ख्वाब में क्या सच, क्या झूठ है भला / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 03 नवम्बर 2018
पूरे विश्व में कॉमिक्स उत्सव मनाया जा रहा है। भारत के भी कुछ शहरों में इसका आयोजन किया जा रहा है। भारत में कॉमिक्स का बाजार सबसे कम है। कार्टून विधा में व्यवस्था पर गहरा व्यंग्य होता है, जबकि कॉमिक्स विशुद्ध मनोरंजन प्रदान करने वाली विधा है। कॉमिक्स बच्चों के लिए रचे जाते हैं परंतु वयस्क भी इसका आनंद उठाते हैं। आरके लक्ष्मण का प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित होने वाला छोटा-सा चित्र अखबार के संपादकीय से अधिक प्रभावोत्पादक होता था। उनका केंद्रीय पात्र एक आम आदमी था।
जीवन की विषम परिस्थितियों से जूझता यह पात्र हमारे दैनिक जीवन में हमारे हमसफर और हमदर्द की तरह रहा। वह पात्र आज भी स्मृति में जीवित है। आज हमारे हुकमरान ऐसा व्यवहार कर रहे हैं कि कार्टून बनाने वालों की प्रेरणा बन सकें परंतु इस विधा का लोप हो गया है। आरके लक्ष्मण के कार्टून का उतना ही महत्व रहा, जितना सिनेमा में चार्ली चैप्लिन का रहा है। वह तो कार्टून कोने से उभरे हुए पात्र की तरह था। उसकी पोशाक भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करती थी।
सीने पर तंग आने वाला जैकेट आम आदमी के ह्रदय की जकड़न को अभिव्यक्ति देता था। उसका ढीला पतलून उसकी खस्ता आर्थिक दशा के साथ मांगकर पहने कपड़ों की मजबूरी को अभिव्यक्त करता था। पूंजीवादी अमेरिका में चार्ली चैप्लिन साम्यवाद का चलता-फिरता इश्तेहार था। इसलिए उसे अमेरिका से भागना पड़ा। मरकर भी उसे चैन नहीं मिला, क्योंकि कब्र से उसकी मृत देह चोरी हो गई। क्या किसी पूंजीवादी ने चोरी की थी? तर्क हीनता का उत्सव मनाने वाली फिल्म 'बाहुबली' भी 'अमर-कथा' नामक पत्रिका से प्रेरित कथा की तरह अविश्वसनीय रही है। राज कपूर की मेज पर कॉमिक्स का ढेर लगा होता था। अपनी सबसे अधिक लागत और घाटा देने वाली फिल्म 'मेरा नाम जोकर' की असफलता के बाद उनसे भेंट करने राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार, धर्मेंद्र, प्राण और सिमी ग्रेवाल आए और निवेदन किया कि वे सब बिना कोई मेहनताना लिए उनकी अगली फिल्म में काम करना चाहते हैं। राज कपूर ने उन्हें इस सहयोग के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि वे सब अपने क्षेत्र में सफल लोग हैं और उस समय वे स्वयं विफल फिल्मकार थे, इसलिए साथ काम करने के लिए आवश्यक समानता नहीं है।
उन्हें विदा करने के बाद भाव विहल राज कपूर ने मानसिक तनाव से मुक्त होने के लिए कॉमिक्स के ढेर से एक प्रकाशन को उठाया और डगवुड के एक संवाद ने उन्हें रोमांचित कर दिया। डगवुड अपने किशोर वय के पुत्र को समझा रहे हैं कि यह उम्र पढ़ने की है, न कि प्रेम की। मूल वाक्य था- 'यू आर टू यंग टू फॉल इन लव'। इसी संवाद से प्रेरित उन्होंने अपनी अगली फिल्म 'बॉबी' का आकल्पन किया।
उसी दिन अपने नियमित लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास को अपना विचार बताया और पटकथा पर काम आरंभ हो गया। यह सर्वविदित है कि 'बॉबी' की व्यावसायिक सफलता ने उन्हें कर्ज व घाटे से न केवल मुक्त किया वरन इतना धन दिया कि भविष्य में उन्हें फिल्म बनाने के लिए कर्ज ही न लेना पड़े। उस कॉमिक्स को फ्रेम में जड़ाकर रखना चाहिए था। इस फिल्म की सफलता से किशोर प्रेम फिल्मों की बाढ़ आ गई। गौरतलब है कि उनकी 'जैकेट' का पहला हिस्सा भी किशोर के अपनी शिक्षिका के प्रति आकर्षण की कथा प्रस्तुत करता है। ताउम्र अपने बचपन को हृदय में संजोए रखना हर सृजनकर्ता का शगल रहा है, बचपन के प्रति यह घोर आग्रह ही हमें कॉमिक्स और कार्टून संसार से जोड़े रखता है।
गुरुदत्त की फिल्म 'मिस्टर एंड मिसेज 55' का नायक अखबार में कार्टून बनाता है। एक अमीरजादी उससे प्रेम करती है और उसकी संरक्षक कार्टूनिस्ट को बातचीत के लिए आमंत्रित करती है। उसका पहला प्रश्न है 'क्या तुम कम्युनिस्ट हो?' उसका जवाब है 'मैं कार्टूनिस्ट हूं' अहंकारी महिला समझती है कि कम्युनिस्ट और कार्टूनिस्ट होने में कोई अंतर नहीं है। वामपंथ विचारधारा ही सृजन का केंद्र है। कोई राइटिस्ट महान लेखक या कवि नहीं हुआ है परन्तु वे प्रोपेगेंडा में प्रवीण होते हैं। उनकी जमात में प्रचारक ही हुक्मरान बन जाता है। गोएबल्स उनकी गीता का रचयिता है। ज्ञातव्य है कि गोएबल्स का गुरुमंत्र यह था कि 100 बार झूठ बोलो तो वह आवाम को सत्य लगने लगता है।