गम्मत / सत्यनारायण पटेल
होह... होह... होह...
कुर्रर्रर्र... कुर्रर्रर्र... कुर्रर्रर्र...
सी एम फलाने सिंह जी के काफिले के आगे सड़क पर वार्नर जीप बेखटके दौड़ रही है। जीप में हवा बेधड़क और जरूरत से ज्यादा आ रही है। गई रात, आधी रात के बाद हुई झमाझम बरसात का पानी पीकर हवा के नाखून उग आए हैं - ठंडे और पैने नाखून। हवा की चाल में गजब की तेजी है। जीप के हुड का कपड़ा फड़फड़ा रहा है। सोमू भील जीप चला रहा है, उसकी बगल में सहायक उपनिरीक्षक एम.के. डामोर और पीछे की सीट पर बंसी बैठा है। सभी ने गरम कपड़े पहने हैं। ठंड के मारे सोमू भील और डामोर के मुँह के जबड़े थ्रेसर के छलने की तरह हिल रहे हैं। ऊपर-नीचे के दाँत आपस में टकरा रहे हैं। डामोर को ठंड से बचाव का एक रास्ता सूझता है - आपस में बात करते रहना। इसलिए वह किस्से सुनाने लगता है। सोमू उसके किस्से सुनता है। हाँ...हूँ... कर हुंकारे भी भरता है। पर बंसी जाने किस लोक में खोया है, उसे न डामोर की आवाज सुनाई दे रही है, न ठंड लग रही है, बल्कि उसकी कनपटियों से पसीने के रेले ढुलक रहे हैं - खारे और पारदर्शी रेले।
बंसी को देखने से तो यही लगता है कि वह जीप में पिछली सीट पर बैठा है और उसे ठंड नहीं लग रही है। पर दरअसल जेहनी तौर पर बंसी जीप में नहीं है। वह अपने मगज की स्क्रीन पर नाचती टोली में होह... होह... होह... कर नाच रहा है, कुर्राटी भर रहा है, और यही वजह है कि ठंडी हवा चलने के बावजूद, बंसी की कनपटियों से पसीने के रेले ढुलक रहे हैं। उसके मगज की स्क्रीन पर नाचती टोलियों की संख्या बढ़ती जा रही है। टोलियों में नाचने वाले केसरा भील, अलीया भील, छीतू भील, भुवान भील, बिरसा मुंडा और चंद्रशेखर आजाद जैसे कई लोग अपने-अपने परगनों की सीमाओं को पीछे छोड़ और इतिहास के पन्नों से बाहर आकर बंसी के मगज की स्क्रीन पर नाचते नजर आ रहे हैं। चंद्रशेखर आजाद बीच-बीच में टोली का जोश बढ़ा रहे है।
बंसी स्क्रीन पर देख रहा है - लंबे समय से खूँटी और कंधे की शोभा बढ़ाने वाले तीर-धनुषों ने कंधे और खूँटी पर टँगे रहने से इनकार कर दिया है। जैसे वे खुद ब खुद खूँटी और कंधे से उतरकर नाचती-गाती टोलियों के हाथों में आ गए हैं। बाँसुरियों ने हुलिए बदल लिए हैं और उनमें छेद की जगह पर ट्रिगर उग आए हैं। यह जैसे भी हो रहा है, लेकिन ऐसा होता देख बंसी भी जोश से भर गया है। उसे लग रहा है कि उसके बैग में बम भरे हैं।
एक क्षण को स्क्रीन पर अँधेरा छा गया है। टोलियों की आवाज आ रही है, टोलियाँ नजर नहीं आ रही है। दूसरे क्षण स्क्रीन पर भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त उभर आए हैं। वे असेंबली हॉल में खड़े हैं और उनके हाथ जेब में रखे बम की और बढ़ रहे हैं। बंसी का हाथ अपने बैग में गया और चौड़ी मुट्ठी में एक हथगोला पकड़ बाहर आया। मुँह से हथगोले की पिन निकाली। मगज की स्क्रीन पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली हॉल में बम फेंका और 'इंकलाब जिंदाबाद' नारा लगाने लगे, इधर बंसी ने भी उन्हीं के अंदाज में हथगोला फेंका और उत्साह से कुर्राटी भरने लगा।
डामोर ने पीछे गर्दन घुमाए बगैर ही पूछा - क्या हो गया वीडियोग्राफर साब, कुर्राटी क्यों भर रहे हो?
बंसी की तरफ से कोई जवाब न सुन डामोर फिर सोमू भील से बात करने लगा।
- सोमू रात में कैसी झमाझम बरसात हुई थी, तूने देखी थी कि नहीं...? डामोर ने पूछा।
- अरे साब... क्यों नहीं देखी... मैं तो गस्त पर था तब... सोमू भील ने कहा - भीग गया... बहुत ठंडा पानी था
खैर... गस्त पर था तो तूने तो देखी ही होगी... डामोर किस्सा शुरू करने के अंदाज में बोला और फिर किस्सा सुनाने लगा - पर शायद इंद्र ने न देखी होगी! क्योंकि उसका वह वक्त सुरा और सुंदरी के मद में गाफिल रहने का है। लेकिन सुबह नारद या किसी और चमचे ने बताया होगा, तो सुनकर इंद्र के बाल सुलग उठे होंगे। इंद्र ईर्ष्यालु तो है ही, और जरा-जरा-सी बातों पर बिगड़ने में कुख्यात भी माना जाता है।
डामोर आगे बोला - जानते हो सोमू... इंद्र ने क्या किया होगा?
सोमू ने कहा - आप ही बताओ साब!
डामोर बताने लगा - इंद्र तुरंत महादेव के पास गया होगा। बसंत की शिकायत करते लहजे में कहा होगा कि बरसात करना बसंत का काम नहीं। जितनी बरसात करनी थी, मैंने अपने कार्यकाल के दौरान कर दी थी। आज बसंत ने बरसात करावा दी, कल कोई और देवी-देवता करवा देगा! अगर ऐसे ही चलता रहा तो मुझे कौन पूछेगा?
सोमू... यह वैसा ही मामला है, जैसा अपने थाने में बीट या तफ्तीश को लेकर अधिकारियों में कुत्ता फजीती होती है! कोई ऐसा मामला हुआ जिसमें अच्छा माल मिलने की उम्मीद हो, तो दूसरे की बीट का मामला भी अपनी बीट में खेंच लाएँगे। लेकिन मामला माथा दुखाने वाला और अंटी का माल खर्च कराने वाला लगे, तो अपनी बीट का मामला भी दूसरे की बीट में धकेल देंगे।
सोमू हँसा...। पर उसकी हँसी से डामोर के किस्सा सुनाने पर कोई फर्क नहीं पड़ा। क्योंकि डामोर एक बार किस्सा सुनाना शुरू हो जाए तो फिर अधबीच में रुकना मुश्किल होता है, रुके तो किस्सा कहने को जीभ में खुजली चलती है। कभी वह खुद को जबरन रोक भी ले, पर जीभ की खुजली को कैसे रोके? उसे किस्सा कहना ही होता है और कहना जारी है -
तो जब इंद्र महादेव के पास पहुँचा होगा! जैसे अपना टी.आय. दो-चार पैग पेट में उड़ेल कर थाने में बैठा रहता है, ऐसे ही महादेव चिलम सूत-साँत कर और एक-दो भाँग के अंटे फँसाकर गम गलत करते बैठे होंगे। पहले तो उन्होंने इंद्र को टालने की कोशिश की होगी, पर जब इंद्र अपने स्वभाव के मुताबिक गिड़गिड़ाता हुआ वहीं खड़ा रहा होगा, तब महादेव ने कहा होगा - देखो भई... बसंत में बरसात कराकर तुम्हारे हक का अतिक्रमण कोई देवी-देवता नहीं कर रहा है। बसंत प्यार और मस्ती का मौसम है, सो देवी-देवता तो मौज-मस्ती में व्यस्त है। गई रात जो कुछ हुआ, इस बरस ऐसा कई बार हुआ, यह दरअसल ग्लोबल वार्मिंग का असर है, और इसे कंट्रोल करने का रिमोट व्हाइट हाउस की तिजोरी में बंद है, तिजोरी की चाबी उसमें रहने वाले राक्षस की कमर के कंदोरे में बँधी है। महादेव एक और चिलम भरते हुए बोले - भई... हमें तो खुद फिक्र खा रही है कि पोंद के नीचे से हिमालय पिघल गया तो हम कहाँ खेमा तानेंगे!
