो भागकर उसके पास आ गया। शकूरा और यूसुफ का बेटा आपस में खेलने लगे। वहह वहीँ बैठकर कुर्तेकी कढ़ाई का काम पूरा कर रही थी। दोपहर को भाईजान वापिस आए। रिक्शे में घर की ज़रूरतों का सामान थैलों में भरा था। आते ही मीट का पैकेट भाईजानने रन्नी के हाथों में पकड़ा दिया। भाभी ने फीरनी खरीदी थी, लड्डू और नमकीन भी था। रन्नी ने एक-एक लड्डू नूरा और शकूरा को पकड़ा दिया। नूरा अपनी फूफी को बाज़ार की बातें बताता रहा।
'रन्नी बेगम, कल कोई आया था?' भाभीजान ने पूछा, वह चौंक पड़ी, ...बल्कि थरथरा उठी, 'क्यों?'
'नहीं, ऐसे ही पूछा...कमरे का पंखा बैठक में जो रखा है।'
भाभी इस बार नूरा-शकूरा के लिए कपड़े खरीद कर लाई थीं। ईद पर भाभी ने मीट पकाया और रन्नी ने दूध मेवे की खीर बनाई। भाईजान ने बताया-'इस बार सारे खिलौने हाथों-हाथ बिक गए और टूटे-फूटे भी नहीं।'
'भाभी को साथ ले गए थे न आप, इसलिए' दोनों मुस्कुराने लगे। भाभी नूरा-शकूरा को लेकर आपा के घर पर बैठी थीं। भाईजान शहर की ओर गए थे, सज्जो ने आकर एक पैकेट रन्नी के हाथ में पकड़ाया और कहा-'छोटे मालिक ने दिया है।' उसने पैकेट लिया, अंदर कमरे में आई, खोलकर देखा तो उसमें एक छोटी-सी डिब्बी थी। डिब्बी में सोने में जड़ी हीरे की अँगूठी थी। डिब्बी खुलते ही हीरे ने अपनी किरणें उसके चेहरे पर फेंकी।
'इतनामहँगा तोहफ़ा।' वह मन ही मन बुदबुदा उठी। 'कैसे इसको कबूल करूँ?' काले खूबसूरत हर्फों में लिखा था। 'रेहाना के लिए बहुत प्यार से।' उसने अँगूठी पहन ली, बाहर खिड़की से झाँका तो कार के पास यूसुफ खड़े थे। यूसुफ ने स्वीकृति में आँखें बंद कीं...फिर खोलीं...मानो कह रहे हों कि तोहफा स्वीकार किया अथवा नहीं?
दूरसे भाभी आती दिखीं तो रन्नी ने अँगूठी उतारी और डिब्बी में रख दी। भाभी के हाथों में दो बड़े मिठाई के डिब्बे थे। एक में काजू की मिठाई और दूसरा डिब्बा मेवों से भरा था।
'नूरा, शकूरा के लिए यूसुफ भाई ने भिजवाया है।' भाभी ने कहा।
रात भाईजान के आने पर भाभी ने मिठाई तथा मेवे उन्हें खाने को दिए कहा-'छोटे मालिक बहुत बड़े दिल के हैं। भला, इतने मेवे-मिठाई कोई देता है, लेकिन उनके पिता अहमद भाई तो सुनते हैं एक पैसा गाँठ से नहीं खर्च करते,' भाईजान चुपचाप खाते रहे।
आजकल नूरा, शकूराको भाभी अपनी ननद के पास ही सुला देती थीं, 'मुए, रात भर जागते रहते हैं।' भाभी ने कहा तो रन्नी अपनी भाभी को छेड़ने लगी।
अचानक ही रन्नी को उल्टी जैसा लगने लगा, सिर भी चकरा रहा था। वह भागकर पीछे आँगन में पहुँची। अँधेरा पसरा पड़ा था। ज़ोर-ज़ोर से उबकाइयाँ लेते वह उल्टी करने लगी। भाभी दौड़कर आ गई। 'अरे! क्या हुआ रन्नी, अरे! कुछ तो बोलो।' उसकेमुँह से बोल भीनहीं फूट रहे थे। उल्टियाँहो रही थीं और तेज़ चक्कर आ रहा था। वह भाभी की बाँहों में सम्हलने को हुई पर फिर तेज़ चक्कर ने जकड़ लिया। अँधेरे में खड़े काले दैत्याकार पेड़ गोल-गोल घूमने लगे थे। भाभी ने लाकर चारपाई पर लिटाया और माथासहलाती रहीं। रन्नी आँखें बंद करके लेटी रही। अब उसे कुछ अच्छा लग रहा था।
