गणित शिक्षण में संभावनाओं की तलाश / अशोक तिवारी

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गणित शिक्षण में संभावनाओं की तलाश ...................

दुनियाभर में विभिन्न विषयों से अलग गणित को आमतौर पर ऐसा विषय माना जाता है जिसमें छात्र कम रुचि लेते हैं। जो छात्रों को कम लुभाता है। इतना ही नहीं, कुछ छात्रों को यह विषय बहुत रूखा और बोरिंग (उबाऊ) लगता है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके उत्तर ढूँढ़ने के साथ-साथ उन कारणों की तलाश करनी होगी जिनके कारण ये प्रवृत्ति पनपती है। क्या कारण है कि एक छात्र अन्य विषयों के बनिस्बत गणित में उतनी रुचि नहीं लेता है। इसे समझना ज़रूरी है।

गौर से देखें तो इसके तीन प्रमुख बिंदु नज़र आते हैं।

o गणित में अमूर्त एवं मानने और जानने की धारणाओं का इस्तेमाल।

o ‘गणित मुश्किल है’ जैसी स्व प्रचारित टिप्पणियों का प्रसार।

o शिक्षण पद्धति में नीरस एवं रूढ़िगत विधियों का इस्तेमाल।

इन बिंदुओं को ज़रा विस्तार से समझते हैं। प्रमुखतः गणित शुरूआत से ही कुछ मानने और जानने के सिद्धांत पर आधारित है। संख्याओं के ज्ञान से लेकर गणित की तमाम शाखाओं में गणित की अवधारणा मूलतः आभासी है। जिसे समझने और समझाने के लिए कई बार अतिरिक्त ध्यान की आवश्यकता होती है। आभासी चीज़ों को प्रायः साकार रूप से स्वीकार कर लेने के लिए मस्तिष्क को एकाग्रचित्त होने की ज़रूरत होती है। जिसे कुछ लोग बड़ी आसानी से अपने साथ जोड़ लेते हैं और कुछ को जोड़ने में वक़्त लगता है। यह प्रत्येक की अपनी दक्षता पर भी निर्भर करता है। और यही कारण है कि गणित जैसे विषय के बारे में तमाम भ्रांतियाँ प्रचारित कर दी जाती हैं। ‘गणित मुश्किल है’ जैसी टिप्पणी समाज में प्रचारित ऐसा जुमला बन गया है जिसे स्कूल जाता हर छात्र सुनता है। बल्कि कुछ छात्रों को तो अपने घरों में ही इस तरह की टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है। इस तरह की टिप्पणियाँ एक छात्र को स्वाभाविक तौर पर सीखने में बाधा पहुँचाती हैं। छात्र अपने बड़ों से न केवल सीखते हैं बल्कि प्रेरणा लेकर विवेचनात्मक कौशल को भी विकसित करते हैं। इसलिए हमें ऐसे बयानों और पूर्व धारणाओं को प्रचारित करने में सावधानी बरतनी चाहिए, जिससे किसी के अंदर होने वाला सहज और स्वाभाविक विकास प्रभावित न हो।

तीसरा और आख़िरी बिंदु है - शिक्षण पद्धति में नीरस एवं रूढ़िगत विधियों का इस्तेमाल, जिसका एक छात्र क्रियान्वयन के स्तर पर विद्यालय में अक्सर सामना करता है। शिक्षण में एकरसता होने से ऊब पैदा होने का ख़तरा सदैव बना रहता है। सवाल ये है कि गणित जैसा विषय, जिसके अंदर सोचने और समझने की न केवल अपार संभावनाएँ हैं, बल्कि रचनात्मकता के स्तर पर इसके क्या-क्या उपयोग रहे हैं - ये भी हमने देखा है। विज्ञान में हर गणना के लिए गणित का बारीक से बारीक इस्तेमाल होता है। और उसीका नतीजा है कि हम विकास के इस चरण में पहुँचे हैं। तो क्या गणित वाकई मुश्किल है? अब सवाल उठता है कि जिस विषय में इतनी संभावनाएँ हों, वो मुश्किल कैसे हो सकता है? वैसे भी किसी चीज़ का मुश्किल होना या न होना व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) होता है। ये व्यक्तिगत क्षमताओं पर भी निर्भर करता है। और व्यक्तिगत क्षमताओं को विकसित करने में हमने कितना सार्थक प्रयास किया है, इसे भी आज परखने की ज़रूरत है।

ऐसे में गणित जैसे विषय के मुश्किल लगने या उबाऊ लगने के बारे में अगर हम किसी से पूछते हैं तो अमूमन एक ही तरह का उत्तर मिलता है कि पढ़ाई की शुरूआत से ही गणित से एक तरह का डर लगने लगा। डर क्यों? बच्चे के अंदर ये डर पैदा होने के लिए क्या सिर्फ़ बच्चा ज़िम्मेदार है। या इसकी ज़िम्मवारी विद्यालय की भी बनती है जहाँ वह गणित नाम से परिचित हुआ, मगर उसे ठीक से सीख और समझ नहीं पाया।