महादेव, इंद्र ओर व्हाइट हाउस के राक्षस को आपस में जैसे निपटना होगा, निपटेंगे। पर बरसात की वजह से जरूरत और अपेक्षा से ज्यादा चलती ठंडी हवा बेकसूर बापड़े डामोर, सोमू को आर पर आर गड़ाए जा रही है। दिन में ऐसी न चुभी थी, पर अभी लग रहा है कि इसलिए न चुभी थी कि दिन भर आर को पैनी करने में व्यस्त रही होगी।
सोमू और डामोर जोर से हँसे... एक क्षण को ठंड उनकी हँसी के इर्द-गिर्द छिटक गई। बंसी अभी भी खामोश बैठा है।
लेकिन जैसे ही डामोर खमोश हुआ, तो उसे लगा ठंड फिर से दाँत गड़ाने लगी। वह बोला - यह ठंड भी हिंदी फिल्म के खलनायक की तरह कर रही है।
ड्रायवर सोमू भील ने पूछा - साब ठंड और खलनायक का क्या रिश्ता?
- अरे भई... अपने को पुलिस की ट्रेनिंग में चाँदमारी करती बखत उस्ताद क्या सिखाता है कि अपना ध्यान टारगेट पर रखो और ट्रिगर दबा दो... अब खलानायक को हीरोइन का बलात्कार ही करना है, तो गंडमरा टारगेट पर ध्यान लगाने की बजाय हिरोइन की छातियों में दाँत गड़ाता है! अरे भई बलात्कार ही करना है... तो टारगेट पर ध्यान लगाओ... अर्जुन की तरह मछली की आँख पर निशाना साधो... पर क्या है सोमू कि ये गैलचौदे दुर्योधन और दुसासन की तरह करते हैं... लगे द्रोपदी का चीरहरण करने... साड़ी हेंच-हेंचकर पसीना... पसीना हो रहे... साड़ी खतम नहीं हो रही... कहते हैं किसन्या साड़ी को लंबी करता जा रहा था... अरे तो भई लक्ष्य क्या है... साड़ी हेंचना कि चीरहरण करना... दुर्योधन सहित कितने लोग बैठे थे वहाँ... कोई भी एक उठता, और पेटीकोट पकड़कर हेंच लेता...! दूसरा पोलका फाड़ देता... लो हो गया... पर लगे चूतियों की तरह साड़ी हेंचने में... अपने देश की संसद को ही देख लो... वहाँ न कोई भारत माता की साड़ी को हाथ लगाता है... न उन्हें अभद्र बोलता है... जबान से ही चीरहरण कर देता है कि नहीं...! चल भारत माता और संसद की बात तेरे मगज में न आए तो... ये तो तू भी देखता-सुनता ही है... आज फलाँ गाँव या शहर में फलानी औरत का बलात्कार। फलानी औरत को डाकन-चुड़ैल कहकर नंगी कर घुमाया। जानता है कि नहीं... जानता है... आखिर तू भी पुलिस में है...
सोमू - हाँ... हाँ... क्यों नी जानता साब... यह तो होता ही रहता है...
- फिर... डामोर बोलने लगा - ऐसा ही एक वो था... रावण... सीता को अपहरण कर लिया और उसे अशोक वाटिका में बैठाल दिया... भेज रहा है प्रस्ताव पर प्रस्ताव और वह ठुकारए जा रही है... रावण प्रस्ताव भेजने में लगा रहा... और उधर राम ने चढ़ाई की तैयारी कर ली, एक दिन आया और रावण को ठाँस दिया...
पर क्या है सोमू... इन सालों के पास कोई काम नहीं रहता... इसलिए टाइम पास किया करते... अपन को देखो... रात-दिन जुते रहते हैं... रावण की जगह अपन जैसा कोई होता तो हवा में यानी पुस्पक विमान में ही खेल कर लेता... अपन को तो वैसे भी अपनी ही लाड़ी का मुँह देखे कई-कई दिन हो जाते हैं... भागते-दौड़ते सटासट चार-छः सटके मार चल देते हैं... हर बखत पिछवाड़े में कोई न कोई खूँटा घुसा जो रहता है... साली पब्लिक का भी काम नहीं कर पाते... क्योंकि आज सी एम फलाने सिंह जी अपनी मय्यु करवाने आ रहे हैं... कल पी एम फलाने सिंह जी अपनी ऐसी की तेसी करवाने आएँगे... अरे भई अपको जो कुछ करना है... वहीं से बैठे-बैठे उँगली करो... सब हो जाएगा फटाफट... करना कुछ नहीं... खाली-माली नौटंकी करने चले आते हैं मुँह उठाकर... और जनता के करोड़ों रुपयों का सत्यानाश कर जाते हैं।
डामोर का बोलने में वैसे ही अच्छा रियाज था। फिर अभी तो जब पिछले गाँव में सी एम फलाने सिंह जी का काफिला रुका था... तो सी एम फलाने सिंह जी भाषण शुरू करे और भारत माता की जै बोले इतनी देर में महुआ स्कॉच के दो गिलास गटक लिए थे। महुआ स्कॉच गटकने के बाद डामोर के बोलने की क्षमता दो-तीन गुना बढ़ जाती है। हालाँकि जब वह तुरुंग बोलता, तो उसका उद्देश्य देवी-देवता या किसी और के मान-अपमान करने का नहीं होता। जैसा उसके मन में आता... वैसा बोलता रहता। और अगर उस वक्त बोलने के पीछे कुछ उद्देश्य था... तो वह था - ठंड को उल्लू बनाना। लेकिन ठंड कोई भोली-भाली भीलनी नहीं थी, जिसे कोई सरकारी अधिकारी और एनजीओ कर्मी अपनी बातों से, गिलास-दो गिलास ताड़ी, महुआ या फिर कटोरा भर राबड़ी ही में गपला (बहलाना-फुसलाना) ले। ठंड बड़ी श्याणी थी भई... बस... ज्यादा से ज्यादा यह होता... कि जब डामोर... और सोमू ठहाका लगाते तो वह कुछ क्षण के लिए उनके इर्द-गिर्द छिटक जाती। लेकिन जैसे ही ठहाका रुकता... वह वापस हिंदी फिल्म के खलनायक की तरह दाँत गड़ाने लगती। डामोर फिर कोई किस्सा सुनाने लगता।
डामोर और सोमू ठंड से बचने को जो कुछ भी कर रहे थे, लेकिन जीप में पीछे बैठा बंसी कुछ नहीं कर रहा था, बल्कि क्षण भर पहले तक तो जैसे उसे ठंड छू ही नहीं रही थी। उसके सिर के बालों में से पसीने की रेल कान की बगल से नीचे उतर रही थी। उसके मगज में होह... होह... और कुर्रर्र... कुर्रर्र... गूँज रही थी। लेकिन अब होह... होह...और कुर्रर्र... कुर्रर्र... मगज में धीमे-धीमे यों घुल रही है जैसे पानी में मिश्री की डली घुल रही है, और डली के साथ-साथ एक शंका भी घुल रही है - कूल्हों के नीचे... नहीं... सिर्फ नीचे ही नहीं..., टाँगों के बीच भी... गीला-गीला हो गया है। बंसी ने खुद से पूछा - क्या मैं डर गया... मैंने डर के मारे पैशाब कर दी...! डरना तो मेरे खून में नहीं... फिर ऐसा कैसे हो सकता है...! वह अपने ही प्रश्नों के उत्तर खोजता... तब तक डामोर सोमू की तरफ देखता बोला - लगता है वीडियोग्राफर सपने में कुर्राटी भर रहा है...? लेकिन ठंड अपनी तो जैसे मार ही ले रही है...!
