गब्बर की तीन गोलियां ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 मार्च 2013
उत्तरप्रदेश और पंजाब में पुलिस के आला अफसरों के कत्ल की घटनाओं ने चरमराती व्यवस्था के बिखर जाने का संदेश दिया है। इन घटनाओं से वैसा आक्रोश क्यों नहीं पैदा होता, जैसे किसी दुराचार या भ्रष्टाचार के उजागर होने पर होता है। किसी भी शहर में आला पुलिस अफसरों के कातिलों को सजा मिले, इसके लिए कोई जनसमूह हाथ में जलती हुई मोमबत्तियां लेकर इंडिया गेट नहीं जाता। दुष्कर्म के लिए पुलिस को भी दोषी माना जाता है, इसलिए दोनों जुर्म में अंतर किया जा रहा है। विगत दशकों में पुलिस की छवि इतनी धूमिल हो गई है कि उनकी हत्या हमें यथेष्ट रूप से दुखी नहीं करती, क्योंकि हमारे लिए वह मात्र एक वर्दी है, एक डंडा है और भ्रष्ट व्यवस्था का सशक्त बाहु मात्र रह गया है। हमने वर्दी के भीतर के मनुष्य को अनदेखा कर दिया है। उसे किन दबावों के भीतर काम करना पड़ता है, उनके मानसिक तनाव को हम महसूस नहीं करते। गुलामी के दिनों में पुलिस जिस तरह के लोगों को गिरफ्तार करती थी, आज उनके वंशजों के आदेश पर कहीं और डंडा चला रही है। राजनीति के शिकंजे से पुलिस को मुक्त होकर हमने आपातकाल में बर्बर होते देखा है। अत: पुलिस की स्वायत्तता का मसला कुछ ऐसा है कि एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई है। यह सरलीकरण भी काम नहीं आता कि पूरे देश में नैतिक मूल्यों का पतन हुआ है तो इस लहर से पुलिस कैसे अछूती रहती। अगर देश में धर्मनिरपेक्षता घट रही है तो उसका प्रभाव तमाम क्षेत्रों में देखने को मिलता है। सारा प्रकरण आकर किसी भी पुलिसवाले के व्यक्तिगत मूल्यों पर जाकर टिक रहा है।
यह कितनी अजीब बात है कि पोस्टमार्टम जैसे सुनिश्चित विज्ञान के बावजूद यह तय नहीं हो पा रहा है कि कत्ल हुए अफसर के शरीर में कितनी गोलियां थीं। सत्तापक्ष एक गोली की बात कर रहा है और रिश्तेदार तीन गोलियों की बात कर रहे हैं। सारा मामला काल्पनिक गब्बरसिंह की हुंकार की तरह हो गया है कि सांभा कितने आदमी थे या तूने अब तक नमक खाया है, अब गोली खा। उत्तरप्रदेश में अवैध हथियारों की संख्या अमेरिका में नागरिकों के पास रखे हथियारों के बराबर हो सकती है। हिंसा का ट्रिगर हथियार में नहीं, कातिल के दिमाग में होता है। कुछ प्रचार इतने तीव्र होते हैं कि उनसे पढ़े-लिखे संयत आदमी का बच पाना भी कठिन होता है। कई स्थानों पर समानांतर सरकारें चल रही हैं और बाहुबली कभी भी सत्ता को चुनौती दे सकते हैं।
उत्तरप्रदेश की आम जनता ने भ्रष्टाचार करने वाले एक दल को हटाया और वर्षों बाद वहां बहुमत से एक दल की सरकार बनी, परंतु चंद महीनों में बाहुबली मजबूत हो गए। सरकारों के बदलते ही हमारे यहां कुछ लोग जेलों से छूट जाते हैं और कुछ बंद कर दिए जाते हैं। स्पष्ट है कि न्याय आधारित कुछ नहीं हो रहा है। सत्ता पक्ष की दिशा में ही सूर्य नमस्कार किया जा रहा है। मुलायम सिंह को जनता ने अवसर दिया था और अच्छे शासन द्वारा वे लोकसभा में अपनी शक्ति बढ़ा सकते थे, परंतु अब तो लगता है कि मतदाता का अनिश्चय बढ़ेगा। ममता और मुलायम के मिलने की अफवाहें रही हैं, परंतु अब दोनों ही अपने क्षेत्रों में असरहीन होते प्रतीत होते हैं।
यह संभव है कि राजनीति के पक्ष के कारण ही सिनेमा में पुलिस वाले के चरित्र में अराजकता के साथ ही रॉबिनहुड दंत कथा को जोड़कर लोकप्रिय चरित्र रचा गया है, जिसने सिनेमा को नए मसाले दिए हैं। जब सिनेमा ने अन्य पक्षों को ही विश्वसनीयता से प्रस्तुत नहीं किया तो उनसे यह उम्मीद ही बेकार है कि वे पुलिस को निष्पक्षता से प्रस्तुत करें। देश की सारी विसंगतियों के संकेत सिनेमा में मिलते हैं। यह बात अलग है कि वे कुछ अधिक भौंडे और हास्यास्पद स्वरूप में कैरीकेचर की तरह प्रस्तुत किए जाते हैं।
अपराध के पहले, घटना के समय और घटने के बाद मामलों को रफा-दफा करने वाले विशेषज्ञ होते हैं और यह उनकी ही पटकथा है कि दोनों पक्ष गोलियों की संख्या जैसे सरल और सीधे मामले में धुंध पैदा कर दें। दरअसल, पोस्टमार्टम के परे की दोनों गोलियां गब्बर ने दागी हैं। गब्बर को पकड़ो तो जानें? उत्तरप्रदेश और पंजाब की घटनाएं इस कालखंड को काल्पनिक बनाने का भ्रम पैदा करती हैं।