गबन / अध्याय 5 / पृष्ठ 5 / प्रेमचन्द

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इक्यावन

दारोग़ा घर जाकर लेट रहे। ग्यारह बज रहे थे। नींद खुली, तो आठ बज गए थे। उठकर बैठे ही थे कि टेलीगषेन पर पुकार हुई। जाकर सुनने लगे। डिप्टी साहब बोल रहे थे,इस रमानाथ ने बडा गोलमाल कर दिया है। उसे किसी दूसरी जगह ठहराया जायगा। उसका सब सामान कमिश्नर साहब के पास भेज देना होगा। 'रात को वह बंगले पर था या नहीं ?'

दारोग़ा ने कहा, 'जी नहीं, रात मुझसे बहाना करके अपनी बीवी के पास चला गया था।'

टेलीफोन-- 'तुमने उसको क्यों जाने दिया? हमको ऐसा डर लगता है, कि उसने जज से सब हाल कह दिया है। मुकदमा का जांच फिर से होगा। आपसे बडा भारी ब्लंडर हुआ है। सारा मेहनत पानी में फिर गया। उसको जबरदस्ती रोक लेना चाहिए था।'

दारोग़ा -'तो क्या वह जज साहब के पास गया था? '

डिप्टी, 'हां साहब, वहीं गया था, और जज भी कायदा को तोड़ दिया। वह फिर से मुकदमा का पेशी करेगा। रमा अपना बयान बदलेगा। अब इसमें कोई डाउट नहीं है और यह सब आपका बंगलिंग है। हम सब उस बाढ़ में बह जायगा। ज़ोहरा भी दगा दिया।'

दारोग़ा उसी वक्त रमानाथ का सब सामान लेकर पुलिस-कमिश्नर के बंगले की तरफ चले। रमा पर ऐसा गुस्सा आ रहा था कि पावें तो समूचा ही निगल जाएं । कमबख्त को कितना समझाया, कैसी-कैसी खातिर की, पर दगा कर ही गया। इसमें ज़ोहरा की भी सांठ-गांठ है। बीवी को डांट-फटकार करने का महज बहाना था। ज़ोहरा बेगम की तो आज ही ख़बर लेता हूं। कहां जाती है। देवीदीन से भी समझूंगा। एक हफ्ते तक पुलिस-कर्मचारियों में जो हलचल रही उसका ज़िक्र करने की कोई जरूरत नहीं। रात की रात और दिन के दिन इसी फिक्र में चक्कर खाते रहते थे। अब मुकदमे से कहीं ज्यादा अपनी फिक्र थी। सबसे ज्यादा घबराहट दारोग़ा को थी। बचने की कोई उम्मीद नहीं नज़र आती थी। इंस्पेक्टर और डिप्टी,दोनों ने सारी जिम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल दी और खुद बिलकुल अलग हो गए।

इस मुकदमे की फिर पेशी होगी, इसकी सारे शहर में चर्चा होने लगी। अंगरेज़ी न्याय के इतिहास में यह घटना सर्वथा अभूतपूर्व थी। कभी ऐसा नहीं हुआ। वकीलों में इस पर कानूनी बहसें होतीं। जज साहब ऐसा कर भी सकते हैं?मगर जज दृढ़था। पुलिसवालों ने बड़े-बडे। ज़ोर लगाए, पुलिस कमिश्नर ने यहां तक कहा कि इससे सारा पुलिस-विभाग बदनाम हो जायगा, लेकिन जज ने किसी की न सुनी। झूठे सबूतों पर पंद्रह आदमियों की जिंदगी बरबाद करने की जिम्मेदारी सिर पर लेना उसकी आत्मा के लिए असह्य था। उसने हाईकोर्ट को सूचना दी और गवर्नमेंट को भी।

इधर पुलिस वाले रात-दिन रमा की तलाश में दौड़-धूप करते रहते थे, लेकिन रमा न जाने कहां जा छिपा था कि उसका कुछ पता ही न चलता था। हफ्तों सरकारी कर्मचारियों में लिखा-पढ़ी होती रही। मनों काग़ज़ स्याह कर दिए गए। उधार समाचार-पत्रों में इस मामले पर नित्य आलोचना होती रहती थी। एक पत्रकार ने जालपा से मुलाकात की और उसका बयान छाप दिया। दूसरे ने ज़ोहरा का बयान छाप दिया। इन दोनों बयानों ने पुलिस की बखिया उधेङ दी। ज़ोहरा ने तो लिखा था कि मुझे पचास रूपये रोज़ इसलिए दिए जाते थे कि रमानाथ को बहलाती रहूं और उसे कुछ सोचने या विचार करने का अवसर न मिले। पुलिस ने इन बयानों को पढ़ा, तो दांत पीस लिए। ज़ोहरा और जालपा दोनों कहीं और जा छिपीं, नहीं तो पुलिस ने जरूर उनकी शरारत का मज़ा चखाया होता।

आख़िर दो महीने के बाद फैसला हुआ। इस मुकदमे पर विचार करने के लिए एक सिविलियन नियुक्त किया गया। शहर के बाहर एक बंगले में विचार हुआ, जिसमें ज्यादा भीड़-भाड़ न हो फिर भी रोज़ दस-बारह हज़ार आदमी जमा हो जाते थे। पुलिस ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया कि मुलज़िमों में कोई मुखबिर बन जाए, पर उसका उद्योग न सफल हुआ। दारोग़ाजी चाहते तो नई शहादतें बना सकते थे, पर अपने अफसरों की स्वार्थपरता पर वह इतने खिन्न हुए कि दूर से तमाशा देखने के सिवा और कुछ न किया। जब सारा यश अफसरों को मिलता और सारा अपयश मातहतों को, तो दारोग़ाजी को क्या गरज़ पड़ी थी कि नई शहादतों की फिक्र में सिर खपाते। इस मुआमले में अफसरों ने सारा दोष दारोग़ा ही के सिर मढ़ाब उन्हीं की बेपरवाही से रमानाथ हाथ से निकला। अगर ज्यादा सख्ती से निगरानी की जाती, तो जालपा कैसे उसे ख़त लिख सकती, और वह कैसे रात को उससे मिल सकता था। ऐसी दशा में मुकदमा उठा लेने के सिवा और क्या किया जा सकता था। तबेले की बला बदंर के सिर गई। दारागा तनज्ज़ुल हो गए और नायब दारागा का तराई में तबादला कर दिया गया।

