गदल कहानीः (रांगेय राघव) की पड़ताल / स्मृति शुक्ला

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प्रेम में पड़ी स्त्री के मनोविज्ञान की सघन पड़ताल करती सशक्त कहानी


विलक्षण प्रतिभा के धनी रांगेय राघव उन विरले और महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों में शुमार हैं, जिन्होंने अपनी अल्पायु में उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, नाटक, रिपोर्ताज आदि विभिन्न विधाओं में विपुल मात्रा में स्तरीय लेखन कर हिन्दी साहित्यिक संसार को समृद्ध किया है। उनके कविता- संग्रह ‘पिघलते पत्थर’, ‘श्यामला’, ‘अजेय’, ‘खंडहर’, ‘मेघावी’, ‘राह के दीपक’, ‘पाँचाली’, ‘रूप छाया’ आदि हैं। कविताओं में उनके कवि रूप के सौन्दर्य के दर्शन किए जा सकते हैं। मुर्दों का टीला, कब तक पुकारूँ, चीवर, लोई का ताना, रत्ना की बात, लखिमा की आँखे, घरौंदा सहित लगभग चालीस उपन्यास लिखने वाले रांगेय राघव हिन्दी के ऐसे लेखक थे, जिनकी कलम अश्व के वेग जैसी चलती थी। कहा जाता है कि जितनी देर में कोई एक उपन्यास पढ़कर खत्म कर सकता था, उतनी ही देर में वे एक उपन्यास लिख सकते थे। रांगेय राघव अपने साहित्यिक अवदान के लिए हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, डालमिया पुरस्कार, उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, महात्मा गाँधी पुरस्कार समेत अनेक पुरस्कारों से नवाजे गये। तिरुममल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य उर्फ रांगेय राघव के पूर्वज आंध्रप्रदेश के निवासी तमिल भाषी आयंगर ब्र्राम्हण थे जो कई पीढ़ियों से राजस्थान में आकर बस गए थे। रांगेय राघव का बचपन भरतपुर जिले की तहसील ‘वैर’ में बीता। यहाँ के शांत और प्राकृतिक वातावरण का बालक रांगेय राघव के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा। रांगेय राघव ने आगरा के सेंट जोंस कॉलेज से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि तथा ‘‘गोरखनाथ और उनका युग विषय पर पी-एच.डी. की शोध उपाधि प्राप्त की। हिन्दी के अतिरिक्त तमिल, कन्नड़, अंग्रेजी, संस्कृत जैसी भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ थी। रांगेय राघव ने गद्य की अनेक विधाओं में सृजन किया है। लेखन की शुरूआत 1936-37 में कविता से की थी और उनकी अंतिम रचना एक कविता ही है। इससे यह सिद्ध होता है कि बहुधा महान गद्यकार अपनी सृजनात्मक यात्रा का प्रारंभ कविता से ही करते हैं।

रांगेय राघव की ख्याति उपन्यासकार और कहानीकार के रूप में अधिक रही है। उनके ग्यारह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमे तिरासी कहानियाँ संकलित हैं। इन कहानियों गदल, पंचपरमेश्वर, काई गूँगे, पेड़, नारी का विक्षोभ, धर्मसंकट, घिसटता कंबल जैसी कहानियाँ अपने वैशिष्ट्य के कारण खूब सराही गयी।

