गढ़ाकोला में पहली निराला जयंती / अमृतलाल नागर
वसंत पंचमी के अवसर पर प्रयाग गया था। निरालाजी कठिन बीमारी भोगकर उठे थे, सोचा कि इस वर्ष उनके साथ ही उनकी जयंती मना लूँ। अगले वर्ष यह अवसर आए कि न आए. निरालाजी दुर्बल होने पर भी स्वस्थ थे, खूब मग्न थे। लोग पैर छू-छूकर उन्हें हार पहनाना चाहते थे और नउवा उनकी दाढ़ी बनाते हुए अपना महत्व जतलाकर अपने-अपने हारों को निरालाजी के चरणों पर रखने के लिए अच्छों-अच्छों को बड़ी शान से आदेश दे रहा था।
इस बार फिर वसंत पंचमी आई-निरालाजी के निधन के बाद पहली वसंत पंचमी। पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले, जगह-जगह निराला परिषदों का उद्घाटन किया गया, बड़े हो-हल्ले हुए. मरने के बाद दिल्ली के राष्ट्रपति भवन में भी निराला जी की आरती उतारी गई.
वसंत पंचमी से छ:-सात दिन पहले गढ़ाकोला ग्राम से निरालाजी के भतीजे श्री बिहारीलाल त्रिपाठी और उनके अन्य दो-चार सगे-सम्बंधी मेरे यहाँ आए. वे लोग गढ़ाकोला में निराला जयंती मनाना चाहते थे और इस तौर-तेवर के साथ आए थे कि लाट साहब को वहाँ ले चला जाए. उनमें से एक बंधु तो अपने भोलेपन में पूरी स्कीम बखान गए. बोले, "हमने पहले विचार किया कि सीधे लाट साहब के पास चलें। निरालाजी के नाम पर 'ना' तो वे कर ही नहीं सकते और करते भी तो हम कहते कि हम पत्रों में आपकी आलोचना करेंगे। अपनी आलोचना से तो सभी घबराते हैं, सो वह राजी हो जाते।"
मुझे लगा कि ये लोग निरे भोलेपन में अपनी अहंता को तुष्ट करने के लिए निरालाजी रूपी लाठी के द्वारा बड़े-बड़ों को हाँककर अपने गरब-गुमान के बाड़े में बंद कर लेना चाहते हैं।
बिहारीलालजी ने अधिक समझदारी की बातें कीं। कहने लगे, "निराला काका हमारे भी तो थे। हम लोग गरीब हैं, पर यथाशक्ति अपने यहाँ भी निराला काका का उत्सव मनाना चाहते है। आप जैसा कहेंगे, वैसा करेंगे।"
मैंने कहा, "इस साल तो किसी भव्य आयोजन के लिए समय नहीं रहा। आप लोग सीधे-सादे ढंग से निराला जयंती मना लें। अगले वर्ष कोई बड़ा आयोजन कीजिएगा।"
वे लोग इस बात पर राजी हो गए. तय हुआ कि मैं वसंत पंचमी के दिन सुबह पहली बस से पुरवा पहुँच जाऊँ। यहाँ से वे लोग मुझे गढ़ाकोला ले जाएँगे।
सुबह साढ़े आठ-नौ तक बस पुरवा पहुँच गई. चुनाव के दिन थे ही। बस के अड्डे के पास ही हलवाइयों की दुकानों के अलावा कांग्रेस और जनसंघ की चुनाव-दुकानें भी खुली हुई थीं। लाल, पीली, सफेद टोपियाँ नजर आ रही थीं। लाउडस्पीकर पर 'ये कहानी है दीये और तूफान की, निर्बल से लड़ाई बलवान की' वाला फिल्मी रेकार्ड बड़े जोर-शोर से बज रहा था।
हम बस से उतरे। वहाँ सब कुछ था, मगर गढ़ाकोला पार्टी के लोग कहीं नहीं दिखलाई पड़े। आधे घंटे के बाद आखिर बिहारीलालजी दो अन्य व्यक्तियों के साथ साइकिलों पर आ पहुँचे। उन्हें देखकर जान मैं जान आई. तभी एक दूसरी समस्या उपस्थित हुई. बिहारीलालजी ने किसी से बैलगाड़ी का प्रबंध किया था। ऐन समय पर लढ़ापति ने लढ़ा देने से इनकार कर दिया। पुरवा में दो-तीन इक्के तो अवश्य खड़े थे। पर वे चुनाव के दिनों में एक खादीधारी नेतानुमा व्यक्ति को गढ़ाकोला ले जाने के लिए पाँच रूपये माँग रहे थे।
बिहारीलालजी बड़े शशोपंज में पड़े।
मैं स्वयं भी थोड़े रुपये लेकर ही घर से चला था। इसलिए एक ओर के पाँच रुपये रेट पर राजी न हुआ।
अब क्या किया जाए. सामने तीन साइकिलें ही नजर आ रही थीं।