बंसी का कुर्राटी से बहुत पुराना रिश्ता है। यानी कि बंसी का बाप कल्या। कल्या का बाप मल्या। मल्या के बाप-दादा केसरा भील, अलीया भील, छीतू भील और भुवान भील के दादा, पर दादा के भी बाप के बाप के भी पहले से... यानी जाने कब से है। शायद यह कहना ज्यादा ठीक है कि बंसी का कुर्राटी से खून का रिश्ता रहा है। लेकिन अब इस रिश्ते को निभाने का मौका कम ही मिलता है। जब कभी मिलता है, तो बंसी झिझकता है। जबकि कभी यही बंसी अपने बाप कल्या और माँ राली की कमाई की राबड़ी पीता था, तब इसकी नसों में ऐसी बर्राटी (उन्मत होना) दौड़ने लगती थी कि कल्या, राली और आसपास के टापरे वालों के साथ कुर्राटी भर-भर पूरा फलिया गूँजा देता।
बंसी के पुरखे और वशंज औरत और धरती को उर्वरा मानते हैं। ये कई मामलों में अंधविश्वासी और कुछ मामलों में पढ़ी-लिखी बिरादरी से भी ज्यादा प्रगतिशील होते हैं, जैसे भगोरिया हाट में वे अपने प्रेम का इजहार खुल्लम-खुल्ला करते हैं। वहाँ माँ-बाप की सहमति-असहमति और गोत्र की समस्या गौण हो जाती है। जो प्रेमी युगल भगोरिया हाट में से भागकर ब्याह कर लेते हैं, उन्हें हरियाणा जैसी किसी खाप पंचायत के मुस्टंडों के फरमान के तहत न जिंदा जलाते हैं, न ही काट कर लाश को नहर में फेंकते या जमीन में दफनाते हैं, बल्कि पंचायत उनके ब्याह को स्वीकार कर लेती हैं और उत्साह के साथ पार्टी करते हैं। महुआ स्कॉच, ताड़ी पीते हैं। मांस पकाते और खाते हैं। माँदल, थाली, घूँघरमाल बजाते हैं। पैरों में घूँघरू बाँध कुर्राटी भर... होह... होह... कर नाचते हैं
लेकिन अशिक्षा के कारण अंधविश्वास भी बगैर जड़ की अमर बेल की तरह फैला नजर आ जाता है, जैसे एक बार बंसी ही के साथ ऐसा वाकया घटा। हालाँकि बंसी तब छोटा था, यानी पाँच-छः बरस का था, तब कपटी इंद्र ने बरसात के मौसम में किसानों को पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसा दिया था। किसानों ने इंद्र को पटाने के लिए क्या-क्या टोने-टोटके और धत्तकरम न किए, पर कपटी इंद्र का पत्थर दिल न पिघला। तब गाँव वालों ने डोडर अमावस के दिन बंसी और उसके सराबरी के चार-पाँच छोरों के नंग-धडंग टुल्लर के माथे पर पलाश के पत्ते बाँधे, बंसी को एक लंबा बाँस थमाया। बाँस के माथे पर एक दादुर (मेंढक) बाँधा। नंग-धड़ंग टुल्लर गाँव-फलिया के एक-एक घर के सामने जाता। औरते टुल्लरों पर पानी उड़ेलती। पानी से गीली होती जमीन पर नंग-धडंग छोरे लोट लगाते।
उसके पीछे यही धारणा रहती कि इंद्र तड़पते दादुर और लोट लगाते छोरों को देख लाज-शरम के कारण पानी बरसा देगा। नंग-धडंग छोरों को किसी घर-टापरे से आटा-दाल और किसी से नकद पैसा दिया जाता। इस सबको इकट्ठा कर सब मिलकर किसी खेत में मक्का के आटे के पानिए बनाते खाते। सोचते - इससे जो धुआँ उठेगा, उससे बादल भरमाकर इधर बरसने आ जाएँगे। या इंद्र ही खिसियाकर बादलों को बरसने भेज देगा।
उस बरस जब यह सब धत्तकरम करने पर भी पानी नहीं बरसा, तो बंसी के मन में आया कि कोई भगवान-अगवान नहीं होता है। होता तो वह हमें लोटता देख जरूर थोड़ा पानी बरसा देता। मन में आई यही बात उसने न सिर्फ अपने बाप कल्या से कही, बल्कि अपनी बोली में पूछा भी था कि अगर अपना टापरा में आटा न होता। भूख पेट में कुर्राटी भर रही होती, मैं रोटी के लिए ऐसे लोट लगाता तो आप क्या करते?
कल्या ने अपनी बोली में कहा था कि छीतू भील की तरह कहीं से भी लूट कर ले आता।
बंसी ने कहा कि जब एक बाप अपनी संतान के लिए कहीं से भी लूट कर ला सकता है, तो फिर भगवान कैसे चुपचाप रह सकता है? पर वह...!
