गंधमादन पर एक दिन / प्रताप दीक्षित
कमरे मन अँधेरा था। लाईट जलाने का उसका मन हुआ ना ही आशीष ने कहा। उनके बीच फैला हुआ था मौन का अंतहीन संवाद। उसने आश्वस्ति महसूस किया। कभी-कभी कितना कठिन हो जाता है एक-दूसरे का सामना करना। आँखों में लिखे जाने कितने अनकहे प्रश्न, जिनके उत्तर कभी नहीं होते, मुखर होने लगते हैं। कम से कम यह अँधेरा उनसे बचने में सहायक तो था। लंबी यात्रा से वापसी के बाद, थके होने पर भी उनकी आँखों में नींद नहीं थी। कितनी ही देर वे करवटें बदलते रहे। आशीष एक गहरी सांस लेकर उठे, सोफे के नीचे ज़मीन पर बैठ, उसके हाथ पर हाथ रख – सबकुछ ठीक हो जाएगा जैसा दिलासा देने का प्रयास किया था। आशीष का हाथ ठंडा और पसीने से भीगा हुआ था।
उसकी आँखों में आकाश उतर आया था। उसे कॉलेज के दिनों की याद आई. फैकल्टी से लगा हुआ विशाल मैदान, नरम धूप और किनारे छतनार पेड़ों के नीचे बेंचें। वह और आशीष, बीच के किसी खाली पीरियड या कॉलेज के बाद, कोने वाली बेंच पर देर तक चुपचाप बैठे रहते। समय का पता न चलता। बिना कुछ बोले एक दूसरे का होना महसूस करते हुए.
पहाड़ों की तलहटी में बसे उस नगर में, अक्सर होने वाली, बरसात आम बात थी। चारो ओर पहाड़ों से घिरी घाटी में बादल घिर आते। फिर फुहारें शुरू हो जातीं। मिट्टी से सोंधी महक उठने लागीती। वह आशीष की पीठ से टिकी, आँखें बंद किए वैसे ही बैठी रहती। उसे लगता समय की सीमा से परे, युगों से इसी तरह भीग रही है। आशीष कुछ कहने की कोशिश करता। वह बीच में ही टोकती – ‘आशीष! उर्वशी और पुरु गंधमादन पर ऐसे ही चंदनवन की मादक सुगंध में डूबे रहते होंगे न।’ उसका प्रश्न स्वयं ही उत्तर भी होता।
वह एम0ए0 संस्कृत के अंतिम वर्ष में थी। कालिदास की किंचित कम प्रसिद्ध ‘विक्रमोवर्शीय’ उसे सर्वाधिक प्रिय थी। उर्वशी और पुरुरवा का प्रेम प्रसंग उसे मुग्ध कर देता। एक परंपरा मुक्त, वर्जनाहीन प्रेम, जिसकी नियति दोनों ही जानते हैं। शापग्रस्त उर्वशी का समर्पण उसे अभिभूत कर जाता।
पानी तेज होने पर आशीष कहता, ‘हे देवि, अब गंधमादन से इस जगत में वापस आओ. भीगकर बीमार हो जाने पर इस पुरु को तुम्हे डॉक्टर भटनागर उर्फ दुर्वासा के पास ले चलना पड़ेगा। जिसे तुम्हारी कला-कविता की ज़रा भी समझ नहीं है।’
वह जब-कब उसका मज़ाक उड़ाते हुए चिढ़ाता, ‘आखिर तुम कवि ऐसे लोग इस संसार में क्यों नहीं रहते?’
