गंगाराम की समझ में न आये / सुशील यादव
बीसवी सदी के आदमी की समझ वैसे भी कम होती थी, उस पर आदमी का नाम अगर गंगाराम से जुड जाए तो ‘करेले’ और ‘नीम’ के मिले-जुले स्वाद को आप स्वयं जान सकते हैं|
गंगाराम इकलौते आदमी नही जिन्होंने ४७ का ज़माना, ए.के ४७ के साथ न देखा हो| अपनी जमात के लोगो के साथ वे अक्सर ४७ में गम में गम हो जाते हैं|
बीरबल तुम्हें याद है....? ये बोल के बीरबल को पुराने दिनों की तरफ घसीट लेते हैं|
एक बार जब उन दोनों के बीच ४७ की चल गई, तो वे रोके न रुकते थे| उनकी पैदाइश ३० के आस-पास की होने की वजह से दोनों हमउम्र लंगोटिए एक ही स्कूल –कालिज में पढते थे|
पडौस की, एक ही ‘बानो’ को जानते थे|हरबक्श चचा के पास उर्दू शायरी सीखने के बहाने जाया करते| शायरी का शौक क्या था, बहाना था| बानो की झलक पाने की उनमे बेताबी रहा करती थी|यूँ दोनों ने कभी हिम्मत नही जुटाई कि उससे कायदे से, अल्फाजे दुआ-सलाम भी कबूल फरमा ले !
उन दिनों, लड़कियों को ज्यादा दिन टिकाये रखने का ज़माना नही था, सो हरबक्श मिया ने भी निकाह पढवा कर् अपने अब्बा होने के फर्ज से जल्दी फारिग हो गए| गंगाराम और बीरबल के पास ‘शायरी और इश्क’ के नाम से मात्र इतनी सी जमा पूंजी है|
बानो की बिदाई के बाद उनके जीवन का अल्पकालीन पतझड शुरू हुआ और शीघ्र ही उस जमाने के, सस्ते दाल-आटे के बरसाती इन्तिजाम में उम्र की बीसवीं छतरी खोल लिए|
बड़े से बड़े सदमो को वे एक- दूसरे के सहारे, या अक्सर ‘बानो’ पर लिखी शुरवाती शायरी के लय में, मजाक उड़ाते हुए हा-हा, हो-हो कर लेते| उनके घर वालों को कभी ये राज नही खुला कि वे हंसते किस बात पे रहे ?
बीरबल ने गंगाराम से कहा, यार अब पहले सा मजा नहीं रहा|
उसकी मायूसी गैर-वाजिब नही थी| गंगाराम को बीरबल के मायूस होने का सबब, आप ही आप पता चल जाता था| उसकी हाँ में हाँ मिलाते कहता, अरे तब और अब में फरक ही फरक, हम मीलो चल के कालिज जाते थे मजाल कि कभी पैरों ने थकान की सिकायत की हो|
शहर में दूर-दूर चार थियेटर थे सब की परिक्रमा चार-धाम माफिक लगता था, रोज चक्कर लगा आते थे| वहाँ साठ पावर के दो-चार बल्ब की, जगमगाती रोशनी आज की दीवाली से ज्यादा खुशनुमा एहसास दे जाती थी| फ़िल्म के पोस्टर हीरो –हिरोइन के अंदाज, विलेन का खंखार सा सहारा, कामिडियन का छोटा सा कवरेज मन में पिक्चर की काल्पनिक स्टोरी खीच देता था, ये अलग बात थी कि फ़िल्म देखने पर कुछ जुदा ही मिलता था| टाकीज की दीवाल में आने वाली फ़िल्म मय हीरो हिरोइन विलन संगीतकार, गीतकार के पढकर एक इंतिजार का माहौल बन जाता था, याद करो तो आज भी शहर में रहने का फक्र लगता है|
बीरबल एक मुर्गा अकेले सूत लेता था, मुर्गे उन दिनों देशी हुआ करते थे| आज के मुर्गे की तरह नहीं जो मुह में केबरे करते हैं| चबाये नही चबते, चुइंगम की तरह इधर से उधर डुलाते रहो| गुटक न लो तो डाइनिग टेबल में, एक डिनर का औसत वक्त मेहमानो के साथ दूसरी-तीसरी बार, मौसम के अलावा कोई अलग टापिक नही छोडता| बीरबल का मुर्गा-प्रेम उसे सभी होटल –बासा के स्वाद के साथ अब भी याद है| सुंदर होटल, पंजाबी बासा, बस स्टेंड वाला न्यू पंजाबी मांसाहारी होटल, उसी के हमनाम बीरबल चिकन सेंटर, ऐसा कोई होटल उसने नही छोड़ा जहाँ तंदुर में चिकन-मटन की खुशबु न उडी हो| अगर उसकी आँख में पट्टी बाँध कर किसी होटल के सामने खड़ा कर दो तो वो बता सकता था कि फला होटल है| बीरबल को गंगाराम का वेजीटेबलीय साथ मिलता, बीरबल ने कितनी बार आग्रह किया कि कम से कम ‘तरी’ तो ले-ले मगर गंगाराम कह देता, होटल में वेज भी तेरी खातिर खा लेता हूँ वरना......? वैसे, उनकी दोस्ती में वेज-नानवेज वाला फर्क कभी भारी नही पड़ा|
गंगाराम के पास लोक-लिहाज वाली अकल थी मगर अंग्रेजी और हिसाब के मामले में जरा पैदल हुआ करते थे| बीरबल का बीस होना उन दोनों ने कभी न फील दिया न होने दिया| दोस्ती इसी बीएड सेक्टर के फील होनेके बावजूद, फील न होने देने का नाम है, जिसकी मिसाल वे तिरासिवें पड़ाव तक दिए जा रहे हैं|
उन्होंने जिन्दगी के कई बदलाव साथ –साथ देखे रेडियो, टेप-रिकार्डर, -टेलीविजन, कम्प्युटर, ऐ. के.47, बम्बब्लास्ट भजन-कीर्तनवाले साधू-संतों के बीच मवाली किस्म के | उनको जहाँ अच्छे बदलाव के साक्षी होने का गुमान है वही वे, बम- बन्दूक के नापाक इस्तेमाल से दुखी रहते हैं| भरा-पूरा परिवार, चैन की रोटी उनकी सहेजी हुई पूंजी है|
गंगाराम जिन्दगी के इंच-इंच को फूँक कर चलते रहा, मगर वो आज तक ये न जान सका कि उसके साथ जिन्दगी का सबसे बड़ा धोका कैसे हो गया?
जिसे संत समझ परलोक सुधारने की लालच में गुरु बनाया, वो बलात्कारी, कपटी धूर्त निकला|आस्था की धूरी हिला के रख दी|
आदमी की परख में इतनी भयानक गलती कैसे हो गई? ये गंगाराम की समझ में आखिरी सांस तक शायद ही आये!