कुछ तब करे जब कि वह हो! नहीं कर रहा है, इसका मतलब नहीं है।
बंसी के छोटी उम्र में ऐसे तर्क सुन कल्या का माथा चकरा जाता। उसे कई बार राली पर शक होता। जरूर राली ने उसके साथ दगा किया है। बंसी उसे अपना छोरा न लगता। लेकिन फिर बंसी कुछ ऐसी बात बोल उठता कि कल्या का मन पुलकित हो उठता।
जब कल्या आली गाँव छोड़कर मनावर आ गया था। जहाँ उसका टापरा था, उसकी बगल में और भी कुछ टापरे थे और उनसे थोड़ी दूरी पर उसके पटेल का घर था। उस घर में कोई रहता नहीं था। बस खेती-बाड़ी की जरूरत का सामान पड़ा रहता। कभी-कभार पटेल साब दोपहर में आराम करते।
एक बार सोमला और बंसी खेलते-खेलते पटेल साब के घर के पीछे चले गए। वहाँ बंसी को कागज की एक पुड़िया दिखी। उसने सोमला को बताई। सोमला ने कहा कि ये तो मिर्ची की पुड़िया है। मेरे टापरे में ऐसे ही कागज में माँ मिर्ची बाँधकर रखी है। बंसी ने पुड़ी खोली तो देखा, उसमें मिर्ची नहीं है। उसमें तो हल्के मटमैले रंग का फुग्गा है। सोमला और बंसी फुग्गे को देखने लगे। दोनों को यह बात तो समझ में आ गई कि फुग्गा है, पर यह समझ नहीं आया कि इतने बढ़िया फुग्गे में किस गधे ने नाक छिकर दी।
फुग्गे को लेकर वे दोनों खेत के उस कोने पर पहुँचे जहाँ पानी चल रहा था। फुग्गे को उलट-पलटकर अच्छे से धोया। फिर पोंछा और मुँह से हवा भरी। फुग्गा फूलकर कद्दू के बराबर का हो गया। दोनों ने पहली बार अपने जीवन में इतना बड़ा फुग्गा देखा था। कहीं से ढूँढ़-ढाँढ़कर एक धागा हासिल किया। फुग्गे में बाँधा और बारी-बारी से मेड़ पर ले लेकर दौड़ने लगे। खेत में सोमला की माँ, राली और दो-तीन दाड़कनें काम कर रही थी, काम करते-करते प्यास लगी तो राली गागर लेकर वहीं पानी लेने आई। जहाँ बंसी ने फुग्गा धोया था। राली ने देखा कि छोरे क्या लेकर मेड़ पर दौड़ रहे हैं? जब दौड़ते हुए उसके पास आए... तो वह देखकर चौंक गई... ये क्या...?
तब बंसी की बारी थी, तो बंसी ने धागा पकड़ रखा था और फुग्गा हवा में उड़ रहा था। राली ने अपनी बोली में कहा था कि फेंक इसके...!
बंसी ने पूछा था - क्यों...?
राली ने कहा - ये गंदा है!
बंसी ने कहा - हमने धो लिया है...।
राली ने कहा - ये ऐसे खेलने का नहीं है...।
बंसी ने पूछा - तो फिर कैसे खेलने का है...?
राली ने कहा - तेरे से तो भगवान भी न जीत सकता। वह पानी की गागर ले चली गई।
तो भइया बंसी के बचपन के ऐसे अनेक किस्से हैं।
लेकिन अब बंसी बच्चा नहीं है। अब वह अबलिक की तरह तिरछे ताड़ के पेड़ पर दौड़कर नहीं चढ़ सकता। झिझके नहीं और कोशिश भी करे तो अपना अस्सी किलो का शरीर सँभालना मुश्किल होगा। ज्यादातर संभावना यही होगी कि धम्म से जमीन पर आ गिरेगा! ताड़ पर चढ़ना तो दूर... अब वह दौड़कर चलती बस पर पीछे से नहीं चढ़ सकता। पिछले-तीस बत्तीस सालों में बंसी की जिंदगी काफी बदल गई। अब बंसी बच्चा नहीं। यानी अपने आधे-अधूरे आजाद और इतने ही विकसित देश से महज तेईस बरस छोटा, या कह लो चालीस बरस की जिंदगी का मालिक है। अपना कमाता-खाता है। अपने घर में रहता है। अब राबड़ी पीकर कुर्राटी भरने में भलेही एक बार झिझकने लगे, पर मौका पड़ने पर बात तो वैसी ही करता है।
अब यहाँ एक नान कमर्शियल, लेकिन जरूरी ब्रेक लेते हैं। यहाँ किसी विज्ञापन की बात नहीं करनी है, ब्रेक में भी कहनी तो कहानी ही है, कहानी भी बंसी की ही, पर थोड़ी पुरानी है। सन तारीख आदि... मालूम नहीं है, वह पहले की कहनी है। हाँ... यह याद थोड़ी देर से आई, इसलिए खेद और क्षमा सहित... पहले पुरानी कहानी हाजिर है।
तो हुजूर ए आला जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि बंसी का बाप कल्या। कल्या का बाप मल्या। मल्या के बाप और दादा के दादा केसरा भील, अलीया भील और छीतू भील, भुवान भील, के जमाने के भी पहले बहुत पहले... यानी उस जमाने की बात है।
बंसी भील के दादा के दादा और उनके परदादा राजपूताना और गुजरात के प्राचीनतम रहवासी रहे हैं। दादा पर दाद वाली इस पगडंडी पर छोटा उदयपुर आगे बढ़ते चले, तो जंगल-झाड़ियों से होते हुए ठेठ झारखंड के छोटा नागपुर जा पहुँचते हैं। वहाँ के कोली, 'जो मुंडा भी कहलाते हैं, से बंसी भील का कनेक्शन निकलता है। बंसी भील आज भले ही इंदौर जैसे चौड़ी छाती के शहर में रहता है, लेकिन उसकी रगों में इन्हीं जंगल-झाड़ियों में रहने वाली जनजाति का खून दौड़ता है। हालाँकि समय-समय पर सरकार से फेलोशिप के नाम पर और पूँजीपति दान दाता एजेन्सियों से प्रोजेक्ट लेकर रुपये ऐंठने वाले भिन्न-भिन्न मति के तथाकथित विद्वान बंसी भील के वंशजों के बारे में अनेक धारणाएँ थोपते रहे हैं। कुछ इन्हें द्राविड़ मानते हैं और कहते है कि पश्चिम गुजरात और मध्यप्रांत में बंसी भील के वंशजों का काफी फैलाव हुआ बताते है। कुछ कहते हैं कि द्राविड़ जनजातियाँ गोंड, कोरकू, तड़वी, किराड़, कोल यानी वही मुंडा आदि पहले से ही मध्यप्रांत में निवास करते आ रहे हैं। मध्यप्रांत में गोंडों की सत्ता भी रही है, चूँकि गोंड जनसंख्या में अधिक और सत्ताधीश थे, तो इन्होंने बापड़े बंसी के वंशजों को एक जगह टिकने ही नहीं दिया। शायद यही वजह रही कि ये लोग सतपुड़ा के पर्वतांचलों में फैलते रहे।
