गन्ने के रस की सरकारी चरखियां / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :13 जून 2017
ग्रीष्म ऋतु में गन्ने के रस के ठेले जगह-जगह लगे होते हैं। गन्ने को चरखी में डालकर रस निकाला जाता है, फिर उसी गन्ने को दोहरा करके पुन: बचा हुआ रस निकाला जाता है। इस तरह एक बंूद भी रस उसमें नहीं रह पाता। यहां तक कि रस निकालने के बाद फेंके हुए गन्ने को जानवर भी नहीं खाते। गन्ने के रस की आखिरी बूंद तक निकालने की प्रक्रिया की तरह की बातें हम अन्य क्षेत्रों में भी देखते हैं। मसलन सलमान खान की नई फिल्म 'ट्यूबलाइट' के प्रिंट में जोड़े गए अन्य फिल्म के ट्रेलर के लिए भी निर्माता को धन देना होगा। प्रिंट में ट्रेलर इस तरह लगा दिया जाता है कि सिनेमा मालिक उसे निकाल नहीं पाए। पहले ट्रेलर अलग से भेजा जाता था, जिसे सिनेमा मालिक चाहे तो निकाल सकता था। अब वह इस तरह चस्पा कर दिया जाता है कि आप उसे हटा नहीं सकते। 'ट्यूबलाइट' पहली फिल्म है, जिसमें यह नई व्यवस्था लागू की गई है। अब सभी भव्य फिल्मों में यह नियम लागू होगा, जिससे निर्माता को अतिरिक्त लाभ मिलेगा। इसे कहते हैं गन्ने की चरखी से आखिरी बूूंद रस तक निकाल लेना।
ज्ञातव्य है कि निर्माता फिल्म की शूटिंग में भी वस्तुओं के प्रचार के लिए उत्पादक से धन मांगते रहे हैं। मसलन, पात्र जिस स्थान पर मिल रहे हैं, वहां पृष्ठभूमि में किसी वस्तु का विज्ञापन लगा होता है। सुभाष घई ने 'ताल' के दृश्य में ऐश्वर्या राय व अक्षय खन्ना को एक शीतल पेय मिलकर पीने का दृश्य रखा था। प्रदर्शन पूर्व उस पेय बनाने वालों से धन की मांग की तो उन्हें लगा कि शूट किया दृश्य बदला तो नहीं जाएगा, अत: धन देने से इनकार कर दिया। उन्हें ज्ञात नहीं था कि सुभाष घई ने उस दृश्य में दो प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के माल के अलग-अलग शॉट्स लिए हैं। अत: 'ए' ब्रैंड को उनका वाला शॉट दिखाया गया। चतुर फिल्मकार मार्केट की नब्ज़ पकड़ना जानता है। फिल्म के दृश्य में प्रचार सामग्री का समावेश 'इन फिल्म' प्रचार कहलाता है।
आउट डोर शूटिंग में भी अनुबंध की गई चीज के पोस्टर साथ ले जाए जाते हैं। राज कपूर अपने आउट डोर में एक ट्रक में प्लास्टिक के विविध रंग के फूल ले जाते थे और लोकेशन पर असल फूल नहीं होने या कम होने पर वे अपने साथ लाए प्लास्टिक के रंग-बिरंगे फूल लगा देते थे। सिनेमा यकीन दिलाने की कला है। दर्शक को सब असल लगना चाहिए। शांताराम, मेहबूब, गुरुदत्त और राज कपूर ने अपनी फिल्मों में विज्ञापन नहीं किए।
हम देखते हैं कि क्रिकेट खिलाड़ी के कपड़ों पर कुछ वस्तुओं के टैग लगे हैं और इस प्रचार के लिए उन्हें धन मिलता है। खिलाड़ी और फिल्म सितारे धन कमाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। बेचारे पाकिस्तानी खिलाड़ियों को यह लाभ उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उनके देश में उद्योग का विकास ही नहीं हुआ। उनके बाजार हमेशा अमेरिकी उत्पाद से भरे होते हैं। भारतीय कप्तान कोहली को खेल तथा विज्ञापन से जो धन मिलता है, उतना धन पूरी पाकिस्तानी टीम को नहीं मिलता। श्रीलंका, बांग्लादेश और वेस्टइंडीज के खिलाड़ियों को भारतीय खिलाड़ी की तरह आय नहीं होती। एक दौर में वेस्टइंडीज की क्रिकेट टीम सर्वश्रेष्ठ टीम थी परंतु आज उतनी सशक्त नहीं है, क्योंकि वेस्टइंडीज के युवा अमेरिका जाकर बेसबॉल, बास्केटबॉल, सॉकर इत्यादि खेल खेलते हैं, क्योंकि वहां खेलने के लए उन्हें खूब धन मिलता है।
जीवन के सारे कार्यकलाप अंततोगत्वा धन पर ही जाकर टिकते हैं। नैतिक एवं सामाजिक मानदंड भी धन की कमी या विपुलता के सहारे बदले जा सकते हैं। समाज के स्वयंभू ठेकेदार भी धनाढ्य विधवा से शादी करने कतार में खड़े हो जाते हैं। धरती की तरह कलदार रुपया भी गोल है और इस दोनों गोलों पर ही सब घूमते रहते हैं। आम आदमी तो जान ही नहीं पाता कि राजा-रानी के शतरंज पर वह मात्र एक प्यादा है।
भारत सरकार तरह-तरह के कर लगाती है। उन्हें इस धन से अपना प्रचार करना है। अनुशासन पर गर्व करने वाले राजनीतिक दल का शिखर नेता व्यक्तिगत प्रचार के लिए ही सबकुछ कर रहा है। वह स्वयं को एक 'कल्ट फिगर' बनाना चाहता है- राजनीतिक फैशन आइकन। आम जीवन से रस की आखिरी बूंद भी निकाली जा रही है। एक वृहत चरखी लगी है और जीवन रस की आखिरी बूंद तक निकाली जा रही है और सरकार 'हैप्पीनेस मंत्रालय' की स्थापना करना चाहती है। अर्थात वे स्वीकार करते हैं कि अवाम दु:खी है। आनंद टैबलेट शी्र ही बाजार में उपलब्ध होगी और नोट बदलते समय लगी कतारों से लंबी कतारें इसके लिए लगेंगी। नोटबंदी की अनावश्यकता स्वीकारी गई तो सबकुछ स्वीकारा जाएगा।