रांगेय राघव की कहानी ‘गदल’ की चर्चा प्रायः सभी आलोचकों द्वारा की जाती रही है; क्योंकि यह कहानी अपने कथ्य और ट्रीटमेंट में एकदम अलग है। राजेन्द्र यादव ने अपनी पुस्तक ‘कहानी स्वरूप और संवेदना’ में लिखा है ‘‘नयी कहानी, से पहले परिवेश और तात्कालिक वर्तमान को लेकर भी एक अजीब तरह की अप्रामाणिकता का माहौल था। तब भविष्य में ही अपनी सार्थकता मानने वाले प्रगतिवादी या तो आदि-अन्तहीन रिपोर्ताज बुन रहे थे या कृष्णचंदर की तरह फॉर्मूला कहानियों का सिलसिला था, जिन्हें फूल-पत्तियोंदार भाषा की चाशनी में मिलाकर गले उतार दिया जाता था। श्रम का सम्मान और पूँजीवादी व्यवस्था का खोखलापन दिखाने के लिए सेठ की पत्नी या पुत्री का मजदूर मेहनती युवक के प्रति प्यार दिखाया जाता था, या मेहनतकश की आर्थिक मजबूरियों की दयनीयता स्थापित करने के लिए पैसे वाले की उफनती कामुकता का सहारा लिया जाता था - साथ ही कश्मीर की केसर-भीनी फुलवारियों का रंग-बिरंगा दृश्य था। यह रोमांटिक प्रगतिशीलता उस समय आँधी थी जिसके बहाव में सब बह गए थे। हाँ रांगेय राघव जैसे लेखकों ने जरूर इस सबसे हटकर नटों और दूसरी उपेक्षित जातियों पर प्रामाणिकता से लिखने की कोशिश की थी - उस मानसिकता से जन्मी गदल (प्रकाशन काल 1953-1954) जैसी कहानियाँ आज भी हम सबके लिए स्पृहा की चीज हैं।’’ राजेन्द्र यादव के इस कथन के आलोक में यदि विचार करें कि ‘गदल’ कहानी में ऐसा खास क्या है? वे कौन से तत्व हैं, संवेदना और शिल्प का वह कौन सा वैशिष्ट्य है, जिसके कारण गदल समकालीन कहानीकारों के लिए स्पृहा का कारण बन गयी। दरअसल रांगेय राघव ने गदल में कथा परिपाटी के बँधे-बँधाए साँचे को तोड़ा और समाज के जटिल यथार्थ के साथ एक प्रौढ़ स्त्री के मनोविज्ञान और उसकी संवेदनात्मक अनुभूति को जिस ढंग से अभिव्यक्त किया है वह हिन्दी कहानी में नया है। यह कहानी रवारी गुर्जर समाज की कहानी है।

