गब्बर की लोकप्रियता का राज / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :04 मई 2015
यह माना जाता है कि अंग्रेजों के राज में शिमला के एक दफ्तर में जनता के आक्रोश का रिकॉर्ड रखा जाता था। उनके गुप्तचर धार्मिक स्थानों और नुक्कड़ पर हुई गपशप के आधार पर सूचना एकत्रित करते थे। अंग्रेज जाते समय असंतोष के रिकॉर्ड को नष्ट कर गए। उस दौर में जनता सभी कष्टों का कारण अंग्रेजों को समझती थी, परंतु स्वतंत्र भारत में भी असंतोष की लहर जारी है, परंतु इसका कोई अधिकृत रिकॉर्ड नहीं है। जन आक्रोश की पहली अभिव्यक्ति जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में नजर आई, फिर अन्ना की सभाओं में भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश नजर आया। भ्रष्टाचार के खिलाफ आक्रोश हमारे समाज का स्थायी स्वर हो चुका है और 'ज्यों ज्यों इलाज किया, रोग बढ़ता ही गया'। क्या वह महज इलाज का स्वांग था? अजीब बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे हाथ और उसकी आलोचना करने वाले सभी लोगों ने कभी आत्म अवलोकन नहीं किया। भ्रष्टाचार इतना अधिक फैला है कि हममें से कोई भी इससे अछूता नहीं है, परंतु हम इसके खिलाफ हुए आंदोलन का हिस्सा भी हैं। गोयाकि तनी हुई मुठि्ठयां स्वयं की छाती में नहीं मारी जातीं, वरन् छातीकूट का स्वांग जारी है।
सिनेमा हर लोकप्रिय लहर से प्रभावित हुआ है और उसने उसका दोहन अपने बॉक्स ऑफिस के लिए किया है, क्योंकि यही उसकी व्यवस्था है। हर कालखंड में भ्रष्टाचार विरोधी फिल्में बनी हैं। ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' अत्यंत गभीर प्रयास था। अमिताभ बच्चन की सलीम-जावेद लिखित फिल्मों का आक्रोश से भरा नायक अपने परिवार के साथ हुए अन्याय के खिलाफ लड़ता है, वह सामाजिक अन्याय के खिलाफ कभी खड़ा नहीं हुआ, परंतु दर्शक ने उसके आक्रोश से आत्मीय तादात्म्य बना लिया और उसके मारे घूंसों को अपने घूंसे समझ लिया। बकौल प्रतीश नंदी आजकल उसी तरह के छद्म आक्रोश का प्रतीक टेलीविजन पर अरनब गोस्वामी हैं और दुख की बात यह है कि आक्रोश से जुड़ना, बड़े परदे से सिमटकर छोटे परदे पर आ गया है, क्योंकि हम तो चाय के प्याले में ही तूफान का आस्वाद लेने वाले अनंत तमाशबीन हैं। मुरुगदास ने एक तमिल फिल्म बनाई जो अन्य भाषाओं के संस्करणों में भी सफल रही और अब उसी 'रामन्ना' को हिंदी में 'गब्बर' के नाम से बनाया गया है। फिल्मकार ने शोले के गब्बर की अपार कालातीत लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए 'रामन्ना' को गब्बर नाम दिया। उन्होंने शोले के खलनायक को इस फिल्म में नायक की तरह प्रस्तुत किया। उन्होंने यह भी चतुराई की कि 'डॉ. जैकल एंड हाइड' उपन्यास से एक व्यक्ति के दो स्वरूप का भी इस्तेमाल किया। उनका नायक दिन में शिक्षक है और रात में भ्रष्टाचारियों को मार देता है। दरअसल, वर्तमान में आम आदमी व्यवस्था व भ्रष्टाचार से इतना परेशान है कि वह स्वयं कानून हाथ में लेकर ऐसा ही करना चाहता है, परंतु सदैव से 'योद्धा अपराजेय परंतु हाथ में फकत तलवारों की मूठ' लिए है।
गौरतलब यह है कि भ्रष्टाचार से दुखी है, परंतु चाहता है कि उसका यह युद्ध कोई और लड़े। हमारा जनमानस हमेशा ही इस धारणा से संचालित रहा है कि कोई और उसके लिए सोचे, कोई और उसके लिए लड़े तथा अावश्यक होने पर कोई उसके लिए मरे। गोयाकि हमें मृत्यु के लिए भी डुप्लीकेट मिल जाए, तो हम उसके लिए रो लेंगे। सारे मामले की जड़ यह है कि हम स्वयं सोचना नहीं चाहते और लाख शहादत का जज्बा दिल में हो, बाजुए कातिल से कोई और टकराए। हमारे अवचेतन की इन्हीं अवतारवाद से प्रेरित धारणाओं के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ हिंसा करने वाला यह नया गब्बर हमें पसंद है, क्योंकि वह हमारी उन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है जो हम स्वयं आइने के सामने ही दंड पेलकर पूरी करते हैं। गोयाकि वह हमारे छाया-युद्ध का हिस्सा है। यही इस 'गब्बर' की लोकप्रियता का कारण है।
दरअसल, हमारे भीतर बहुत हिंसा है और हम उसकी अपरोक्ष अभिव्यक्ति ही पसंद करते हैं। क्या भ्रष्टाचारी के खिलाफ अब अनार्की वाली हिंसा ही एकमात्र निदान है। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार नैतिक मूल्यों के सर्वव्यापी विनाश के कारण फैला है और केवल ग्रहयुद्ध ही निदान है अर्थात हम अपने परिवार के भ्रष्ट व्यक्ति के खिलाफ खड़े हों। बहरहाल, यह 'गब्बर' चतुराई से गढ़ी भ्रष्टाचार विरोधी फिल्म है।