साइकिल चलाना मैं वाजिब ही वाजिब जानता हूँ। तीस-पैंतीस साल पहले अपने साइकिलधारी मित्रो के दबाव से मैंने यह करतब सीखा था। उन दिनों मैं बहुत मोटा था। इसलिए साइकिल जैसी सवारी मुझे नापसंद थी। केवल दोस्तों के साथ ही सैर करने के लिए कभी-कभी मजबूरन उसका प्रयोग करना पड़ता था। किसी फुटपाथ के सहारे साइकिल पर सवार होकर जाया करता। जब उतरना होता तो साइकिल को झुकाकर उतर पड़ता। सन ' 37 में एक बार मैं साइकिल से गड़बड़ाकर ताजा कोलतार पड़ी हुई सड़क पर गिर पड़ा था। तब से फिर कभी साइकिल पर चढ़ने का नाम तक न लिया।
लेकिन यहाँ साइकिल के अलावा और कोई साधन ही नजर न आया। सोचा कि बजरंगबली का नाम लेकर अब इसी पर चढ़ा जाए. जो होगा सो देखा जाएगा।
एक जगह टाँग उछालने-भर का एक ज़रा ऊँचा-सा मिट्टी का ढूह था, उसके सहारे साइकिल पर सवार हो गया। कच्ची बलुहा सड़क पर नहर के किनारे-किनारे हम चल पड़े। रास्ते भर मनाते चले जा रहे थे कि हे रामजी, कहीं लद्द से गिर न पड़ें जिससे हमारी हँसी उड़े।
गाँव अब आध-पौन मील ही दूर रह गया था। तभी एक और विकट समस्या आई. सामने छ:-सात बैलगाड़ियाँ एक पंक्ति में चली आ रही थीं। सोचने लगा इनसे बचकर कैसे निकलूँगा। साथी भी शायद मेरी परिस्थिति को समझ गए. आगे बढ़कर लढ़े वालों को एक ओर हो जाने के लिए हुल्लड़ मचाने लगे, पर वहाँ जगह ही न थी। मैं उतर पड़ा। उन लोगों से कहा, "आप लोग चलिए. हम और बिहारीलालजी पैदल आते हैं।"
अपनी साइकिल मुझे दे देने के कारण बिहारीलालजी एक साइकिल के कैरियर पर बैठकर आ रहे थे। इससे उनकी भी हड्डी-पसलियाँ बोल गई थीं।
हम दोनों ही पैदल चलकर बड़े सुखी हुए. राह चलते बातें होने लगीं। पता लगा कि शिवधारी त्रिपाठी के चार लड़के हुए-गयादीन, जोधा, रामसहाय और रामलाल। गयादीन के दो लड़कियाँ हुई. जोधा के बदलूप्रसाद हुए. रामसहाय के सूर्यकुमार और रामलाल नि: सन्तान मरे। सूर्यकुमार बाद में अपना नाम बदलकर सूर्यकांत हो गए और कवि होने के कारण उन्होंने निराला उपनाम धारण कर लिया। बदलूप्रसाद के चार बेटे हुए-बिहारीलाल, रामगोपाल, केशवलाल और कालीचरण। सूर्यकांत के पुत्र रामकृष्ण और बेटी सरोज हुई. बिहारीलाल भाई ने मुझे बतलाया था कि भाइयों-भाइयों में कुछ कहा-सुनी हुई तो रामसहाय बाबा खेत में खुरपी गाड़ के गाँव से चले गए. वे ऊँचे पूरे व्यक्ति थे। कलकत्ता-पुलिस में उन्हें नौकरी मिल गई. होते-करते जमादार हो गए. फिर हुवां लाट साहेब के मन चढ़ गए और उनकी अरदली में चले गए. "लाट साहेब हमेशा रामसहाय बाबा को अपने साथ-साथ रक्खै। तो एक बार महिसादल महराज के हियाँ लाट साहेब गए. महिसादल महराज ने रामसहाय बाबा को देखा तो लाट साहेब से कहा कि इन्हें हमें दे दीजिए, हमारे यहाँ ऐसा कोई जमादार नहीं है। लाट साहब ने उन्हें दे दिया। रामसहाय बाबा महिसादल में रहने लगे। फिर साल-भर बाद रामलाल बाबा भी वहीं चले गए."
बंगाल की महिषादल स्टेट में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पहुँचने की एक कथा मैं लखनऊ में भी सुन चुका था। यहाँ रामकृष्ण मिशन में एक संन्यासी रहते थे। उनका पूर्व नाम था काशीनाथ मालवीय। मिशन के पत्र समन्वय का संपादन कार्य निरालाजी के बाद उन्हें ही सौंपा गया था। मालवीयजी उनके पुराने मित्रो में से एक हैं। उनके कथनानुसार, "महिषादल की एक विधवा रानी थी। उनका पुत्र बहुत पहले मर चुका था। एक दिन एक संन्यासी आया और कहने लगा कि घबराओ मत, तुम्हारा पुत्र नए रूप में तुम्हें अवश्य मिलेगा। उसका पुनर्जन्म हो चुका है और वह तुम्हारे पास आएगा। इसके कुछ काल बाद ही एक संन्यासी नवयुवक महिषादल पहुँचा। रानी को यह विश्वास हो गया कि वही उनका पुनर्जन्म प्राप्त पुत्र है। उन्होंने आदरपूर्वक उसे वहीं रोक लिया और गद्दी पर बिठाया। वह कान्यकुब्ज ब्राह्मण था, इसलिए उसके राजा होने पर अनेक कन्नौजिया ब्राह्मण वहाँ आकर बस गए."
