गणतंत्र दिवस पर फिल्म विष और अमृत / जयप्रकाश चौकसे

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गणतंत्र दिवस पर फिल्म विष और अमृत
प्रकाशन तिथि :26 जनवरी 2015


हिंदुस्तानी कथाफिल्म का 102वां वर्ष चल रहा है और स्वतंत्रता का 68वां वर्ष चल रहा है। इन वर्षों में देश, समाज और सिनेमा तीनों ही में बहुत से परिवर्तन हुए हैं और कुछ चीजों की परिवर्तनशीलता भी बड़ी मुखर हुई है। देश की तरह सिनेमा में भी विविधता रही है और समाज-सुधार तथा सिनेमा में सफलता का प्रतिशत दस या पंद्रह ही रहा है अत: हिंदुस्तान के विगत वर्षों के विहंगम दृश्य शेष 90 या 85 प्रतिशत की चीख समान ही हैं।

सारे फिल्मकारों के लिए आत्मनिरीक्षण के अनेक अवसर आए हैं और उन्होंने हमेशा सरल और सुविधाजनक कदम ही उठाए हैं। देश के नेताओं ने भी सुविधा को ही सिद्धांत से ऊपर रखा है। हिंदुस्तानी सिनेमा ने कभी आमूल परिवर्तन समानता, स्वतंत्रता के लिए विद्रोह के तेवर नहीं अपनाए, वरन् आक्रोश के तेवर भी इस सुरक्षा से साधे कि वह व्यवस्था का सहायक ही रहा है। मसलन सिनेमा ने गरीबी को हमेशा आभा मंडित किया है और रूखी-सूखी, कभी-कभी वह भी आधा पेट खाकर ईमानदारी और जीवन मूल्यों के सख्त, ठंडे फुटपाथ पर सोने को भी सराहा ही है और अवाम को कुछ ऐसा संदेश दिया मानो यह मानवता के लिए त्याग बड़ा है। कभी सीधे सवाल नहीं पूछने को ही प्रोत्साहित किया है और अजीब बात यह कि तथाकथित सार्थक फिल्म बनाने वालों ने भी अंतिम रील में "अच्छाई की बुराई पर जीत' को भी एक फंतासी और नशे के रूप में ही प्रस्तुत किया है। हमारा सिनेमा का साधारणीकरण यही है कि वह यथास्थितिवाद की अवधारणा को ही मजबूत करता रहा है। ये सारी बातें अधिकांश फिल्मों के संदर्भ में लिखी जा रही हैं और उन विरल सच्ची सार्थक फिल्मों पर लागू नहीं होती। हर नियम और सिद्धांत के अपवाद हमेशा रहे हैं।

हिंदुस्तानी सिनेमा पलायनवादी रहा है और गाफिल करने के नशे का ही एक रूप रहा है। यह जागने या जगाने का नहीं वरन् सोते रहने, गाफिल रहने का ही संदेश देते हुए व्यवस्था का एक हिस्सा बना रहा है और उसके अनगिनत सुराखों को झूठी आशा के चुइंगगम से बंद करने का प्रयास करता रहा है। हमें यह बात नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमा बाजार और प्रचार तंत्र का हिस्सा है, उन्हीं के धन से संचालित है। इस तरह सिनेमा पर बाजार का नियंत्रण हर देश के सिनेमा पर है। अब अपराध को अाभा मंडित करना भी बाजार का ही संकेत है क्योंकि व्यवसाय की दुनिया भी अंधेरे और उजाले में अलग छवियां प्रस्तुत करती है। अपराध और आतंकवाद भी व्यापार ही है। कंगना रनावत अभिनीत रिवाल्वर रानी के एक दृश्य में महिला दस्यु का चाचा उसके दुश्मनों से मिलते समय कहता है कि हम लोगों ने सरकार और पुलिस के सहयोग से कितने परिश्रम से दस्यु व्यापार प्रारंभ किया था और अब मेरी भतीजी रिवाल्वर रानी मातृत्व के प्रभाव में लोरी गाने का मन बना चुकी है। अत: दस्यु व्यवसाय बचाने के लिए उसे मारने के लिए दोनों पक्षों को एक साथ प्रयास करना चाहिए। यही हाल बाजार और सिनेमा के रिश्ते का है। पुन: दोहरा रहा हूं कि यह लेख सभी फिल्मों या फिल्मकारों पर लागू नहीं होता परंतु सामान्यत: आज यशस्वी गाथा गाने का समय नहीं है।

यह निर्मम आत्मनिरीक्षण फिल्मकारों या बाजार के कर्णधाराें तक नहीं पहुंचेगा और मेरा सरोकार भी मेरे पाठकों के लिए है जो दर्शक भी हैं। अत: हमारे सिनेमा के पलायनवादी और नशा के रूप धारण करने में दर्शक की उदासीनता और नशे में गाफिल रहने की तीव्र उत्कंठा भी जवाबदार है क्योंकि उसकी प्रवृत्तियों ने ही हमारे नेताओं को बनाया है, हमारी अजीबोगरीब डेमोक्रेसी को रचा है। यह अवाम की इच्छाओं और सपनों की ही रचना है। हमीं तो सबसे बड़े सृजक हैं, सारी अवधारणाएं हमारी ही बनाई हैं और हमारा दर्शक होना, नागरिक होना और शौकिया अालोचक होना या व्यवस्था विरोधी तेवर भी हमारे ही ढकोसले हैं और हम से बड़ा कोई बहुरुपिया भी नहीं है।

हमारी अपनी कमजोरियां ही समाज और उसके कर्णधारों में दिखाई देती हैं। हम अपनी शक्ति से अपरिचित बना दिए गए हैं। एक बार तो जागने का प्रयास करो। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि हमारा सिनेमा उद्योग हमेशा धर्मनिरपेक्ष रहा है क्योंकि बॉक्स आफिस ही तय करता है कि किसके साथ काम करना है, किससे बचकर निकलना है परंतु यह काबिले तारीफ है कि इस उद्याेग ने अपने धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे को लंबे समय तक साधे रखा है। इसउद्योग ने अनेक विरोधाभास दबावों के बावजूद भी कभी-कभी जगाने वाली फिल्में भी बनाई हैं, क्योंकि सारे मंथन में विष के साथ अमृत भी निकलता है और जैसे निर्णायक समुद्र मंथन के बाद हमारे देवता बुराई की ताकतों से बचाने के लिए अमृत लेकर भागे थे और उनके मटके से छिटकी बूंदों की जगह कुंभ होता है। उसी अमृत की विरल बूंदों की तरह सार्थक फिल्में रची गई हैं।