गंगा आए, जाए कहां से कोई न जाने / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 29 अप्रैल 2020
कोरोना कालखंड में गंगा का पानी स्वच्छ हो गया है। सभी नदियां कुछ हद तक प्रदूषण से मुक्त हो गई हैं। स्पष्ट है कि महामारी के कारण लॉकडाउन लगाया गया। नदियों के घाट पर स्नान बंद हो गया। कोई लोटा लेकर भी गंगा किनारे बैठा नजर नहीं आया। स्पष्ट है कि मनुष्य ही गंगा में गंदगी प्रवाहित करते थे। स्वीमिंग पूल में प्रवेश के पहले स्नान करना जरूरी होता है। यह सावधानी हमने नदियों के साथ नहीं बरती। कुछ शहरों में नगर पालिका का कचरा नदी में मिलाया जाता है। गंगोत्री से समुद्र में समाने तक गंगा 2525 किमी का सफर तय करती है। अनेक नदियां गंगा में मिलती हैं। इलाहाबाद में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम होता है। सरस्वती शोर नहीं करती और न ही दिखाई देती है। सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त लोग भी खामोशी से अपना काम करते हैं। दक्षिण भारत से निकली सोन नदी भी इलाहाबाद से कुछ दूरी पर गंगा से मिलती है।
यह स्थान इलाहाबाद से कुछ किलोमीटर दूर है। इसे त्रिवेणी या संगम नहीं समझा जाना चाहिए। जो लोग भारत के नक्शे को दीवार पर टांगते हैं, उन्हें आश्चर्य होता है कि सोन नदी चढ़ाई कैसे कर सकती है। वे यह भूल जाते हैैं कि धरती दीवार पर नहीं, वरन दीवार धरती पर खड़ी है। विश्व में गंगा से अधिक लंबा सफर करने वाली कई नदियां हैं, परंतु गंगा के साथ किंवदंतियां, कथाएं और लोक गीत जुड़े हैं। भारत के सांस्कृतिक इतिहास की छाया गंगा के जल में देखी जा सकती है। अनगिनत लोग गंगाजल घर में रखते हैं। पूजा-पाठ, हवन इत्यादि के साथ ही मृत्यु के समय दो बूंद गंगाजल मनुष्य को दिया जाता है। अजूबा यह है कि वर्षों तक गंगाजल स्वच्छ बना रहता है। वह सूखता भी नहीं। इसका कारण यह है कि गंगा अनेक वृक्षों की जड़ों के संपर्क में रहती है और इन्हीं जड़ी-बूटियों के कारण वह जल स्वच्छ बना रहता है। शहंशाह अकबर ने जगह-जगह घुड़सवार नियुक्त किए थे जो उन्हें ताजा, स्वच्छ गंगाजल उपलब्ध कराते थे।
गंगा नदी को पृष्ठभूमि बनाकर मनोहर मूलगांवकर ने उपन्यास लिखा ‘ए बेंड इन द गेंगेज’। अंग्रेजी के नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि टी.एस. इलियट अपनी कविता में गंगा लिखते हैं, जबकि भारतीय लेखक ‘गेंगेज’ लिखते हैं। अधिकांश भारतीय लोग चाहते हैं कि उन्हें गंगा किनारे बनी चिता प्राप्त हो या कम से कम उनकी अस्थियां गंगा में विसर्जित की जाएं। ज्ञातव्य है कि ‘मसान’ नामक फिल्म में गंगा किनारे दाह संस्कार कराने वाले डोम परिवार के युवा की दुविधा और प्रेम की कथा प्रस्तुत की गई है। एक फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा ने डोम की भूमिका अभिनीत की है। एक उम्रदराज व्यक्ति को दाह संस्कार के लिए लाया गया है। उसकी युवा विधवा को भी सती हो जाने के लिए बाध्य किया गया है। यह फिल्म डोम और युवा विधवा की प्रेम कहानी है। केतन मेहता की फिल्म ‘मंगल पांडे’ में एक अंग्रेज अफसर जबरन की जा रही सती को बचाकर अपने घर लाते हैं। सती को उनसे प्रेम हो जाता है। रूढ़िवादी ताकतें उन पर आक्रमण करती रहती हैं। राज कपूर की दो फिल्मों के टाइटल गंगा प्रेरित हैं- ‘संगम’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’। बिहार में फिल्म ‘गंगा मइया तोहरी पियरी चढ़ाइवे’ अत्यंत सफल रही। फिल्मकार सुल्तान ने ‘गंगा की सौगंध’ बनाई। गंगा किनारे वाला छोरा गीत लोकप्रिय है। दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ विधवा जीवन की व्यथा-कथा है।
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इलाहाबाद में जन्मे। नेहरू की आखिरी वसीयत एक कविता की तरह है। उनकी इच्छा थी कि उनकी अस्थियों का एक छोटा भाग गंगा में प्रवाहित हो और शेष भाग हेलिकॉप्टर द्वारा खेतों में छितरा दिया जाए। वसीयत की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं- ‘गंगा से लिपटी हुई है भारत की जातीय स्मृतियां, उनकी आशाएं, उसके डर, उसकी जय, पराजय, वह नदी मात्र नहीं, एक संस्कृति का प्रवाह है। वह सदा बदलते और बहते हुए भी गंगा ही बनी रहती है। वह मुझे हिमालय और घाटियों की याद दिलाती है... मैंने सुबह की रोशनी में गंगा को मुस्कुराते, उछलते, कूदते, इठलाते देखा है और शाम के साए में उदास, काली सी चादर ओढ़े हुए, भेदभरी मंद मुस्कान लिए। जाड़ों में सिमटी सी, आहिस्ता-आहिस्ता बहती हुई और बरसात में दौड़ती हुई, समुद्र की तरह चौड़ा सीना लिए, गंगा भारत की प्राचीनता की यादगार है, जो वर्तमान तक बहती हुई और बहती जा रही है महासागर के भविष्य की ओर...’