इधर, पिछले महीने से भाभी को भी उल्टियाँ आ रही थीं। और उन्होंने बताया था कि वे फिर उम्मीदों से हैं। खबर सुनकर रन्नी अपनी भाभी से लिपट गई थी।
'मेरी अच्छी भाभी...इस बार दोनों भाइयों को एक बहना दे दो...लड़की के बगैर घर अधूरा लगता है।' भाभी मुस्कुरा पड़ी थीं। रन्नी भी मुस्कुरा पड़ी, उसके पेट में भी एक जान थी उसने धीमे से अपने पेट पर हाथ रखा, कोमल स्पर्श किया, यूसुफ बेतरह याद आए।
सुबह रन्नी को फिर उल्टियाँ हुई थीं। जी घबरा रहा था। भाई जान चिन्तित हो उठे, पत्नी से कहा-'रन्नी को अस्पताल ले जाओ, कहीं मिठाई तो ज्यादा नहीं खा गई। ...अपच हो गया होगा।' लेकिन भाभी अपनी ननद को जानती थीं। उसे मिठाई कहाँ इतनी पसंद थी, उनका माथा ठनक रहा था। वे चारपाई पर लेटी अपनी ननद के पास गईं, कहा-'रन्नी, मैं दो बच्चों की माँ हूँ। बरसों बाद इस घर में फिर तीसरा आने को है। एक ब्याहता औरत से बात छिपती नहीं। मैंने रात गद्दे के नीचे वह अँगूठी देखी थी, क्या तुम पेट से हो? ...बताओ रन्नी।'
रन्नी भाभी की बाँहों में बिलख पड़ी।
घर में कुहराम मच गया। भाभी ने तो बात समझाकर भाईजान को बताई थी। लेकिन वे तो गुस्से से काँप रहे थे। भाभी ने शांत स्वर में कहा-'समस्या का कुछ तो समाधान निकालना होगा?' लेकिन उन्होंने कोने में टिकी छड़ी निकाली और पहुँच गए अपनी बहन के सामने। भाभी दौड़ी-'हाथ नहीं लगाना फूल-सी बच्ची को।' भाईजान ने कभी रन्नी को डाँटा तक नहीं था। आज उनके हाथ में छड़ी देखकर रन्नी थरथरा उठी। भाईजान गरजे-'बसनाम बता दो उसका, मैं खून पी जाऊँगा।' वे रन्नी की ओरलपकते तो भाभी बीच में आ जातीं। बच्चे सहमकर बिस्तर में घुस गए और चादर से मुँह ढांप लिया। बच्चे भी बड़े हो रहे थे और उन लोगों ने आज तक अब्बू का यह रूप नहीं देखा था। रन्नी अपनी भाभी की बाँहों में बिलख रही थी, लेकिन उसने अपना मुँह नहीं खोला। रोते-रोते वह सफेद पड़ गई थी, मानो किसी ने शरीर का सारा खून ही निचोड़ लिया। रात यूँ ही आँखों में कटी। भाभी को डर था कि कहीं रन्नी कुछ कर न बैठे। दोनों बच्चों को रन्नी के पास ही उन्होंने सुला दिया था। वे दोनों रात-भर जागते रहे। अँगूठी की डिब्बी में रखी उस पर्ची से स्पष्ट नहीं होता था कि किसने भेजा है, फिर भी वे समझ गयीं कि यह छोटे मालिक ही हैं। आजकल उनका पेट्रोल पंप पर आना भी बहुत बढ़ गया था। इधर रन्नी भी रोज़ ही कभी नाले की ओर, कभी अमराई में घूमने जाती थी। जब भी वह लौटती उसका व्यवहार भाभी को विचलित करता रहा था। लेकिन उन्होंने कभी रन्नी से कुछ पूछा नहीं था। भाभी चाहती थीं कि रन्नी खुश रहे। उन्हें लगता था, इधर जंगल, खेत, पहाड़, पेड़ और नाले में रन्नी का मन रमता है, वह खुश रहती है।
सुबह-सुबह भाभी जब चाय बनाकर वहाँ पहुँची तो देखा रन्नी दोनों घुटनों में मुँह छुपाए रो रही है। भाभी ने लाड़ से उसके सिर पर हाथ फेरा और चाय पीने के लिए कहा, लेकिन रन्नी इन्कार ही करती रही। 'यूसुफ ही हैं न रन्नी?' भाभी ने पूछा।