सरसों स्वर्ग की लक्ष्मी की तरह खेतों में अंतरिक्ष से अंतरिक्ष तक छाई हुई थी। दाएँ-बाएँ जिधर भी दृष्टि घूमती सरसों का पीलापन मन को बाँधे लेता था।
हम लोग नहर के दाहिनी ओर मुड़े। पेड़ों के झुरमुट के पार मंदिर का कलश चमक रहा था। यही गढ़ाकोला था। मन में एक कुरकुरी-सी दौड़ गई. ग्राम गढ़ाकोला, पोस्ट चमियानी, जिला उन्नाव को निरालाजी अपनी कहानी 'चतुरी चमार' में सदा के लिए अमर कर चुके हैं। सच तो यह है कि गढ़ाकोला मेरे मन में निरालाजी के गाँव से अधिक चतुरी चमार के गाँव के रूप में बसा हुआ है। यहाँ आते ही 'कालिका नाऊ' और 'चतुरी चमार' की याद आने लगी। कलाकार का बड़प्पन इसी में हैं कि उससे अधिक पाठकों को उसके पात्रों की याद आए.
मुझे अच्छी तरह याद है। सुधा में जब पहली बार 'चतुरी चमार' पढ़ा था तो मेरे मन को एक विचित्र ताजगी मिली थी। प्रेमचंद के अनेक ग्रामीण और छोटी क़ौम के पात्र मन को प्रभावित करते थे-तब भी और अब भी। प्रेमचंदजी के उन पात्रों को पढ़ते समय ऐसा लगता था मानो सिनेमा-दृश्य में उन्हें देख रहा हूँ। लगता था जैसे चतुरी ऐसे लोग सामने ही खड़े हों। हो सकता है कि मुझ पर यह प्रभाव निरालाजी की संगत के कारण पड़ा हो। 'देवी' , 'चतुरी चमार' , 'सुकुल की बीवी' , 'कुल्ली भाट' , 'राजा साहब को ठेंगा दिखाया' आदि निरालाजी की ऐसी रचनाएँ हैं जिन्हें पढ़ते समय यह नहीं लगता कि हम कोई गढ़ा हुआ किस्सा पढ़ रहे हैं। लेखक इन रचनाओं में अपनेपन का स्पर्श देता है। ये कहानियाँ अथवा रेखाचित्र दरअसल संस्मरण के रूप में ही अधिकतर उभरकर आते हैं।
खेत पृष्ठभूमि में छूट गए. बस्ती आने लगी। मिट्टी के कच्चे घर, उनमें भी अधिकांश खंडहर, गलियाँ बीच में धँसी और गड्ढों से भरी हुईं, घरों के सामने कई जगह मच्छरों के गुच्छों से आच्छादित नाबदान, कहीं गाएँ, कहीं बैल और कुत्ते।
गलियों में चक्कर लगाते हुए हम एक मकान के सामने आ खड़े हुए. पुरानी नक्काशी वाले द्वार पर एक कागज चिपका था। उस पर लिखा था: 'महाप्राण निराला स्मारक भवन'। मैंने बिहारीलालजी से कहा, "घबराइएगा मत। आपका यह कागज संगमर्मर से अधिक टिकाऊ सिद्ध होगा।"
वह बेचारे कुछ समझे नहीं, झेंपकर बोले: " क्या करें पंडितजी, अपने मन का हौसला पूरा कर लिया। नहीं तो जौन आप संगमर्मर के पत्थर की बात कर रहे हैं, वहै हमरैउ मन माँ रही। आज तो निराला काका सबके हैं पर एक दिन रहा जब निराला काका हमरेहे-हमरेहे रहे। इनफ़्लुइंजा में हमारे बाप-महतारी मर गए. हम नान्ह-नान्ह रहे। निराला काका चक्की पीसें, हमका बनाय के खवावैं, हमका पालैं। रामकेसन होरे तो डलमऊ माँ रहत रहें नाना के हियाँ और निराला काका हमारे पास रहैं। काकी हमारी गुजर गई रहें। तो इन्हैं ब्याह के लिए लोग बहुत लोग घेरैं, बहुत देखुआ आवैं। एक बाजपेई जी रहे1 उइ आए ओर कहै लगे, 'महाराज, आपकी कुंडली माँ दूसर बिहाव लिखा है।' काका कहिन, 'अरे जब हमहें न करब तो कहाँ ते कोई. हमरे चार लरिकाई आयं और राम केसन और बिटेवा आय। हम इन्हीं का नहीं पाल सकित हयि। तुम हमका ब्याह करै के लिए कहत हौ।'
अपनी जन्मपत्री के ग्रह-नक्षत्रों को निरालाजी ही पछाड़ सकते थे। अनेक लोगों ने अनेक बार उनकी कुंडली देखकर बताया कि दूसरा विवाह लिखा है, पर जब निरालीजी ही नहीं करना चाहते थे तो ग्रह-नक्षत्रों की हस्ती की क्या थी जो उनका विवाह करवा सकते। एक बार उनकी बेटी सरोज से उनकी जन्मपत्री फट गई तो निरालाजी उसे गंगाजी में प्रवाहित कर आए. कहा, "न रहेगा बाँस औरन बजेगी बाँसुरी।"
घर के आगे दाहिनी ओर पर एक छोटी-सी खुली जमीन थी। वहाँ शामियाना लगा था, तखत पड़े थे। तखत परएक चौकी और चौकी पर एक लोहे की कुरसी रखी हुई थी। मैंने बिहारीलालजी से लखनऊ में कहा था कि निरालाजी का चित्र ले आऊँगा। अनेक वर्षों पहले मेरे छोटे भाई प्रख्यात चित्रकार मदनलाल नागर ने प्रयाग जाकर निरालाजी का एक छोटा-सा तैल चित्र बनाया था। उसके आधार पर फिर एक बड़ा तैल चित्र भी उसने बनाया, जो अब लखनऊ महापालिका के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
छोटा चित्र अनेक वर्ष हुए निराला जयंती के अवसर पर एक कवि महोदय मुझसे माँगकर ले गए थे। फिर उन्होंने उसे लौटाया ही नहीं। मैंने बिहारीलालजी का वही चित्र ला देने का वचन दिया था। कवि बन्धु के यहाँ से चित्र तो खैर मैंने किसी तरह मँगवा लिया, पर राम जाने उन्होंने उसे कहाँ सीलन पानी में डाल रखा था कि तस्वीर पूरी तौर पर नष्ट हो गई थी। बिहारीलालजी ने उसी चित्र की आशा में यह सिंहासन सजाकर रखा था, पर अब क्या हो। एक सज्जन बोले, "धर्मगुरू में निरालाजी का चित्र है। उसे ही काटकर लकडी के तख़्ते पर चिपका दिया गए."
