गद्य में कविता : निर्मल वर्मा / विनोद दास
उनसे मिलने की तृष्णा मेरे मन में पक रही थी। ऐसी तृष्णा होना सहज था। ऐसा न होता तो अचरज ज़रूर होता । बाराबंकी के एक छोटे से गाँव कमोली का युवक, जिसने कभी आइसलैण्ड, लिदेत्से, वर्तराम्का, प्राग, बर्लिन, रिक्याविक सरीखे शहरों के नाम तक नहीं सुने थे, वह उस लेखक के शब्दों के उड़नखटोले पर बैठकर उस लोक में विचरने लगता । छोटे से गाँव का एक ऐसा युवक जिसके बस्ते में पाठ्यक्रम की किताब तक न होती, लेकिन उसके पास कल्पना में ही सही, डफ़ल बैग ही नहीं, कन्धे पर कैमरा लटक जाता । जिसके पास परीक्षा पास करने के लिए कभी कागज़ का नक़्शा ख़रीदने की कूवत नहीं थी, वह अपने हाथ में शहर का नक़्शा, घुटने तक उठी हुई जींस के साथ बंजारों की तरह विदेश की ज़मीन पर किसी पब या रेस्तराँ में बीयर, वोदका, स्कॉच, व्हिस्की, कोन्याक के साथ चीयर्स कर रहा होता । लैक्सनेस, चापेक जैसे लेखकों से बतिया रहा होता । ब्रेश्त, काफ़्का और च्येख़फ़ के साहित्य को पढ़-समझ रहा होता । पहाड़ों के तरल अन्धेरे को लाँघतीं चीड़ों पर बिखरी चाँदनी को निरखने लगता । इतनी बड़ी सम्पदा से सिर्फ़ मुझे ही नहीं, मेरे सरीखे लाखों युवाओं को मालामाल करने वाले और कोई नहीं, हिन्दी के कथाकार निर्मल वर्मा थे।
वह गद्य में कविता लिखते थे ।
निर्मल वर्मा अपनी भाषा में एक स्वपनवत सम्मोहन रचते, जो किसी भी युवा को अपनी गिरफ़्त में बाँध लेता । इस बात को मैं निःसंकोच स्वीकार करता हूँ कि अपने युवाकाल में मैं भी उनके इस जादू में गिरफ़्तार था । ’चीड़ों पर चान्दनी’ जैसे उनकी यात्रा-संस्मरण का ही नहीं, उनके कथा-साहित्य की भाषा का यह नया सौन्दर्य भी मुझे लुभाता था । उनके कथा-साहित्य में कथ्य न्यूनतम और दृश्य अधिक होते थे । वह अपने कथा के रूपाकार को अर्जित करने के लिए कथा के अनिवार्य तत्त्वों को सुनियोजित रूप से छाँटकर उसे चिड़िया के पंखों की तरह इतना हल्का बना देते थे कि पाठक की कल्पना उनके लोक में उड़ने लगती थी । वह मन के भीतर की उथल-पथल को पकड़ते और भाषा के संगीत से संवेगों की ऐसी धुन बनाते, जिसमें पाठक अपना सुध-बुध खो देता।
निर्मल जी से मिलने का तो नहीं, लेकिन उन्हें देखने का सुयोग तब मिला, जब मैं दिल्ली में राज्यसभा सचिवालय में नौकरी कर रहा था । एक दिन मैंने अख़बार में पढ़ा कि मैक्समुलर भवन में अज्ञेय पर आयोजित एक संगोष्ठी में निर्मल वर्मा एक आलेख पढ़नेवाले हैं । उन दिनों मैक्समूलर भवन, दिल्ली में जर्मनी के हिन्दी प्रेमी विद्वान लोठार लुत्से कार्यरत थे। उनकी पहल पर वहाँ तमाम स्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। मुझे याद है कि उसी दौर में मैंने वहाँ गिरीश कर्नाड तथा ब० व० कारन्त निर्देशित फ़िल्म ’गोधूलि’ देखी थी । कर्नाटक की ग्रामीण-जीवन की विसंगतियों पर आधारित इस फ़िल्म में कुलभूषण खरबन्दा, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह ने अविस्मरणीय अभिनय किया था । एक दूसरे आयोजन में ’दो रास्ते’ फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद हिन्दुस्तान टाइम्स के फ़िल्म समीक्षक अनिल सारी ने उस पर एक लम्बा आलेख पढ़कर यह रेखांकित किया था कि किस तरह अधिकांश हिन्दी फ़िल्मों का ताना-बाना रामायण और महाभारत के चरित्रों और मिथकों के मॉडल पर रचा जाता है ।