वह खीझ जाती, ‘तुम जो हो इस सबके लिए. तुम्हारे साथ इसी लिए तो लगी रहती हूँ। तभी तो तुमसे प्रेम किया है।’
परंतु कहाँ गया वह गंधमादन? चंदनवन की सुगंध कब वहाँ रहने वाले साँपों के विषदंश में बदल गई. तब के मौन और अब में कितना अंतर था। उसने गहरी सांस भरी।
वह और आशीष आज ही दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान से लौटे में शगुन को दिखाकर लौटे थे। शगुन उनकी एक मात्र संतान। डॉक्टरों ने तमाम परीक्षणों के बाद निदान किया थे कि नेफ्राटिक सिंड्रोम की एडवांस स्टेज थी। किडनी प्रत्यारोपण ही एक मात्र विकल्प बचा था। उसके शहर के चिकित्सकों ने तो पहले ही बता दिया था। परंतु बड़ी जगह के प्रति मन में एक उम्मीद तो रहती ही है। यह सब अचानक ही तो हुआ था।
अपने छोटे से संसार में वह लीन थी। पति, वह और शगुन। शगुन जितना प्रतिभाषाली उतना ही चपल था। अनंत जिज्ञासाएँ थीं उसकी। उसके सवाल ख़त्म ही न होते। वह बताते समझते थक जाती। कभी झुंझला कर झिड़क भी देती। फिर तुरंत उसके चेहरे पर झलकती मासूम उदासी देख कर पछताती भी। बीमारी की शुरुआत एकाएक हुई या उन्हें पता ही अचानक लगा था। ऐसा भी नहीं कि वह इसके पहले सदा स्वस्थ ही रहा हो। दूसरे बच्चों की तरह आम बीमारियाँ होतीं, जल्दी ही ठीक भी हो जातीं।
इस बार बुखार लंबा खिंच गया। फिर अन्य तकलीफें। इलाज़ चलने लगा, परंतु स्थिति में अपेक्षित सुधार न हो सका। वह स्कूल जाता लेकिन अक्सर नहीं। उसकी सारी चपलता कहीं गुम हो गई थी। बॉलकनी में बैठा चारों ओर टुक-टुक ताका करता। दूसरे बच्चों को खेलता देख कभी मन में ललक उठती तो खेलने चला जाता। परंतु जल्दी ही थक कर लौट आता। हाँफ जाता, उसकी सांस फूलने लगती। उसकी आँखों में असहायता झलकती।
अक्सर उसे या आशीष को दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़ जाती। अंततः उसने लंबा अवकाश ले लिया था। आशीष का सहयोग न होता तो कब की टूट गई होती। वह तो रहती ही मायालोक में थी। निर्णय न ले पाती। आशीष की विश्वास भरी दृष्टि ही उसका सम्बल थी। जीवन के हर मोड़ पर उसका कवच वही तो बने थे। उनके प्रेम विवाह में आई बढ़ाएँ रही हों, या विवाह के बाद दस वर्षों तक माँ न बन पाने पर परिवार की उपेक्षा। तमाम तरह के तानों, लांछनों के विरोध में वह ही तो वसुधा की रक्षा रेखा बने थे।
आज पहली बार वह आशीष की दृढ़ता पिघलते देख रही थी। उसका आत्मविश्वास डगमगाता लग रहा था। उसे लगता इस सबका कारण वह स्वयं तो नहीं? वह फूटा पड़ने को हो जाती। अधिक से अधिक सब कुछ समाप्त ही तो जो जाएगा ना। लेकिन इस असहनीय छटपटाहट से तो मुक्ति मिलेगी। उस याद आता चिकित्सकीय जांचों में वह सामान्य थी। जब किसी इलाज़ से लाभ नहीं हुआ था तो एक दिन उसने आशीष से किसी बच्चे को गोद लेने के लिए कहा था। वह गंभीर हो गए थे। उसे अपनी पुष्ट बांह के घेरे में लेकर सधे लेकिन कम्पन भरे स्वर में कहा था, ‘मैंने तुमसे प्रेम किया है। मुझे केवल तुम्हारा साथ चाहिए. मैं मन नहीं करूँगा। परंतु जिसमें तुम्हारा या मेरा अंश न हो वह हमारा निजीपन, अंतरंगता कैसे पा सकेगा? क्या हमारी ज़िन्दगी एक कृत्रिम जीवन बन कर नहीं रह जाएगी? यह उस अबोध के प्रति अन्याय नहीं होगा क्या? फिर हलके मूड में आकर उसे गुदगुदाया था, ‘और फिर अभी हम इतने बूढ़े तो नहीं हुए हैं। विदेशों में तो आजकल लोग इस उम्र में शादी के लिए सोचना प्रारंभ करते हैं।’