जिस दिन मुलज़िमों को छोडागया, आधा शहर उनका स्वागत करने को जमा था। पुलिस ने दस बजे रात को उन्हें छोडा, पर दर्शक जमा हो ही गए। लोग जालपा को भी खींच ले गए। पीछे-पीछे देवीदीन भी पहुंचा। जालपा पर फलों की वर्षा हो रही थी और 'जालपादेवी की जय!' से आकाश गूंज रहा था। मगर रमानाथ की परीक्षा अभी समाप्त न हुई थी। उस पर दरोग़-बयानी का अभियोग चलाने का निश्चय हो गया।

बावन

उसी बंगले में ठीक दस बजे मुकदमा पेश हुआ। सावन की झड़ी लगी हुई थी। कलकत्ता दलदल हो रहा था, लेकिन दर्शकों का एक अपार समूह सामने मैदान में खडाथा। महिलाओं में दिनेश की पत्नी और माता भी आई हुई थीं। पेशी से दस-पंद्रह मिनट पहले जालपा और ज़ोहरा भी बंद गाडियों में आ पहुंचीं। महिलाओं को अदालत के कमरे में जाने की आज्ञा मिल गई। पुलिस की शहादतें शुरू हुई। डिप्टी सुपरिंटेंडेंट, इंस्पेक्टर, दारोग़ा, नायब दारोग़ा-'सभी के बयान हुए। दोनों तरफ के वकीलों ने जिरहें भी कीं, पर इन कार्रवाइयों में उल्लेखनीय कोई बात न थी। जाब्ते की पाबंदी की जा रही थी। रमानाथ का बयान हुआ, पर उसमें भी कोई नई बात न थी। उसने अपने जीवन के गत एक वर्ष का पूरा वृत्तांत कह सुनाया। कोई बात न छिपाई,वकील के पूछने पर उसने कहा,जालपा के त्याग, निष्ठा और सत्य-प्रेम ने मेरी आंखें खोलीं और उससे भी ज्यादा ज़ोहरा के सौजन्य और निष्कपट व्यवहार ने, मैं इसे अपना सौभाग्य समझता हूं कि मुझे उस तरफ से प्रकाश मिला जिधर औरों को अंधकार मिलता है। विष में मुझे सुधा प्राप्त हो गई।

इसके बाद सफाई की तरफ से देवीदीन-' जालपा और ज़ोहरा के बयान हुए। वकीलों ने इनसे भी सवाल किया, पर सच्चे गवाह क्या उखड़ते। ज़ोहरा का बयान बहुत ही प्रभावोत्पादक था। उसने देखा, जिस प्राणी को जष्जीरों से जकड़ने के लिए वह भेजी गई है, वह खुद दर्द से तड़प रहा है, उसे मरहम की जईरत है, जंज़ीरों की नहीं। वह सहारे का हाथ चाहता है, धक्के का झोंका नहीं। जालपा देवी के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका अटल विश्वास देखकर मैं अपने को भूल गई। मुझे अपनी नीचता, अपनी स्वाथाऊधाता पर लज्जा आई। मेरा जीवन कितना अधाम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक्त ख़ुला, और जब मैं जालपा से मिली, तो उसकी निष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहेसहे संस्कार भी मिट गए। विलास-युक्त जीवन से मुझे घृणा हो गई। मैंने निश्चय कर लिया, इसी अंचल में मैं भी आश्रय लूंगी। मगर उससे भी ज्यादा मार्के का बयान जालपा का था। उसे सुनकर दर्शकों की आंखों में आंसू आ गए। उसके अंतिम शब्द ये थे, 'मेरे पति निर्दोष हैं! ईश्वर की दृष्टि में ही नहीं, नीति की दृष्टि में भी वह निर्दोष हैं। उनके भाग्य में मेरी विलासासक्ति का प्रायश्चित्त करना लिखा था, वह उन्होंने किया। वह बाज़ार से मुंह छुपाकर भागे। उन्होंने मुझ पर अगर कोई अत्याचार किया,तो वह यही कि मेरी इच्छाओं को पूरा करने में उन्होंने सदैव कल्पना से काम लिया। मुझे प्रसन्न करने के लिए, मुझे सुखी रखने के लिए उन्हाेंने अपने ऊपर बडे से बडाभार लेने में कभी संकोच नहीं किया। वह यह भूल गए कि विलास-वृत्ति संतोष करना नहीं जानती। जहां मुझे रोकना उचित था, वहां उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया, और इस अवसर पर भी मुझे पूरा विश्वास है, मुझ पर अत्याचार करने की धमकी देकर ही उनकी ज़बान बंद की गई थी। अगर अपराधिनी हूं, तो मैं हूं, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट झेलने पडे। मैं मानती हूं कि मैंने उन्हें अपना बयान बदलने के लिए मज़बूर किया। अगर मुझे विश्वास होता कि वह डाकों में शरीक हुए, तो सबसे पहले मैं उनका तिरस्कार करती। मैं यह नहीं सह सकती थी कि वह निरपराधियों की लाश पर अपना भवन खडाकरें। जिन दिनों यहां डाके पड़े,

उन तारीख़ों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे। अदालत चाहे तो टेलीफोन द्वारा इसकी जांच कर सकती है। अगर जरूरत हो, तो म्युनिसिपल बोर्ड के अधिकारियों का बयान लिया जा सकता है। ऐसी दशा में मेरा कर्तव्य इसके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता था, जो मैंने किया। अदालत ने सरकारी वकील से पूछा,क्या प्रयाग से इस मुआमले की कोई रिपोर्ट मांगी गई थी?