धर्मगुरू का अंक आया। किसी विद्यार्थी की पट्टी आई. किसी ने किसी को लेई बनाने का हुकुम दिया। मैंने कहा, "उसकी आवश्यकता नहीं। धर्मगुरू से चित्र को फाड़ने की आवश्यकता नहीं, डोरी ले आइए. सरसों के फूल ले जाइए. काम चल जाएगा।"
मैंने पट्टी पर धर्मगुरू के पन्ने उलटकर वह चित्र बाँधा, सरसो के फूल चारों ओर से इस तरह से खोंसे कि उनका फ़्रेम बन गया। गेंदे के फूल भी आ गए. उन्हें बीचोंबीच में सजाया। ऐसी शोभा आ गई कि क्या कहूँ।
बिहारीलालजी ने अपनी शक्ति-भर बडा आयोजन किया था। आसपास के गाँवों में लोगों को न्योता भिजवाया था। झंइयम-झंइयम बाजा भी मँगवाया था। ऐसा लगता था कि जैसे रामसहाय त्रिपाठी के घर आज ही सूर्यकुमार क जन्म हुआ हो। मगरायर ग्राम के एक युवक ने कहा भी कि आज निरालाजी की पहली जन्मगाँठ है। एक तरह से यह भी सच था। उनके गाँव में यह पहला ही जन्मोपलक्ष्य में जो कुछ भी खुशहाली हुई होगी, वह महिषादल में ही हुई होगी।
शामियाने के नीचे, बल्कि यों कहूँ कि उसके बाहर एक पुरुष बैठे थे। किसी ने बताया कि वे चतुरी के भतीजे भगवानदास हैं। उनकी आयु वक़ौल उनके पाँच ऊपर सत्तर थी। मैंने पूछा, "पंडितजी जब पहली बार बंगाल से गाँव आए तो उनकी क्या उमर थी?"
भगवानदास बोले, "कनियाँ माँ रहे, तब दुई आए रहें। बाकी त्यारा-चौदा बरस के रहे तब उइ हियाँ आए. बारा-बारा 'ग्याँद' खेलें।" इस पर महावीर नाम के एक सज्जन बोले, "गोली दिन-दिन भर ख्यालैं। वे पाँचों उँगलियों से अलग-अलग गोली मार लेते थे।"
भगवानदासजी का भाव उमड़ रहा था। कहने लगे, "पंडितजी, हम पंचन का इतना मानत रहैं कि अपने परिवहन न मानैं और फिर जब उइ बडे हुइगे हियाँ आवैं तौ हम उनका छाडि कै और कौनौं काम नहीं किहिन। कुस्ती लड़ावैं का बहुत सौक रहा। सबका एक-एक लंगोटा बनवाइन।"
राष्ट्रीय आंदोलन में निरालाजी ने अपने गाँव के जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध बहुत बडा आंदोलन चलया। श्री गयाप्रसाद, श्री भगवानदास, श्री महावीर एक में एक बात जोड़कर सुनाने लगे: "मिटिन होत रहै। एक मीटिन निरालाजी कराइन, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' आए रहे। देबिन के पास तंबू गाडि के मीटिन भै। वह जमाने माँ लगान अदाई तौ होति न रहै, तौन रैयवतु मारी-पीटी जाए, वहौ जमाना माँ दुई-चार पिटवाएँगे, तौन निरालाजी रिसायगे, किसान संगठन कहाइन पूरे गाँव जमीनों का इस्तीफा कराए दिया-दुई-चार लोग चाहे न किहिन होय बाकी सब किहिन। साल-भर जमीन परती पड़ी रही।"
निराली के आंदोलनकारी रूप की कल्पना तो मैं सहज ही कर सकता था। 'चतुर चमार' में उन्होंने उन दिनों का ब्यौरा दिया है। अन्याय के विरुद्ध अपीन आवाज को उठाए बिना-निरालाजी रह ही नहीं सकते थे।
सरोज के विवाह की निराली कथा भी सुनी। पंडित गयाप्रसादजी गाँव के उन व्यक्तियों में से हैं जिन्हें निरालाजी अपना मित्र मानते थे। उन्होंने बतलाया, "सरोज के वर (शिवशेखरजी) गाँव में ही मौजूद थे। निरालाजी ने अपनी बेटी का विवाह उन्हीं से कर देने का निश्चय मन ही मन कर लिया था। एक दिन सबेरे हम ते कहिन कि चलौ गया परसाद कानपुर। सामान लाना है। आज हमारे हियाँ बरात आई. कानपुर ते फल धोती सब सामान लाए. गूलर की डाल गाड़ी गई. मगरायर ते नन्दूदुलारे वाजपेई आए, राधारमन आए. निरालाजी पंडित बुलाइन। कला-मन्त्र पढ़ौ। सरोज केर सादी आए."