वह कुछ नहींबोली, भाभीने रक़ाबीमें चाय उंडेली, 'देखो, ऐसे में खाली पेट नहीं रहते...चाय पिओ।'
भाभी ने भाईजान को इस बात के लिए मना लिया था कि वे रन्नी को लेकर अपने मायके जायेंगी। वहाँ नानी के पास नूरा, शकूरा को छोड़कर कुछ बहाना बनाकर वह रन्नी को लेकर आगे उस गाँव में जाएगी जहाँ निर्जन एकान्त में नदी पार, जो बुढ़िया रहती है, वह अनुभवी है। कितनी ही औरतों, लड़कियों का अवैध हमल गिरा चुकी हैं। वह एक सुरक्षित स्थान था, कभी किसी को कुछ पता नहीं चलेगा।
बड़े बस अड्डे पर निस्तेज पीली पड़ी रेहाना खड़ी थी। भाईजान और भाभी अलग खड़े थे। नूरा-शकूरा ट्रंक पर चढ़े बैठे थे। नानी के घर जाने के नाम से खुश थे।
बस को आने में आधा घंटा बाकी था, तमाम वर्जनाओं से बँधी रेहाना अपना जी मिचलाना रोक रही थी। ऊँगलियों पर जो दिन गिने थे भाभी ने, उसके हिसाब से दोनों ही साढ़े तीन महीने के पेट से थीं। भाभी का पेटपहले ही से काफी निकला हुआ था अतः लगता था कि हमल छ: महीने का है जबकि रन्नी के पेट से कुछ भी पता नहीं चलता था।
दूर खड़ी एक औरत गरम-गरम पकौड़ियाँ चटनी के साथ खा रही थी और मिर्च लगने से सी-सी करती जा रही थी। पास ही खड़ा उसका पति उसे लाड़ और चाहत से देख रहा था। रन्नी ने देखा कि शायद वह पूरे दिनों से है। कितना अभिमान भरा अहसास होता है औरत के लिए मातृत्व सुख? ...एकसम्पूर्ण मानव को जन्म देना...उस में निहायत तुम्हारा एक पुरुष का साथ होना...तुम्हारा रक्षक...तुम्हेंसामाजिक मान्यता, इज्ज़तदेने वाला। और एक तुम हो रेहाना! पेट में एक ऐसे व्यक्ति का हमल जिसमें सामाजिक साहसहीनता है, जो नाम न दे सके, जो सम्बन्धों को साहस से विश्लेषित न कर सके।
बस आ गई थी। रन्नी भाभी के साथ असहाय-सी बस में चढ़ी थी कातर नेत्रों से भाईजान को निहारते हुए कि अब भी भाईजान उसे जाने से मना कर दें। ...उसकीझोली में इतने सुख आ गिरें कि वह माँ बने, हाथों में चूड़ियाँ पहने और अपने बच्चे के पीछे भागते-भागते तमाम सुखों को हथेलियों में पकड़ सके। लेकिन भाईजान उससे ज्यादा निरीह और असहाय नज़र आ रहे थे। रन्नीजानतीथी कि भाईजान अहमद भाई के घर गए थे और तबसे लगातार चुप थे। बस चल पड़ी थी। खिड़की के पास बैठकर उसने सिर पीछे टिका लिया। शकूरा गोद में बैठा ऊँघ रहा था। उसकी आँखों में रात तैर रही थी। अंधकार था... भागते काले दैत्याकार पेड़ थे, ...अँधेरे में डूबे पहाड़ थे। सम्पूर्ण जीवन की निर्जनता उसके समक्ष फैली पड़ी थी। जा रही है तो पेट में फूल खिला हुआ है और जब लौटेगी तो बंजर धरती के समान। मानो यहाँ कोई हरियाली थी ही नहीं तो फूल कहाँ से खिलता। जीवन का एक सत्य-असत्य में परिवर्तित हो जाएगा। आँखों से आँसू बहने लगे। कितनारोओगी तुम रेहाना? सामने रेहाना ही तो खड़ी थी। जब ज़िन्दगी में कुछ भी बाकी नहीं रहता है और तुम मर भी नहीं सकते तो एक चेहरा भागती बस के साथ भाग रहा था और रह-रहकर ओझल हो जाता था। फिर भागता था फिर सामने आता था, 'यूसुफ क्यों सताते हो मुझे?'