गणित के बारे में अमूमन ये मान लिया जाता है कि इसके अंदर गतिविधि कराने की कोई गुंजाइश नहीं है। हम अगर ध्यान से देखें तो गणित हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा होता है। संख्याओं का खेल कहीं न कहीं हमारी अपनी ज़िंदगी का खेल है। इसमें भी उतना ही रस है जितना किसी और विषय में। सवाल है उसके बारे में बनी सारी भ्रांतियों को तोड़ने का और उसे अपनी ज़िंदगी से जोड़ने का।

किसी भी विषय या प्रसंग को शुरू करने से पहले उसके बारे में संक्षिप्त नाट्य प्रस्तुति अगर हम देखते हैं तो वह हम सबको बाँधती है। और इससे विषय पर आना और उसके बारे में अवधारणा को स्पष्ट करना अपेक्षाकृत आसान तो हो ही जाता है, बल्कि वह बच्चों के साथ सीधे-सीधे भी जुड़ता है। क्या हम “रोल प्ले” का इस्तेमाल गणित जैसे विषय में कर सकते हैं ? अगर हम “रोल प्ले” को समझें तो यह थियेटर का वह रूप है जिसमें किसी भूमिका को खेला जाता है। और “रोल प्ले” जैसी गतिविधि हमेशा प्रत्येक को उस विषय के साथ बाँधती है और उससे जोड़ती है। इस तरह गणित शिक्षण में “थियेटर इन एजुकेशन” की शिक्षण शास्त्रीय रणनीति को अच्छे से अपनाया जाए तो गणित शिक्षण को और रुचिकर बनाया जा सकता है। इसके चलते गणित के प्रति छात्रों के अंदर की तमाम भ्रांतियों को तोड़ा जा सकता है कि गणित मुश्किल है, उबाऊ है, डराऊ है बगैरा बगैरा। बल्कि “रोल प्ले” उसीका एक अंग है। गणित के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह के “रोल प्ले” बनाते हुए उन्हें बच्चों के साथ मिलकर खेला जाना चाहिए। अगर इन सभी गतिविधियों में शिक्षक की सक्रिय भागीदारी संभव हो पाए तो कहने ही क्या!

हम सभी शिक्षक पुस्तकों में सुझाए गए “रोल प्ले” का इस्तेमाल ही करें, ये ज़रूरी नहीं है। इसके लिए शिक्षक को संपूर्ण स्वायत्तता है कि वो अपने अनुसार काम करे। इसके अंदर इंप्रोवाइज़ेशन की पूरी छूट है, बशर्ते ये इंप्रोवाइज़ेशन शिक्षक की देख-रेख में हों। इंप्रोवाइज़ेशन में हम बच्चों को खेलने के लिए कोई स्थिति देते हैं, जिसे बच्चे अपने अनुभव और आपके निर्देशन के अनुसार खेलते हैं। हमारी कोशिश हो कि कक्षा के ज़्यादातर बच्चों को इसमें शरीक़ कर पाएँ। उन सबकी सहभागिता पूरी गतिविधि को जीवंत बना देगी। इसके लिए हम कक्षा के छात्रों के चार से पांच ग्रुप बना सकते हैं। सभी ग्रुप “रोल प्ले” को अपने-अपने हिसाब से खेलेंगे। हां, इस बात का ध्यान रहे कि जब एक ग्रुप अपनी प्रस्तुति दे रहा हो तो बाकी सभी ग्रुप उस प्रस्तुति को ध्यान से देखें। और उसके बारे में जो भी उनकी राय बने, उसे कापी के अंदर नोट कर लें। ताकि सभी प्रस्तुतियों के बाद, कक्षा के समक्ष जब सभी प्रस्तुतियों का विश्लेषण किया जाए तो उन राय और मशविरों को सबके सामने रखा जाए। सुधार की हर संभावना का हमेशा स्वागत किया जाए।

“रोल प्ले” के बाद विषय की शुरूआत न केवल प्रभावी होगी बल्कि हम आश्वस्त हो पाएँगे कि कक्षा का हर छात्र विषय से जुड़ पा रहा है। इस गतिविधि से एक और जो प्रत्यक्ष लाभ होगा, वो होगा छात्रों का शिक्षकों के साथ कनेक्ट बनना। एक तरह से घुलना-मिलना जो हमारे सीखने की प्रक्रिया को और मज़बूत करता है। और यहीं से उन बच्चों के अंदर विषय के प्रति डर का भाव ख़त्म होगा, और शुरू होगा शिक्षक एवं गणित के साथ बच्चों का जुड़ना।

जी हाँ, संभावनाओं की तलाश करते हुए, आइए करके देखते हैं। ..................


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