गच्चा / रामगोपाल भावुक

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'वन्दना तू लड़की की जात ठहरी, देख कें चलवो कर, नहीं तो कहूँ गहरा गच्चा खायेगी।'

पोपले मुंह वाली मेरे पिताजी की बुआ प्रायः मुझे टोकती थीं। खास तौर पर जब मैं मुहल्ले की लड़कियों के साथ बैडमिन्टन खेलकर लौटती।

अकेले मैं बैठकर बुआ की सीख पर विचार करती कि आखिर क्या गच्चा खा सकती हूँ मैं? उत्तर अनेक होते। गच्चा खाना, धोखा खाना भी होता है। किसी के जाल में फंसना भी होता है। गच्चा का अर्थ जान बूझकर की गई गलती के लिये जुर्माना भरना भी होता है। आज इसी सोच में एक कहानी लिखने बैठी हूँ। मुझे ना जाने क्यों जीवन के ऐसे प्रसंग याद आ रहे हैं जिन्हें शायद कोई गच्चा कहे।

मेरे पापाजी शुगर मिल में पिछले बीस वर्षों से मजदूर हैं। मिस्त्री के साथ हेल्पर का काम करने से उन्हें मिस्त्रीगिरी का कार्य आ गया है। इसलिए अब एक पाली में उन्हें मिस्त्री का काम करना पड़ता है किन्तु वेतन मिलता है मजदूर का ही।

मैं हायर सेकन्ड्री में थी। श्यामू भैया के आई. टी. आई. करने के बाद मालनपुर की फेक्टरी में नौकरी लग गई। उन्हें छुटटी मिलती तब घर आ पाते। अकेले रह जाने के कारण मेरी आदतें मम्मी के लाड़ में बिगड़ने लगीं। यदि मम्मी प्रसंगवश भैया की प्रशंसा करतीं तो इस बात पर मैं उनसे लड़ पड़ती-'आपको तो बस भैया ही अच्छे लगते हैं। मैं कुछ भी करूँ मेरे तो दोष ही दिखाई देते हैं।'

मेरी यह बात सुनते हुए वे मेरे चेहरे की तरफ देखती रह जातीं। हायर सेकन्ड्री करने के बाद मैंने नगर के विज्ञान स्नातक कालेज में प्रवेश ले लिया। मैं नियमित कालेज जाने लगी। कालेज की आबोहवा संकुचित वातावरण की सीमा से बाहर निकालने में समर्थ होती है। मेरे सौन्दर्य और सौष्ठव के कारण साथी छात्र मेरे इर्द-गिर्द मंडलाने लगे। उनकी भावना वे जानें, मैं तो उनसे पढ़ाई की बातें करने लग जाती। जो बात कक्षा में समझ न आती वही उनसे पूछ बैठती। वे मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाते तो मेरे पास दोबारा सामने आने का प्रयास न करते। इस तरह भावनाओं से खेलने वाले लड़कों से दूर होती चली गई। आसपास रह गये अध्ययन, मनन में रुचि वाले सहपाठी।

एक दिन मैं कमरे में पढ़ रही थी कि भैया ने आकर मुझ से पूछा-'सुना है तुम्हारे कालेज में छात्रसंघ के चुनाव आ गये हैं और तुमने चुनाव लड़ने का मन बना लिया है।'

'भैया, आप से यह किसने भिड़ा दी? मैं और चुनाव! मजदूर की बेटी हूँ और अपनी औकात जानती हूँ।'

' औकात की बात नहीं है। यदि चुनाव लड़ना ही है तो फार्म डाल दो। प्रचार के लिए परचे मैं छपवा दूंगा।

उनकी यह बात सुनकर मैं चौंकीं, बात का कोई उत्तर न देकर मैं अपने कमरे मैं लौट गई। कालेज की सहेलियाँ मुझे चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित कर ही रहीं थीं। भैया की ओर से हरी झंड़ी मिल गई। यह सोचकर मैंने अध्यक्ष पद के लिए फार्म डाल दिया।

घर आकर भैया से कहा-'मैं अध्यक्ष पद के लिए फार्म डाल आई हूँ।'