खिड़की से सिरटिकाकर उसने आँखें मूँद लीं। कब नींद आई होगी पता नहीं चला, जब नींद खुली तो भाभीजान के मायके वाले गाँव में बस खड़ी थी। नूरा के मामू लेने आए थे और सामने ही खड़े थे। वे रन्नी को देखकरखुश हो गए। 'चलो, अच्छा है, तुम आ गई रेहाना, ननद-भौजाई एक दूसरे के बिना कहाँ रह पाती हैं?'
लेकिन घर पहुँचकर नूरा की नानी ने जो सिर से पैर तक निहारा कि वह समूची काँप उठी। अनुभवी आँखों ने क्या अंदाजा लगाया होगा यह रन्नी नहीं जानती पर उन्होंने कुछ कहा नहीं, बस भीतर चली गई।
दूसरे ही दिन सुबह फिर बस का सफर शुरू हुआ और आठ घंटे बाद बस ने जिस जगह पहुँचाया उसे देखकर यदि और दिन होते तो निश्चय ही वह पगला गई होती। प्राकृतिक सौंदर्य से भरी वह जगह थी। जिस तालाब के किनारे दोनों ने चलना शुरू किया था, उस में कुमुदनी के फूल लगे थे। जो अपनी लम्बी गर्दन में बैंगनी आभा के फूल समेटे थे। तालाब के बाद पगडंडी शुरू हुई थी और थोड़ी दूर जाकर एक उथली नदी, जिसकी तलहटी के पत्थर साफ नज़र आ रहे थे और पानी एकदम ठंडा और बेहद साफ था। दोनों ने नदी के पानी में मुँह धोया। उस शांत वातावरण मेंदोनोंकुछ देर बैठी रहीं, फिर चलना प्रारम्भ किया। ऊँचाई पर, पहाड़ीपर एक मकान दिखाई दे रहा था जिसके सामने एक कालीबकरी बँधी थी और उसका छोटा-सा मेमना। रन्नी का दिल उदासऔर भयभीत था। अब वे लोग उस मकान के नज़दीक पहुँच रहे थे। मुर्गियोंकोउनके दड़बों में खदेड़ती'हेय-हेय' करती स्त्री को देखते ही रन्नी भयभीत हो उठी। काले चकत्तों से भरी दुबली देह, सफेद बाल, पॉकेट लगा लम्बा छींटे का ब्लाउज़, बगैर पेटीकोट की मोटी धोती। ...रन्नी को लगा, मानो वह जिबह करने ले जाई जा रही हो। अभी उसकी गर्दन एक पत्थर पर रखी जाएगी और एक लम्बा तेज़ छुरा उसकी गर्दन को धड़ से अलग कर देगा। 'आओ बी' कर्कश भद्दी आवाज में वह बोली।
भाभी ने रन्नी का हाथ पकड़ा और एक चिकनी चट्टान पर बैठते हुए कहा-'सलाम वाले कुम बड़ी आपा।' उसी कर्कश आवाज़ ने ध्यान से रन्नी को देखते हुए कहा-'अस्सलाम वालेकुम...'