बहरहाल मैक्समूलर भवन में लोठार लुत्से ने अज्ञेय के जन्मदिन के अवसर पर एक शानदार कार्यक्रम आयोजित किया था । दिल्ली के अधिकांश साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत के सितारे वहाँ मौजूद थे । रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विष्णु खरे, शानी, प्रयाग शुक्ल के चेहरे मुझे अभी भी याद हैं । अनेक चेहरों को पहचानता भी नहीं था । मैक्समूलर के खुले लॉन पर ज़मीन पर बैठने की व्यवस्था थी । मजबूत कद-काठी के लम्बे सुदर्शन चेहरे के धनी लोठार लुत्से बड़ी उमंग से अतिथियों का स्वागत कर रहे थे । इस आयोजन में अज्ञेय पर एक छोटी फ़िल्म दिखाने के बाद निर्मल वर्मा को उन पर एक लेख भी पढ़ना था। अज्ञेय अपनी धवल दाढ़ी में अपनी धजा और प्रभामण्डल के साथ अपनी मन्द मुस्कान बिखेरते हुए समय पर पहुँच गए थे। लॉन पर सफ़ेद बिछी चादर पर उनकी बैठकी के पीछे टेक लगाने के लिए मसनद की व्यवस्था भी थी, लेकिन उनकी सीधी तनी पीठ को ऐसे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं थी ।
फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद अपनी मन्द-मधुर आवाज़ में निर्मल वर्मा ने लेख पढ़ना शुरू किया । यह अज्ञेय की तीन गद्य की किताबों पर केन्द्रित आलेख था । लेख के प्रारम्भ में निर्मल वर्मा ने अज्ञेय की कवि-लेखक के रूप में पहचान करते हुए कहा कि यह याद रखने के बावजूद कि वह लेखक हैं, अज्ञेय अक्सर दार्शनिक सूक्तियों में फिसल जाते हैं । विचार सूत्र और सूक्तियाँ अपना महत्व रखती हैं किन्तु वे निर्मित माल हैं, उनके पीछे अनुभवों की कच्ची धातु और अन्वेषी भटकन से हम (पाठक) प्राय: अपरिचित रह जाते हैं । साहित्य में टी० एस० ईलियट और राजनीतिक विचारों में एम० एन० रॉय से अज्ञेय प्रभावित हैं । गाँधी उनकी सोच से बाहर हैं । नेहरू युग का उदात्त सौन्दर्य और जड़गत सीमाएँ अज्ञेय के कर्म और चिन्तन में देखी जा सकती हैं ।
यहाँ तक सभी सुधी श्रोतागण कुछ मिश्रित उत्साह से निर्मल वर्मा को सुनते रहे । अज्ञेय भी हमेशा की तरह धीर-गम्भीर थे । निर्मल जी का लेख बड़ा था । उनकी पढ़ने की गति भी धीमी थी । लेख के अगले हिस्से में उनका रुख़ पूरी तरह आलोचनात्मक हो गया । आलोचना करने की ऐसी तल्ख़ शैली निर्मल वर्मा के स्वभाव के विपरीत थी । निर्मल वर्मा को जिन लोगों ने पढ़ा होगा, वे अच्छी तरह जानते होगे कि प्रेमचन्द और प्रगतिशीलों के अलावा उन्होंने शायद हिन्दी लेखकों की आलोचना लिखित में कम ही की होगी । प्रेमचन्द उनके सौन्दर्य बोध के लिए सबसे बड़ी फाँस थे । जितना तीख़ा हमला उन्होंने प्रेमचन्द पर किया है, शायद ही किसी और ने किया हो ।