‘गदल’ 1955 में प्रकाशित हुई थी इसके बाद 1957 में रांगेय राघव का करनर जाति को केन्द्र में रखकर लिखा गया उपन्यास ‘कब तक पुकारुँ’ उपन्यास की पूर्व पीठिका के रूप में देखा जा सकता है। हम यूँ भी कह सकते हैं कि ‘कब तक पुकारूँ’ के लिए होमवर्क करते हुए राजस्थान के कबीलाई समुदाय से गुजरते हुए ‘गदल’ जैसी साहसी स्त्री पर उनकी दृष्टि आई हो। रांगेय राघव ने ‘गदल’ के संबंध में अपनी बात रखते हुए कहा है - ‘‘गदल मेरी एक पुरानी विचार दृष्टि में से निकली धारा का एक और बिन्दु है। .... ग्राम जीवन का एक चित्र है । गाँव में गूजरों का समाज अपनी अलग रीतियाँ निभाता है किन्तु गदल केवल उनका बाह्य चित्रण नहीं है उनमें एक स्त्री का हृदय बोलता है। .... मै भावपक्ष का अनुरागी हूँ, मनुष्य ढूँढता हूँ। .... गदल फिर भी गदल है और गदल ही रहेगी । रांगेय राघव का अपनी कहानी के बारे में लिखा गया यह कथन कहानी को डिकोड करने में सहायक है। एक विशेष समाज से संबंध रखने वाली यह कहानी खारी गुर्जर समाज की परंपराओं, रीति-रिवाजों, गाँव के वातावरण को साथ ही राज-काज को पाठक के सामने मूर्त करती है लेकिन कहानीकार का उद्देश्य इस सामाजिक परिवेश का चित्रण करना नहीं है, बल्कि उस स्त्री के हृदय और मन में चल रहे मानसिक कार्य व्यापारों को सामने लाना है, जिनसे कहानी की कथावस्तु में गति आती है और कहानी आगे बढ़कर अपने चरम सोपान पर पहुँचती है। जब यह कहानी प्रकाशित हुई तो शिवदान सिंह चैहान ने ‘कहानी’ पत्रिका को लिखे अपने पत्र में गदल को उसने कहा था कहानी जैसी स्तरीय कहानी निरूपित था। गदल को उसने कहा के समकक्ष रखने का कारण प्रेम की घनीभूत उपस्थिति कही जा सकती है। यद्यपि उसने कहा था में वर्णित प्रेम बचपन और किशोरावस्था की दहलीज पर अंकुरित प्रेम था जो वर्षों तक लहना सिंह के हृदय में कंजूस के निगूढ़ धन की तरह दबा रहा था और अंत में यह निर्मल और उदात्त प्रेम आत्म बलिदान की राह पर पहुँच कर अमरता प्राप्त कर गया था। उसने कहा था कि किशोर-प्रेम से भिन्न ‘गदल’ में वर्णित प्रेम एक पैंतालीस वर्षीय स्त्री गदल और उसके पचास वर्षीय देवर का प्रेम है। कहानी का प्रारंभ एक नाटकीय दृश्य और माँ-बेटे के संवाद से होता है। ‘‘कौन है? हत्यारिन ! तुझे कतल कर दूँगा।’’ गदल के जवान बेटे निहाल का यह प्रश्न और माँ गदल का जबाव- ‘‘करके तो देख ! तेरे कुनबे को डायन बनके न खा गई, निपूते।’’ पढ़कर पाठक सोचता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया जो माँ-बेटे के रिश्ते में इतनी कड़वाहट आ गयी है । आगे कहानी में डोडी का पदापर्ण होता है, जो अपनी स्नेहसिक्त वाणी से क्रोध और अपमान में जल रही गदल को शांत कर देता है। कहानी में डोडी का शब्द चित्र रांगेय राघव कुछ इस तरह खींचते हैं कि वह अपने बाह्य रूपाकार के साथ अपने पूरे आंतरिक मनोभावों के विविध रंगों को समेटे जैसे समूचा पाठक के सामने आन बिराजता है - ‘‘पचास साल का वह लंबा खारी गुर्जर जिसकी मूँछें खिचड़ी हो चुकी थीं, छप्पर तक पहुँचा सा लगता था। उसके कंधे की चैड़ी हड्डियों पर अब दिए का हल्का प्रकाश पड़ रहा था, उसके शरीर पर मोटी फतुही थी और धोती घुटने के नीचे उतरने के पहले ही झूल देकर चुस्त-सी उपर की ओर लौट जाती थी। उसका हाथ कर्रा था और वह इस समय निस्तब्ध खड़ा था।’’ इसी डोडी की पैतालीस वर्षीय विधवा भाभी, तीन जवान बच्चों की माँ और दादी नानी बन चुकी गदल एक दिन पहले ही परिवार छोड़कर बत्तीस साल के एक लौहरे गूजर मौनी के यहाँ जा बैठी थी। गदल खारी गूजर परिवार से थी जो अपने को लौहरों से ऊँचा समझते थे। गदल का नया पति बत्तीस साल का मौनी विधुर था । उसने गदल की उम्र नहीं देखी थी बल्कि यह सोचा था कि गदल खारी समाज की मेहनती स्त्री है, घर में बड़े कुनबे के लिए खाना बनाएगी, उसे चूल्हे पर दम फूँकने वाली की जरूरत थी। पर गदल के परिवार के लिए इस तरह गदल का घर से चले जाना, उस उम्र में अपने से तेरह-चैदह साल छोटे व्यक्ति से शादी करना दुख, क्षोभ आश्चर्य और शर्मिंदगी का विषय था। गदल के पति गुन्ना की मृत्यु कई वर्ष पहले हो चुकी थी। 