यह सुनकर वे बोले-'अरे! मैंने तो फार्म डालने की बात मजाक में कही थी।'

मैंने उत्तर दिया-'ऐसी बात है तो मैं फार्म खींच लूंगी।'

'अब फार्म डाल ही दिया है तो खींचना नहीं, परचे मैं छपवा दूंगा। चुनाव में खर्च अधिक करने की अपनी सामर्थ नहीं है। चुनाव का खेल एक खेल की तरह खेलो। ध्यान रहे किसी से लड़ाई-झगड़ा न हो।'

मैने उनकी बात गाँठ बाँध ली।

नेता बनने की पहली सीढ़ी है मतदाताओं के दिलो-दिमाग में अपनी बात उतारने की क्षमता अपने भाषण में पैदा करना। भैया परचे छपवा लाये। चुनाव के दो दिन शेष रह गये। मैं परचे लेकर कालेज गई। परचे बाँटने लगी और विश्राम के समय में भवभूति सभागार में पहुँच गई। वहाँ छात्र-छात्राओं की भीड़ देखकर मैं मंच पर जा पहुँची और एकत्रित भीड़ को सम्बोधित करने लगी-' मेरे प्यारे भाइयो और बहनो, आपके कालेज में चुनाव प्रचार के लिए बड़े-बड़े पोस्टर लगे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे यह छात्र संघ का चुनाव न होकर लोकसभा अथवा विधान सभा का चुनाव हो। मैं पूछती हूँ इन चुनावों में इतने खर्च की क्या आवश्यकता है? अधिक खर्च प्रत्यासियों को सन्देह के घेरे में खड़ा कर रहा है।

साथ्यिो, मैं तो मजदूर की बेटी हूँ। हमारा कालेज नगर से तीन किलोमीटर की दूरी पर है। आप देख रहे हैं मैं दो वर्ष से पैदल ही कालेज आ रही हूँ। मेरे पास साइकिल खरीदने की भी क्षमता नहीं है। '

अचानक सभागार में से आवाज सुन पड़ी-'अरे! साइकिल हम ले देंगे। आप चुनाव से पीछे हट जायें।'

'मित्रो, मैं यहाँ खड़े होकर साइकिल नहीं मांग रही हूँ। मैं मांग रही हूँ आपका मत।'

भीड़ में से किसी की आवाज पुनः सुन पड़ी-'मत तो आपका हमें चाहिए।'

' आप मुझे खरीदना चाहते हैं। याद रखें यहाँ के छात्र-छात्रायें गरीब अवश्य हैं किन्तु बिकाऊ नहीं हैं। आज देश में बिकाऊ संस्कृति पनप रही है। देश के अधिकांश नेता अपना घर भरने में लगे हैं। आप इस आन्दोलन में मेरा साथ देना चाहते हैं तो मैं हाथ उठाकर कहूँगी, आप भी दोहराइएः

-हम...बिकेंगे... नहीं। '

सभागार में अनेक हाथ उठे और सुनाई पड़ा-'हम...बिकेंगे... नहीं।'

' बस-बस मुझे आप सब पर विश्वास हो गया है। मेरी जीत आप सब गरीब भाई-बहन की जीत होगी। मेरे पास ऐसी ही भावना के प्रचार के नाम पर थोड़े से परचे हैं। इन्हें मैं आप तक पहुँचाने का प्रयास करुँगी।

मैं अपनी बात समाप्त करने के पहले एक बार फिर कहना चाहती हूँ, आप अपना मत जिसे देंगे, बहुत सोच समझकर देंगे। यदि आपने मुझे अपना विश्वास दिया तो मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ, आप सब की सेवा पूर्ण ईमानदारी से करुँगी। इसी विश्वास के साथ वन्दे मातरम्। '

सभागार में शब्द गूंजे-वन्दे मातरम्।

निश्चित तिथि को मतदान हुआ। मैं भारी मतों से विजयी हुई। जीत का उल्लास लिए मैं घर पहुँची। श्यामू भैया दरवाजे पर खड़े मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मेरा खिला हुआ चेहरा देखकर वे परिणाम समझते हुए बोले-'आश्चर्य तुम जीत कैसे गईं किन्तु आपके कालेज के छात्र-छात्राओं ने उचित ही निर्णय लिया होगा। अब तो तुम्हारा दायित्व बढ़ गया है। बी.एस-सी. की परीक्षा में तुम प्रथम श्रेणी लाकर ही रहोगी। मैं तो तभी तुम्हारी जीत को सार्थक मानूंगा।'