बहरहाल अज्ञेय जिस एलिटिस्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे, निर्मल वर्मा का लेखन भी उसी कोटि में आता था । ऐसे में निर्मल वर्मा की आलोचना को वहाँ उपस्थित श्रोता समुदाय कुछ अतिरिक्त उत्सुकता से एकाग्र होकर सुन रहा था । लेख जेसे-जैसे मंथर गति से आगे बढ़ रहा था, वैसे-वैसे अज्ञेय का गौरवर्ण चेहरा उत्तेजना से सुर्ख होता जा रहा था मानो यह सोचकर वह घबड़ा रहे हो कि इस लेख का अन्त कहाँ और कैसे होगा । अपनी धीरोदात्त छवि के बावजूद वह अपनी नाराज़गी छिपा नहीं पा रहे थे । लेख पूरा होते होते उनका चेहरा पूरी तरह तमतमा गया था । उस समय मैक्समूलर भवन का लॉन अज्ञेय की ’साँप’, कविता की पंक्ति में कहें तो उनके लिए, सभ्यता के ’साँप’ को चरितार्थ कर रहा था । पूरे माहौल पर सन्नाटा तारी था। यह सन्नाटा तब टूटा, जब तरल पदार्थ से भरे काँच के गिलास खनखनाने लगे ।
यहाँ यह बताना असंगत न होगा कि यह लेख उनकी किताब ’कला के जोखिम’ में संकलित है । अज्ञेय के रचना कर्म को समझने के लिए इस लेख के साथ कविता से साक्षात्कार पुस्तक में शामिल मलयज का लेख ’तीसरे अज्ञेय की तलाश’ को पढ़ना प्रासंगिक होगा । मलयज अपने उस लेख में स्पष्ट करते हैं कि 1945 के ’संक्रान्ति काल की कुछ साहित्यिक समस्याएँ’ नामक अपने निबन्ध में वे कहते हैं कि दुख,अपूर्ण पीड़ा ये सर्वव्यापी हैं । ग़रीबों ने इसका ठेका नहीं लिया है — "इसे वे भी मानेगें जो स्वयं ग़रीब हैं। और सुख और सन्तोष भी वर्गभेद नहीं देखते । तब कैसे एक वर्ग का दुख-सुख दूसरे वर्ग के सुख-दुख से अधिक वर्णनीय मान लिया जाए ? क्यों न हम दोनों वर्गों के ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानवता के गान गाएँ” अज्ञेय के इस विचार को उद्धृत करने के बाद मलयज 1970 में उनकी पुस्तक में प्रकाशित उद्धरण से तुलना करते हुए लिखते हैं कि ” समय का इतना बड़ा अन्तराल होने के बावजूद दोनों उद्धरणों में कवि कर्म को लेकर अज्ञेय की व्यक्त धारणाएँ मूलतः एक ही हैं । फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि 1945 की दो टूक ओजस्वी विचारशीलता 1970 तक आते-आते एक सुन्दर सुभाषित में बदल गई है ।”
यहाँ यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि निर्मल वर्मा ने अपने पठित उस लेख में भी अज्ञेय के विचारों को “सूक्तियों और सुभाषितों” की संज्ञा दी थी ।
मुझे स्मरण है कि निर्मल वर्मा के लेख को रघुवीर सहाय ने दिनमान के आगामी अंकों में दो किश्तों में प्रकाशित भी किया था । ऐसे में उस लेख की विषयवस्तु पर बात करना अनावश्यक विस्तार करना होगा । इस लेख की तल्ख़ी को क्षतिपूर्ति के रूप में अज्ञेय पर उनके लिखे प्रशंसामूलक अन्य लेख को सामने रखकर ही समझा जा सकता है, जो उनकी दूसरी किताब में संकलित है ।