बंसी भील के पुरखों के जन्म के यूँ तो अनेक किस्से हैं, पर बहरहाल यह सुनें। कहते हैं - एक बार ऐसा हुआ कि महादेव बाबा नंदी के साथ भ्रमण को निकले। हाँ भई... वही महादेव... जिनको भोला भंडारी भी कहते हैं। तो भोला भंडारी एक हाथ में त्रिशूल, एक हाथ में कमंडल और गले में साँप और कमर के नीचे शेर की खाल को टॉवेल की तरह लपेट, जंगल में भ्रमण कर रहे थे। क्यों कर रहे थे? यह पूछने की हिमाकत न अब किसी ने की, न तब की थी जब वे कामुक होकर एक स्त्री का पीछा करते हुए यहाँ-वहाँ वीर्य की बूँदें टपकाते दौड़ रहे थे। कहते हैं - धरती पर कुल बारह जगह उनके वीर्य की बूँदें टपकीं। जहाँ-जहाँ टपकीं वहाँ-वहाँ एक-एक शिवलिंग उग आया। दो तो इंदौर के आसपास ओंकारेश्वर और उज्जैन ही में उगे हैं।
अगर कभी किसी ने पूछा होता, तो उसका भी किस्सा होता ही! अब आज ही देख लो रायसीना टीले से खोखलतंत्र की खाप पंचायत रोज ही कुछ न कुछ फरमान जारी करती है और सैनिकों की टुकड़ियाँ, मंत्रियों के गिरोह जंगलों में भ्रमण को निकल पड़ते हैं। और अब अगर कुछ लोग इनके भ्रमण की वजह पूछते हैं, तो उनके किस्से भी आए दिन पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं और टी.वी. पर दिखाए और सुनाए जाते हैं। उन दिनों पत्र-पत्रिका नहीं थे, तो किस्से सुनाने की परंपरा तो थी ही। इसके अलावा खबरों को इधर-उधर करने में नारद की भूमिका महत्तवपूर्ण हुआ करती। आज खबरों को इधर-उधर पहुँचाने के साधन खूब हो गए हैं, पर इस सबके बावजूद नारद की अपनी भूमिका है। नारद अपने ढंग का बिरला मीडियाकर्मी है। साम्राज्यवादी सत्ताएँ चाहे जितने लोगों का खून चूसें और उनका जाब खतरे में डालें पर नारद के जाब को कभी कोई खतरा नहीं पहुँचाया जा सकता है।
हाँ... तो भैय्या भोला भंडारी भ्रमण करते... करते... करते...करते... थकान महसूस करने लगे। जब और कुछ दूर भ्रमण करने के बाद उन्हें एक थोड़ी ठीक-ठाक जगह नजर आई, तो सुस्ताने का मन हुआ। उन्होंने वहीं अपना त्रिशूल गाड़ा। नंदी को छोड़ा और गले में लिपटे साँप को भी चरने-चुगने को छोड़ा। फिर सबसे पहले एक चिलम भरी और कुछ जोरदार कश लिए। इससे यह हुआ कि भोले बाबा का दिशा फारिग होने का मन बन गया। उन्होंने इधर-उधर देखा, तो उन्हें कुछ दूरी पर एक नदी दिखी। बाबा ने खुद कमंडल उठाया और नदी तरफ बढ़ लिए। दिशा-फारिग से जब वे निवृत्त हो गए। उन्हें नदी में से नहाकर निकलती हुई एक सुंदरी नजर आई। कपड़ों के विकास की कहानी तो अपन सब जानते ही हैं, उन दिनों कहाँ था ऐसे कपड़े-लत्तों का चलन! खुला खेल फरुखाबादी वाला हिसाब था, और अगर थोड़ा-बहुत लाज-लिहाज था, तो कमर में एक बेलड़ी बाँध उसमें आगे-पीछे दो चौड़े पत्ते लटका लेते थे। वही सुंदरी ने भी किया था।
जैसे आज के समय एन.जी.ओ. वाले भाई, कलेक्टर साहब, एस.पी. साहब जैसे कई साहब सौंदर्य प्रसाधनों और जेवरों से सजी-धजी अपनी बीवियों को घरों पर ही छोड़कर आदिवासी क्षेत्रो में भ्रमण, सर्वे या जो कुछ करने जाते हैं, तो कुदरती खूबसूरती को देख बापड़ो दिल में कोमल भावनाओं का झरना झर-झर बहने लगता है। उस झरने में कई के साथ भीग जाते हैं। फिर जब थोड़े और बूढ़े हो जाते हैं, तब ईमानदारी से अपनी आत्मकथाओं में, संस्मरणों में बताते भी हैं कि उन्होंने कैसे कुदरती खूबसूरती के साथ जंगल में भी मंगल किया। पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई लोगों ने किस्से लिखे और लोगों ने रस ले-लेकर बाँचे हैं, उन्हें फिर से क्या दोहराना...!
ऐसे ही जब भोले बाबा ने भी कसे मांस वाली कुदरती सुंदरी के बदन पर पानी की बूँदे फिसलते देखी, तो अपने दिल को फिसलने से रोकना उन्हें सृष्टि का सबसे कठिन काम जान पड़ा और वे उसे न कर सके। भोले बाबा का दिल उछल कर सीधा सुंदरी के कदमों में छप्प-से जा गिरा। सुंदरी एक क्षण को चौंकी कि यह कैसी मछली, उसके गुड़गी-गुड़गी तक पानी में डूबे कदमों के पास छप्प-से आ गिरी। उसने जरा गौर से देखा, फिर भी वह उस मछली को पहचान नहीं पाई, और उसे जल्द ही यह समझ में आ गाया कि यह तो मछली ही नहीं है। यह कुछ और ही है। वह अपने सीने पर उभरी कच्चे गोदड़िया लिंबू की-सी गोलाइयों को सिर के लंबे-काले घने बालों से ढाँक इधर-उधर देखने लगी। तब उसे शेर की खाल लपेटे भोले बाबा नजर आए, और नजर आया उनकी गाँजे की तुरंग से हुई लाल आँखों में उमड़ता बसंत।
क्या मस्त सिचुएशन है भिड़ू! यह अपनी बंबई के गीतकारों को नजर आ जाती, तो जाने कितने बोरे भर गीत लिख मारते। कैमरा मैन जाने कितने एंगलों से शूट करता। फलाने भट्ट टाइप के निर्देशकों की गंजियों से पसीने की धाराजी बह चलती। पर तब यह सब कहाँ था भई... ? बाबा सुंदरी के नजदीक पहुँचे, और उन्होंने डर फिल्म के चाकलेटी छोरे की तरह कि... कि... किरण नहीं कहा, बल्कि फटाक से कह डाला कि मामला दिल दाँ है। सुंदरी भी आज की हिरोइन की माफिक बिंदास न थी कि सीधे डायलाग मारती कि मेरे घर चलें या तुम्हारे...? इसलिए सुंदरी ने थोड़ी बहुत ना-नकुर की। लेकिन फिर बाबा ने वहीं से एक टेसू का फूल तोड़ सुंदरी के भाल पर मल दिया। और सुंदरी मुस्करा दी... ...उसके भीतर भी कुछ-कुछ हुआ...