वकील ने कहा,जी हां, मगर हमारा उस विषय पर कोई विवाद नहीं है। सफाई के वकील ने कहा,इससे यह तो सिद्ध हो जाता है कि मुलज़िम डाके में शरीक नहीं था। अब केवल यह बात रह जाती है कि वह मुख़बिर क्यों बना- वादी वकील,स्वार्थ-सिद्धिके सिवा और क्या हो सकता है!

सफाई का वकील,मेरा कथन है, उसे धोखा दिया गया और जब उसे मालूम हो गया कि जिस भय से उसने पुलिस के हाथों की कठपुतली बनना स्वीकार किया था। वह उसका भ्रम था, तो उसे धामकियां दी गई। अब सफाई का कोई गवाह न था। सरकारी वकील ने बहस शुरू की,योर आरुनर, आज आपके सम्मुख एक ऐसा अभियोग उपस्थित हुआ है जैसा सौभाग्य से बहुत कम हुआ करता है। आपको जनकपुर की डकैती का हाल मालूम है। जनकपुर के आसपास कई गांवों में लगातार डाके पड़े और पुलिस डकैतों की खोज करने लगी। महीनों पुलिस कर्मचारी अपनी जान हथेलियों पर लिए, डकैतों को ढूंढ़ निकालने की कोशिश करते रहे। आखिर उनकी मेहनत सफल हुई और डाकुओं की ख़बर मिली। यह लोग एक घर के अंदर बैठे पाए गए। पुलिस ने एकबारगी सबों को पकड़ लिया, लेकिन आप जानते हैं, ऐसे मामलों में अदालतों के लिए सबूत पहुंचाना कितना मुश्किल होता है। जनता इन लोगों से कितना डरती है। प्राणों के भय से शहादत देने पर तैयार नहीं होती। यहां तक कि जिनके घरों में डाके पड़े थे, वे भी शहादत देने का अवसर आया तो साफ निकल गए। महानुभावो, पुलिस इसी उलझन में पड़ी हुई थी कि एक युवक आता है और इन डाकुओं का सरगना होने का दावा करता है। वह उन डकैतियों का ऐसा सजीव, ऐसा प्रमाणपूर्ण वर्णन करता है कि पुलिस धोखे में आ जाती है।सपुलिस ऐसे अवसर पर ऐसा आदमी पाकर गैबी मदद समझती है। यह युवक इलाहाबाद से भाग आया था और यहां भूखों मरता था। अपने भाग्य-निर्माण का ऐसा सुअवसर पाकर उसने अपना स्वार्थ-सिद्ध करने का निश्चय कर लिया। मुख़बिर बनकर सज़ा का तो उसे कोई भय था ही नहीं, पुलिस की सिफारिश

से कोई अच्छी नौकरी पा जाने का विश्वास था। पुलिस ने उसका खूब आदरसत्कार किया और उसे अपना मुख़बिर बना लिया। बहुत संभव था कि कोई शहादत न पाकर पुलिस इन मुलजिमों को छोड़ देती और उन पर कोई मुकदमा न चलाती, पर इस युवक के चकमे में आकर उसने अभियोग चलाने का निश्चय कर लिया। उसमें चाहे और कोई गुण हो या न हो, उसकी रचना-शक्ति की प्रखरता से इनकार नहीं किया जा सकता उसने डकैतियों का ऐसा यथार्थ वर्णन

किया कि जंजीर की एक कड़ी भी कहीं से गायब न थी। अंकुर से फल निकलने तक की सारी बातों की उसने कल्पना कर ली थी। पुलिस ने मुकदमा चला दिया। पर ऐसा मालूम होता है कि इस बीच में उसे स्वभाग्य-निर्माण का इससे भी अच्छा अवसर मिल गया। बहुत संभव है, सरकार की विरोधिनी संस्थाओं ने उसे प्रलोभन दिए हों और उन प्रलोभनों ने उसे स्वार्थ-सिद्धिका यह नया रास्ता सुझा दिया हो, जहां धन के साथ यश भी था, वाहवाही भी थी, देश-भक्ति का गौरव भी था। वह अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ कर सकता है। वह स्वार्थ के लिए किसी के गले पर छुरी भी चला सकता है और साधु-वेश भी धारण कर सकता है, यही उसके जीवन का लक्ष्य है। हम ख़ुश हैं कि उसकी सदबुद्धिने अंत में उस पर विजय पाई,चाहे उनका हेतु कुछ भी क्यों न हो निरपराधियों को दंड देना पुलिस के लिए उतना ही आपत्तिजनक है, जितना

अपराधियों को छोड़ देना। वह अपनी कारगुजारी दिखाने के लिए ही ऐसे मुकदमे नहीं चलाती। न गवर्नमेंट इतनी न्याय-शून्य है कि वह पुलिस के बहकावे में आकर सारहीन मुकदमे चलाती गिरेऋ लेकिन इस युवक की चकमेबाज़ियों से पुलिस की जो बदनामी हुई और सरकार के हज़ारों रूपये खर्च हो गए, इसका जिम्मेदार कौन है? ऐसे आदमी को आदर्श दंड मिलना चाहिए, ताकि फिर किसी को ऐसी चकमेबाज़ी का साहस न हो ऐसे मिथ्या का संसार रचने वाले प्राणी

के लिए मुक्त रहकर समाज को ठगने का मार्ग बंद कर देना चाहिए। उसके लिए इस समय सबसे उपयुक्त स्थान वह है, जहां उसे कुछ दिन आत्म-चिंतन का अवसर मिले। शायद वहां के एकांतवास में उसको आंतरिक जागृति प्राप्त हो जाय। आपको केवल यह विचार करना है कि उसने पुलिस को धोखा दिया या नहीं। इस विषय में अब कोई संदेह नहीं रह जाता कि उसने धोखा दिया। अगर धमकियां दी गई थीं, तो वह पहली अदालत के बाद जज की अदालत में अपना बयान वापस ले सकता था, पर उस वक्त भी उसने ऐसा नहीं किया। इससे यह स्पष्ट है कि धामकियों का आक्षेप मिथ्या है। उसने जो कुछ किया, स्वेच्छा से किया। ऐसे आदमी को यदि दंड न दिया गया, तो उसे अपनी कुटिल नीति से काम लेने का फिर साहस होगा और उसकी हिंसक मनोवृत्तियां और भी बलवान हो जाएंगी।