मुझे उनकी असमय उपदेशात्मक भाषा बहुत खली थी किन्तु छात्र जीवन की सार्थकता अच्छे परिणाम में ही है। यही सोचकर मैं सिर नीचा किये खड़ी रही।

हुआ दर असल ऐसा कि मैं अध्यक्ष चुनी गई तो मेरा पूरा पैनल ही चुना हुआ समझा गया। मेरे पैनल मैं सचिव पद के लिए विपुल का नाम प्रस्तावित किया गया था।

विपुल यानी कि मेरी दूर की मौसी का लड़का, ...मेरे पिताजी की तरह एक फेक्टरी मजदूर का बेटा। विपुल यानी कि वह भोला-सा किशोर उम्र का लड़का जो खादी के बादामी रंग का कुरता एक घिसी-सी जीन्स के साथ पहनता और अपने जैसे ही दो-चार फक्कड दोस्तों के साथ आते जाते कोर्स की किताबों पर बहस किया करता था। विपुल पर मुझे पूरा विश्वास था और जब मैंने भैया की बात मानकर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाया तो विपुल को यह अधिकार सौप दिया कि वह मेरी तरफ से कालेज के सारे आयोजन सँभाले।

और मैं यहीं गच्चा खा गई। उस भोले से किशोर ने कालेज की खिलाड़ी टीमों के भेजने के खर्च से लेकर वार्षिक स्नेह सम्मेलन तक के खर्च में से चुपचाप गहरा हाथ मारा। मुझे तो केवल इतना याद रहा था कि मैंने ढेर सारे बिलों पर हस्ताक्षर किये और भूल गई। लेकिन आठ दिन के भीतर कस्बे का बच्चा-बच्चा थू थू कर रहा था। कहा यह जा रहा था कि मैंने छात्र संध के बजट में से हजारो रुपये डकार लिये हैं और मैं अपनी गलतियों पर शर्मिन्दा-सी होकर यहाँ वहाँ मुंह छिपाती हफतों दुबकी-सी रही। जिससे मेरी पढ़ाई चौपट हो गई।

कालेज की राजनीति ने मेरा पूरा भविष्य ही बरबाद कर दिया। चुनाव के कारण मुझे द्वितीय श्रेणी से ही संतोष करना पड़ा।

पापा मम्मी और भैया मुझे आगे पढ़ने के लिये प्रेरित कर ही रहे थे किन्तु मेरे कम अंको के कारण एम.एस-सी. में एडमीशन नहीं हो पाया। जीवन यापन के रास्ते खोजने लगी। एक प्रायवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली।

अब तो पापा-मम्मी को मेरे ब्याह की चिन्ता सताने लगी। विपुल ने पूर्व की तरह घर में आना-जाना बन्द नहीं किया। मैं उसे जब देखती, उसकी सारी करतूतें याद आ जातीं। अब की बार तो वह मेरे लिए अपने एक दोस्त के सम्बन्ध की चर्चा मम्मी से कर रहा था। उसके जाते ही मैंने मम्मी से कह दिया कि मुझे विपुल की बातों का विल्कुल विश्वास नहीं है। मम्मी-पापा और भैया को उसकी बातें जम गई, किन्तु मैं समझ रही थी कि इसकी बात में कहीं न कहीं गच्चा है। मैंने मम्मी से जब यह बात कही तो मम्मी ने मुझे समझाया-'शादी ब्याह का मामला ही ऐसा होता है कि इसमें दोनों ही पक्ष अपनी कमजोरियाँ छिपाकर एक दूसरे को गच्चा देना चाहते है। कहते हैं कि शादी-ब्याह के मामले में झूठ बोलने में पाप नहीं लगता। थोड़ा बहुत एडजेस्टमेंन्ट तो सभी को करना ही पड़ता है।'