डोडी की पत्नी और उसके बच्चे तो बहुत पहले ही भगवान को प्यारे हो चुके थे। डोडी ने पत्नी की मृत्यु के बाद शादी नहीं की । अपने बड़े भाई के बच्चों को अपना मानकर असीम स्नेह से पालन-पोषण करता रहा । वह अपनी कमाई अपनी भाभी गदल को दे देता था और उसी के चूल्हे की रोटी खाता था उसने अपनी रोटी अलग नहीं पकायी। गदल जिस गूजर समाज से थी उस समाज में यह परंपरा थी कि पति की मृत्यु के बाद देवर से पुनर्विवाह किया जा सकता था। गदल मन ही मन डोडी को प्यार करती थी वह चाहती थी कि डोडी उससे विवाह कर ले लेकिन डोडी ने मर्यादा और डर के चलते पुनर्विवाह नहीं किया। गदल इससे क्षुब्ध हो गयी और उसने प्रतिशोध में यह कदम उठाया कि अपनी वह डोडी से कहती है- ‘‘कायर ! भैया तेरा मरा कारज किया बेटे ने और जब सब हो गया तब तू मुझे रखकर घर नहीं बसा सकता था। तूने मुझे पेट के लिए पराई ड्यौढ़ी लँघवाई।’’ गदल को डोडी से यह शिकायत थी कि उसने आगे बढ़कर गदल को नहीं अपनाया । गदल के प्रति स्नेह होते हुए भी वह विवाह करने का साहस नहीं कर सका। गदल विवाह इसलिए करना चाहती थी कि वह बेटा-बहू पर आश्रित न रहे, उसका स्वाभिमान बना रहे। वह चाहती थी कि बहुएँ उसे कमजोर ना समझे। वस्तुतः गदल एक स्वाभिमान स्त्री है। प्यार में मिली उपेक्षा ने उसे दुस्साहसी भी बना दिया है।’’ गदल कहानी का पुनर्पाठ करते हुए मुझे बार-बार ऐसा लगा कि शायद गदल डोडी से अपने विवाह के पूर्व ही प्रभावित थी। रांगेय राघव ने गदल से यह बात सांकेतिक रूप से कहलायी है- ‘‘गदल बुरबुराई - ‘‘जग हँसाई से मैं नहीं डरती देवर ! जब चौदह की थी, तब तेरा भाई मुझे गाँव में देख गयाा था। तू उसके साथ तेल पिया लट्ठ लेकर मुझे लेने आया था न, तब मैं आई थी कि नहीं? तो सोचता होगा कि गदल की उमर गई, उसे अब खसम की क्या जरूरत है? पर जानता है, मैं क्यों गई? डोडी के यह कहने पर कि वह उसके जाने की वजह नहीं जानता वह कहती है कि जब तक मेरा मरद था, उसके जीते जी मैंने उसकी चाकरी बजाई । पर जब मालिक ही न रहा तो काहे को हड़कम उठाऊँ। लड़के बहुओं की गुलामी मैं नहीं करूँगी।’’ डोडी के यह कहने पर कि ये तुम्हारी औलाद नहीं बिल्ली तक अपने बच्चों के लिए सात घर उलट-फेर करती है, फिर तू तो मानुष है। तेरी माया-ममता कहाँ चली गयी? इस पर गदल प्रतिप्रश्न करती है कि तेरी माया-ममता कहाँ चली गई अपनी पत्नी के मरने के बाद तूने दूसरा ब्याह क्यों नहीं किया।