फिर आशीष का स्थानांतरण दूसरे शहर में हो गया था, उसने भी नौकरी कर ली थी। नई जगह गृहस्थी ज़माने और नौकरी में वह व्यस्त हो गई. सब कुछ ठीक ही चल रहा था। धीरे-धीरे जीवन की एकरसता ने उसे काटना प्रारंभ कर दिया। मंद गति से सिर पर चलती आरी की तरह। आशीष का आत्मविश्वास, सौम्यता, प्यार सब उसे छलावा लगता। वह झुंझलाती- आम पतियों की तरह, ऐसी स्थिति में, पत्नी के प्रति कटाक्ष क्यों नहीं करते? लड़ते-झगड़ते क्यों नहीं? वह बहाने ढूढ़ती। आशीष ड्रिंक-सिगरेट तो दूर दफ्तर से आने में देर तक न होती। वह जानबूझ कर चाय न बनाती। आशीष स्वयं चाय बना कर उसके लिए भी ले आते। वह बिना करण झुंझलाती, लड़ती। वह मुस्करा देते और वह बेबस हो जाती।
आज, समय की शिला तले दबा, अपराधबोध बार-बार दस्तक देता। उसने सोचा था कि समय के प्रवाह में सब कुछ बह चुका होगा। पर मन स्लेट तो नहीं होता जिस पर लिखा इतनी आसानी से मिट सके. वह वह विगत एक-एक क्षण को पूरी सम्पूर्णता के साथ, वी.सी.आर. में लगे कैसेट की भांति, जिस अंश को चाहे रिवर्स या फॉरवर्ड कर, आज भी जीने के लिए अभिशप्त थी। बारह वर्षों के अंतराल के बाद भी।
जीवन की अंतहीन यात्रा, बिना किसी उतार-चढाव के, मंथर गति से चल रही थी। एक निस्पृह उदासीनता से भरे ठहराव के साथ। उस दिन आशीष दफ्तर के काम से शहर के बाहर गए थे। ऐसे में वह कामवाली या पड़ोस की लड़की को अपने यहाँ रोक लेती। कभी ऐसा न भी होता। उस दिन वह अकेली थी। बरसात हो जाने से ठंडक कुछ बढ़ गई थी। उसी शाम हरीश आए थे। दूर के पारिवारिक रिश्तेदार। परंतु इससे अधिक आत्मीय सम्बंध। सुदर्शन व्यक्तित्व के हंसमुख, जिंदादिल व्यक्ति और विनम्र। पति से उनकी ख़ूब पटती। रिश्ते के नाते उपहार लाते, मज़ाक भी लेकिन शालीनता की सीमा के अंदर। उनके साथ घंटों कविता, नाटक, फ़िल्मों आदि पर बहस होती। उस दिन वह कुछ अस्वस्थ लग रहे थे। उन्हें जब मालूम हुआ कि आशीष नहीं हैं वह वापस जाने के लिए तैयार हो गए. परंतु रिश्तेदारी और उनकी अस्वस्थता को देखते हुए उन्हें रोक लिया था। खाने के बाद वह देर तक बातें करते रहे। हरीश ड्राइंगरूम में दीवान पर लेट गए. वह अपने कमरे में चली गई थी।
दरवाजा बंद होने पर भी किसी के होने का अहसास हो रहा था। रात में उसकी नींद, ड्राइंगरूम से आती हरीश की कराहट की आवाज़ से खुली थी। उसने जाकर देखा कि हरीश के सिर का दर्द बढ़ गया था। उसने उन्हें सिर दर्द की गोलियाँ दीं। किचेन से कॉफी बना कर ले आई. वह कॉफी का कप उन्हें देकर दूसरा स्वयं लेकर बैठ गई. नाईट बल्ब का हल्का नीला प्रकाश था। डिस्प्रिन और कॉफी से वह कुछ स्वस्थ हुए थे। कॉफी पीने के बाद वह उठने को थी तभी हरीश ने उसका हाथ पकड़ अपनी ओर खींचा था। वह अचानक उत्पन्न स्थिति से हतप्रभ रह गई. उसने हाथ छुड़ाने का प्रयास किया तब तक हरीश ने उसे बांहों में जकड़ लिया था। उसने अंतिम बार छूटने की कोशिश असफल कोशिश की। परंतु रात का एकांत, हरीश के सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण, अवचेतन में छिपी कामना या विद्रोह जाने क्या था कि वह निश्चल होती गई. विरोध शिथिल पड़ गया था। उसे बस इतना याद है कि हरीश की साँसे जहाँ उसको छूतीं शरीर का वह हिस्सा निष्प्राण हो जाता और वह शरीर से परे हो गई थी।