सूरजडूबचुका था और उसकी लालिमा क्षितिज में फैल रही थी। डूबते सूरज की लालिमा में रन्नी की गर्दन पर था एक चुम्बन। यूसुफ! देखोतुम्हारीमुहब्बत की निशानी को मिटाने आई हूँ, यूसुफ-बुदबुदा उठी वह। देखो, मुहब्बत के जिन मोहक क्षणों में तुमने मुझे माँ बनने का गौरव प्रदान किया आज उसी गौरव कागला घोंट रही हूँ। हाँ! यह मेरी मर्ज़ी नहीं है...हमसमाज के अंग हैं और यह सामाजिक मर्यादा का प्रश्न है।
भाभी ने रन्नी का हाथ दबाया तो वह चौंक पड़ी। फिसलते क्षणों को पकड़ना कितना कठिन था! मुर्गियाँ दड़बे में बंद हो चुकी थीं और क्षितिज में फैली लालिमा शनै: शनै: ख़तम हो रही थी। थोड़ी ही देर में अंधकार के दैत्य ने इस खूबसूरत जगह को अपनी गिरफ्त में ले लिया। आपा, दोनों को लेकर उस घर में दाख़िल हो गई। रन्नी को लेकर वह भीतर के कमरे में गई, कुछ ही देर में रेहाना की एक चीख उभरी और वह काली स्त्री गुस्से से बाहर निकली-
'नहीं हो सकता बी, हमाल बड़ा हो चुका है। लगता है, चार महीने पूरे होने में दस-बारह रोज़ होंगे, तुम लोग कब सुध लेते हो...यही कि जब इच्छा हो चले आए, बड़ी आपा तो है।'
'नहीं, बड़ी आपा कुछ तो करिए' ...भाभीजान घिघिया रही थी।
'पूरे तीन सौ लगेंगे, सारी रात लग जाएगी। लड़की चीखेगी-चिल्लायेगी सो अलग, सम्हालना मुश्किल होगा,' बड़ी लापरवाही से कहकर बड़ी आपा पान लगाने लगीं। एक बीड़ा भाभीजान की तरफ बढ़ाकर बोली-'मंजूर हो तो कहो, इस तरह के केस में मैंने तीन-तीन हज़ार तक लिए हैं। एक हिन्दुआनी अपनी लड़की को लेकर आई थी, साल भर पहले। लड़की कुल 14 साल की। घर के ही किसी नौकर ने उसे दबोचा था। उसने साल भर का राशन घर में भर दिया था, तीन हज़ार अलग दिए। ...फिर जाते हुए यह बकरी भी खरीदवा दी। मैं जो काम नहीं कर सकती, हाथ नहीं धरती, तुम गरीब हो, इज्जत की खातिर यहाँ तक चलकर आई हो, तुम भी पेट से हो, बोलो जल्दी, तीन सौ से एक पैसा कम नहीं।'
भाभीजान मुंडी हिला देती हैं, रन्नी आकर भाभी के पास बैठ गई।
'भाभी, मुझसे सहन नहीं होगा, मैं इतनी तकलीफ बर्दाश्त नहीं कर सकती, घरलौट चलो।' भाभी ने धीमे से रन्नी का हाथ दबाया और अस्फुट स्वर में कहा-'सहना ही होगा रन्नी, ...सहना ही होगा। ...औरत के हिस्से में सिर्फ सहना ही लिखा है खुदा ने, सो सहो।'
अन्दर की कोठरी में बिछी चटाई पर रेहाना को लिटाया गया, कोठरी में अजीब-सी गंध पैबिस्त थी। रन्नीको उबकाई आ रही थी। हड्डीनुमा शक्ल की जड़ें आले में रखी थीं, पूरी कोठरी में आले ही आले थे। जिनमें जड़ी-बूटियाँ और शीशियाँ घुसी हुई थीं। लालटेन की पीली नीम रोशनी कोठरी को भयानक बना रही थी। पास ही एक नरदा बना था जहाँ पानी से भरी बाल्टी और एल्यूमीनियम का गन्दगी का परत चढ़ा लोटा रखा था।