फिर उन्होंने मुझे समझाया, 'बेटी बिना बिचोलिये के शादी-ब्याह सम्भव ही नहीं है। कुछ तो इसमें भी दलाली खा जाते हैं। इस मामले में बिचोलिये का भरोसा करना ही पड़ता है।'

मैं भी समझ गई-संसार के प्राणी दोष मुक्त नहीं हो सकते। कुछ न कुछ दोष तो सभी में भरे हैं। बहुत सोचकर चलती हूँ फिर भी कुछ न कुछ कमी तो मुझ में भी हैं। मैं अपना अच्छा केरियर क्यों नहीं बना पाई। कालेज में मुझे जो दायित्व मिला, दूसरों पर भरोसा करके मुक्त हो गई। आँख बन्द करके बिलों पर हस्ताक्षर कर दिये। उसने अपना पेट भर लिया। इसमें वह जितना दोषी है उससे बड़ा दोष तो मेरा ही है। जिसे जहाँ मौका मिलता है लूट ही रहा है। मैंने ईमानदारी का तमगा लगाना चाहा। लगा पाई? सब तो यही मान रहे हैं कि मैंने उसमें से अपना हिस्सा खाया ही होगा।

मम्मी ने मुझे टोका-'क्या सोच रही है? हम बिना सोचे-समझे कोई कदम उठाने वाले नहीं हैं। हम जो करेंगे देख परखकर ही करेंगे। फिर भी भाग्य ने गच्चा दिया तो सहन करना ही पड़ेगा। जानबूझ कर कोई गच्चा नहीं खाता। बेटी, तेरी बात सच है गच्चा विश्वास में ही मिलता है।'

मम्मी की बातें सुनकर मैंने शादी-ब्याह के मामले को किस्मत का खेल समझकर मम्मी-पापा और भैया के भरोसे छोड़ दिया। मैं यही गच्चा खा गई। एक दिन विपुल का दोस्त मुझे देखने के लिये आया। मैंने मम्मी से कहा-'इसके पापा-मम्मी नहीं हैं क्या?'

मम्मी मेरी बात समझ गईं। उन्होंने विपुल को अकेले में बुलाकर कहा-'इसके पापा-मम्मी नहीं है क्या?'

वह बोला-'सब हैं किन्तु जब उनके पुत्र की ओर से हरी झन्डी मिलेगी तब वे लोग आयेंगे।'

मम्मी बोली-'वे भी आ जाते तो एक वार में ही सब कुछ निपट जाता।'

उसने यह बात अपने दोस्त से कही होगी। वह मम्मी से बोला-'माँ जी, विपुल ही नहीं माना। जिद करने लगा। बोला-बिना किसी शर्त के पहले तुम लड़की देख लो इसीलिये चला आया।'

मैं समझ गई, इसी का ही घर में चलावा होगा। इन्हें मैं पसन्द आ गई तो ही बात आगे बढ़ेगी।

मुझे और विपुल के दोस्त अरुण को अकेले कमरे में बैठा दिया गया। उसने कहा-'आप इतने बड़े कालेज की प्रेसीडेन्ट रहीं है। सुना है बहुत ही बोल्ड हैं। आपका भाई विपुल आपसे बहुत डरता है।'

मैने कह दिया-'उसने विश्वास में विष दिया है। मैं जैसा चाहती थी वैसा नहीं हुआ। इसने खूब हाथ बना लिया इसलिये डर की बात ही है। इसके कारण मेरा कद घटा है। आप भी ऐसे दोस्त से सतर्क रहें। कहीं वह आपको यहाँ लाकर गच्चा तो नहीं दे रहा है?'

'मैंने तो इस तरह नहीं सोचा!' वह बोला।

'तो सोचिये और अपने पापा-मम्मी को तभी यहाँ भेजिये, जब आप पूरी तरह संन्तुष्ट हो।'

'आपने तो मुझे नये तरह से सोचने के लिये विवश कर दिया।' यह कह कर वह उठा और पुनः बोला-'आपके खुले विचारों से मैं सहमत हूँ।' आपकी बातें मैं पापा-मम्मी के समक्ष रखूंगा। अच्छा चलता हूँ। 'सम्भव हुआ तो शीघ्र मिलते हैं।'