सुबह जब वह अस्त-व्यस्त कपड़ों को ठीक करते, अपने कमरे में जा रही थी सोते हुए हरीश का चेहरा ध्यान से देखा। दुर्दमनीय आकर्षण, बच्चों की तरह निष्पाप, बहुरुपिया राक्षस ऐसे कितने रूप पल-पल में बदल रहे थे। उसके मन में आया कोई भारी चीज उस पर पटक दे। लेकिन उसके सोए हुए मुख पर बदलते भाव, अपने विरोध की निष्क्रियता ने उसे ऐसा करने से रोका था। कमरे में वह देर तक जाने क्या-क्या सोचती रही। उसे लगा यह सब हरीश का नियोजित उपक्रम तो नहीं था।
परंतु विवाह के वर्षों बाद, उम्र के इस मोड़ पर, उसे क्या हो गया था? सुबह हरीश लज्जित से थे। फिर वह चले गए. वह पूरे दिन विरोधाभासों से घिरी रही। एक ओर देर तक नहाते हुए देह से पराई गंध को दूर करने का प्रयास कर रही थी। दूसरी ओर आँखें बंद करते ही तृप्ति के नशे में डूब जाती। वह परेशान हो उठी। क्यों चले गए आशीष उसे अकेला छोड़ कर! अगली शाम वह उनके वापस आने पर उसके गले लग कर सिसक पड़ी थी। उस रात, कितने दिनों बाद, वह आशीष के प्रेम में अनन्यता से डूब गई थी। उसके शरीर से सटी उसे लगा था कि उसका सारा कलुष धुल रहा है। आशीष के होंठों का प्रत्येक स्पर्श उस दंश के प्रभाव को हर रहा था। उसे कहीं पढ़ा-सुना याद आया – सर्पदंश का ज़हर भी शायद इसी तरह खींचा जाता होगा। समर्पण की सम्पूर्णता के बाद उसे नदी होने का अहसास हुआ जिसके प्रवाह में सारा अवांछित बह चुका है।
अगली सुभास ऑफिस जाते समय आशीष ने पूछा, ‘कोई पत्र वगैरह तो नहीं आया?’
‘जी नहीं, हरीश जी आए थे? आपके ने होने से रुक नहीं रहे थे।’
‘अरे क्यों? रोकना चाहिए था।’
‘जी ज़ोर देने पर रुके थे। अगले दिन चले गए.’
कुछ दिनों बाद उसने अपने अंदर एक अंतर महसूस किया था। सर्वथा अछूता परंतु एक आदिम अनुभूति। एक प्रस्फुटन। अनुभवहीन होने पर भी, संभवतः प्रत्येक स्त्री, धरती की भांति, सृष्टि के प्रथम अंकुरण को पहचान लेती है। वह भयंकर अंतर्द्वंद्व में घिर गई. उसके अंदर पलता अंश किसका होगा? आशीष या । । ।! वह सोच कर कांप उठती, ‘नहीं इससे छूटकारा पाना ही होगा और कोई विकल्प नहीं।’ इस अंतर्यातना में वह बीमार हो गई. उस पर अवसाद का दौरा पड़ा था। आशीष उसे डॉक्टर के यहाँ ले गए. डॉक्टर ने बधाई देते हुए उसके संदेह की पुष्टि कर दी थी। उससे न हंसते बन रहा था न रोते। आशीष के मुख पर ख़ुशी कौंधी थी। पूरी तरह एहतियात बरतते हुए गोद में लेकर उसे बिस्तर पर बैठाल दिया था, ‘अब पूरी तरह आराम। एग्जर्शन बिल्कुल नहीं।’
उसे आशीष पर असीम ममता के साथ अपने पर घृणा उत्पन्न हुई. उसका जी चाहा वह चीख-चीख कर सब कुछ बता दे। परंतु आशीष के चेहरे पर झलकती ख़ुशी देख कर हिम्मत नहीं जुटा सकी थी। उस क्षण आशीष उसे दुनिया का सुन्दरतम पुरुष प्रतीत हुआ था। उसी पल उसने निश्चय किया – आगत केवल उसका होगा। अंकुर का सम्बंध धरती से होता है। बाद में हरीश आए, एक-दो बार अकेले होने पर भी। लेकिन स्पष्ट उपेक्षा से, मन में किसी तरह की कामना रही भी होगी, प्रकट नहीं हो सकी। धीरे-धीरे उनका आना बंद-सा हो गया।