फिर सफाई के वकील ने जवाब दिया, 'यह मुकदमा अंगरेज़ी इतिहास ही में नहीं, शायद सर्वदेशीय न्याय के इतिहास में एक अदभुत घटना है। रमानाथ एक साधरण युवक है। उसकी शिक्षा भी बहुत मामूली हुई है। वह ऊंचे विचारों का आदमी नहीं है। वह इलाहाबाद के म्युनिसिपल आफिस में नौकर है। वहां उसका काम चुंगी के रूपये वसूल करना है। वह व्यापारियों से प्रथानुसार रिश्वत लेता है और अपनी आमदनी की परवा न करता हुआ अनाप-शनाप खर्च करता है। आख़िर एक दिन मीज़ान में गलती हो जाने से उसे शक होता है कि उससे कुछ रूपये उठ गए। वह इतना घबडा जाता है कि किसी से कुछ नहीं कहता, बस घर से भाग खडा होता है। वहां दफ्तर में उस पर शुबहा होता है और उसके हिसाब की जांच होती है। तब मालूम होता है कि उसने कुछ ग़बन नहीं किया, सिर्फ हिसाब की भूल थी।

फिर रमानाथ के पुलिस के पंजे में फंसने, गरजी मुख़बिर बनने और शहादत देने का ज़िक्र करते हुए उसने कहा, अब रमानाथ के जीवन में एक नया परिवर्तन होता है, ऐसा परिवर्तन जो एक विलास-प्रिय, पद-लोलुप युवक को धर्मनिष्ठ और कर्तव्यशील बना देता है। उसकी पत्नी जालपा, जिसे देवी कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी, उसकी तलाश में प्रयाग से यहां आती है और यहां जब उसे मालूम होता है कि रमा एक मुकदमे में पुलिस का मुख़बिर हो गया है, तो वह उससे छिपकर मिलने आती है। रमा अपने बंगले में आराम से पडा हुआ है। फाटक पर संतरी पहरा दे रहा है। जालपा को पति से मिलने में सफलता नहीं होती। तब वह एक पत्र लिखकर उसके सामने फेंक देती है और देवीदीन के घर चली जाती है। रमा यह पत्र पढ़ता है और उसकी आंखों के सामने से परदा हट जाता है। वह छिपकर जालपा के पास जाता है। जालपा उससे सारा वृत्तांत कह सुनाती है और उससे अपना बयान वापस लेने पर ज़ोर देती है। रमा पहले शंकाएं करता

है, पर बाद को राज़ी हो जाता है और अपने बंगले पर लौट जाता है। वहां वह पुलिस-अफसरों से साफ कह देता है, कि मैं अपना बयान बदल दूंगा। अधिकारी उसे तरह-तरह के प्रलोभन देते हैं, पर जब इसका रमा पर कोई असर नहीं होता और उन्हें मालूम हो गया है कि उस पर ग़बन का कोई मुकदमा नहीं है, तो वे उसे जालपा को गिरफ्तार करने की धमकी देते हैं। रमा की हिम्मत

टूट जाती है। वह जानता है, पुलिस जो चाहे कर सकती है, इसलिए वह अपना इरादा तबदील कर देता है और वह जज के इजलास में अपने बयान का समर्थन कर देता है। अदालत में रमा से सफाई ने कोई जिरह नहीं की थी। यहां उससे जिरहें की गई, लेकिन इस मुकदमे से कोई सरोकार न रखने पर भी उसने जिरहों के ऐसे जवाब दिए कि जज को भी कोई शक न हो सका और मुलज़िमों को सज़ा हो गई। रमानाथ की और भी खातिरदारियां होने लगीं। उसे एक सिफारिशी ख़त दिया गया और शायद उसकी यू.पी. गवर्नमेंट से सिफारिश भी की गई। फिर जालपादेवी ने फांसी की सज़ा पाने वाले मुलिज़म दिनेश के बाल- बच्चों का पालन-पोषण करने का निश्चय किया। इधर-उधर से चंदे मांग-मांगकर वह उनके लिए जिंदगी की जरूरतें पूरी करती थीं। उसके घर का कामकाज अपने हाथों करती थीं। उसके बच्चों को खिलाने को ले जाती थीं।

एक दिन रमानाथ मोटर पर सैर करता हुआ जालपा को सिर पर एक पानी का मटका रक्खे देख लेता है। उसकी आत्म-मर्यादा जाग उठती है। ज़ोहरा को पुलिस-कर्मचारियों ने रमानाथ के मनोरंजन के लिए नियुक्त कर दिया है। ज़ोहरा युवक की मानसिक वेदना देखकर द्रवित हो जाती है और वह जालपा का पूरा समाचार लाने के इरादे से चली जाती है। दिनेश के घर उसकी जालपा से भेंट होती है। जालपा का त्याग, सेवा और साधना देखकर इस वेश्या का ह्रदय इतना

प्रभावित हो जाता है कि वह अपने जीवन पर लज्जित हो जाती है और दोनों में बहनापा हो जाता है। वह एक सप्ताह के बाद जाकर रमा से सारा वृत्तांत कह सुनाती है। रमा उसी वक्त वहां से चल पड़ता है और जालपा से दो-चार बातें करके जज के बंगले पर चला जाता है। उसके बाद जो कुछ हुआ, वह हमारे सामने है। मैं यह नहीं कहता कि उसने झूठी गवाही नहीं दी, लेकिन उस परिस्थिति और उन प्रलोभनों पर ध्यान दीजिए, तो इस अपराध की गहनता बहुत कुछ घट

