गंगा -स्नान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
दो जवान बेटे मर गए. दस साल पहले पति भी चल बसे। दौलत के नाम पर बची थी सिलाई मशीन। सत्तर साला बूढी पारो गाँव–भर के कपड़े सिलती रहती। बदले में कोई चावल दे जाता तो कोई गेहूँ या बाजरा। सिलाई करते समय उसकी कमज़ोर गर्दन डमरू की तरह हिलती रहती। दरवाज़े के सामने से जो भी निकलता वह उसे राम-राम कहना न भूलती।
दया दिखाने वालों से उसे हमेशा चिढ़ रहती। छोटे-छोटे बच्चे दरवाज़े पर आकर ऊधम मचाते; लेकिन पारो उनको कभी बुरा-भला न कहकर उल्टे खुश होती। प्रधानजी कन्या पाठशाला के लिए चंदा इकट्ठा करने निकले तो पारो के घर की हालत देखकर पिघल गए–"क्यों दादी, तुम हाँ कह दो तो तुम्हें बुढ़ापा-पेंशन दिलवाने की कोशिश करूँ?"
पारो घायल-सी होकर बोली-"भगवान ने दो हाथ दिये है।"
मेरी मशीन आधा पेट रोटी दे ही देती है। मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाऊँगी। क्या तुम यही कहने आए थे? "
मैं तो कन्या पाठशाला बनवाने के लिए चंदा लेने आया था। पर तेरी हालत देखकर। "
"तू कन्या पाठशाला बनवाएगा?" -पारो के झुर्रियों से भरे चेहरे पर सुबह की धूप-सी खिल गई।
"हाँ, एक दिन ज़रूर बनवाऊँगा दादी। बस तेरी असीस चाहिए।"
पारो घुटनों पर हाथ टेककर उठी। ताक पर रखी जंगखाई संदूकची उठा लाई. काफी देर तक उलट-पलट करने पर बटुआ निकाला।
उसमें से तीन सौ रुपये निकालकर प्रधानजी की हथेली पर रख दिए- "बेटे, सोचा था-मरने से पहले गंगा नहाने जाऊँगी। उसी के लिए जोड़कर ये पैसे रखे थे।"
"तब ये रुपये मुझे क्यों दे रही हो? गंगा नहाने नहीं जाओगी?"
"बेटे, तुम पाठशाला बनवाओ। इससे बड़ा गंगा-स्नान और क्या होगा।" -कहकर पारो फिर कपड़े सीने में जुट गई। "