पुत्र पूरी तरह माँ पर गया था। उसको जैसे जीवन का नया संदर्भ मिल गया था। वे व्यस्त होते गए. आशीष शिशु पालन और बाल मनोविज्ञान पर पुस्तकें लाते। उसके साथ डिस्कस करते। नेपी बदलने से लेकर खिलौने, फिर स्कूल, किताबें, उसका होमवर्क। वह उसके सो जाने के बाद ही चैन की सांस ले पाती। कभी सोचती एक में तो यह हाल है। पता नहीं, उसे आश्चर्य होता, हंसी भी आती, लोग तीन-चार कैसे पाल लेते हैं। शगुन उसके जीवन में जाड़े की चटक धूप की तरह था। तभी घनघोर घटाएँ घिर आई थीं। उसकी बीमारी से वे बिखर गए थे। एम्स के डॉक्टरों के अनुसार उसकी क्रानिकल रीनल फेल्योर की स्थिति भी आ सकती थी। अब किडनी के डोनर की तलाश थी उन्हें। मुश्किल यह थी कि शगुन का ब्लड ग्रुप और टिश्यु, उसके या आशीष, किसी से मैच नहीं कर रहे थे। अब केवल कैडवारिक डोनर (मृत शरीर से प्राप्त) या उपयुक्त व्यक्ति द्वारा गुर्दा दिए जाने का ही भरोसा था। डॉ0 छाबड़ा को आश्चर्य हुआ था। उन्होंने एकांत में उससे पूछा भी था – ‘यह आप लोगों का अपना ही बेटा है न! मेरा मतलब है एडोप्ट किया हुआ तो नहीं?’
उन्होंने संकोच के साथ कहा था, ‘सामान्यतः माता-पिता में से किसी एक का, कम से कम टिश्यु तो मैच कर ही जाता है। यद्यपि अंतिम तौर पर यह अनिवार्य भी नहीं है।’
दिल्ली से लौटने के बाद आशीष के बेचैनी बहुत बढ़ गई थी। स्वयं को किसी तरह सम्हाल वसुधा ने उसे सांत्वना देने का प्रयास किया। अँधेरे में देर तक यूँ हि बैठे रहे। आशीष कुछ कहना चाह रहे थे। परंतु कहते-कहते रुक जाते। आशीष ने अपना हाथ वसुधा के हाथ पर रखा। जैसे कुछ याचना-सी कर रहे हों। उनकी आवाज़ में थरथराहट थी, ‘मेरी एक बात मानोगी?’ फिर रुक कर कहा था, ‘तुम अन्यथा न लेना। मैं कुछ न कहता परंतु प्रश्न शगुन के जीवन का है। तुम हरीश के पास चली जाओ. वह ज़रूर मदद करेगा। आख़िर । । ।’ इतना कहने में वह हाँफ गया। उसके शब्द बिखर गए थे। जब शब्द पारदर्शी हो जाते हैं तब कितना कठिन होता है कह सकना। आशीष को कितना संघर्ष, पीड़ा की सुरंग में कितनी लंबी यात्रा करनी पड़ी होगी। शायद यह अँधेरा ही मददगार था जिसमें वह कह सका और वह सुन सकी थी। उसके पास आशीष के कंधे से सिर लगाकर रोने के अतिरिक्त बचा ही क्या था।
आशीष ने बताया, उन्ही दिनों उसने अपनी भी जांच कराई थी। क्रोमोसोमिकल डिसआर्डर के कारण उसमें पिता बनने कि क्षमता नहीं थी। डॉक्टर ने बताया था – ऐसे पुरुषों में यौन सम्बंधों की भरपूर क्षमता की बावजूद वे पिता नहीं बन सकते हैं। वसुधा रो पड़ी, ‘इतने दिन कुछ नहीं कहा। कितनी पीड़ा, यातना सब अकेले ही सहते रहे। कैसे पुरुष हो? यह मेरे पापों का ही दंड है। मर जाने दो उसे। इससे ही शायद प्रायश्चित होगा।’
‘इसका निर्णय कौन करेगा? सर्जन कभी पाप नहीं होता। तुम्हे याद होगा मैंने तुमसे कहा था न। इसमें तुम्हारा अंश तो है ही। मैंने तुम्हे प्यार किया है तो तुम्हारे अंश को क्यों नहीं। प्यार खण्डों में तो नहीं होता।’ आशीष कुछ सहज हुए थे।