बस फिर क्या था... बाबा तो मँजे खिलाड़ी थे ही... हो गया खेल...। भोले बाबा ने वहीं आश्रम बनाया और धूनी रमाकर बैठ गए। उसी आश्रम में उनके दो छोरे हुए। एक गोरा और एक साँवला। छोरे धीरे-धीरे बड़े भी हुए। गोरा तो भोले बाबा और सुंदरी की हाँ में हाँ मिलाने वाला था। लेकिन साँवला एक दम बाबा पर गया था, केवल रंग और कद-काठी से ही नहीं। गुस्सैल भी भोले बाबा की तरह ही था। एक बार उसे किसी बात पर बाबा के नंदी पर भयानक गुस्सा आया। इतना कि अगर उस छोरे को भी बाबा की तरह तीसरी आँख होती, तो शायद खुल जाती। चूँकि तीसरी आँख नहीं थी, इसलिए खुली भी नहीं। लेकिन अब तक साँवला छोरा तीर-धनुष चलाने में भी उस्ताद हो गया था। सो उसने उठाया अपना तीर-धनुष और नंदी के शरीर में एक छेद का इजाफा कर दिया।
यह देख... बाबा को भी गुस्सा आया। और फिर बाबा तो... बाबा ही थे, और उनके गुस्से के किस्से भी जग जाहिर है। लेकिन उन्हें इतना गुस्सा नहीं आया था कि उनकी तीसरी आँख के खुलने की नौबत आती। उन्होंने इतना ही किया कि साँवले छोरे को अपने आश्रम से भगा दिया। इसीलिए शायद यह मान्यता भी है कि बंसी भील के पुरखों का पुरखा भोले बाबा का वही साँवला छोरा है। और शायद इसीलिए बंसी भील के पुरखे और वर्तमान पीढ़ी अपने को महादेव बाबा का वंशज मानकर पोमाती भी है। लेकिन चूँकि बंसी कल्या और मल्या के समय से ही दूसरे कस्बाई और शहरी लोगों के संपर्क में ज्यादा रहा, इसलिए वह कुछ अलग सोचता भी था और दिखता भी था।
एक बात और बंसी के पुरखों के बारे मे जान लो कि तीर-धनुष चलाने में अर्जुन जैसों का नाम तो ज्यादा इसलिए भी चर्चा में रहा कि वे राजघराने से थे। लेकिन बंसी भील के पुरखों ने इस विद्या में अर्जुन जैसे कई उस्तादों के उस्तादों को पानी पिलाया है। एकलव्य की कहानी तो सभी ने सुनी-पढ़ी है। उसे फिर नहीं दोहराते हैं। बरसों से चली आ रही ये गलत परंपरा तो आज भी सभी विद्या के विद्याधरों में दिखाई देती है। कला और विचारधाराओं के दलाल राहुल सांकृत्यायन, डॉ. रामविलास शर्मा और मुक्तिबोध के पोंद पर लात मार देते हैं। जब ऐसे विद्याधर दुनिया से कूच कर जाते हैं, तब ये भाँड और हरबोले उन्हीं के गीत गाते नजर आते हैं, और आ रहे हैं।
इतिहास के पोथी-पानड़े उलटने-पलटने पर बंसी भील के कई पुरखों के अनेक किस्से मिलते हैं। सभी तो नहीं, लेकिन कुछ तो आपको बताने ही पड़ेंगे! जैसे इनका एक पुरखा कवि भी हुआ है - वालिया भील उर्फ वाल्मीकि। उस कवि ने एक जगह लिखा है - 'मा निषाद! प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः।। / यतक्रौंचमिथुनादेकमवधीः कामौहितम् ।। यानी कि एक निषाद् (भील) के तीर ने कामातुर क्रौंच पक्षी को निपटाया।
एक किस्सा है कि एक बार यशोदा माय और नंदलाल बा का छोरा किसन्या... हाँ... भई वही किसन्या... जो दही बेचने वालियों की मटकी फोड़ देता... जो नदी में नहाती छोरियों के कपड़े लेकर पेड़ पर चढ़ जाता, और तब तक न देता... जब तक कि छोरियाँ उसकी हर बात न मान लेती। उसी किसन्या ने यादवों के साथ मिलकर गुजरात तरफ से बंसी भील के पुरखों पर हमला बोल दिया। उस लड़ाई में किसन्या की छाती में घुसकर जिस तीर ने, किसन्या के जीव को पंक्षी की तरह उड़ा दिया। वह तीर कहीं और से नहीं, बल्कि बंसी के पुरखों के धनुष ही से निकला था।
एक यह भी किस्सा है कि अयोध्या के राजा दशरत एक कम उम्र की सुंदरी पर इतने मोहित हुए कि सुंदरी को रानी बना लिया। उसी रानी को दो वचन भी थमा दिए। जब मौका आया तो रानी ने अपनी सौतन कौशल्या के जाए राम के लिए बनवास और अपने जाए भरत के लिए राज गद्दी माँग वचनों को भुनाया। राम जो पुरुषों में उत्तम माना गया, जब बनावस पूरा कर वापस आया, तो राजगद्दी सुरक्षित थी। राज्याभिषेक के मौके के दौरान उसने उस निषाद यानी भील को भी बुलाया, जिसने जंगल में राम की सेवा कह लो या मदद की थी। आज भला कोई रायसीना के टीले पर बनी इमारत में खोखलतंत्र की खाप पंचायत के सरपंच का पद भार ग्रहण करता है, तो किसी आदिवासी को बुलाता है...? अजी बुलाना तो छोड़ो... उस दौरान अब किसी केसरा भील, अलीया भील, छीतू भील, भुवान भील बिरसा मुंडा या आज का कोई भील जो अपने हक अधिकार की बात करता हो... उसे उधर से गुजरने भी दिया जा सकता है...? हाँ... ऐसे अवसरों पर भीलों को नचाना हो तो बात अलग है... बस, ट्रक या फिर ट्रेन में भेड़-बकरियों की तरह भरकर बुला लेंगे!
जंगल में वनवास के दौरान निषाद राम की मदद नहीं करता, तो वह भी क्या निषाद को बुलाता? वह राम जो था न... रावण को युद्ध में हराने के बाद कहता है, उसने युद्ध इसलिए नहीं किया कि रावण उसकी पत्नी सीता का अपहरण किया। अपमान किया। बल्कि इसलिए किया कि रावण ने उनके कुल के मान-सम्मान को ठेस पहुँचाई। सीता स्वतंत्र है वह जहाँ चाहे रहे...? क्या मतलब था भइया सीता चाहे तो लंका में रहे या अयोध्या चले! राम की यही बात सीता के कलेजे को छलनी कर गई। उसने अपने स्वाभिमान की रक्षा के खातिर खुद लक्ष्मण से कहा कि मेरी चिता सजाओ। कौन जीना चाहेगा ऐसे रामराज्य में जिसका राम इतना शक्की और स्त्री विरोधी हो...! जो राम अपनी गर्भवती पत्नी को जंगल में छुड़वाने का आदेश भी देता है और घड़ियाली आँसू भी बहाता है। ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम पर स्वाभिमानी सीता थूकने से ज्यादा क्या कर सकती...!
ऐसा राम जब अपने राज्याभिषेक के आयोजन में भील को बुलाता है, एक तरफ भील को सम्मान देने का ढोंग करता है और दूसरी तरफ वही फलाने राम बापू और प. फलाने किशोर नागर जैसे उस समय के ढोंगी साधु-संतों के बहकावे में आकर बापड़े शंबूक के प्राण छीन लेता है। वह विरोधाभाषी चरित्र का था। यह बात अलग है कि उसके अंध भक्तों को उसकी खामियाँ भी अच्छाई दिखती रहती है। लेकिन अपना बंसी भील इस किस्से से यही समझता है कि सत्ताधीश किसी के सगे नहीं होते हैं। जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप कहते हैं। काम निकलने पर बाप के पोंद पर भी लात जमा देते हैं। वह कहता है - स से होता सत्ता / स से होता साँप / दोनों का गुण एक - काटना।
लेकिन भई... वह कहते है न... कि कुछ चीजें ऐसी होती है कि आदमी कितना ही बदले पर उसके भीतर उसके पुरखों के जीन स्थानांतरित होते रहते हैं। जीन ही नहीं... ये शुगर की बीमारी को ही देख लो ससुरी। पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है कि नहीं! तो ऐसी ही कुछ चीजे हैं, जो भीलों में भी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई है। जैसे तीर-धनुष चलाने की निपुणता। बाँसुरी बजाने का लाजवाब ढंग। नाच-गाना। नशा... आदि... आदि...