"पंडित बोले, कैसे सादी होदहै?"
"निरालाजी बोले, तुम्हें क्या मालूम, कितने प्रकार के विवाह होते हैं। जैसा मैं कहूँ वैसा करों।"
"बस बिहाव होइगा।"
अवधी के एक तरुण कवि सूरज प्रसाद द्विवेदी निरालाजी द्वारा बीघापूर स्टेशन पर लालमणिजी को थाल-भर बर्फी खिलाने का किस्सा सुनाने लगे।
बोले, "यह बात मैंने लालमणिजी से सुनी थी और इस पर मैंने एक कौवाली भी लिखी है।"
कव्वाली का नाम सुन हमें मजा आ गया। सुनाने के लिए कहा। सूरज प्रसादजी सुनाने लगे:
आज बर्फी जो मिले, खाऊँ
तो मजा आ जाए.
और चाकू से छिलाऊॅं
तो मजा आ जाए!
दोस्तों सुन लो ये किस्सा बडा पुराना है।
महाकविराज निराला को जगत माना है।
गढ़ाकोला में जन्मभूमि काव्य माना है।
रहे प्रयाग तीर्थराज मन लुभाना है।
वही दृष्टान्त सुनाऊँ तो मजा आ जाए.
आज बर्फी जो मिले, जाऊँ।
तो मजा आ जाए!
आ रही गाड़ी बरेली से चली बीघापूर,
खटाखट बाँट रहे थे टिकट खड़े माथुर।
प्लेटफारम में शोरगुल मचा जैसे दादुर,
दो युवक कर रहे थे बातचीत प्रेमातुर।
मित्रवर मन की बताऊँ तो मजा आ जाए.
आज बर्फी जो मिले, जाऊँ
तो मजा आ जाए!
सुना बातों को निरालाजी मुस्कराए हैं।
दबे पाँवों ही वहाँ से तुरत सिधाए हैं,
आज दुकान से बर्फी का थाल लाए हैं,
सामने लाफे रखा मृदृवचन सुनाए हैं।
अजी बैठो मैं खिलाऊँ तो मजा आ जाए.
आज बर्फी जो मिल जाऊँ
तो मजा आ जाए!
देख लीला को निरालाजी की वह लजाए हैं,
चकित होके चरण कमलों में सर झुकाए हैं।
ठान हठ थाल में ही बर्फियाँ खिलाए हैं
थाल लौटाते हुए दाम जो चुकाए हैं।
कलम 'सूरज' जो बढ़ाऊँ तो मजा आ जाए.
आज बर्फी जो मिल जाऊँ
तो मजा आ जाए!
मगरायर के श्री रेवतीशंकर शुक्ल ने निरालाजी के पहलवानी के किस्से सुनाए. उन्होंने बताया कि गढाकोला में एक रईस रहा करते थे। निरालाजी से उनकी बड़ी मैत्री थी। उन्हीं की प्रेरणा से चौरसियाजी ने मगरायर में वीणापाणि पुस्तकालय की स्थापना भी की। पंडित नंददुलारे भी मगरायर ग्राम के निवासी हैं। निरालाजी तथा उनके पिता चौरसियाजी से मिलने के लिए अक्सर वहाँ जाया करते थे। जब दिनों निरालाजी को पहलवान बनने का बड़ा जोम था। खूब कसरत करते वे और बदन बनाते थे। एक दिन चौरसियाजी से बोले, "बाबूजी, कोई जोड़ नहीं मिलती।"
चौरसियाजी बोले, "घबराओ मत। परागी पहलवान को बुलवाया है।"
"कहीं बाहर का रहने वाला है?"
"नहीं, है तो यहीं का, पर आजकल बाहर गया हुआ है।"
"तो उसे झट-पट बुलवाइए."
उसके बाद से निरालाजी परागी पहलवान से कुश्ती लड़ने के लिए आतुर रहने लगे एक दिन चौरसियाजी ने बताया कि परागी आ गया है। निरालाजी माशूक की तरह परागी पहलवान से मिलने के लिए बेचैन हो गए. चौरासियाजी ने कहा कि परागी धोबियों की गली से रहता है। निरालाजी को भला सब्र कहाँ। पता पूछने हुए वहाँ पहुँच गए! कुंडी खटखटाई. पहलवान बाहर आए. निरालाजी उन्हें देखते ही पूछा: "आप ही परागी पहलवान हैं?"