मेरी धृष्टता और अल्पज्ञता देखिए कि मैने निर्मल वर्मा के उस लेख के एक तीख़े अंश को एक सवाल की रूप में उनसे उनके बसेरे केवनटर ईस्ट में लिए गए साक्षात्कार में पूछा, जो बाद में उनकी सहमति से श्रीराम तिवारी द्वारा सम्पादित “कलावार्ता” में प्रकाशित हुआ था । मेरा सवाल यह था कि निर्मल वर्मा अपने लेख में कहते हैं ,“अज्ञेय का ’मैं’ हमेशा सुसंस्कृत और शालीन है तथा अन्य हमेशा उच्छाड़, ग़लत और हास्यास्पद। इस पर आप कोई टिप्पणी करना चाहेंगे । ”अज्ञेय का शालीन उत्तर था” इस पर टिप्पणी तो उन्हीं को करनी चाहिए। इस बात का पूर्वाध अगर सच है तो मुझे कोई दोष नहीं दिखाई देता और अगर उत्तरार्ध सही है तो पूर्वाध कैसे सच हो सकता है । ”(’शिल्पायन प्रकाशन से प्रकाशित बतरस पुस्तक में संकलित)
अज्ञेय सरीखे साहित्य के श्लाकापुरुष के बारे में निर्मल वर्मा की प्रखर और दो टूक राय को पढ़ने के बाद उनसे मिलने का लोभ और बढ़ गया । निर्मल वर्मा की कहानियाँ, ’वे दिन’ उपन्यास और खासतौर से ’चीड़ों पर चान्दनी’ पढ़ने के बाद पता नहीं क्यों, हमें अक्सर लगता कि वह भारत से ज्यादा विदेश में रहते होंगे । कुछ दिन पहले मैक्समूलर भवन में अज्ञेय पर पढ़े उनके लेख से अनुमान हो गया था कि शायद इन दिनों वह दिल्ली में ही हैं ।
एक सुबह उनसे मिलने का संकल्प ले लिया ।
धूप चढ़ आई थी। करोलबाग के छोले भठूरों का स्वाद जीभ पर बना हुआ था। कुछ पूछताछ के बाद निर्मल जी का घर मिल ही गया । उनके भाई ने बताया कि वह ऊपरी हिस्से में रहते हैं । सीढ़ियों से ऊपर पहुँचने के बाद घण्टी बजाकर उनकी पदचाप का बेसब्री से मैं इन्तज़ार करने लगा। दरवाज़ा खुला । उनका मुस्कराता हुआ चेहरा दिखाई दिया ।
उनसे मिलने की इच्छा जताई । जब वह अपने कमरे की मुझे ले जा रहे थे तो उनकी कहानियों के अनेक नायक मेरी स्मृति में हौले-हौले दस्तक दे रहे थे । अन्तर्मुखी,उदास और अकेले । अपनी धुन में डूबे-खोए । उनके कमरे में पहुँचते ही में चकित रह गया ।
सादगी से अलंकृत और उदासी में डूबा कमरा ।
एक छोटी सी रैक पर करीने से लगी किताबें । कोने में पानी पीने के लिए मिट्टी की सुराही । बैठने के लिए ज़मीन पर दरी । पास में लेटने के लिए ज़मीन पर बिछा बिस्तर। यह उस कथाकार का निजी कमरा था जो सात वर्ष चेकोस्लोवाकिया में रह चुका था । यूरोप की कई बार यात्रा कर चुका था । जिसकी रचनाओं में लन्दन-प्राग-विएना की धूप-हवा, आसमान, तारे, रेस्त्रां, पब, वोदका और बियर इस तरह गुँथे हुए थे कि देह से त्वचा की तरह उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । उनका कमरा इन सबसे परे एक निसंग सन्त की कुटिया सा लग रहा था ।
