गद्य गीत -2 /अबोध बन्धु बहुगुणा
बडुळि लगी चै आग भबराई मि समज जांदु कि तुम ह्वैल्या सम्ळना। अर, उबरीहि जब आर्वी डाळि मा कागा बसण बैठ जांद त मी यांको परचो मिल जांद कि तुम औणा छा।
तुम्हरो औंण लै रैबार मिल्द त म्यरो ज्यू हौर कुछ पर लगद्वै नी छ। क्वी छूं लाण त आधै मा रिबडै जान्दु-क्वी भांडो उठौण त छट हात परै छुट जांद।
पाण्यू जाण त खुट्टौं तौळ कुतग्यळि सि लगणी रंदन। पार डांडा को बाठो द्यखण त बँइ आंखि मलकण बैठ जांद। म्यरो फपराट भुय्याँ नि धरेंदो-फ़ुर्र फतैं म्यरि कुंडाळी कथैं। डौड्यों-डौंड्यों मा नचदू-बुराँसि का फूल हाथ पर ल्हेकि सुद्दि भेळु फुंडो दन्कुदु, बुजल्याणु भीटौं उँदै फाळि मार्द चल्द जान्दु। छाला पर पौंछिइ धौळि मा झिट मुखडि देखिइ कथगा मोड्याट कर्दू (ऊँ यकुला बोणु कु द्यख़्द मी।) अफ्वी-अफ कथगा बौळे जांदु। बौळ मा बखरा चरौणे सुध बि बिसरे जांद: कखि ज्यूडि हर्चि जांद, त कखि थमाळि छुट जांद।
हे स्वामी! तुम्हरा औणौ हर्ष ही जब इनो कर देंद त जै दिन तुम ऐल्या सी, मि जाणे कौं असमानु उड़दू। म्यरा गीतै भौंण मी तैं गगन-मंडल का पार कुज्याणि कख पौछैं देंद-कुछ नि बोले सकेंदो। मि वे बग्त तुम्हरा हाथ ऐ भि सकलो कि ना। याँको क्य अंताज लगौण।