वे बोल, "हाँ।"
बस, फिर बिना कुछ कहे-सुने ही वहाँ से चले आए. चौरासियाजी से मिले। बोले, "आपके परागी को अभी देखकर चला आ रहा हूँ।"
चौरसियाजी ने पूछा, "हे बराबर की जोड़ कि नहीं?"
"अजी वह क्या लड़ेगा मुझसे? मुझे मालूम हो गया, यहाँ कोई मेरी जोड़ का पहलवान नहीं है।"
चौरसियाजी बोले, "खैर पंडितजी, कुछ हरजा नहीं। कल लड़ तो लेना ही उससे और कुछ नहीं तो उसका हौसला ही बढ़ जाएगा।"
निरालाजी ने मगनमन 'हाँ' कह दिया। दूसरे दिन रूस्तमेहिंद बने हुए झूमते-झामते अखाड़े में पहुँच गए. परागी ने एक-एक करके उन्हें चार बार पटकनी दी। दूसरे ही दिन एक मटकी घी लेकर निरालाजी परागी पहलवान के यहाँ पहुँचे। बोले, "पहलवान, खूब लड़ते हो। ये लो, घी खाओ."
उसके बाद परागी पहलवान से निरालाजी की बड़ी दोस्ती हो गई. परागी के अलावा उस क्षेत्र में दुलारे काछी का भी पहलवानी में बड़ा नाम था। एक बार निरालाजी के हौसले और चौरसियाजी के पैसे के बल पर उन दोनों का दंगल कराया गया। दुलारे काछी का बड़ा दबदबा था। लेकिन जब परागी ने उसे पछाड़ दिया तो निरालाजी ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने ही कुश्ती जीती हो। परागी से बोले, "तुम्हें सोने का मेडल दूँगा।"
निराला और सोने का मेडल! मिट्टी का भी देते तो सोने से बढ़कर होता!
मजमे में एक चितचोरजी भी थे-पास ही के राजापुर गढ़ेवा गाँव के रहने वाले। निरालाजी के इलाके में मुझे अगर चितचोर न मिलते तो मजा अधूरा रह जाता। लाखों की हैसियत से कम तो वे बात ही नहीं करते थे और हाल बड़ा पतला था। कहने लगे कि "निरालाजी हमसे बहुत कहें कि चितचोर, कविता लिखो, चितचोर कविता लिखो, पर हम कहें कि नहीं। फिर अभी हाल ही में हमने सोचा कि निरालाजी हमारे बैसवारे के रतन रहे, मित्र रहे, इतना कहते रहे तो लाओ कविता लिखें। फिर क्या था नागरजी, हमने पाँच कविताएँ लिख डालीं। आपको पाँचों सुननी पड़ेंगी।"
पाँचों कविताएँ चितचोरजी ने कांग्रेस के विरुद्ध लिखी थीं। ठाठ के साथ सुनाईं। फिर पूछा, "कैसी हैं?"
"अरे...!" हमने कहा, "ये कविताएँ सुन लेते तो निरालाजी फिर कविता लिखना छोड़ देते।"
चितचोरजी यह सुनकर बडे संतुष्ट हुए. बोले, "बड़े सेर आदमी रहे निरालाजी. हमारे बैसवारे के रतन रहे-रतन ऑफ होल इंडिया रहे और तुम समझ लेव नागरजी कि निरालाजी मर तो ज़रूर गए, बाकी ये बताओ कि उनकी रूह कहाँ है?"
हमने कहा, "रूहों तक हमारी पहुँच नहीं। यह आप ही बतला सकते हैं।"
बोले, "हाँ, हम ही बतला सकते हैं। उनकी रूह कहीं नहीं गई. एक तांत्रिक ने उसको पकड़ लिया है।"
मीटिंग का समय हो रहा था। बिहारीलालजी ने कहा कि भोजन करके उधर ही चला जाए. हम घर के अंदर गए. दरवाजे से घुसते ही दहलीज में एक जगह पुआल का ढेर पडा था। बिहारीलालजी बोले, "काका, यहैं बैठि कै लिखत रहे। तकिया छाती तले दबाए लें और पौढे पर; लिखा करें।"
घर के अंदर आँगन की कच्ची चहारदीवारी कई जगह से टूट चुकी थी। बडा खस्ता हाल था। पिछवाड़े की तरफ चतुरी चमार के घर की दीवाल भी दिखलाई पड रही थी। निराला का घर-गाँव सब कुछ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में था। इस अति पिछड़े हुए गाँव में कीचड़-काँदो और टूटे घरों की बस्ती देख-देखकर मेरा मन एक अजीब खिसियान से भरता जा रहा था।
हमारा मिडिल क्लास बाबू निराला को राष्ट्रपति भवन में प्रतिष्ठा दिलाने के लिए मचल रहा है। वह चाहता है कि निराला का सम्मान हो। राष्ट्रीय महापुरुषों में उन्हें समुचित स्थान मिले। राष्ट्रपति, मंत्री, प्रधानमंत्री, अमुकजी, तमुकजी आदि उनके यश गाएँ। मैं सोचने लगा कि ये कैसी उल्टी अभिलाषा है लोगों की। कैसा निकम्मा उद्योग है उनका। निराला के ठाठ भला यों बन सकते हैं कभी!
