गणपति उत्सव के बदलते स्वरूप / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :06 सितम्बर 2016
गणपति उत्सव पूरे देश में मनाया जाता है परंतु महाराष्ट्र का यह सबसे अधिक लोकप्रिय उत्सव है। ज्ञातव्य है कि स्वतंत्रता संग्राम के वरिष्ठ नेता बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में इस पारम्परिक उत्सव को नई दिशा दे थी। इस उत्सव के अवसर पर आयोजित विविध कार्यक्रमों में स्वतंत्रता पर भाषण दिए जाने लगे। मुंबई का फिल्मोद्योग भी इस उत्सव को उत्साह से मनाता है। राज कपूर ने 1951 में ही अपने तब तक अधबने स्टूडियो में गणपति उत्सव प्रारंभ किया। राज कपूर दीपावली, होली इत्यादि सभी त्योहार धूमधाम से मनाते थे तथा पूरा उद्योग उसमें शामिल होकर उसे संपूर्ण उद्योग द्वारा मनाए गए उत्सव का प्रतीक बना देता था। सलमान खान के घर पर भी गणपति की पूजा धूमधाम से कई वर्षों से जारी है।
राज कपूर की मृत्यु के पश्चात उनके परिवार ने केवल गणेश उत्सव मनाना जारी रखा और अन्य उत्सवों को केवल अपने परिवार के स्तर पर मनाकर उसके पूरे फिल्म उद्योग के सामूहिक स्वरूप को त्याग दिया। गणपति उत्सव आज भी जारी है और दस दिनों तक सुबह-शाम आरती में कपूर परिवार सम्मिलित होता है तथा चौबीसों घंटे आम जनता वहां स्थापित गणपति दर्शन के लिए जाती है। परम्परानुसार ही विसर्जन के लिए सुसज्जित ट्रक पर गणपति की मूर्ति को साज-शृंगार के साथ रखते हैं और चेम्बूर का ही एक व्यवस्थित लेजिम बजाने वालों का दल स्टूडियो के विसर्जन समारोह का अंग होता है, जिसमें अनेक नारियल, गुलाल इत्यादि का भरपूर स्टॉक रखा जाता है और चौपाटी तक स्थान-स्थान पर नारियल फोड़े जाते हैं।
चेम्बूर के एक सिरे पर पेट्रोल पम्प है, जहां से स्टूडियो की तमाम गाड़ियों का पेट्रोल भराया जाता है। उस पेट्रोल पम्प का मालिक आरके स्टूडियो गणपति विसर्जन जुलूस को किंचित आराम देने के लिए रोकता है और सभी वहां जलपान ग्रहण करते हैं। यह परम्परा आज भी जारी है।
आप कल्पना कीजिए कि 1951 से 1988 तक राज कपूर की सभी नायिकाएं और सभी सहयोगी कलाकार तथा तकनीशियन इस विसर्जन जुलूस में जगह-जगह नाचते थे। जरा उस दृश्य की कल्पना कीजिए कि राज कपूर और नरगिस इस जुलूस में शाम जनता के बीच नाचते-गाते चलते थे तो अवाम को कितना आनंद प्राप्त होता होगा। राज कपूर की तो अपनी हिंदू धर्म की अवधारणा का मूलमंत्र था कि जो जीवन से भरपूर आनंद प्राप्त करता है और अवाम को आनंद देने का प्रयास करता है, वह हिंदू धर्म का निर्वाह करता है। हर व्यक्ति की धर्म की अपनी अवधारणा होती है और हमारी ईश्वर की कल्पना भी हमारे अपने चरित्र के अनुरूप होती है। उदात्त व्यक्ति की कल्पना का ईश्वर भी विराट और उदात्त स्वरूप में ही होता है। टुच्चे और संकीर्णता से ग्रस्त लोग अपनी कल्पना के ईश्वर का कद भी छोटा कर देते हैं। मनुष्य का श्रेष्ठतम उसके अपने चारित्रिक स्वरूप के अनुकूल ईश्वर का आकल्पन ही कर पाता है। कितने ही लोग अपने व्यक्तिगत शत्रु के नाश की प्रार्थना ईश्वर से करते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनका शत्रु भी अपने ईश्वर से ऐसी ही प्रार्थना करता होगा गोयाकि हमारे टुच्चेपन और लघुता के ईश्वर आकल्पन ही आकाश में एक-दूसरे से भी भिड़ते होंगे। वाह रे मनुष्य! तू अपने टुच्चेपन से ईश्वर आकल्पनों को आपस में भिड़ा देने की कामना करता है। अब आपस में भिड़ रहे ईश्वर के पास धरती पर कृपादृष्टि डालने के लिए समय कहां रह जाता है। संभवत: इसीलिए हमने अपनी धरती और जीवन को ईश्वर के आशीर्वाद से वंचित कर दिया है और स्वर्ग समान सुंदर धरती को हम नर्क बनाने के लिए कितने कटिबद्ध और कितने बेकरार नज़र आते हैं। यह अवाम का अपना सामूहिक चरित्र ही है, जिसने तमाम पवित्र अवसरों को दिखावे के तमाशे में बदल दिया है। हमारे जैसा तमाशबीन कहां होगा कि अपने ही विनाश नृत्य का प्रमुख व्यक्ति बन गया है और तालियां भी बजा रहा है।
हम सब विकास के नाम पर धरती व पर्यावरण तथा सामूहिक चरित्र के विनाश के चश्मदीद गवाह भी हैं और कातिल भी है तथा जज की कुर्सी तथा अपराधी कटघरे में एक ही व्यक्ति खड़ा है। शांतता कोर्ट चालू आहे।