मैं समझ गई यदि यह खुद ठीक होगा तो ही इधर पैर रखेगा और अब इधर आयेगा तो विपुल के बिना ही आयेगा। इस तरह मैंने भी उसे एक भावात्मक गच्चा तो दे ही दिया।

कुछ दिनों बाद उनका हमारे घर आना हुआ। विपुल उनके साथ नहीं आया था। मैं समझ गई, उस दिन की मेरी बातों के गच्चे में ये फंस गये। उनके पापा-मम्मी उसी दिन मेरी गोद भर गये। भैया ने उस समय का पूरा विवरण अपने मोबाइल में सेव कर लिया।

दूसरे दिन विपुल आया और मम्मी से बोला-'मौसी जी, कल एक बात ही मेरे साथ न आने से किलियर होने से रह गई। लेन-देन की जो बातें आप लोगों ने मुझ से कहीं थीं, मैंने वे सभी बातें उनके समक्ष रख दी थीं, इसका मतलब है, हमारे लेन-देन की बातों से वे सहमत हैं। उन्होंने लेन-देन से सम्बन्धित कोई बात नहीं की होगी।'

मम्मी बोलीं-'कल से हम यही सोच रहे थे कि ये गोद तो भर गये किन्तु लेन-देन की कोई बात नहीं की लेकिन विपुल हमने वे बातें जो तुम से घर का जान कर कही थीं, हम हैसियत से कुछ बातें अधिक ही कह गये। तुमने तो पूरे तीन लाख देने की बात कह दी होगी।'

वह बोला-'कह ही दी है।'

मम्मी बोलीं-'इसकी नौकरी तो पक्की है कि नहीं। इसके हिस्से में गाँव में दो बीधा जमीन और इसी शहर में रहने का मकान भी है। यह बात तो हमने पता कर ही ली है।'

उसने उत्तर दिया-'अभी डेलीवेजिज पर ही है, पक्का हो ही जायेगा।'

मैंने कह दिया-'तुम तो कह रहे थे उसकी नौकरी पक्की है। अब कह रहे हो पक्का हो ही जायेगा। दोनांे बातों में बहुत फर्क है।'

वह बोला-'तुम्हारी किस्मत भी उससे जुड़ गई है। क्यों मौसी? वैसे आज तक सरकार ने किसी भी डेलीवेजिज वाले को हटाया हो तो कहें।'

मम्मी आत्मविश्वास प्रगट करते हुये बोलीं-'दिन चाहे जितने लगें, उसकी नौकरी पक्की तो हो ही जायेगी। यह हम भी समझ रहे हैं।' यह कह कर वे वहाँ से उठकर चली गईं। मुश्कराता हुआ विपुल भी चला गया। मैं समझ गई जो बातें करनी थी, गोद भरने से पहले करना चाहिए थीं। घर के लोग विपुल की मीठी-मीठी बातों में आ गये। विपुल ने मुझे यहाँ भी गच्चा दे दिया। अरुण पहली बार जब मुझ से मिला था यह बात उसी समय उससे पूछना चाहिए थी। उस समय तो मैं ही उसे गच्चा देने आदर्शवादी बातें करने बैठ गई और मैं यहीं गच्चा खा गई।

कुछ दिनों बाद उनका यह झूठ पकड़ा गया कि श्रीमान् बी.ए. पास न होकर इन्टर पास ही हैं। जब मुझे यह बात पता चली मैंने ऐसे झूठे लोगों से सम्बन्ध तोड़ने का मन बना लिया। मैंने यह बात मम्मी से कही तो मम्मी ने उसी का पक्ष लिया। बोली-' बेटी, उसकी नौकरी तो है, देर सवेर पक्की हो ही जायेगी। जमीन है शहर में घर भी है। सुना है हमारा रिश्ता होने के बाद उनके यहाँ पाँच लाख देने वाले चक्कर लगा रहे हैं। उनके पिता जी बात वाले आदमी हैं, इसीलिये हमारा सम्बन्ध टिका हुआ है। लड़के का तो कमाना देखा जाता है। मम्मी की बातें सुनकर योग्यता वाला गच्चा मुझे बहुत ही खल रहा था किन्तु मैं तिलमिलाकर रह गई थी।