गंदा कुत्ता / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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ठाकुरजी बड़े सफाई पसंद व्यक्ति थे। धूल का एक कण तो क्या जरा सा दाग भी हो¸ उन्हें बर्दाश्त नहीं होता था। सारा घर सिर पर उठाए रहते। उनके घर के नौकर चाकर सभी के नाक में दम था। सभी बेचारे दिन भर झाडू¸ गीला कपड़ा लिये यहाँ वहाँ दौड़ भाग मचाते रहते। पूजा घर में स्वच्छ सफेद संगमरमर लगा हुआ था और ठाकुरजी का आदेश था कि इसकी रोजाना सफाई होना जरूरी है।


दूसरी बात¸ उन्हें जानवरों से बड़ी घृणा थीी। खासकर कुत्तों से। गाय या हाथी कभी गली मोहल्ले में घूमते तो उन्हें कोई एतराज नहीं होता लेकिन कुत्ता कहीं भी दिखा कि उनका मुँह चढ़ जाता। उनके हिसाब से यदि ये संसार चलता होता तो सभी जगहों पर सफेद पत्थर मढ़वा दिया होता उन्होने जिससे धूल का नामोनिशान न रहे।


लेकिन इन दिनों ठाकुरजी की त्यौरियाँ चढ़ी हुई रहती थी। रोजाना उनकी सुबह की सैर के वक्त एक भूरा सा मध्यवय का स्वस्थ कुत्ता किसी पुराने संगी साथी की भाँति उनके साथ हो लेता था। वे लाख उसे झिड़कते¸ भगाते वहाँ से लेकिन वह पूँछ हिलाता फिर थोड़ी देर बाद हाजिर हो जाता। उन्हें इस तरह से परेशान होते देख शायद उस श्वान को बड़ा मजा आता था क्योंकि वह राह चलते किसी अन्य व्यक्ति के पीछे कभी भी नहीं गया था।


"अरे साथ में छड़ी लिये चला करो।" ठाकुरजी के मित्र ने सुझाया। लेकिन उससे भी कुत्ता नहीं ड़रा। "उसे कुछ बिस्कुट ड़ाल दिया करो रोजाना।" दूसरा सुझाव आया। "लेकिन इससे एक के स्थान पर और भी कुत्ते पीछे पड़ने लगे तो?" उनकी धर्मपत्नी का कहना सही था। खैर वे अपनी सुबह की सैर पर उस संगी के साथ जाते रहे¸ उसपर कुढ़ते रहे। संपर्क होता रहे तो इंसान - इंसान का भी प्रेम हो जाता है फिर ये तो खैर जानवर था। लेकिन ठाकुरजी को कबी रास नहीं आया। वे उससे हमेशा चार हाथ दूर ही रहते। खई बार राह चलते उनसे कईयों ने कहा भी था¸ "अरे ठाकुर साहब आसरा दे दीजिये इस अनाथ को अपने बँगले में।" तब ठाकुर साहब "शिव शिव! आज कहा¸ फिर मत कहना ऐसी अपशगुनी बात। मैं और किसी कुत्ते को स्वेच्छा से अपने घर में रखूँगा?" और वे त्यौरियाँ चढ़ाते¸ उस श्वान को एक बार फिर झिड़कते हुए आगे निकल जाते।


उन दिनों शहर सांप्रदायिक तनाव के घेरे में था। एक त्यौहार विशेष के दिन शहर के मध्य विस्फोट होने वाला है ऐसी अफवाह जोरों पर थी। ठाकुरजी नित्य की भाँति सफेद झक कुर्ते पजामें में सैर को निकले। हाथ में बेंत की लकड़ी¸ साथ में अनचाहा संगी। रिंग रोड़ पर पहुँचने को ही थे कि कहीं दूर से नारे बाजी और अस्पष्ट वाद विवाद के स्वर सुनाई दिये। ये सोचकर कि वे अपानी सैर पूरी करके ही लौटेंगे¸ वे अपने रोज के रास्ते पर चल निकले। लेकिन देखते ही देखते¸ पूरा माहौल बदल गया। ठाकुरजी सम्हल पाते इससे पहले ही जोर - जोर से ढोल ढमाके पीटते कुछ ट्रकनुमा वाहन निकले। उनमें बैठे चिल्लाते हुए हथियारों से लैस युवा। तूफानी गति से गुजरते उन वाहनों के पीछे थी एक क्रुद्ध भीड़। रास्ते में आते जा रहे सभी वाहनों¸ लोगों पर अपना गुस्सा बरसाती उस भीड़ पर पीछे से अश्रुगैस ¸ लाठियाँ भी वार कर रही थी। सब कुछ अनियंत्रित सा हो चला था।