जाती है। उस झूठी गवाही का परिणाम अगर यह होता, कि किसी निरपराध को सज़ा मिल जाती तो दूसरी बात थी। इस अवसर पर तो पंद्रह युवकों की जान बच गई। क्या अब भी वह झूठी गवाही का अपराधी है? उसने ख़ुद ही तो अपनी झूठी गवाही का इकबाल किया है। क्या इसका उसे दंड मिलना चाहिए? उसकी सरलता और सज्जनता ने एक वेश्या तक को मुग्ध कर दिया और वह उसे बहकाने और बहलाने के बदले उसके मार्ग का दीपक बन गई। जालपादेवी की कर्तव्यपरायणता क्या दंड के योग्य है? जालपा ही इस ड्रामा की नायिका है। उसके सदनुराग, उसके सरल प्रेम, उसकी धर्मपरायणता, उसकी पतिभक्ति, उसके स्वार्थ-त्याग, उसकी सेवा-निष्ठा, किस-किस गुण की प्रशंसा की जाय! आज वह रंगमंच पर न आती, तो पंद्रह परिवारों के चिराग गुल हो जाते। उसने पंद्रह परिवारों को अभयदान दिया है। उसे मालूम था कि पुलिस का साथ देने से सांसारिक भविष्य कितना उज्ज्वल हो जाएगा, वह जीवन की कितनी ही चिंताओं से मुक्त हो जायगी। संभव है, उसके पास भी मोटरकार हो जायगी, नौकर-चाकर हो जायंगे,अच्छा-सा घर हो जायगा, बहुमूल्य आभूषण होंगे। क्या एक युवती रमणी के ह्रदय में इन सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है? लेकिन वह यह यातना सहने के लिए तैयार हो जाती है। क्या यही उसके धर्मानुराग का उपहार होगा कि वह पति-वंचित होकर जीवन? पथ पर भटकती गिरे- एक साधरण स्त्री में, जिसने उच्चकोटि की शिक्षा नहीं पाई, क्या इतनी निष्ठा, इतना त्याग, इतना विमर्श किसी दैवी प्रेरणा का परिचायक नहीं है? क्या एक पतिता का ऐसे कार्य में सहायक हो जाना कोई महत्व नहीं रखता- मैं तो समझता हूं, रखता है। ऐसे अभियोग रोज़ नहीं पेश होते। शायद आप लोगों को अपने जीवन में फिर ऐसा अभियोग सुनने का अवसर न मिले। यहां आप एक अभियोग का फैसला करने बैठे हुए हैं, मगर इस कोर्ट के बाहर एक और बहुत बडा न्यायालय है, जहां आप लोगों के न्याय पर विचार होगा। जालपा का वही फैसला न्यायानुयल

होगा जिसे बाहर का विशाल न्यायालय स्वीकार करे। वह न्यायालय कानूनों की बारीकियों में नहीं पड़ता जिनमें उलझकर, जिनकी पेचीदगियों में फंसकर, हम अकसर पथ-भ्रष्ट हो जाया करते हैं, अकसर दूध का पानी और पानी का दूध कर बैठते हैं। अगर आप झूठ पर पश्चाताप करके सच्ची बात कह देने के लिए, भोग-विलासयुक्त जीवन को ठुकराकर फटेहालों जीवन व्यतीत करने के लिए किसी को अपराधी ठहराते हैं, तो आप संसार के सामने न्याय का काई ऊंचा आदर्श नहीं उपस्थित कर रहे हैं। सरकारी वकील ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा,मार्म और आदर्श अपने स्थान पर बहुत ही आदर की चीजें हैं, लेकिन जिस आदमी ने जान-बूझकर झूठी गवाही दी, उसने अपराध अवश्य किया और इसका उसे दंड मिलना चाहिए। यह सत्य है कि उसने प्रयाग में कोई ग़बन नहीं किया था और उसे इसका भ्रम-मात्र था, लेकिन ऐसी दशा में एक सच्चे आदमी का यह कर्तव्य था कि वह गिरफ्तार हो जाने पर अपनी सफाई देता। उसने सज़ा के भय से झूठी गवाही देकर पुलिस को क्यों धोखा दिया- यह विचार करने की बात है। अगर आप समझते हैं कि उसने अनुचित काम किया, तो आप उसे अवश्य दंड देंगे। अब अदालत के फैसला सुनाने की बारी आई। सभी को रमा से सहानुभूति हो गई था, पर इसके साथ ही यह भी मानी हुई बात थी कि उसे सज़ा होगी। क्या सज़ा होगी, यही देखना था। लोग बडी उत्सुकता से फैसला सुनने के लिए और सिमट आए, कुर्सियां और आगे खींच ली गई, और कनबतियां भी बंद हो

गई। 'मुआमला केवल यह है कि एक युवक ने अपनी प्राण-रक्षा के लिए पुलिस का आश्रय लिया और जब उसे मालूम हो गया कि जिस भय से वह पुलिस का आश्रय ले रहा है, वह सर्वथा निर्मूल है, तो उसने अपना बयान वापस ले लिया। रमानाथ में अगर सत्यनिष्ठा होती, तो वह पुलिस का आश्रय ही क्यों लेता, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि पुलिस ने उसे रक्षा का यह उपाय सुझाया और इस तरह उसे झूठी गवाही देने का प्रलोभन दिया। मैं यह नहीं मान सकता

कि इस मुआमले में गवाही देने का प्रस्ताव स्वप्तः उसके मन में पैदा हो गया। उसे प्रलोभन दिया गया, जिसे उसने दंड-भय से स्वीकार कर लिया। उसे यह भी अवश्य विश्वास दिलाया गया होगा कि जिन लोगों के विरुद्ध उसे गवाही देने के लिए तैयार किया जा रहा था, वे वास्तव में अपराधी थे। क्योंकि रमानाथ में जहां दंड का भय है, वहां न्यायभक्ति भी है। वह उन पेशेवर गवाहों में नहीं है, जो स्वार्थ के लिए निरपराधियों को फंसाने से भी नहीं हिचकते। अगर ऐसी बात न होती, तो वह अपनी पत्नी के आग्रह से बयान बदलने पर कभी राजी न होता। यह ठीक है कि पहली अदालत के बाद ही उसे मालूम हो गया था कि उस पर ग़बन का कोई मुकदमा नहीं है और जज की अदालत में वह अपने बयान को वापस न ले सकता था। उस वक्त उसने यह इच्छा प्रकट भी अवश्य की, पर पुलिस की धामकियों ने फिर उस पर विजय पाई। पुलिस को बदनामी