डोडी कहता है- ‘‘मुझे तेरा सहारा था गदल।’’ गदल कहती है मैं बहुओं की बाँदी नहीं हूँ मेरी कुहनी बजे औरों के बिछुए छनके। मैं तो पेट तब भरूँगी, जब पेट का मोल कर लूँगी। वह डोडी को ताना देती है कि जब मैंने कुनबे की नाक कटवा दी तब तुझे मेरी फिक्र हुई तब नहीं हुई जब तेरी गदल को बहुएँ आँख तरेरती थीं।’’ गदल और डोडी के इन आपसी संवादों में स्पष्ट झलकता है कि गदल डोडी से शायद पहली ही नज़र में प्यार करने लगती थी । चैदह की उम्र में जब गदल ने अपने हमउम्र डोडी को उसके बड़े भाई अपने होने वाले पति के साथ देखा होगा संभवतः तभी वह उसे पति से ज्यादा अच्छा लगा हो। क्योंकि डोडी से पहली मुलाकात का जिक्र गदल ने कई बार किया है। उसी डोडी की मृत्यु पर बेचैन होकर वह मौनी के घर का छप्पर तोड़कर चुपके से अपने ब्याहता पति गुन्ने के घर वापिस आई। गाँव के पटेल ने पूछा कि वह अब क्या लेने आई है तो वह पुनः यही बात दुहराती है कि जब छोटी थी, तभी मेरा देवर लट्ठ बाँध मेरे खसम के साथ आया था। मैं इसी के हाथ देखती रह गयी थी।’’ रांगेय राघव ने कहानी के इन संवादों में स्पष्ट संकेत दिए हैं कि गदल के हृदय के एक कोने में डोडी के लिए राग का एक कोमल सा छोर था जो विवाहित जीवन की मर्यादा के तले दब गया था लेकिन पति की मृत्यु के बाद वह पूरे वेग से बाहर आना चाहता था और पुनर्विवाह के रूप में सामजिक स्वीकृति के बाद जीवन को अपने सुंदरतम रूप में जीना चाहता था। पर यहाँ डोडी की मर्यादा आड़े आ गई। भर्राई आवाज में उसने गदल से कहा था कि मै बुड्ढा, डरता था, जग हँसेगा। बेटे सोचेंगे, शायद चाचा का अम्मा से पहले से नाता था, तभी चाचा ने दूसरा ब्याह नहीं किया। भैया की भी बदनामी होती ।’’ डोडी की यही लोकलाज और सज्जनता गदल के गैर घर में जाकर बैठने और स्वयं उसकी मृत्यु का भी कारण बन गई। कहानी में डोडी का प्यार नहीं स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं हुआ लेकिन प्रारंभ में ही गदल के खाने की फिक्र करना उसके बच्चों को अपने बच्चों की तरह मानना और गदल के जाने से इस तरह दुखी हो जाना कि दुनिया को ही अलविदा कह देना यह जानबूझकर किया गया प्राणात्सर्ग उसके अनन्य और असाधारण प्रेम का परिचायक है।

गदल ने अपने से बारह बरस छोटे मौनी से विवाह इसलिए किए था ताकि डोडी को चोट पहुँचे और वह गदल के जाने के बाद उसे याद करे लेकिन गदल शायद स्वयं भी यह नहीं जानती थी कि उसके इस कदम से डोडी को इतनी चोट पहुँचेगी कि वह मृत्यु को गले लगा लेगा।

गदल कहानी मे प्रेम की वेदना अन्तर्निहित है। रांगेय राघव ने इस कहानी में प्रौढ़ पात्रों के अन्तर्जगत की जटिलता का बड़ा बारीक विश्लेषण किया है। प्रौढ़ता को प्राप्त हो चुकी गदल का अंतस प्रेम के मजबूत धागों से बँधा है। गदल का स्त्री मन चाहता है कि डोडी खुद आगे बढ़कर उसे स्वीकार करे पर डोडी का मर्यादा में बँधा प्रेम उसे रास नहीं आता और एक तरह से डोडी से बदला लेने के लिए मौनी के घर में जा बैठती है। मौनी के घर आकर वह किसी से दबती नहीं है। अपनी जेठानी दुल्लो से कहती है कि जेठानी मेरी ! हुकुम नहीं चला मुझ पर ! तेरी जैसी बेटियाँ हैं मेरी। देवर के नाते देवरानी हूँ, तेरी जूती नहीं।’’ वह अपने पति मौनी से भी कहती है - ‘‘अब क्या तेरे घर का पीसना पीसूँगी मैं? हम दो जने हैं, अलग करेंगे, अलग खाएँगे। वह यह कहती है कि भले ही कमाई शामिल करो पर घर में चैका-चूल्हा अलग ही होना चाहिये।’’ समाज का दंड भरने के लिए वह अपने बेटे नारायण को अपने कड़े और हँसुली उतारकर दे देती है। अपने पति मौनी को भी अपनी बड़ी उम्र का हवाला देकर चुप करा देती है।


