गब्बर सिंह कभी मरता नहीं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 अप्रैल 2013
संजय लीला भंसाली दक्षिण भारत की 'रमन्ना' को अक्षय कुमार और प्रभु देवा के साथ हिंदी में 'गब्बर' के नाम से बनाने जा रहे हैं। सलीम और जावेद छोटे शहरों और कस्बों से बखूबी परिचित थे और अंचलों में शक्तिशाली आदमी को 'गबरू' कहा जाता था वहीं कुछ अंचलों में 'जबरू' कहा जाता था। सलीम के पिता मध्यप्रदेश के आला पुलिस अफसर थे और उन दिनों के अपराधियों के किस्से सलीम साहब ने सुन रखे थे। कान, नाक काटने वाले डाकू गब्बर सिंह की निर्ममता के कई किस्से थे। सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी को 'शोले' बनाते समय यह कल्पना नहीं थी कि यह फिल्म इस तरह से अवचेतन में समा जाएगी और मामूली-से संबोधन 'अरे ओ सांभा' को दोहराया जाने वाला संवाद मान लिया जाएगा। शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो 'शोले' में किसी तरह के तर्क का निर्वाह नहीं हुआ। जिस गब्बर सिंह को ढूंढऩे में पुलिस और नायक असफल हैं, उस गब्बर के तथाकथित गुप्त अड्डे तक अन्य सारे पात्र इतनी सहजता से पहुंच जाते हैं कि बकौल स्वयं सलीम साहब शायद डाकिया भी पत्र लेकर वहां जा पहुंचता हो। गब्बर सिंह को प्रशंसकों के पत्र आना इस देश में कोई असामान्य बात नहीं होती। पुलिस कई मामलों में सुस्त हो सकती है, परंतु उनके साथी के हाथ काटने वाला उससे नहीं बच पाता।
बहरहाल इस फिल्म के सारे पात्र किंवदंतियों में बदल गए और गब्बर सिंह निर्मम होते हुए भी बच्चों को कॉमिक्स का पात्र लगा। यहां तक कि मूल कथा से असंबंधित पात्र जैसे 'अंग्रेजों के जमाने का जेलर' या 'सूरमा भोपाली' भी लोकप्रिय हुए। फिल्म प्रदर्शन के पूर्व जारी इसका संगीत बिका नहीं, परंतु प्रदर्शन के बाद संवादों के साथ गानों के रिकॉर्ड खूब बिके। आज 'शोले' के संगीत को लोकप्रिय माना जाता है, जबकि आरडी बर्मन का वह कमजोर काम है। पाश्र्व संगीत जरूर काबिले तारीफ है। 'अंदाज' और 'सीता और गीता' के बाद रमेश सिप्पी एक भव्य फिल्म बनाना चाहते थे। उन दिनों सिप्पी फिल्म्स में नरेंद्र बेदी की तूती बोलती थी और उसने 'वेस्टर्न' जैसी 'खोटे सिक्के' प्रारंभ भी की थी। रमेश सिप्पी के आग्रह पर सलीम-जावेद ने अमेरिकन वेस्टर्न की तर्ज पर 'शोले' लिखी। शूटिंग प्रारंभ होने के समय केवल धर्मेंद्र और हेमा सफल सितारे थे, परंतु निर्माण होते समय अमिताभ की 'जंजीर' और 'दीवार' ने उन्हें शिखर सितारा बना दिया था। कथा तो ठाकुर बनाम गब्बर है, परंतु धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की सितारा हैसियत के कारण संघर्ष का समीकरण बदल जाता है।
भारत में अमेरिकन वेस्टर्न की तर्ज पर कम बजट की फिल्में बनती रही हैं, नरेंद्र बेदी की 'खोटे सिक्के' में भी कोई सितारा नहीं था। रमेश सिप्पी की 'शोले' बड़े बजट की भव्य फिल्म थी। तकनीकी गुणवत्ता से सुशोभित इस फिल्म के कैमरामैन द्वारका दिवेचा ने इसे महाकाव्य के रूप में रचा। सच तो यह है कि द्वारका दिवेचा की 'शोले' के प्रदर्शन के कुछ समय बाद मृत्यु हो गई और इसके बाद रमेश सिप्पी को कभी शोले-सी सफलता नहीं मिली। केवल तकनीकी गुणवत्ता के आधार पर कोई फिल्म इस तरह लोक-कथा के रूप में नहीं बदलती। इस एक्शन फिल्म में भावना का संप्रेषण बहुत ही प्रभावोत्पादक ढंग से हुआ है। पटकथा रोचक है, मसलन सलीम-जावेद ने ठाकुर के हाथ कटे होने को नाटकीय ढंग से उजागर किया। इस दृश्य ने दर्शकों को अचंभित कर दिया। इसके संवाद आम जीवन की बोलचाल की भाषा में शामिल हो गए। अमजद खान ने गब्बर सिंह की भूमिका में जबर्दस्त प्रभाव पैदा किया। पहली बार सिनेमा में डाकू जीन्स पहने हैं, परंतु तंबाकू को हथेली पर रगड़कर वह गंवई अंदाज में खाता है। उसका हथेली पर तंबाकू रगडऩा उसके आतंक का हिस्सा है।
आज पुरानी फिल्मों के नए संस्करण बन रहे हैं, परंतु 'शोले' का नया संस्करण बनाने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा है। यह शायद संभव भी नहीं है। इसमें मौजूद सिनेमाई लहर दोबारा नहीं बनाई जा सकती। अंचल की इस कथा का महानगरीय संस्करण 'शान' शोले वाली टीम ने ही शोले से भी बड़े बजट में रचा था, परंतु सफल नहीं हुआ। शीघ्र ही जयंतीलाल गढ़ा द्वारा 'शोले' का थ्रीडी संस्करण प्रदर्शित होने जा रहा है। इसके निगेटिव के अधिकार को लेकर सिप्पी घराने में ही एक मुकदमा चल रहा है।
दरअसल, भारत में लोकप्रियता के रसायन को समझ पाना कठिन है। यह समझना भी मुमकिन नहीं है कि कोई चीज कैसे सामूहिकअवचेतन में गहरे पैठ जाती है। गब्बर का कहना कि 'कितने आदमी थे' कोई सारगर्भित महान संवाद नहीं है, परंतु यह गली-गली गूंजा है। गब्बर की वाक्पटुता देखिए कि उसके दल का एक आदमी क्षमा मांगते हुए कहता है कि 'सरदार तुम्हारा नमक खाया है', वह कहता है कि 'अब गोली खा'। यह कोई विट नहीं है, परंतु लोकप्रिय है। सिनेमा की तरह ही हमारी राजनीति में भी लोकप्रियता का रसायन समझ पाना कठिन है। मीडिया के आकलन कभी सच नहीं सिद्ध हुए हैं। 'शोले' एकमात्र फिल्म है, जिसे उसकी अभूतपूर्व लोकप्रियता के कारण महान फिल्म मानने पर आप मजबूर हैं। इस लोकप्रियता ने सिनेमाई गुण-अवगुण का भेद ही मिटा दिया। अब किसी फिल्म को 'गब्बर' के नाम से बनाना एक चुनौती है। आज भारतीय समाज में 'शोले' के ईमानदार इंस्पेक्टर की तरह सभी लोगों के हाथ कटे हुए हैं और गब्बर सभी क्षेत्रों में दहाड़ रहा है।