गधे की सवारी / संजीव ठाकुर
उस दिन पूरब टोले में हंगामा मचा हुआ था। सोहन लाल के दरवाजे पर टोले के लोग जमा थे। सोहन लाल अपने बेटे बल्लू पर चीख चिल्ला रहा था और उसका बेटा ज़मीन ताकते हुए रो रहा था। उसकी साइकिल उसी के पास चित पड़ी थी।
"बताओ! कहाँ से लाए पैसे साइकिल खरीदने को? ...चोरी करके लाए? ...हाट में पॉकेटमारी की? ..."
"न-हीं पिताजी! चोरी नहीं की ...!"
"तब? पेड़ से तोड़कर लाए?" बल्लू को झिंझोड़ते हुए सोहन लाल बोला।
"मैं बताती हूँ, कहाँ से आए पैसे?" बल्लू की माँ भीड़ को चीरती हुई आई और अपने आँचल से बल्लू की आँखें पोंछते हुए बोली–"ये पैसे इसने कमाए हैं। हाट जाकर इसने मोटिया ढोने का काम किया है।"
"क्या बकती है तू?"
"मैं बकती नहीं, ठीक कहती हूँ। आप तो ठहरे कंस! आपको बेटे की क्या परवाह? हर हफ्ते इसे हाट भेज देते हैं सामान लाने। यह कैसे जाता है? कैसे आता है? इसके बारे में सोचा है कभी? ...पैदल जाते और सामान माथे पर ढोकर लाते इसे कितनी परेशानी होती होगी–यह आपके दिमाग में आता है?"
इसी बीच बल्लू सोचने लगा–'उस दिन जो फेकू काका के गधे पर चढ़कर हाट से आया था, उसके बारे में माँ को पता तो नहीं चल गया? कहीं माँ वह बात भी न कह दे। कितनी बेइज़्जती होगी पूरे टोले के सामने?'
"एक पुरानी साइकिल साल भर से खरीदने को कह रहा था। आप नहीं खरीद सके।" बल्लू की माँ बोली थी।
"हाँ, हम तो जैसे धन्ना सेठ हैं! साइकिल कहाँ से खरीद देते?"
"नहीं खरीद सकते थे तभी तो यह मोटियागिरी करने लगा था?" उसकी माँ बोले जा रही थी–"यह हाट जाता था, वहाँ मोटिया ढोकर पैसे कमाता था और लाकर मेरे पास रखता था। चार सौ जमा हो गए, तब पंडित जी के बेटे से उसकी पुरानी साइकिल खरीद लाया!"
बल्लू को फिर डर लगने लगा। 'कहीं माँ यह न बता दे कि पिताजी जो सामान खरीदने को पैसे देते थे वह उनसे भी कुछ–कुछ बचा लेता था, माँ को दे देता था। पिताजी हिसाब पूछते तो वह गड़बड़ा जाता था। पिताजी की मार खा लेता था। पैसे के खोने या दुकानदार के द्वारा ठग लेने की बात कह देता था। पैसे बचाने की बात लेकिन नहीं कहता था।'
माँ ने बल्लू के पैर से बह रहे खून की ओर देखा और फिर बिफर पड़ी–"कसाई ने मेरे लाल की क्या दुर्गति कर दी?"
तभी सोहन लाल का चाचा भी बोल पड़ा–"यह तो ग़लत बात है सोहन लाल! तुमने बच्चे के ऊपर साइकिल धकेल दी?"
"और क्या? यह तरीका है कोई?" सोहन लाल की चाची बोल पड़ी–"फूल जैसे बच्चे के लिए ज़रा भी ममता नहीं?"
भीड़ को अपने खिलाफ देखकर खिसियानी बिल्ली की तरह अपनी देह नोचता सोहन लाल वहाँ से चला गया।
बल्लू की माँ ने बल्लू को उठाया, कुएँ पर ले जाकर हाथ-मुँह धुलाया और उसे कुछ खाने को दिया। वह खाने की तरफ हाथ ही नहीं बढ़ा रहा था। माँ ने प्यार से उसे पुचकारा तो वह फिर रोने लगा। माँ ने फिर आँचल से उसके आँसू पोछे। तब उसने खाना शुरू किया।
माँ ने साइकिल को उठाकर दरवाजे के अंदर खड़ा कर दिया। बल्लू ने उस दिन के बाद साइकिल को हाथ भी नहीं लगाया।
चार दिन बाद फिर हाट थी। बल्लू घर से थैले लेकर हाट जाने लगा। दरवाजे पर जाकर उसने पिता से पैसे माँगे। पिता से पैसे लेकर जैसे ही वह जाने को हुआ, पिता बोले–"बेटा साइकिल ले लो!"
"ले लो बेटा!" बल्लू को चुपचाप खड़े देखकर उसके पिता ने मनुहार किया। फिर कहा–"मैं जानता था, तुम्हें दिक्कत होती है। मगर हमारे खेत से इतनी पैदावार भी तो नहीं होती कि तुम्हें साइकिल दिलवा पाता! मैं यह भी जानता था कि तुम जो हिसाब देने में गड़बड़ी करते थे, उन पैसों का तुम्हीं कुछ करते थे। मैं समझता था कि तुम उन पैसों से खेल–तमाशा देख लेते हो, अंट–शंट कुछ खरीद लेते हो! तभी मैं गुस्साता था। लेकिन तुम पैसे जमा करते थे, यह मैं नहीं जानता था। तुम्हारी माँ ने बताया। अब मैं तुमसे नाराज़ भी नहीं हूँ। मुझे इस बात का दुख ज़रूर है कि साइकिल के लिए तुम्हें मोटिया ढोना पड़ा!"
बल्लू को अब तक खड़ा देखकर उसके पिता आगे बढ़े और उसका हाथ पकड़कर साइकिल तक ले गए। तब जाकर बल्लू ने साइकिल निकाली।
साइकिल लेकर जब वह गाँव से निकला, उसे फेकू अपने गधे पर सामान लादकर आता दिखाई दिया। उसने फेकू को रोका और साइकिल की घण्टी बजाते हुए कहा–"फेकू काका! ये देखो साइकिल! अब मैं गधे की सवारी कभी नहीं करूँगा!"