बातचीत का सिलसिला चल पड़ा । नए-कच्चे पाठकों की तरह हमने उनकी रचनाओं के बारे में अपनी राय रखी । उनकी आँखेँ बता रही थी कि वह अपने पाठकों के अध्ययन की गहराई से ज्यादा उस्की उपस्थिति से सन्तुष्ट हैं । वह चाय बनाने के लिए बोलने नीचे तल स्थित भाई के घर गए । इस बीच मैने उनकी किताबों की रैक में सजी किताबों पर सरसरी नज़रें दौड़ा ली । लौटने पर उन्होंने पूछा कि आप क्या करते हैं ? मैंने बताया कि राज्यसभा सचिवालय में अनुवादक के रूप में इंग्लिश एड्टिंग सेक्शन में काम कर रहा हूँ । राज्यसभा सचिवालय का जिक्र सुनते ही वह अपने चिरपरिचित ट्रान्स में चले गए । फिर धीमी आवाज़ में कहा कि वह भी कुछ दिन वहाँ काम कर चुके हैं । बैरक जैसी बिल्डिंग थी । थोड़ी देर वह उस इमारत की वास्तुकला का वर्णन करते रहे । फिर विरक्ति भाव से कहा कि राज्य सभा का काम बेहद उबाऊ और यांत्रिक होने के कारण जल्दी ही छोड़ दिया । मैंने उनसे कहा कि मैंने तो वह पुरानी इमारत देखी नहीं है । आज आपकी आँखों से उसे देख-सुन रहा हूँ । हम अब नई इमारत में बैठते हैं । यह इमारत कहाँ है ? निर्मल जी की सहज जिज्ञासा थी । मैंने बताया कि संसद के ठीक सामने एक नया भवन है जिसे संसदीय सौध कहते हैं ।
निर्मल वर्मा ने राज्यसभा सचिवालय में काम किया है, इस बात का ज़िक्र शायद उन्होंने कहीं नहीं किया है । निर्मल वर्मा राज्यसभा के लिए कभी मनोनीत नहीं किए गए। सरकार यदि मनोनीत भी करती तो जिस तरह का उनका स्वभाव था, मुझे कम ही उम्मीद है कि वह उसे स्वीकार करते । लेकिन उनका थोड़े दिन इस महान संस्था से सम्बन्ध रहा है । किन्तु यह तथ्य भी उनके जीवन से जुड़े अनेक अलक्षित प्रसंगों की तरह पाठकों से अदृश्य रहा ।
एक भारतीय देहाती की ज़िन्दगी में निजी और सार्वजनिक ज़िन्दगी में अक्सर कोई द्वैत नहीं होता। यही कारण है कि वे बाज़दफ़ा नि:संकोच अपने हर परिचित को अपने घरेलू घेरे में ले आते हैं और उनकी निजी ज़िन्दगी में सेंध लगाने चाहते हैं । उस दिन मैंने भी यह दुस्साहस या कहना चाहिए कि दुष्टता की और निर्मल जी से उनके परिवार की बाबत पूछ बैठा ।
मेरी आँखे उनके चेहरे पर ठिठक गईं । चेहरे अक्सर मनुष्य की आत्मा की झाँकी दिखा देते हैं, लेकिन निर्मल जी का चेहरा उस क्षण भावहीन था । उन्होंने ठण्डे स्वर में कहा कि उनकी पत्नी उनसे अलग हो गई हैं और लंदन में रहती हैं। फिर अचानक उनके भावहीन चेहरे पर ख़ुशी की एक लहर उमगी ।
“मेरी बेटी है, उससे मिलना होता है। कुछ दिन पहले ही मिला था ।“
फिर उनके चेहरे पर उठी मुस्कान की लहर अनाथ-सी भटकने लगी । यहाँ यह बात साझा करना ज़रूरी है कि तब तक उन्होंने अपनी इस विषय पर केन्द्रित अनोखी कहानी “एक दिन का मेहमान” नहीं लिखी थी ।
फिर मैंने उनसे टेलीफ़ोन करके एक बातचीत करने का वायदा ले लिया । पहले उन्होंने आनाकानी की । फिर सहज तैयार हो गए । अगले इतवार का दिन मुकर्रर हुआ ।
वे वसन्त के दिन थे ।
दिल्ली में इन दिनों ठिठुरन भरी ठण्ड होती है, लेकिन उस दिन हल्की-हल्की गर्मी सी थी । वह सफ़ेद कुर्ते-पैजामे में थे । सीलिंग फैन भी चल रहा था । बातचीत दिलचस्प हुई ।