‘क्या इसी को प्यार कहते हैं? मैंने तो तुम्हे छला। तुम्हारे विश्वास को तोड़ा। परंतु तुमने क्या किया? सब कुछ जानते हुए भी आभास भी नहीं होने दिया। नीलकंठ की तरह सारा ज़हर अंदर ही समेटे रहे।’ वह रोते हुए उसके सीने पर अपना सिर पटक रही थी।
समय और विवशता क्या नहीं करा लेते। वह लज्जाहीन बन हरीश के घर पहुँची थी। आशीष शगुन की देखभाल करने के लिए रुक गए थे। वह पहले एक बार पति के साथ यहाँ आ चुकी थी। हरीश को देखे अरसा गुजर गया था। संयुक्त परिवार में बंटवारे के बाद दो कमरों में सिमट गए परिवार पर अभावों की छाया स्पष्ट थी। जब वह पंहुची दो बच्चे झगड़ रहे थे – संभवतः खाने में अपने हिस्से में कमी के लिए. प्लेट और नूडल्स बिखरे हुए थे। उसे देख एक लड़की, शायद हरीश की पुत्री, बिखरी थाली समेटने लगे थी। हरीश उसे देख हतप्रभ रह गया, उसकी पत्नी खिसिया गई थी। उसने एक कुर्सी पर से कपड़े हटा कर उसके बैठने के लिए जगह की थी। हरीश बूढ़ा दिखने लगा था। बाल माथे पर काफ़ी पीछे तक कम हो गए थे। बचे हुए भी सफ़ेद। चेहरे की हड्डियाँ उभर आई थीं। चेहरे की सलवटों में उम्र के थपेड़ों और जीने के लिए किए गए संघर्षों ने स्थायी निवास बना लिया था। उसने उसके अतीत के आकर्षक व्यक्तित्व की छाया तलाशने की कोशिश की। वसुधा ने ऑफिस के काम से आने का बहाना बनाया। हरीश अपने दफ्तर जा रहा था। उसने कहा, ‘मैं भी चल रही हूँ। रास्ते में मुझे छोड़ देना।’
तब तक हरीश की पत्नी उसके लिए चाय ले आई थी। वह चाय पीकर हरीश के साथ चल दी। हरीश के स्कूटर पर पीछे बैठते हुए उसने महसूस किया कि वह कुछ अन्यमनस्क लग रहा है। उसने सोचा पुरानी स्मृतियों के अवशेष बचे हैं क्या? वह उससे काफ़ी सट कर बैठी। परंतु वह निर्विकार था। रास्ते में उसने पूछा, ‘कैसे आयी थीं? तुम्हे कहाँ छोड़ना है?’
वसुधा ने कहा वह उससे ही मिलने आई है। यदि किसी रेस्ट्रां जहाँ एकांत में बात हो सके. हरीश के मुख पर विस्मय और आशंका एक साथ उभरे। उसने कहा, ‘मैं दफ्तर में हाजिरी लगा कर हाफ डे की छुट्टी लिए लेता हूँ।’
वे एक रेस्ट्रां में जा बैठे। ‘क्या मंगाया जाए?’ हरीश ने पूछा।
‘कुछ भी।’ वह असमंजस में थी – बात कैसे शुरू की जाए. अचानक उसने हरीश से एक अप्रासंगिक-सा प्रश्न पूछा, ‘तुम कवितायेँ अब भी लिखते हो?’
उत्तर में उसके मुख पर मृत मुस्कान उभरी थी, ‘अब तो परिवार की ज़रूरतों का अर्थशास्त्र ही सुलझाने की कोशिश कर रहा हूँ।’
उसने साहस करके शब्द संजोए थे, ‘तुम्हारा बेटा, मेरा मतलब है हमारा बेटा शाहुत बहुत बीमार है। दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी हैं। अब किडनी प्रत्यारोपण ही एक मात्र उपाय बचा है।’ फिर कुछ रुक कर, ‘उसकी ज़िन्दगी के लिए बस एक ही किडनी काफ़ी होगी। उसका ग्रुप ओ निगेटिव है। मेरा और आशीष दोनों का ही ग्रुप, टिश्यु कुछ नहीं मिलते। मैं जानती हूँ तुमसे ज़रूर मेल खाएगा। अब तुम्ही मेरे । । अपने बेटे की ज़िन्दगी बचा सकते हो।’ उसने मन ही मन कितने वाक्यों की संरचना करने में असफल होकर अचानक एक ही सांस में सब कुछ कह दिया था।
प्रत्युत्तर में हरीश उसके सिर के पार देर तक शून्य में देखता रहा। कुछ कहने के लिए उसके होंठ हिले से थे। फिर एक लंबे वक़्त तक निस्तब्धता व्याप्त रही। । । वह हरीश की ओर आशा भरी दृष्टि से देख बुदबुदाई थी, ‘तो...’