लेकिन बंसी भील को बाँसुरी और तीर-धनुष ठीक से पकड़ने भी नहीं आते हैं। पर हाँ... बंसी भील सीटी गजब की बजाता है। पत्थर से अचूक निशान साधता है। हो सकता है, बाँसुरी बजाने का सीटी बजाने और तीर-धनुष चलाने का गुण पत्थर चलाने में बदल गया हो !
फिर भी बंसी भील आम भीलों से थोड़ा अलग तो दिखता है, पर इतना अलग नहीं कि भील ही न लगे। बंसी भील की नाक कुछ चौड़ी और जरा चपटी है। आम भीलों की तुलना में बंसी भील का रंग कुछ उजला और कद भी थोड़ा ज्यादा है, इस बात को लेकर लोग सत्रह तरह की बातें करते हैं, एक तो यही कि बंसी भील की माँ या उसके बाप कल्या भील या फिर उसके बाप मल्या भील की माँ का कनेक्शन किसी राजपूत से रहा है। पर अपन को इससे क्या? यानी वह भील नहीं भिलाला है। भिलाला यानी जो भीलों और राजपूतों के मिश्रण से जन्मा हो! कोई राजपूत औरत और भील पुरुष के संबंध से पैदा हुआ, ऐसा देखना तो दूर, किसी ने सुना भी नहीं। लेकिन राजपूत तो जंगल में किसी जानवर का शिकार करने निकलते और सामने जवान भीलनी पड़ जाती, तो पहले उसी का शिकार कर लेते। महादेव ने तो भीलनी से दो ही छोरे पैदा किए थे, पर राजपूतों ने तो भिलालों के फलिए के फलिए बसा दिए। कल्या भील ने बंसी का रंग देखकर ही उसके हाथ पर बंस्या भील गुदवा दिया था। बंसी भील है या भिलाला इससे अपन को क्या? अपने लिए तो जैसे फलाने गांधी वैसे बंसी भील। अपन को तो बंसी की कहानी कहनी है, इसलिए अपन बंसी की कहानी पर ही ध्यान लगाएँगे, जैसे कि अर्जुन ने मछली की आँख पर ही ध्यान लगाया था। मछली कितनी लंबी-चौड़ी और किस रंग की है, किस जाति और नस्ल की है, इन सब बातों से अपना क्या लेना-देना है !
तो बंसी भील के नाम में से 'बंसी' शब्द का मतलबत तो जानते ही हैं, 'भील' का और जान लें। भील शब्द का सफर कुछ इस तरह है कि भिद् से बना बिद्, बिद् से बिंधना। बिंधना से भेदना, वेधना आदि...आदि। फिर सबका अपना शब्द को उच्चारण करने का भी तो एक ढंग होता है। उच्चारण करने के ढंग से शब्द तो बदलता ही, कई बार अर्थ भी बदल जाते हैं। लेकिन यहाँ उच्चारण तो बदलते-बदलते भिद् से बील और फिर भील हो हो गया, पर अर्थ वही रहा यानी लक्ष्य को भेदने वाला। द्राविड़ों की बोली में भी भील का मतलब धनुष होता है। यह वैसा ही जैसे राष्ट्रकूट घिसाते-घिसाते राठौड़ हो गए, जिनके वंशज दीपसेन राठौर ने भाबरा के पास की मोटीपोल के सरदार केसरा भील को मारकर इधर के भील शासकों पर कब्जे की शुरुआत की थी।
एक बात और, बंसी भील के कई जात भाई हैं जैसे - मांकर, नायक, तड़वी, किराड़, पटेलिया, कोली, मुंडा आदि...। आदि। इनके पुरखों यानी केसरा भील हो, या अलीया भील जैसे सरदार जब गद्दी पर बैठते, तो उनके साँवले ललाट पर अपने हाथ के अंगूठे या फिर पैर के अंगूठे के लाल सुर्ख खून से तिलक लगाने का रिवाज रहा है। पर कहते है न भई शिक्षा बड़ा पैना औजार है। बड़ा गहरा और लंबे समय तक बना रहने वाला घाव करता है। शिक्षा अपने ज्ञान को सँभालने के लिए भी जरूरी बरदान है। बंसी भील के पुरखों के पास अपने जंगल, जमीन, जड़ी-बुटी के ज्ञान की तो भरमार रही, पर उसे अवेर नहीं सके। क्योंकि शिक्षा की कमी सदाबहार रही। हालाँकि उधर झारखंडी गोमके गुरू ने अपनी बोली की लिपि बनाने का कुछ काम भी किया था और सोचा था कि इस कमी पर जीत हासिल कर लेंगे। लेकिन नहीं हो सका। क्योंकि जब कहीं ऐसे सपने के अंकुर फूटे तो राजा-महाराजाओं की मनमानियों ने कुचल दिया। अंग्रेजों से तो उम्मीद करना ही बेकार था, लेकिन जब लोकतंत्र भी आया तो खोखलतंत्र ही साबित हुआ।
खोखलतंत्र के शासकों ने अपने को बार-बार अंग्रेजों के वंशज साबित किया। ये इन दबे-कुचलों को अशिक्षित वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं बनने देने की साजिशें रचते रहे। साजिशों को ही नीतियों का जामा पहनाते रहे। खोखलतंत्र में पनपे शिक्षाविदों में भी उन्हीं को तवज्जो मिली, जो मैकाले के वंशज थे और उसी की शिक्षा नीति को आगे बढ़ाने का महान काम करने में लिप्त रहे। इन दबे-कुचलों की जिंदगी रोशन करने वाला एक वाक्य न लिखा गया। दबे-कुचले और कुचले जाते रहे, और पिछड़ते रहे।
बंसी भील के पुरखों में समय-समय पर छीतू भील, वीर नारायण सिंह, गुरू गोमके, बिरसा मुंडा जैसे लोग पैदा हुए, जो अपने सर्वांगीण विकास और आजादी को अपना हक मानकर सत्ता के सामने खड़े हुए। ऐसे योद्धाओं और इनके साथियों को राजा-महाराजाओं, अंग्रेजों और तथाकथित छद्म लोकतंत्र के क्रूर शासकों ने सदा ही विद्रोही कहा। साम्राज्यवाद के दाँतेदार पहिए के नीचे सदा ही इन्हें रौंदा जाता रहा है। चालबाज भाषा हिंदी और अंग्रेजी के जानकार पीढ़ियों से उन्हें ठगते आ रहे हैं।
आज भी इन जंगल के वीरों को ठगने के अनेक किस्से पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं। शायद इन ठगों से बचने और रोटी के लालच में ही कुछ ईसाई, कुछ मुस्लिम हो गए। इसीलिए तो अपने सी एम फलाने जी की पार्टी वाले समय-समय पर तरह-तरह के टोटके करते रहते हैं - जैसे घर वापसी, हिंदू संगम, शबरी मेला, शिवगंगा यात्रा, नर्मदा परिक्रमा यात्रा, अलानी यात्रा, फलानी यात्रा। और अब निकाल रहे हैं, आओ, बनाएँ अपना हृदय प्रदेश यात्रा। मौका मिलते ही इन्हें हिंदू कारसेवक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक बनाकर भुना लिया जाएगा, जैसे समय-समय पर भुनाया गया है।
