गंजीफा भाग्य का लिफाफा, लतीफा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 मई 2020
कोरोना से सामूहिक सुरक्षा की खातिर घरों में रहना आवश्यक है। इसलिए कैरम बोर्ड, सांप और सीढ़ी, लूडो तथा ताश के खेल अत्यंत लोकप्रिय हो रहे हैं। ताश के पत्तों से ब्रिज, तीन पत्ती, रमी, चौकड़ी इत्यादि खेल खेले जाते हैं। पेशेन्श नामक खेल व्यक्ति अकेला ही खेल सकता है। खेल के नाम का अर्थ है धीरज, जो जीवन का शाश्वत मूल्य है। इस खेल में कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं होता, परंतु स्वयं से छाया युद्ध लड़ने की तरह यह खेल खेला जाता है। इस तरह पेशेन्श का खेल खुद की तलाश माना जा सकता है- ‘आत्मान: विद्धि’। ब्रिज के खेल में अपने भागीदार को अपने पत्तों के बारे में संकेत दिए जाते हैं, ताकि दोनों मिलकर विजय दिलाने वाली बिडिंग कर सकें। यह एक अनोखे संवाद का खेल है। ‘दिल ने दिल से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार।’ कुछ परंपराओं के अनुसार ही यह खेल खेला जाता है।
चीन में तांग वंश के शासनकाल में लकड़ी से बने ताश का आविष्कार हुआ। देश-विदेश यात्राओं में ताश के पत्तों के आकार बदले और उन्हें विविध नाम से पुकारा गया। मुगल काल में इन्हें ‘गंजीफा’ कहा गया। यह फारसी जुबान का शब्द है। क्या ताश के पत्तों की संख्या का 52 होना इन्हें वर्ष के 52 सप्ताह से जोड़ता है? जाने कैसे ताश के खेल ने कुछ कहावतों को जन्म दिया। मसलन ताश में भाग्यवान प्राय: प्रेम में विफल होता है। ताश के तीन पत्ती खेल में अपने हाथ के पत्तों की ताकत को लेकर झूठ बोला जाता है। प्रेम में झूठ नहीं चलता। संभवत: इसी कारण यह कहावत बनी है। अमेरिका में पोकर खेला जाता है। पत्ते देखते समय खिलाड़ी के चेहरे पर कोई भाव नहीं आना चाहिए। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति पोकर चेहरे वाला है। जब जीत का अवसर शून्य हो और तब भी दोगुनी बाजी लगाए तो कहते हैं कि खिलाड़ी के पास चीनी व्यक्ति जैसे अवसर भी नहीं हैं। फिल्मों में ताश के खेल का इस्तेमाल बहुत बार किया जाता है। देव आनंद की फिल्मों में जुआ खेलने के दृश्य रखे गए थे। जुआ घर की डांसर नायक पर जी-जान से फिदा है। जुआ और जवानी का कॉकटेल जल्द ही सिर पर चढ़ जाता है। इस तरह के गीत भी रचे गए हैं- ‘अपने पर भरोसा हो तो ये दांव लगा ले, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले...’। विगत सदी के छठे दशक में गुरु दत्त और राज कपूर की फिल्मों में ताश के खेल के दृश्य रचे गए। जेम्स बॉण्ड शृंखला की एक फिल्म का नाम ही है ‘कैसिनो रॉयल’।
दिलीप कुमार ने कभी जुआ नहीं खेला परंतु ताश की गड्डी फेंटते हुए वे ताश जमाने में माहिर हो गए। उनकी जीवन शैली में नित नई चीजें सीखना हमेशा अनिवार्य रहा। लंबे समय तक सितार बजाना भी सीखा। बिमल रॉय की देवदास के लिए स्वयं एक गीत भी गाया। दिलीप कुमार ताश फेंटते समय ही जान लेते थे कि पत्ते किस तरतीब में पहुंच गए। राज कपूर की ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ में ताश के दृश्य हैं, परंतु वे स्वयं इस खेल में अनाड़ी रहे। दीपावली उत्सव पर अपनी दावत में वे ताश के खेल का आयोजन करते थे। स्वयं सबसे कम बाजी वाली टेबल पर बैठकर उन्हें हारने की जल्दी होती थी, ताकि रस्म अदायगी करके वे तमाशा देख सकें। दीपावली के अवसर पर खेले गए ताश के खेल में मनोज कुमार हारे और उन्होंने निर्माता मदन मोहला से रुपए उधार लिए। अगले दिन मनोज कुमार कर्ज अदायगी के लिए पहुंचे तो मदन मोहला ने उनसे निवेदन किया कि कर्ज अदायगी के एवज में उनकी फिल्म में अभिनय करें। इस तरह फिल्म ‘दस नंबरी’ का निर्माण हुआ। इसी फिल्म के सैटेलाइट प्रदर्शन अधिकार बेचकर उनके पुत्र बालम मोहला को अच्छी खासी आय प्राप्त हुई। क्या इस आय को भी दीपावली उत्सव पर खेले गए जुए की कमाई ही माना जाएगा? कैसे कहें- खेल कहां शुरू, कहां खतम। ताश के पत्तों को इस तरह जमाया जा सकता है कि वे घर का आकार ले लें। इस काम में समय और मेहनत दोनों लगती है, परंतु हवा के एक झोंके से ताश का यह महल ढह जाता है।
खाड़ी देश के बादशाह ताश खेल रहे थे। चाल पर चाल चली गई और राशि बढ़ गई। प्रतिद्वंद्वी ने धनराशि टेबल पर रखकर बादशाह से पत्ते दिखाने का निवेदन किया। बादशाह ने कहा कि उनके पास तीन बादशाह हैं। ऐसा कहकर दो बादशाह दिखाए और कहा कि तीसरे बादशाह वे स्वयं हैं। दरअसल, उनका तीसरा पत्ता चिड़ी की दुर्री था। दरबारी रैफरी ने उन्हें विजयी घोषित किया। बेहतर पत्ते वाला हार गया। वर्तमान में भी सैंया भये कोतवाल, व्यवस्था को डर काहे का?