ठाकुरजी को सोचने तक का समय न मिला और अनजाने ही वे अपने श्वान मित्र के पदचिन्हों पर उस अनदेखी बस्ती की तंग गलियों से गुजरते हुए किसी टूटे - फूटे शरण स्थल पर पहुँचे। श्वान ने उनका साथ नहीं छोड़ा था। इतनी तेजी से यह लंबी दूरी तय कर आने के कारण उनकी साँस फूल रही थी। कुत्ता भी जीभ निकाले हाँफ रहा था। उस जीर्ण - शीर्ण से टूटे¸ एकांत मकान की सीढ़ियाँ¸ सीलन से भहराकर टूटने को हो आई थी। धूल की परतें जमी थी वहाँ। हमेशा के सफाई पसंद ठाकुरजी आज इतने थके और सहमें से थे कि अपनी झक सफेदी की परवाह किये बिना उन गंदी सीढ़ियों पर जस के तस टिक गये।


उन्होने देखा¸ थका हुआ कुत्ता हाँफता जा रहा था लेकिन उसने एक स्थान पर पंजों से मिट्टी खोदी¸ उस जगह को साफ किया और फिर उसपर बैठ सुस्ताने लगा। ठाकुरजी मुस्कुराने लगे। तो आज ये कुत्ता सफाई में उन्हें पीछे छोड़ गया था।


लेकिन उनकी हँसी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाई। भीड़ का शोर वहाँ भी आ पहुँचा था। कब और किस वक्त वे क्या कर बैठे इसका कोई भरोसा नहीं था। ठाकुरजी ने कातर नेत्रों से श्वान को देखा। वह समझ रहा था। बाहर निकलकर वह दो तीन सुरक्षित से दिखाई देते रास्तों पर चलने को हुआ। परंतु जल्द ही वापिस लौट आता। और अंत में उसने एक ऐसा रास्ता ढूँढ़ निकाला जो उस टूटे मकान के पिछवाड़े से निकलकर नाले के पार जाता था। ठाकुरजी अपने सारे सोच विचार ताक पर धरे उस कुत्ते के पीछे दुम हिलाते चले जा रहे थे। शायद यही रास्ता आगे चलकर रिंग रोड़ के दूसरे छोर पर खुलता है। वहाँ से दो तीन किलोमीटर के बाद उनका अपना इलाका ही आ जाएगा।


लेकिन थोड़ा ही आगे चले होंगे¸ कि दो पागल से दिखाई देते व्यक्ति उनपर शक की निगाह रखते पीछे हो लिये। उनकी टोह लेते हुए पीछे से वे एक भरपूर वार करने को ही थे कि वह श्वान गजब की फुर्ती से उन दोनों पर टूट पड़ा। जगह - जगह पंजों के घाव और खून लिये वे दोनों सर पर पाँव रखकर भागे।


ढाकुरजी तो जैसे पत्थर का बुत हो गये थे। कुत्ते ने उनके धूल से सने हाथ चाटने शुरू किये। उन्होने कोई प्रतिवाद नहीं किया। वह पूँछ हिलाता उनके पैरों में लोट लगाने लगा¸ उनका पायजामा धूल - कीचड़ से सान दिया। ठाकुरजी ने कोई विरोध नहीं जताया। उल्टे वे उसे गोदी में लेकर किसी नन्हे मुन्ने के जैसे लाड़ करने लगे। खुद में हुए इस बदलाव पर उन्हें स्वयं आश्चर्य हो रहा था। और हो भी क्यों ना !


आखिर यही कुत्ता आज इन्सानियत में उनसे आगे जो निकल गया था...