बाहर की कोठरी उससे भी छोटी थी जिसमें काला पड़ गया मिट्टी का चूल्हा बना था। ढेर सारी राख बाजू में रखी थी। कुछ काली अधजली लकड़ियाँ, जूठे बर्तन...डिब्बे पिटारियाँ और तमाम छोटी-छोटी डिब्बियाँ। आपा ने चूल्हे में लकड़ियाँ झोंकी और मिट्टी के तेल से भरा एक पतीला जला दिया। उसी गंदे हाथों से एल्यूमीनियम का पतीला चढ़ा दिया। पतीला पहले से गंदा था उसमें पानी डालकर कुछ देसी औषधियाँ, नीम की डंडियाँ डालकर रख दिया। जब काढ़ा उबलने लगा तो पूरी कोठरी में अजीब-सी कसैली गंधफैल गई।
तामचीनी के मग में काढ़ा छनती हुई बड़ी आपा बड़बड़ाने लगीं-'ये मर्द-जात मजे लेता है, बड़े-बड़े वादे करता है, कसमें खाता है और सारे दुःख बाद में औरत की झोली में आ गिरते हैं। गालियाँ और जलालत मिलती है सिर्फ औरत को...अरे इन्सान हैं दोनों। ऐसे-ऐसे केस आते हैं कि तुम सुनकर हैरान हो जाओगी बी... लेकिनहमें क्या? न हम नाम पूछते न पता ठिकाना। ...हम तो हैं अकेली जान...एक पैर कबर मेंलटका हुआ। लेकिन जीने के लिए पैसा तो चाहिए न। ...चालीस साल से यही काम कर रही हूँ। ... पहले विधवा सास भी साथ थी, सात साल पहले मर गई। ...उसी ने सिखाया यह सब। अपनी कोई औलाद नहीं। ...आते ही विधवा हो गई मैं। ...अब दूसरों की औलादें छीनती हूँ।' एक गहरी साँस ली बड़ी आपा ने... 'पता नहीं कितना और पाप कराएगा खुदा मुझसे? कितनी जानें और लेगा मेरे द्वारा? ...फिर भी लोग बड़ी आशा से यहाँ आते हैं कि बड़ी आपा सब सम्हाल लेंगी। हाँ! लेकिन परवरदिगार की मेहरबानी है कि आज तक कोई केस बिगड़ा नहीं! ...रोती हुई आई लड़कियाँ राहत की साँस लेते हुए जाती हैं।'
'बस बड़ी आपा, हमारी बिटिया को भी फारिग करा दो, बड़ी मेहरबानी होगी। अल्लाह उम्र-दराज़ करेगा।' भाभी लगभग घिघियाती हुई बोलीं।
'अरेछोड़ो बी, अब क्या उम्र की। सत्तर साल जी ली और कितना जिऊँगी? आज की रात छोकरी को खाना नहीं देना है, तुम कुछ साथ लाई हो या दो रोटियाँ तुम्हारे लिए भी डाल लूँ।'
'नहीं, मैं तो कुछ नहीं लाई, पर खाऊँगी भी नहीं। कुछ भी इच्छा नहीं है बड़ी आपा।'
'अरे, क्यों न खाओगी? भूखा पेट ऐंठेगा नहीं क्या? चौथा महीना होगा, है न...?'
'हाँ, चौथा ही है।'
पेट की तरफ देखकर बड़ी आपा बोलीं-'लड़की है। आगे-बेटे हैं कि सभी लड़कियाँ हैं?'
'दो बेटे हैं।'
'खुदा का शुक्र है। वरना बेटे के लिए बेटियाँ जनते जाओ, न कोई शरीर की परवाह करने वाला न कोई देखने वाला।'
बड़ी आपा ने रेहाना को काढ़ा दिया, इससे तकलीफ ज्यादा पता नहीं चलेगी, नींद भी आ जाएगी। रन्नी काढ़ा पीकर अन्दर की कोठरी में बिछी चटाई पर लेट गई। सिर घूमने लगा। लम्बा सफर बस का... और सुबह की दो रोटियाँ खाई हुईं। रास्ते में एक कप चाय पी थी बस। आपा ने रेहाना की सलवार उतरवाई और गर्भाशय को खींच-खींच कर उसके मुँह पर एक जड़ी लगा दी। रेहाना चीखी...'भाभीजान...'