गदल को जब पता चलता है कि डोडी की मृत्यु हो गई और मरते समय वह उसका ही नाम ले रहा था तो वह बेचैन हो उठती है। मौनी के मना करने पर वह एक तरह से उससे नाता तोड़कर ऐन-केन-प्रकारेण अपने पहले पति के घर पहुँचती है और दुखी होकर कहती है कि ‘‘देवर से मेरी रार थी, खतम हो गयी।’’ इस कहानी में रांगेय राघव खारी गुर्जर समाज की उस रूढ़ि परंपरा को सामने लाते हैं जिसमें मृत्यु के बाद दिया जाने वाला भोज (कारज) प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है। कहानीकार ने यह दिखाया है कि तत्कालीन समय में राज्य और कानून का यह विधान था कि किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में पच्चीस से अधिक व्यक्तियों को एक साथ न ही बुलाया जा सकता था और न ही भोज दिया जा सकता था। गदल के पति की जब मृत्यु हुई तो इसी कानून की वजह से उसके मृतक भोज में पच्चीस लोग ही खाना खा पाए पूरी बिरादरी नहीं। गदल अब अपने देवर और प्रेमास्पद डोडी का मृतक भोज व्यापक स्तर पर करना चाहती है। ऐसा भोज जिसमें पूरी बिरादरी को न्यौता दिया जाए सब पंगत में बैठे और भोजन करें। इसके लिए वह साम, दाम, दंड की नीति अपनाते हुए दारोगा को रिश्वत देती है और सारा इंतजाम करती है। इसी बीच उसका नया पति मौनी गदल से बदला लेने के लिए बड़े दारोगा से शिकायत कर देता है। तब गदल के घर को पुलिस के द्वारा घेर लिया जाता है। गदल इस समय अद्वितीय साहस की प्रतिमूर्ति बनकर आखिरी पंगत उठने तक भोज जारी रखती है और फिर अपने बेटे, बहुओं सहित सभी को पीछे के दरवाजे से बाहर निकाल कर स्वयं छत पर जाकर पुलिस वालों से मोर्चा लेते हुए पुलिस की गोली का शिकार हो जाती है। पुलिस वालों को घर में कोई नहीं मिलता, मिलती है लहू से नहायी हुई गदल जिसकी साँसें चल रही हैं। वह दारोगा से कहती है - ‘‘कारज हो गया, दरोगा जी आत्मा को शांति मिल गयी। दरोगा उससे पूछता है कि ‘‘पर तू है कौन?’’ वह क्षीण आवाज में कहती है - ‘‘जो एक दिन अकेला न रह सका, उसी की ..........।’’ गदल के इस एक वाक्य में उसका संपूर्ण प्रेम पूरी पारदर्शिता के साथ प्रकट हो जाता है।’’ रांगेय राघव ने अंतिम पंक्ति में कहानी की मूल संवेदना को इन पंक्तियों में स्पष्ट रूपाकार दे दिया है। अपने को डोडी की प्रिया घोषित करते हुए गदल का सिर एक ओर लुढ़क गया।’’ उसके होठों पर मुस्कुराहट ऐसी दिखाई दे रही थी, जैसे अब पुराने अंधकार में जलाकर लाई हुई....... पहले की बुझी लालटेन।’’ पुराना अंधकार यानी गदल का पुराना विवाहित जीवन, बुझी लालटेन यानी अल्प समय के लिए ही सही गदल का डोडी के प्रति कठोर होकर प्रतिगामी कदम उठाना, लेकिन इसी बुझी लालटेन का पुनः प्रदीप्त होकर जलना, प्रेम की उज्ज्वलता का पुनः प्रदीप्त होना। वस्तुतः कहानी में गदल का चरित्र जितना मुखर और साहसी है, उसके विपरीत डोडी का चरित्र उतना ही शांत और नैतिक नियमों की कारा में जकड़ा हुआ निरीह सा प्रतीत होता है। लेकिन प्रेम की पराकाष्ठा दोनों में है। डोडी गदल के जाने पर इतना दुखी हो जाता है कि रात को ढोला सुनते हुए गदल और अपने भैया की सुहाग की रात को याद करते हुए प्राण त्याग देता है।