निर्मल जी की रचनाओं को पढ़ते समय मुझे हमेशा लगता था कि यह पात्र नहीं, निर्मल जी खुद बोल, सुन और देख रहे हैं । धूप, बर्फ़ अन्धेरे-उजाले को पात्र नहीं, निर्मल जी महसूस करते हैं, चाहे वह बच्चा हो या युवक। मैंने उनसे पूछा कि हर बड़ा लेखक अपनी रचनाओं में अपने आपकों सबसे अधिक सरेण्डर करता है, लेकिन आपके यहाँ ऐसा कम मिलता है ।
मेरे इस सवाल पर उनकी आँखों का रंग बदला । फिर उन्होंने अफ़सोसभरी आवाज़ में कहा,”मैं यह समझता रहा हूँ और उपन्यास के बारे में यह मेरी बहुत ही कंजेरवेटिव धारणा है कि पात्रों को लेखक से मुक्त होकर अपनी स्वायत्त नियति बनानी और खोजनी चाहिए । पात्र, परिवेश, नियति सबका निर्माण स्वयं लेखक करता है, लेकिन वह उसमें दख़ल न दे । जिस तरह ईश्वर जिस दुनिया को रचता है, उसमें हस्तक्षेप नहीं करता । यह एक लेखक में महान मनोबल, गहन तटस्थता और एक निर्वाची दृष्टा की शक्ति माँगता है । जहाँ तक मैंने अपने उपन्यासों में कला के इस धर्म को खण्डित किया है, वहाँ मैं अवश्य दोष का भागी हूँ ।
इसी साक्षात्कार में उनसे मैंने एक और क्रिटिकल सवाल पूछा था कि उनकी कहानी “लन्दन की एक रात को छोड़कर विदेशों में भारतीय लोगों की क्या स्थिति है, इस अनुभव को आपकी कोई अन्य रचना व्यक्त नहीं करती । क्या विदेशों में रहते हुए आपको जाति या रंग को लेकर कोई मारक अनुभव नहीं हुआ ? निर्मल जी ने कमरे में खिंचे सन्नाटे को तोड़ते हुए धीमे स्वर में कहा था,”जहाँ तक विदेशी अनुभवों में एक भारतीय की हीन भावना या वर्जना को व्यक्त करना है, वह किसी उपन्यासकार के लिए महत्त्वपूर्ण या उद्वेलित कर देनेवाला विषय हो सकता है, किन्तु मैं विदेश में जिन परिस्थितियों में रहा, वहाँ इस प्रश्न ने कभी मुझे मुख्य रूप से सन्त्रस्त नहीं किया । अजनबीपन जो एक भारतीय को विदेश में महसूस होता है, ज़रूरी नहीं कि उसकी प्रतिछाया निजी कुण्ठा में ही सीमित करके देखी जाए और यदि इस कुण्ठा का समाजीकरण सही भी है, चाहे वर्गभेद हो या काले गोरे का बीच भेद, उसे भी जब तक हम हर व्यक्ति के विशिष्ट संस्कारों के सन्दर्भ में नहीं देखेंगे, तब तक यह उपन्यास केवल सामाजिक समस्या की रचना ही बनकर रह जाएगा । अपने बारे में मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि मैं जो अपने देश से अपनी चिन्ताएँ लेकर गया था, यूरोप के सन्दर्भ के अधिक व्यापक घेरे में उन्हें जाँचने, समझने और परिभाषित करने का मौका मिला।”
कहना न होगा कि निर्मल जी के इस गोलमोल उत्तर और उपन्यास को सामाजिक समस्या से दूर रखने के उत्तर से मैं मन ही मन सहमत नहीं था लेकिन एक युवा होने के नाते मैं उनसे आगे इस विषय पर ज़िरह न कर सका और उनसे कुछ दूसरे सवाल पूछे ।
चलते समय मैंने उनसे कविता की एक किताब उधार माँगी । उन्होंने सहज ही पकड़ा दी। किताब उधार लेना और फिर लौटाने के लिए आना दूसरी बार उनसे मिलने का एक बहाना भी था । हालाँकि यह युक्ति सफल नहीं हो पाई । जब मैं किताब वापस करने उनके घर गया तो वहाँ मौजूद नहीं थे । किताब उनके भाई को सौंपकर निराश क़दमों से लौट आया । टेलीफ़ोन करके जाता तो शायद यह हताशा नहीं मिलती । कुछ दिन बाद पता चला कि निराला सृजन पीठ पर वह भोपाल चले गए हैं । फिर मैंने उन्हें खत लिखा। उन्होंने उत्तर दिया कि उस दिन वह दिल्ली में ही थे लेकिन कहीं बाहर गये हुए थे और उन्हें किताबें मिल गई थीं ।