'अभी से मत चीखो...चुपचाप सो जाओ,' बड़ी आपा ने रन्नी की ओर देखकर आँखें तरेरीं।
कुछ ही देर में वह गहरी नींद सो गई। बड़ी आपा ने चूल्हे पर रोटियाँ सेंकी, अंडे की भुर्जी बनाई। दोनों खाने बैठीं पर भाभी से निवाला निगलना कठिन हो रहा था। बड़ी आपा समझ गईं-'देखो बी, मैं खाने की ज़िद न करती, मैं तुम्हारा दुःख समझ रही हूँ। लेकिन तुम पेट से हो, ऐसे में खाना जरूरी है। उसकी बच्चेदानी में मैंने जड़ी लगा दी है, दो-तीन घंटे में वह फूल जाएगी। ...बच्चेदानी का मुँह खुल जाएगा और फिर सबकुछ आसान हो जाएगा।'
भाभी सुनकर थरथरा गईं।
'देखो, मैं किसी से कुछ पूछती नहीं हूँ। लेकिन दाई से पेट छुपता नहीं है। लड़की पच्चीस-छब्बीस साल की दिख रही है, फिर हमल क्यों गिरा रही हो?'
'विधवा है।' भाभीजान रो पड़ी। बड़ी आपा हैरानी से भाभीजान की तरफ देखती रह गईं।
चूल्हा बुझ गया था, जली गीली लकड़ी की गंध बाकी थी। वहीँ बिछी चटाई पर भाभी लेट गई। एक मैला चीकट काला तकिया लाकर बड़ी आपा ने भाभी को दे दिया। फिर कोठरी के अन्दर वह घुस गई और किवाड़ बंद हो गए।
अभी भाभीजान को झपकी ही आई होगी कि अन्दर से रन्नी के चीखने की आवाज़ें आने लगीं। वे उठकर बैठ गई। घबराहट से पसीने-पसीने हो उठीं। किवाड़ों की झिरी से पीली मद्धिम रोशनी बाहर आ रही थी। रन्नी की बढ़ती चीखों से घबराकर भाभीजान ने दरवाज़ा खटखटाया। बड़ी आपा ने दरवाज़ा खोला... उन्होंने देखा कि अर्धनग्न रन्नी चटाई पर पड़ी छटपटा रही थी।
'मुझे अन्दर आने दो।' उन्होंने दरवाज़े पर हाथ अड़ा दिए।
'पागल न बनो बी, मुझे अपना काम करने दो। पहले ही कहा था, सारी रात लगेगी। बच्चाजनवानेमें उतनी तकलीफ नहीं होती जितना गिराने में।' बड़ी आपा ने कहकर दरवाजा बन्द कर लिया।
अन्दर से चीखने की आवाज़ आती रही, 'भाभीजान...मुझे बचा लो, ...भाभीजान। ...' औरइधरबन्द दरवाजे से चिपकी बैठी भाभी थरथर काँप रही थीं। अन्दर रूह कंपा देने वाली चिल्लाहटें, चीखें थीं।
'मेरे परवरदिगार, लड़की पर रहम कर। मेरे अल्लाह, मेरे मौला रहमकर, रहम कर।' वे बिलख-बिलखकर रोने लगीं। उन्होंनेदरवाजेपर सिर पटका, 'तू रहम करेगा या नहीं, या मैं सिर पटक-पटककर अपनी जान दे दूँ,' एक लम्बा समय बीत गया। वे हिचक-हिचककर रो रही थीं। अन्दर से केवल कराहने की आवाज़ आ रही थी। बाहर कुछ मुर्गियाँ कुड़कुड़ाई और मुर्गे ने बांग दी। बकरीके गले की घंटियाँ बज उठीं, सुबह हो गई थी, लेकिन धुँधलका ही था। जानवर जगने को कुनमुना रहे थे। फिर एक चीख सुनाई दी और एकदम शांति छा गई। भाभीजानघबराहट में उठ खड़ी हुईं, दरवाज़ा खुला, बाल बिखेरे बड़ी आपा सामने खड़ी थीं। 'अपनी पूरी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी बी, वरना आज छोकरी बचती नहीं। मेरी ज़िन्दगी पर दाग लगते-लगते रह गया। ...अल्लाह बहुत मेहरबान है, सब कुछ ठीक हो गया। जिस्म में जान बची रहे तो सेहत तोबन ही जाती है। तुम्हारी ननद ने उल्टी और पाखाना भी कर दिया। ...