से बचने के लिए इस अवसर पर उसे धामकियां देना स्वाभाविक है, क्योंकि पुलिस को मुलज़िमों के अपराधी होने के विषय में कोई संदेह न था। रमानाथ धामकियों में आ गया, यह उसकी दुर्बलता अवश्य है, पर परिस्थिति को देखते हुए क्षम्य है। इसलिए मैं रमानाथ को बरी करता हूं।'

तरेपन

चौ की शीतल, सुहावनी, स्फूर्तिमयी संध्या, गंगा का तट, टेसुओं से लहलहाता हुआ ढाक का मैदान, बरगद का छायादार वृक्ष, उसके नीचे बंधी हुई गाएं, भैंसें, कद्दू और लौकी की बेलों से लहराती हुई झोंपडियां, न कहीं गर्द न गुबार, न शोर न गुल, सुख और शांति के लिए क्या इससे भी अच्छी जगह हो सकती है? नीचे स्वर्णमयी गंगा लाल, काले, नीले आवरण से चमकती हुई, मंद स्वरों में गाती, कहीं लपकती, कहीं झिझकती, कहीं चपल,कहीं गंभीर, अनंत अंधकारकी ओर चली जा रही है, मानो बहुरंजित बालस्मृति क्रीडा और विनोद की गोद में खेलती हुई, चिंतामय, संघर्षमय,अंधाकारमय भविष्य की ओर चली जा रही हो देवी और रमा ने यहीं, प्रयाग के समीप आकर आश्रय लिया है।

तीन साल गुज़र गए हैं, देवीदीन ने ज़मीन ली, बाग़ लगाया, खेती जमाई, गाय-भैंसें खरीदीं और कर्मयोग में, अविरत उद्योग में सुख, संतोष और शांति का अनुभव कर रहा है। उसके मुख पर अब वह जर्दी, झुर्रियां नहीं हैं, एक नई स्फूर्ति, एक नई कांति झलक रही है। शाम हो गई है, गाएं-भैंसें हार से लौटींब जग्गो ने उन्हें खूंटे से बांधा और थोडा-थोडा भूसा लाकर उनके सामने डाल दिया। इतने में देवी और गोपी भी बैलगाड़ी पर डांठें लादे हुए आ पहुंचेब दयानाथ ने बरगद के नीचे ज़मीन साफ कर रखी है। वहीं डांठें उतारी गई। यही इस छोटी-सी बस्ती का खलिहान है।

दयानाथ नौकरी से बरख़ास्त हो गए थे और अब देवी के असिस्टेंट हैं। उनको समाचार-पत्रों से अब भी वही प्रेम है, रोज कई पत्र आते हैं, और शाम को फुर्सत पाने के बाद मुंशीजी पत्रों को पढ़कर सुनाते और समझाते हैं। श्रोताओं में बहुधा आसपास के गांवों के दस-पांच आदमी भी आ जाते हैं और रोज़ एक छोटीमोटी सभा हो जाती है।

रमा को तो इस जीवन से इतना अनुराग हो गया है कि अब शायद उसे थानेदारी ही नहीं, चुंगी की इंस्पेक्टरी भी मिल जाय, तो शहर का नाम न ले। प्रातःकाल उठकर गंगा-स्नान करता है, फिर कुछ कसरत करके दूध पीता है और दिन निकलते-निकलते अपनी दवाओं का संदूक लेकर आ बैठता है। उसने वैद्य की कई किताबें पढ़ली हैं और छोटी-मोटी बीमारियों की दवा दे देता है। दस-पांच मरीज़ रोज़ आ जाते हैं और उसकी कीर्ति दिन-दिन बढ़ती जाती है। इस काम

से छुट्टी पाते ही वह अपने बगीचे में चला जाता है। वहां कुछ साफ-भाजी भी लगी हुई है, कुछ फल-फलों के वृक्ष हैं और कुछ जड़ी-बूटियां हैं। अभी तो बाग़ से केवल तरकारी मिलती है, पर आशा है कि तीन-चार साल में नींबू, अमरूद,बेर, नारंगी, आम, केले, आंवले, कटहल, बेल आदि फलों की अच्छी आमदनी होने लगेगी।

देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूंटे से बांधा दिया और दयानाथ से बोला,'अभी भैया नहीं लौटे?'

दयानाथ ने डांठों को समेटते हुए कहा, 'अभी तो नहीं लौटे। मुझे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं है। ज़माने का उधार है। कितने सुख से रहती थीं, गाड़ी थी, बंगला था, दरजनों नौकर थे। अब यह हाल है। सामान सब मौजूद है, वकील साहब ने अच्छी संपत्ति छोड़ी था, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली। देवीदीन-' 'भैया कहते थे, अदालत करतीं तो सब मिल जाता, पर कहती हैं, मैं अदालत में झूठ न बोलूंगी। औरत बडे ऊंचे विचार की है।'

सहसा जागेश्वरी एक छोटे-से शिशु को गोद में लिये हुए एक झोंपड़े से निकली और बच्चे को दयानाथ की गोद में देती हुई देवीदीन से बोली, 'भैया,ज़रा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। ज़ोहरा और बहू, दोनों रो रही हैं! बच्चा न जाने कहां रह गए!

देवीदीन ने दयानाथ से कहा, 'चलो लाला, देखें।'

जागेश्वरी बोली, 'यह जाकर क्या करेंगे, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।'

देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बांस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गई थी। वह सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पंदन प्रदान कर रक्खा था, उड़ गए थे, केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय,प्राणप्रद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ संगीत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गई थी। ज़ोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करूण,

विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नजरों से देख रही थी। आज साल-भर से उसने रतन की सेवा-शुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले निःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह और किस तरह मानती। जो सहानुभूति उसे जालपा से भी न मिली, वह रतन ने प्रदान की। दुःख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया, दोनों की आत्माएं संयुक्त हो गई। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मौके में उसके वंचित ह्रदय ने पति-प्रेम और पुत्र-स्नेह दोनों

ही पा लिया। देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिंत नजरों से देखा, तब उसकी नाड़ी

हाथ में लेकर पूछा,'कितनी देर से नहीं बोलीं ?'