यह वह दौर था जब मैंने कुछ कागज़ काले करना शुरू कर दिया था । फैज़ाबाद से एक मित्र “सूर्यबाला” नामक पत्रिका निकाल रहे थे । उसमें कभी-कभार मेरी कोई टिप्पणी-आलेख या अनुवाद छपता । यह पत्रिका निर्मल जी के पास भी भेजी जाती थी । उन दिनों मैंने पेरिस रिव्यू से अर्जेण्टीनी कथाकार बोर्खेस के इण्टरव्यू के साथ उनकी एक कहानी का अनुवाद किया था । बोर्खेस पर एक छोटी सी टिप्पणी भी लिखी थी । मेरे लिए यह सन्तोष की बात थी कि निर्मल जी को यह टिप्पणी पसन्द आई थी । दरअसल बोर्खेस से मेरा परिचय निर्मल जी के छपे लेख के माध्यम से हुआ था ।
भोपाल प्रवास के दौरान निर्मल जी ने उपन्यास पर केन्द्रित ’पूर्वग्रह’ पत्रिका का एक अंक भी अतिथि सम्पादक के रूप में सम्पादित किया था, जिसमें विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास अंश भी छपे थे । इन दिनों तक मेरा उनसे पत्राचार था । निर्मल जी से लिया गया इण्टरव्यू हिमाचल की अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ’शिखर’ में प्रकाशित हुआ । चूँकि इस इण्टरव्यू को मैंने अनौपचारिक शिल्प में लिखा था, उसे खूब सराहना मिली । जब ’शिखर’ पत्रिका ने हिमाचल में एक वृहत साहित्यिक समागम किया तो निर्मल जी ने उसका उद्बोधन व्याख्यान दिया । मैं पहली बार उन्हें किसी सार्वजनिक सभा में बोलते हुए सुन रहा था । वह इतना अच्छा बोलते होंगे, मैंने नहीं सोचा था। विनीता और दो वर्षीय बेटी रुनझुन भी मेरे साथ थीं । वहाँ उन्होंने मेरी बेटी रूनझुन को भी प्यार किया । मुझे लगा कि इस समय उन्हें निश्चित रूप से अपनी बेटी की याद जरूर आ रही होगी ।
मैं एक छोटी सी पत्रिका ’अन्तर्दृष्टि’ प्रकाशित करता था । दूधनाथ सिंह की एक छोटी कहानी से पत्रिका में कथा से सम्बन्धित सामग्री भी छपनी शुरू हो गई । मैंने निर्मल जी से अपने लेखन-प्रक्रिया पर लिखने के लिए अनुरोध किया । उनका उत्तर निर्मलीय अन्दाज़ में था :
”आपने रचना-प्रक्रिया पर लिखने के लिए आग्रह किया है । काश ! मैं लिख पाता । मुझे आज तक नहीं मालूम, कहानी कैसे शुरू होती है, कौन सा बीज बंजर भूमि में पड़कर लुप्त हो जाता है और कौन सा अचानक किसी रचना में सहसा बढ़ने लगता है़ । क्या कुछ चीज़ों को व्यापारमुक्त छोड़ देना बेहतर नहीं है — ख़ासकर आज के विनाशकारी वैज्ञानिक युग में — यहाँ हर चीज़ का कारण अन्तिम बूँद तक निचोड़ लिया जाता है और हाथ में कुछ भी नहीं बचा रहता । जिस दिन मैं अपनी रचना-प्रक्रिया का भेद पा लूँगा, उस दिन कहानी लिखने का तिलिस्म टूट जाएगा । आशा है, आप यह नहीं चाहेंगे ।
आपका
निर्मल वर्मा