सब सरल समझते हैं, बस यही बुड्ढी सब ठीक कर देगी। ...किसी को पता है कि यह बुड्ढी जान पर खेल जाती है।' उन्होंने चटाई उठाकर बाहर फेंक दी-'गंदबलाधोओ, माँस के लोथड़े गाड़ो...कितने काम, खून साफ करो, देखो तो भला,' उसने तसले में माँस का खून भरा लोथड़ा दिखाते हुए कहा-'अपने इतने साल के अनुभव से बताती हूँ, किबेटा था। ...कैसेहो तुम लोग? ...अरे, इस छोकरी का निकाह न पढ़वा देते उस लम्पट के साथ? ...वो तो मस्त जान छुटाकर भाग लिया इधर इसकी जान पर बन आई।'
बड़ी आपा ने तसला उठाया, तो भाभीजान सिहर उठीं। तुरन्त अपने पेट पर हाथ फेरा। बड़ी आपा कोठरी से बाहर निकल गई। भाभी ने भीतर झाँका रन्नी अर्धबेहोशीकी हालत में पड़ी थी। खून से कुरता सना था। कोठरी में भयानक दुर्गंध थी-'लो, मैं चारपाई डाले देती हूँ। सुबह की कुनकुनी नर्म धूप में लड़की को लिटा दो।'
भाभी ने रन्नी को सहारा दिया और बाहर ले आईं। रन्नी बाहर खरहरी खाट पर लेट गई। 'बड़ी आपा तकिया?'
'न, तकिया नहीं, बल्कि पैरों के नीचे तकिया लगा दो।' बड़ी आपा वही काला चीकट तकिया उठा लाईं, 'बड़ा खून बहा है, लड़की बड़ी जीवट वाली है। रोईचिल्लाई भी नहीं, बस सहती रही।'
भाभी ने दुलार से अपनी ननद को देखा, गोरेमुँह पर पसीने की बूँदें जमा थीं। सूरज की सुनहली आभा रन्नी के पैरों को छू रही थी। बालधूप में चमक रहे थे। भाभीजान देखती रह गई; इतनी पीड़ा में भी इतना सौन्दर्य! जब खुदा ने रन्नी को गढ़ा होगा तब क्या उसकी किस्मत गढ़ना भूल गए थे।
चारपाई के चारों ओर मुर्गियाँ कुड़कुड़ा रही थी। कमरा धोकर बड़ी आपा नीचे नदी की ओर जाने लगीं, 'तुम अपनी ननद के कपड़े धो लाओ, चटाई भी धो देना। अब मैं कितना करूँ?'
'यहाँ कोई आता-जाता नहीं, कपड़े भी यहीं बदलवा दो। आज दिन भर तुम लोग नहीं जा सकतीं। शाम को सातबजे आखिरी बस जाएगी। उसी से चल देना। सारे दिन यह आराम करेगी। अभी घंटे भर में बकरी को चराने एक लड़का आएगा, उसे पैसे दे देना। दूधमँगवा लो। पाव रोटी, नीचे ठेले पर भजिया भी मिलती है। न तुम खुद भूखी रहो न लड़की को रखो। अब मुझसे चूल्हा न फुंकेगा। सत्तर साल की काया। रात भर में मैं भी थक चुकी हूँ। अब मैं नहाकर, चाय पीकर सोऊँगी।' कहते हुए बड़ी आपा नदी की ओर उतर गईं।
भाभी ने रन्नी के कपड़े बदलवाए, मुँह हाथ धुलवाया, एक ही रात में सफेदनिस्तेजपड़ गई थी रन्नी। कपड़े बदलकर रन्नी सो गई, उठने पर पैर काँपे थे। भाभी नीचे कपड़े धोने चली गई। खुद भी नहाया और आकर कपड़ेकाली चट्टान पर सुखा दिए। लड़के से दूध, पाव भजिया मँगवाए। बड़ीज़िद से रन्नी को खिलाया, बड़ी आपा नेऔर भाभी ने भी खाया। बड़ी आपा की ओर भाभी ने देखा-'काम ही ऐसा है जो रुखा बोलती हैं, वैसे दिल की बुरी नहीं हैं बड़ी आपा।' सोचा भाभी ने और चारपाई को पेड़ की छाया तले घसीटकर पास ही नीचे चटाई बिछाकर वह स्वयं भी गहरी नींद में सो गईं।