हरीश के मुंह से अस्पष्ट से शब्द निकले थे, ‘परंतु ... मेरे बच्चे...कच्ची गृहस्थी है मेरी।’ इसके बाद सन्नाटा छा गया था। कोल्डड्रिंक कब का ख़त्म हो चुका था। उनके बीच उपजी संवादहीनता से वातावरण बोझिल हो गया था। हरीश एकाएक कुछ उत्साह से बोला, ‘‘होम्योपैथी में सुना जाता है इसका पक्का इलाज़ है। यहाँ एक अच्छे होम्योपैथ हैं। कहो तो मैं उनसे बात करूं!’ फिर उसकी ओर देख अचानक चुप हो गया।
काफी देर हो गई थी। वह उठी, ‘चला जाए!’
वे साथ-साथ बाहर निकाले थे। हरीश ने कहा, ‘तुम रुकोगी नहीं?’
‘नहीं’, आज ही लौटना है।
‘तुम्हे ...आप को स्टेशन छोड़ देता हूँ।’ उसके चेहरे पर हड़बड़ाहट थी।
‘पास ही तो है, चली जाऊँगी।’ उसने सहजता से कहा।
‘तुम नाराज होगी लेकिन मेरी मजबूरी है। बच्चे छोटे हैं। पत्नी बीमार रहती है, मैं भी...’ वह खांसा-सा था।
वह ऎसी स्थिति में भी मुस्करा दी थी। हरीश के इनकार ने उसमें एक तटस्थता का भाव पैदा कर दिया था। अभी तक संशय के बावजूद भी उसके अंतर्मन में कहीं गहरे एक भरोसा तो था ही। दो मनों के बीच देह के माध्यम से बना पुल इतना कमजोर तो नहीं ही होता। भले ही आशीष ने उससे यहाँ आने के लिए बाद में कहा था। अपने चरम पर शायद आशंकाओं और आशाओं का कोई अर्थ नहीं रह जाता। रह जाती है एक असम्पृक्त उदासीनता मात्र। उसे महसूस हुआ – पूरा जीवन एक नाटक है। सभी पात्र अपनी-अपनी भूमिका कर रहे होते हैं। उसने अंतिम दृश्य की भी कल्पना बिना किसी क्षोभ के बिल्कुल सहजता से कर ली थी। रास्ते में ट्रेन पर उसने चाय पी, भूख लगने पर कुछ स्नेक्स भी लिए. सहयात्रियों से रुटीन वार्तालाप भी हुआ।
दरवाजे की घंटी बजाने पर आशीष ने दरवाज़ा खोला था। वह सजग हुई. कितना समय बीत गया था। उसे लगा वह ‘ट्रांस’ (एक मोहाविष्ट सम्मोहन की अवस्था) से वापस लौटी है। वह ढह पड़ी थी। तटस्थता आँखों की राह बह निकली थी।
आशीष सब कुछ समझ गए थे। उन्होंने समझाया था, ‘मैंने तुमसे जाने के लिए कहा अवश्य था। डूबते को तिनके का सहारा होता है। लेकिन हर व्यक्ति का अपना जीवन होता है और सीमाएँ भी।’
वह सिसक पड़ी, ‘हे ईश्वर ! मेरे अपराध का दंड उस निर्बोध को क्यों दे रहे हो?’
आशीष ने उसके कंधे पर हाथ रख कर अपने से सटा लिया था, ‘तुमने कोई अपराध नहीं किया है। बार-बार अपने को दोष मत दो। जीवन अपनी गति से ख़ुद रास्ता बनाता है, नदी की तरह। चिंता मत करो हमारे बेटे को कुछ नहीं होगा। हमारे प्यार, हमारी साँसों और विश्वास की छत है न उस पर।’
आशीष के शब्दों के दृढ़ विश्वास से उसकी आँखें छलछला आई थीं। उनमें आशा के जुगनू जगमगाए थे। उसे लगा अयाचित भविष्य से वर्तमान निश्चय ही अधिक महत्त्वपूर्ण है।