भोजन के बाद जुलूस निकला। लोहे की कुर्सी पर चादर ढाँककर उस पर निरालाजी का चित्र रखकर उन्हीं के वंश का एक युवक उस सिंहासन को अपने सिर पर उठाए हुए आगे-आगे चला। पीछे गाँववालों का हुजूम। घंटा-शंख-घडियाल की ध्वनि और उसके पीछे चिमटा-झाँझ-करताल मंजीले बजाते और गाते हुए चतुरी के भाई-बिरादरों की भगत-मंडली। बीच-बीच में 'बोल दे निराला बाबा की जय के नारे।'
घरों से औरतें और बच्चे शोर सुनकर बाहर निकल पड़े थे। गाँव के लिए इस बार की वसंत पंचमी एकदम नई होकर आई थी। मैं सोचने लगा कि महाकवि ने अपने जीवन-काल में कभी यह कल्पना न की होगी कि उनके पुरखों के गाँव में उनका ऐसा सम्मान होगा।
सन 38 में निराली यहाँ से दुखी होकर गए थे और फिर कभी न आए. ऊँची जाति के लोगों में दंभ और अशिक्षा का बोलबाला था। गरीब जनता बड़ों की लाठी से बुरी तरह त्रस्त थी। जुलूस में साथ-साथ चलने वाले धमनी खेड़ा के श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र और काशीप्रसाद मिश्र दो भाई भी थे। रिश्ते में निरालाजी उनके मामा होते थे। काशीप्रसादजी कहने लगे, " सन अट्ठावन में हम लोग वसंत पंचमी के दिन निरालाजी से मिलने के लिए इलाहाबाद गए. उन्होंने बड़ी उत्सुकता से यहाँ का एक-एक हाल पूछा। मैंने कहा कि एक बार फिर गाँव चलिए. सुनकर मामा उदास हो गए. कहने लगे कि क्या जाएँ, वहाँ बड़ी अशिक्षा है। मैंने कहा कि अब गढ़ाकोला और बैसवारा बहुत बदल गया है। वहाँ गाँव-गाँव में स्कूल-पाठशाला खुल गए हैं। जमीदारी भी खत्म हो गई है। किसान अब अपने खेतों के मालिक हो गए हैं।
" इस पर महाकवि पूछ बैठे, 'गढाकोलाका लगान अब कौन लेता है!'
" मैंने कहा, 'कुर्क अमीन वसूल करते है।'
"पूछने लगे, ' कुर्क अमीन किसके आदेश से वसूल करते है।"
" मैंने कहा, 'सरकार के आदेश से।'
"सरकार का नाम सुनते ही न जाने क्या हुआ कि महाकवि ने मुहँ फेर लिया और कुछ बड़बड़ाने लगे।"
दुर्गाप्रसाद कह रहे थे, " इस बार भादों में हम फिर उनसे मिलने इलाहाबाद गए थे। महाकवि यहाँ का सब हाल-चाल पूछने लगे। फिर हमसे कहा, 'गढ़ाकोला जैहो।'
"मैंने कहा, ' आप कहें तो चले जाई."
" निरालाजी बोले, 'हमका कौनों गर्ज है?'
उसके बाद हम गढ़ाकोला आए. यहाँ से उनके लिए आम, अमावट, खटाई सब ले गए. निरालाजी को अपने बगीचे के आम बहुत ही पसंद थे। मैंने एक आम उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "भदैला को आम आय।"
" महाकवि देखकर बोले, 'नाहीं, यौ म्याड़ पर वाले को आय।'
"उन्हें अपने बगीचे के एक-एक पेड़ के आम की पहचान थी। अंतिम बार उन्होंने अपने गाँव के आम खाए और फिर आम, अमावट और खटाई आदि लेकर अपने पुत्र रामकृष्ण के घर गए."
कच्ची सड़क से जुलूस आगे बढ़ रहा था। अगल-बगल दोनों ओर सरसों फूली हुई थी। क्षेत्र के ब्लाक डेवलपमेंट अफसर मेरे पास आए. कहने लगे, "ये सड़क जिस पर आप चल रहे हैं, इसका नाम निराला मार्ग है। गाँव वाले इसे श्रम-दान से तैयार कर रहे हैं। छह मील की यह सड़क पुरवा में जाकर मिलेगी। फिर वहाँ से उन्नाव तक यही निराला मार्ग बना दिया जाएगा।"
उनकी बात पूरी भी न पाई थी कि पंडित बिहारीलालजी लपकते हुए हमारे पास आए और बाई ओर का एक खेत दिखलाते हुए बोले, "यह खेत रामसहाय बाबा ने निराला काका के नाम से लिया था। कागज पर सूर्जकुमार नाम चढ़ा है।"
जुलूस और आगे बढ़ा। निराला बाबा की जय के नारे और शंख-घंटा-घडियालों का नाद इस समय अपने पूरे जोर पर था। किनारे पर पड़ी एक मड़ैया के आगे खड़ा हुआ एक वृद्ध बार-बार अपनी आँखें पोछने लगा। गढ़ाकोला के एक सज्जन ने बतलाया कि यह पासी निरालाजी के पास बहुत आया-जाया करती थी। इस पर हठात् मेरे मन में बात आई. छोटी क़ौम कहलाने वाले दबे-पिसे लोग ही निरालाजी के नाम पर रोने वालों में यहाँ अधिक हैं। मैंने छेड़ते हुए पूछा, "यहाँ के ऊँची जात वालों में कितने लोग निरालाजी के भक्त हैं?"