निर्मल जी के उन दिनों वैचारिक लेख खूब छप रहे थे । उनके लेखों को पढ़कर लगने लगा था कि उनके वैचारिक पक्ष के साथ मेरे पाठक का कोई रिश्ता नहीं जुड़ पाता । जुड़ना तो दूर उनकी भारतीयता की व्याख्या की सतह की नीचे कुरेदने पर उस आस्था तक पहुँचता था, जो अज्ञेय की ’जय जानकी यात्रा’ के क़रीब ले जाती थी । इस दौर में निर्मल के सृजनात्मक लेखन से कुछ अरसे तक सम्मोहित होने के बाद उनके कथा सृजन से भी मेरा क्रिटिकल रिश्ता बनने लगा था । उनके सृजन कर्म के प्रति सम्मान होने के बावजूद उनके कथा-चरित्रों के सम्वेदनतन्त्रों और उनके संघर्षों से मेरा पाठक एक दूरी महसूस करने लगा था । यही नहीं, उनकी दृष्टि एक ऐसे प्रदेश में प्रवेश कर गई थी जिसके साथ मेरा छत्तीस का आंकड़ा था।
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फिर एक पाठक की दूरी एक भौतिक दूरी में भी बदलने लगी । पटना, लखनऊ, जयपुर, कोलकाता तबादले की वज़ह से भी मेरा उनसे बाद में मिलना नहीं हुआ । हाँ ! जयपुर में कानोडिया कॉलेज में एक व्याख्यान के दौरान उनसे लम्बे अरसे बाद भेंट हुई । उनकी मुलाक़ात में बीते दिनों की पहचान की चमक मौजूद थी । हमेशा की तरह वह बहुत अच्छा बोले । उनके बोलने में भी उनके गद्य की तरह संगीत की सी लय और काव्यात्मक सम्मोहन होता था । एक बात मैंने यह भी देखी थी कि मिलनसार होने के बावजूद सार्वजनिक सभाओं में वह अपने लिए निजी स्पेस बचाकर रखते थे ।
कोलकाता में जब “वागर्थ” पत्रिका के सम्पादन से जुड़ा तो एक सम्पादक के धर्म के रूप में मैंने उनसे पत्रिका के लिए कहानी देने का अनुरोध किया । उनका तत्काल उत्तर आया कि फिलहाल उनके पास कोई कहानी नहीं है और इन दिनों वह कोई कहानी लिख भी नहीं रहे हैं । फिर मैंने एक सुबह फ़ोन किया । संयोग से उन्होंने ही फ़ोन उठाया । मैंने उनसे कोई यात्रा-संस्मरण या डायरी के पन्ने देने के लिए आग्रह किया । शायद तीसरे दिन ही उनका एक लिफ़ाफ़ा मुझे मिल गया । उसमें मुझे छोटे-छोटे अक्षरों में पेन से हल्की स्याही में लिखे डायरी के चंद पन्ने मिले । इसके साथ ख़त भी था, जिसमें यह अफ़सोस ज़ाहिर किया गया था कि वह इसे टाइप करवाकर नहीं भिजवा पा रहे हैं । लम्बे अरसे बाद एक बार फिर निर्मल जी यह जुड़ना था ।
निर्मल जी हमेशा एक लेखक की गरिमा के साथ जिए। जिस तरह जीना चाहते थे, लगभग उसी तरह। उनके सृजन कर्म के रास्ते में जो भी प्रलोभन आते थे, वह धीरे से उन्हें सरकाकर आगे बढ़ जाते थे । स्वतन्त्र लेखन की जीवन-यात्रा बीहड़ और दुर्गम होती है । जीवनयापन की अपनी कठिनाइयाँ होती हैं, लेकिन निर्मल जी ने कभी इसके लिए सस्ते समझौते नहीं किए । उनके विचारों से असहमत होने के बावजूद उनके चेहरे पर जो लेखकीय आभा झलकती थी, उसका मैं शैदाई था । यह आभा त्याग और रचनात्मक कर्म से अपना पोषण पाती है जिसका आज के साहित्यिक परिवेश में भीषण अकाल है ।
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