जालपा ने आंखें पोंछकर कहा, 'अभी तो बोलती थीं। एकाएक आंखें ऊपर चढ़गई और बेहोश हो गई। वैद्य जी को लेकर अभी तक नहीं आए?'

देवीदीन ने कहा, 'इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है। 'यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख ली, रतन के सिर पर हाथ फेरा, कुछ मुंह में बुदबुदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा, 'रतन बेटी, आंखें खोलो।'

रतन ने आंखें खोल दीं और इधर-उधर सकपकाई हुई आंखों से देखकर बोली,'मेरी मोटर आई थी न? कहां गया वह आदमी? उससे कह दो, थोड़ी देर के बाद लाए। ज़ोहरा -' आज मैं तुम्हें अपने बग़ीचे की सैर कराऊंगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।'

ज़ोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी आंसुओं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर देखती रही। फिर एकाएक जैसे उसकी स्मृति जाग उठी हो, वह लज्जित होकर एक उदास मुस्कराहट के साथ बोली, 'मैं सपना देख रही थी, दादा!'

लोहित आकाश पर कालिमा का परदा पड़ गया था। उसी वक्त रतन के जीवन पर मृत्यु ने परदा डाल दिया।

रमानाथ वैद्यजी को लेकर पहर रात को लौटे, तो यहां मौत का सन्नाटा छाया हुआ था। रतन की मृत्यु का शोक वह शोक न था, जिसमें आदमी हाय- हाय करता है, बल्कि वह शोक था जिसमें हम मूक रूदन करते हैं, जिसकी याद कभी नहीं भूलती, जिसका बोझ कभी दिल से नहीं उतरता।

रतन के बाद ज़ोहरा अकेली हो गई। दोनों साथ सोती थीं, साथ बैठती थीं, साथ काम करती थीं। अकेले ज़ोहरा का जी किसी काम में न लगता। कभी नदी-तट पर जाकर रतन को याद करती और रोती, कभी उस आम के पौधो के पास जाकर घंटों खड़ी रहती, जिसे उन दोनों ने लगाया था। मानो उसका सुहाग लुट गया हो जालपा को बच्चे के पालन और भोजन बनाने से इतना

अवकाश न मिलता था कि उसके साथ बहुत उठती-बैठती, और बैठती भी तो रतन की चर्चा होने लगती और दोनों रोने लगतीं।

भादों का महीना था। पृथ्वी और जल में रण छिडाहुआ था। जल की सेनाएं वायुयान पर चढ़कर आकाश से जल-शरों की वर्षा कर रही थीं। उसकी थल-सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रक्खा था। गंगा गांवों और कस्बों को निफल रही थी। गांव के गांव बहते चले जाते थे। ज़ोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी। वह कृशांगी गंगा इतनी विशाल हो सकती है, इसका वह अनुमान भी न कर सकती थी। लहरें उन्मभा होकर गरजतीं, मुंह से फन निकालतीं, हाथों उछल रही थीं। चतुर डकैतों की तरह पैंतरे बदल रही थीं। कभी एक कदम आतीं, फिर पीछे लौट पड़तीं और चक्कर खाकर फिर आगे को लपकतीं। कहीं कोई झोंपडा डगमगाता तेज़ी से बहा जा रहा था, मानो कोई शराबी दौडा जाता हो कहीं कोई वृक्ष डाल-पत्तों समेत डूबता-उतराता किसी पाषाणयुग के जंतु की भांति तैरता चला जाता था। गाएं और भैंसें, खाट और तख्ते मानो तिलस्मी चित्रों की भांति आंखों के सामने से निकले जाते थे। सहसा एक किश्ती नज़र आई। उस पर कई स्त्री-पुरूष बैठे थे। बैठे क्या थे, चिमटे हुए थे। किश्ती कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती। बस यही मालूम होता था कि अब उलटी, अब उलटी। पर वाह रे साहस सब अब भी 'गंगा माता की जय' पुकारते जाते थे। स्त्रियां अब भी गंगा के यश के गीत गाती थीं

जीवन और मृत्यु का ऐसा संघर्ष किसने देखा होगा। दोनों तरफ के आदमी किनारे पर, एक तनाव की दशा में ह्रदय को दबाए खड़े थे। जब किश्ती करवट लेती, तो लोगों के दिल उछल-उछलकर ओठों तक आ जाते। रस्सियां फेंकने की कोशिश की जाती, पर रस्सी बीच ही में फिर पड़ती थी। एकाएक एक बार किश्ती उलट ही गई। सभी प्राणी लहरों में समा गए। एक क्षण कई स्त्री-पुरूष, डूबते-उतराते दिखाई दिए, फिर निगाहों से ओझल हो गए। केवल एक उजली-सी चीज़ किनारे की ओर चली आ रही थी। वह एक रेले में तट से कोई बीस गज़ तक आ गई। समीप से मालूम हुआ, स्त्री है। ज़ोहरा -' जालपा और रमा, तीनों खड़े थे। स्त्री की गोद में एक बच्चा भी नज़र आता था। दोनों को निकाल लाने के लिए तीनों विकल हो उठे,पर बीस गज़ तक तैरकर उस तरफ जाना आसान न था। फिर रमा तैरने में बहुत कुशल न था। कहीं लहरों के ज़ोर में पांव उखड़ जाएं, तो फिर बंगाल की खाड़ी के सिवा और कहीं ठिकाना न लगे।

ज़ोहरा ने कहा, 'मैं जाती हूं!'

रमा ने लजाते हुए कहा,'जाने को तो मैं तैयार हूं, लेकिन वहां तक पहुंच भी सकूंगा, इसमें संदेह है। कितना तोड़ है!'