"अरे बहुत कम। ई पंचै तौ महाकवि का यादौ नहीं कर्तु हैं।"
मैं सोचने लगा कि वे लोग भला निराला को क्यों याद रखें। निरालाजीने उनकी जातिगत उच्चता को कभी स्वीकार नहीं किया। उनके झूठे धर्म को सदा लातों से ठुकराया। गरीब-मजलूमों की आवाज सुनी। उनके लिए ताकतवरों से जूझे। उनके सुख-दुख में शामिल हुए, यही वजह है जो यह इतनी बड़ी भगत-मंडली इस जुलूस में ऊँची जात वालों की संख्या को मात देती हुई आगे बढ़ रही है। मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। शिव अपने भूतगणों के साथ ही शोभित होते हैं।
निराला बाग आ गया। यह उनके पुरखों का बाग है। कुनबे वालों ने अब उसे निराला बाग कहना आरंभ कर दिया है। सधन अमराई के पास ही एक शामियाना तना हुआ था। उसके आगे लइया, मुरमुरे, रामदाने के लड्डू आदि लिए खोंचेवाले बैठे थे। एक पान-बिड़ी वाला और एक मिट्टी के खिलौने वाला भी नजर आ रहा था। यहाँ एक नए मेले की परंपरा स्थापित हो रही थी। यहाँ निराला जयंती की सभा जुड़ी। भगत-मंडली पीछे-पीछे आ पहुँची। ये लोग शामियाने के बाहर जमीन पर बैठा गए. मुझे लगा कि यह तो निरालाजी की जीवन-भर की लड़ाई मेरी आँखों के आगे ही एक दयनीय पराजय के रूप में परिणत हुई जा रही है। एक मिनट तक मन-ही-मन संघर्ष चला कि कहूँ या न कहूँ। पर फिर चुप न बैठ सका। मैंने कहा, "इन्हें आदरपूर्वक दरी पर बिठलाइए."
"हाँ-हाँ, अभी प्रबंध होता है, पर आप देखेंगे कि ये लोग बैठेंगे नहीं। इनके मन में अब भी वे पुराने संस्कार जड़ें जमाए हुए हैं।"
दरी बिछी। बड़े आग्रह के साथ भगत-मंडलीको उस पर बैठने के लिए कहा गया और बड़े ही संकोच के साथ वे लोग बैठे। लेकिन बैठे शामियाने के बाहर ही। लगभग तीस-पैंतीस भगत थे। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी मेल के. सिर्फ़ धोतियाँ ही नहीं; बल्कि एक-आध पतलून, ढीली मोहरी के पाजामे भी नजर आ रहे थे। ढोलकिए के सिर पर रूमाल बँधा हुआ था। मजीरेदार चिमटे, झाँझ, करताल और ढोलक का आर्केस्टा जन्नाटे के साथ गूँज उठा।
स्वर्गीय चतुरी के जोड़ीदार पंचम भगत इस भगत-मंडली के लीडर थे। सिर पर गांधी, टोपी, कंधे पर अँगोछा, ऊँचे स्वर में हाथ बढ़ाकर पंचम भगत ने कबीर का भजन गाना आरंभ किया।
"वह घर हमका कोउ न बताया, जेहि घर ते जिया आवा हो।"
तीस-पैंतीस कण्ठों से गाने की पंक्ति दोहराई जाने लगी। एक अधेड़ उम्र का भगत उठकर नाचने भी लगा। बड़ा समा बाँधा। माई डियर चितचोरजी ने मुझे फिर याद दिलाया, "निरालाजी की रूह यहीं है। उसे एक तांत्रिक ने पकड़ रखा है।"
मैंने भी कहा, "उस तांत्रिक साले को मार-पिटकर रूह को आजाद करवाइए. ये तो बड़ी खराब बात है कि आपके मित्र को मरने के बाद एक तांत्रिक की कैद भुगतनी पड़े।"
चित्तचोर गंभीर हो गए. फिर बोले, "अच्छा तौ-या तौ एक रुपया हमें देव या हमसे लेव।"
चित्तचोर के कहने की अदा मुझे बड़ी भायी।
भाषण पर भाषण होते रहे। माइक्रोफोन था नहीं और आजकल आमतौर पर हमारे पढ़े-लिखे लोगों के पास आवाज नहीं रह गई जो दस-बीस हजार की कौन कहे, हजार-पाँच सौ आदमियों को भी सुनाई पड़ सके. जनता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। जवान लड़कियाँ, औरतें, बच्चे, पुरुष क्रमश: बढ़ते ही जा रहे थे। होने वाले तमाशे, यानी कि भाषणबाजी के प्रति उनमें सहज आकर्षण था। लेकिन बातें कुछ तो सुनाई नहीं पड़ती थीं और कुछ समझ में नहीं आती थीं। इसलिए बढ़ती भीड़ में शोरगुल क्रमश: बढ़ता ही जाता था।
मुझे लगता कि हम मेले को एक सुनियोजित रूप देना चाहिए-कसरत-कुश्ती का दंगल, औरतों की बनाई हुई गृहशिल्प की वस्तुओं का प्रदर्शन, क्षेत्रीय कवियों का सम्मेलन, खेलकूद और वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ, यहाँ प्रतिवर्ष हुआ करें तो बहुत अच्छा हो।
(1962, हिन्दी टाईम्स)