कहानी अंत में विषाद की एक लहर पाठकों के हृदय पर छोड़ जाती है। कहानी के शिल्प की बात करें तो यह एक नाटक के शिल्प में ढली हुई कहानी है जो अनेक दृश्यों से निर्मित है। पहला दृश्य बड़ा नाटकीय है और संवादों से ही कहानी अपना मुखड़ा खोलती है। यह गदल के पति का घर है। दूसरा दृश्य मौनी के घर का है, इस घर में गदल जा बैठी है। गदल जिसे उसका बेटा कुलच्छनी और कुलबोरनी कहकर जलील करता है, छोटा बेटा दंड करवाता है, समाज लाँछित करता है लेकिन वह किसी की परवाह नहीं करती।

प्रसिद्ध आलोचक रोहिणी अग्रवाल लिखती है कि - ‘‘गदल रंगमंच की प्रायः सभी भूमिकाओं का स्वयं निवर्हन करती दीख पड़ती है, वह सूत्रधार, मुख्य अभिनेत्री रंग निर्देशक और पटकथा-लेखक-सभी भूमिकाओं में समान दक्षता से संचरण करती है। इतनी प्रत्युत्पन्नमति संपन्न कि जहाँ अपने को प्रखरता के साथ अभिव्यक्त करने में कठिनाई महसूस हो वही एक अन्य विचार/संवेदन को अपने लक्ष्य और कार्यशैली में जोड़कर कथा गति को प्रवाहमान बनाए रखती है। इसलिए कहानी की संरचना उपन्यास अथवा नाटक के पैटर्न पर आगे बढ़ती है। (रामलोचन ब्लाग)

कहानी में प्रेम के साथ विरादरी और उसके नियम कानून तथा राज और राज के कानून भी चलते हैं। लेकिन गदल राज के कानून को विरादरी के कानून से उपर नहीं मानती वह गुस्से में कहती है कि ‘‘राज के पीसे तो आज तक पिसे हैं, पर राज के लिए धर्म नहीं छोड़ देंगे, तुम सुन ले! तुम धरम छीन लो, तो हमें जीना हराम है। 1955 में प्रकाशित गदल में दरोगा द्वारा रिश्वत का लेना भी दिखाया गया है। कहानीकार इस कहानी में लोक-जीवन से शब्द को उठाकर भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग करते हैं। रांगेय राघव ने इस कहानी के माध्यम से कबीलाई समाज और एक स्त्री के जीवन संघर्ष तथा मन की गाँठों को पूरी ईमानदारी और सहजता और भाषायी कौशल के साथ खोलते हैं कि पात्रों की अंदरूनी उठापटक भी सामने आती है। कथाकार रांगेय राघव की दृश्यात्मकता और सूक्तिपूर्ण भाषा पाठकों को मोहाविष्ट करती है।

गदल कहानी में गति है, ठहराव कहीं नहीं है। स्थानीय बोली के देशज रंग में रंगी भाषा और तर्क प्रधान प्रोक्तियों के प्रयोग से कबीलाई समाज उसकी परंपराएँ, रीति-रिवाज, रिश्तेदारी-नातेदारी के साथ ही एक सशक्त और आत्मसजग स्त्री का साहसिक रूप को इस वास्तविकगल्प में प्रकट करते हैं। शिल्प की दृष्टिसे गदल एक सशक्त कहानी है। पारिवारिक कहानी होते हुए यह पूरे कबीलाई समाज के साथ आधुनिक समाज, राज और उसके कानून के व्यापक को समेटती है। कई स्थलों पर यह कहानी काल का अतिक्रमण कर कालातीत भी हो जाती है। निःसंदेह हिन्दी कथा-साहित्य में गदल जीवन की उर्जा और प्रेम की आज में तपकर निकला एक ऐसा कद्दावर चरित्र है जिसके आगे कोई नहीं ठहरता।

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