ज़ोहरा ने एक कदम पानी में रखकर कहा,'नहीं, मैं अभी निकाल लाती हूं।'

वह कमर तक पानी में चली गई। रमा ने सशंक होकर कहा,'क्यों नाहक जान देने जाती हो वहां शायद एक गड्ढा है। मैं तो जा ही रहा था।'

ज़ोहरा ने हाथों से मना करते हुए कहा, 'नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, तुम न आना। मैं अभी लिये आती हूं। मुझे तैरना आता है।'

जालपा ने कहा, 'लाश होगी और क्या! '

रमानाथ-- 'शायद अभी जान हो'

जालपा--'अच्छा, तो ज़ोहरा तो तैर भी लेती है। जभी हिम्मत हुई। '

रमा ने ज़ोहरा की ओर चिंतित आंखों से देखते हुए कहा, हां, कुछ-कुछ जानती तो हैं। ईश्वर करे लौट आएं। मुझे अपनी कायरता पर लज्जा आ रही है।

जालपा ने बेहयाई से कहा,'इसमें लज्जा की कौन?सी बात है। मरी लाश के लिए जान को जोखिम में डालने से फायदा, जीती होती, तो मैं ख़ुद तुमसे कहती, जाकर निकाल लाओ।'

रमा ने आत्म-धिक्कार के भाव से कहा, 'यहां से कौन जान सकता है, जान है या नहीं। सचमुच बाल-बच्चों वाला आदमी नामर्द हो जाता है। मैं खडा रहा और ज़ोहरा चली गई।'

सहसा एक ज़ोर की लहर आई और लाश को फिर धारा में बहा ले गई। ज़ोहरा लाश के पास पहुंच चुकी थी। उसे पकड़कर खींचना ही चाहती थी कि इस लहर ने उसे दूर कर दिया। ज़ोहरा ख़ुद उसके ज़ोर में आ गई और प्रवाह की ओर कई हाथ बह गई। वह फिर संभली पर एक दूसरी लहर ने उसे फिर ढकेल दिया। रमा व्यग्र होकर पानी में यद पडा और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा, 'ज़ोहरा ज़ोहरा! मैं आता हूं।'

मगर ज़ोहरा में अब लहरों से लड़ने की शक्ति न थी। वह वेग से लाश के साथ ही धारे में बही जा रही थी। उसके हाथ-पांव हिलना बंद हो गए थे। एकाएक एक ऐसा रेला आया कि दोनों ही उसमें समा गई। एक मिनट के बाद ज़ोहरा के काले बाल नज़र आए। केवल एक क्षण तक यही अंतिम झलक थी। फिर वह नजर न आई।

रमा कोई सौ गज़ तक ज़ोरों के साथ हाथ-पांव मारता हुआ गया, लेकिन इतनी ही दूर में लहरों के वेग के कारण उसका दम फूल गया। अब आगे जाय कहां? ज़ोहरा का तो कहीं पता भी न था। वही आख़िरी झलक आंखों के सामने थी। किनारे पर जालपा खड़ी हाय-हाय कर रही थी। यहां तक कि वह भी पानी में कूद पड़ी। रमा अब आगे न बढ़सका। एक शक्ति आगे खींचती थी,

एक पीछे। आगे की शक्ति में अनुराग था, निराशा थी, बलिदान था। पीछे की शक्ति में कर्तव्य था, स्नेह था, बंधन था। बंधन ने रोक लिया। वह लौट पड़ा। कई मिनट तक जालपा और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ ताकते रहे। रमा की ज़बान आत्म-धिक्कार ने बंद कर रक्खी थी, जालपा की, शोक और लज्जा ने। आख़िर रमा ने कहा, 'पानी में क्यों खड़ी हो? सर्दी हो जाएगी।

जालपा पानी से निकलकर तट पर खड़ी हो गई, पर मुंह से कुछ न बोली,मृत्युके इस आघात ने उसे पराभूत कर दिया था। जीवन कितना अस्थिर है,यह घटना आज दूसरी बार उसकी आंखों के सामने चरितार्थ हुई। रतन के मरने की पहले से आशंका थी। मालूम था कि वह थोड़े दिनों की मेहमान है, मगर ज़ोहरा की मौत तो वज्राघात के समान थी। अभी आधा घड़ी पहले तीनों

आदमी प्रसन्नचित्त, जल-क्रीडा देखने चले थे। किसे शंका थी कि मृत्यु की ऐसी भीषण पीडा उनको देखनी पड़ेगी। इन चार सालों में जोहरा ने अपनी सेवा, आत्मत्याग और सरल स्वभाव

से सभी को मुग्ध कर लिया था। उसके अतीत को मिटाने के लिए, अपने पिछले दागों को धो डालने के लिए, उसके पास इसके सिवा और क्या उपाय था। उसकी सारी कामनाएं, सारी वासनाएं सेवा में लीन हो गई। कलकत्ता में वह विलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायद कोई भला आदमी उसे अपने घर में न घुसने देता। यहां सभी उसके साथ घर के प्राणी का-सा व्यवहार करते थे। दयानाथ और जागेश्वरी को यह कहकर शांत कर दिया गया था कि वह

देवीदीन की विधवा बहू है। ज़ोहरा ने कलकत्ता में जालपा से केवल उसके साथ रहने की भिक्षा मांगी थी। अपने जीवन से उसे घृणा हो गई थी। जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया। रतन का पवित्र,निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था। थोड़ी देर के बाद रमा भी पानी से निकला और शोक में डूबा हुआ घर की ओर चला। मगर अकसर वह और जालपा नदी के किनारे आ बैठते और जहां ज़ोहरा डूबी थी उस तरफ घंटों देखा करते। कई दिनों तक उन्हें यह आशा बनी रही कि शायद ज़ोहरा बच गई हो और किसी तरफ से चली आए। लेकिन धीरे-धीरे यह क्षीण आशा भी शोक के अंधकार में खो गई। मगर अभी तक

ज़ोहरा की सूरत उनकी आंखों के सामने गिरा करती है। उसके लगाए हुए पौधे, उसकी पाली हुई बिल्ली, उसके हाथों के सिले हुए कपड़े, उसका कमरा,यह सब उसकी स्मृति के चिन्ह उनके पास जाकर रमा की आंखों के सामने ज़ोहरा की तस्वीर खड़ी हो जाती है।

मुंशी प्रेमचन्द कृत उपन्यास "गबन" समाप्त