बंसी भील जो अब शहरी है और जो अपने नाम के आगे भील लिखता भी नहीं है। हाथ पर गुदे गुदने 'बंस्या भील' पर जब कभी नजर पड़ती है, याद आ जाता है कि उसके पुरखे गाम आली के रहने वाले थे। फिर कल्या भील रोजी-रोटी के फेर में कभी मनावर आकर बस गया। वहीं एक पटेल कास्तकार के खेतों में काम करने लगा।
बंसी जब छोटा था, तब किसी से भी बात करता, तो सामने वाला समझ जाता कि छोरा तेज है। जब बंसी छः-सात साल का हो गया, तो किसी ने कल्या भील को सलाह देदी कि बंस्या दिन भर नंग-धड़ंग इधर-उधर घूमता रहता है, तो उसे स्कूल में बैठाल दो। वह चंट है। कल्या को बात जँच गई तो उसे बैठालने ले गया। बंस्या भील का नाम मास्टर ने बंसी लिख लिया। तभी से वह बंसी है। ऐसे ही धीरे-धीरे उसकी जिंदगी में कुछ न कुछ बदलाव आते रहे हैं। और अब तो वह शहरी हो ही गया है। पैंट पर पूरी आस्तीन की बुशर्ट पहनता है, जिससे किसी को उसके हाथ पर का गुदना भी नहीं दिखता। यही बंस्या भील उर्फ बंसी इंदौर अपने घर से आलीराजपुर जाने को निकला। आलीराजपुर जाने के लिए गंगवाल बस अड्डे से बस मिलती है, सो वहीं पहुँच गया है।
बंसी इत्मीनान से बस में चढ़ा और खिड़की की बाजू की सीट पर बैठ गया। बस में ज्यादा भीड़ न होने से आसानी से खिड़की की बाजू की सीट खाली मिल गई। बंसी बैठा और बस चल पड़ी, तो उसे एक क्षण को लगा - बस... उसी के इंतजार में खड़ी थी। हालाँकि दूसरे ही क्षण उसने खुद से यूँ कहकर अपने लगने को खारिज किया - बस का... बस, चलने का वक्त हो गया था, इसीलिए चल पड़ी।
बंसी का दुनिया को देखने-समझने का नजरिया कोई खास क्राँतिकारियों वाला तो नहीं, लेकिन हाँ... कई औंधी खोपड़ी वालों से हटकर दुनिया को समझने की कोशिश करता है। या यूँ कहलो कि अपने पुरखे छीतू भील, भुवान भील की तरह सोचने-समझने की कोशिश करता है।
यह कोशिश उसके मगज में गुपचुप-गुपचुप हर क्षण चलती रहती है। कई बार भीतर ही भीतर संवाद भी चलते रहते हैं। जैसे एक नदी बगैर कुछ कहे अपने ही भीतर बहती रहती है और सुनती रहती है अपनी ही कल...कल...। बंसी का ऐसा स्वभाव इस शहर और नौकरी और रोज-रोज देश-दुनिया पर बात करने वालों के आयोजनों को कवर करने जाने, सुनने-समझने से बना। तर्क और गुस्सा तो उसके खून में पहले से ही घुला था।
बंसी ने बस में चढ़ने से पहले ही एक-दो पत्रिकाएँ खरीद ली। इंदौर से धार के बीच कुछ स्टोरियाँ, 'साहित्यिक कहानियाँ' नहीं, वो... स्टोरियाँ छपती है न... क्या बोलते हैं उनको... बढ़ेगा किसानों का संकट, मैं कोई त्योतिष नहीं जो बता दूँ कि महँगाई कब कम होगी। अमर कथा का अंत, फलाने के नहीं रहने से एक युग का अंत। ढिमका के चले जाने से पार्टी का ढर्रा बिगड़ा। फलाने के आने से फलाना पार्टी छोड़ देगा, फलानों की कोई शर्त नहीं सुनी जाएगी। पार्टी ने कॉमरेड फलाने के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की। अनुशास्नात्मक कार्यवाही के बाद कॉमरेड फलाने ने आत्महत्या की। कॉमरेड फलाने ने अस्सी बरस की उम्र में आत्महत्या की। पार्टी के महासचिव और पार्टी ने दुख व्यक्त किया। फलाने छात्र को पुलिस ने शंका के आधार पर गोली मारी। आॉपरेशन ग्रीन हंट जारी रहेगा। इस टाइप के शीर्षकों वाली स्टोरियाँ पढ़ता रहा। पढ़ता तो है वह साहित्यिक रचनाएँ भी खूब, पर उन्हें सफर में नहीं, घर में रहता है तब। धार को पार कर बस कुक्षी की ओर बढ़ी, और यकीन मानिए धार से कुक्षी कस्बा तक का रास्ता, 'मीठे आलस्य की चटनी के साथ' एक झपकी ने कब चाट लिया, बंसी को पता ही नहीं चला।
जब बंसी की आँख खुली। उसने कंडक्टर की आवाज सुनी कि चलो कुक्षी वाले उतरो। कुक्षी से बंसी को पिछले दिनों खूब फेमस हुआ गीत याद आ गया - अमु काका बाबा ना पोर्या रे, कोंडळ्यो खेला डूँ / अमु कुक्षी हाट जावाँ रे, कोंडळ्यो खेला डूँ।
इस गीत में जो मस्ती है, वह बाहर कुक्षी में नजरों की सीमा तक नजर नहीं आ रही, और बंसी की नजरों में अट रहे हैं। कुक्षी की सड़क के दोनों बाजू जगह-जगह बिजली के खंबों पर, मकानों पर यशोदा के छोरे किसन्या के लगे पोस्टर, बेनर फ्लैक्स। पोस्टर पर पं. फलाना किशोर नागर भी जमे बैठे हैं, जो पिछले उन्नीस-बीस बरसों से भागवत, रामायण जैसी किताबों को बाँच-बाँच कर संत की छवि बना चुके है। अपनी अंटी में माल भी काफी जमा कर चुके है। अखबारों मे आए दिन नागरजी के प्रवचनों के अंश छपते हैं, उन्हें पढ़कर और कभी उनके प्रवचन का फुटेज लेने गाया, तो जो सुना उससे ही बंसी ने जाना कि पं फलाने नागर ज्ञान को सदैव पर्दे में रखने की सलाह देते है। उनका मानना है कि ज्ञान जग जाहिर होने से महत्त्वहीन हो जाता है। नागरजी अपनी सभा में युवा पीढ़ी को आह्वान कर कहते है - संसार बिगड़ चुका है। तुम सदमार्ग पर चलकर खुद को और संस्कृति को बिगड़ने से बचाओ। बंसी को शंका हुई कि वह कुक्षी में ही है! लग तो ऐसा रहा है कि वह अलानी-फलानी जैसी किसी भयानक किस्म की धार्मिक नगरी में आ पहुँचा है।
बंसी सोचता है - एक तरफ सी एम फलाने सिंह आओ, बनाएँ अपना हृदय प्रदेश यात्रा निकाल रहे हैं। दूसरी तरफ हृदय प्रदेश में सैकड़ों जगहों पर पं. फलाना किशोर नागर, फलाना राम बापू, फलाने ठाकुर जी, फलानी चमकेश्वरी देवी आदि जैसे ढोंगी, लोगों का मगज बदलने में लगे हैं। बंसी गोविंद सेन के हाइकु बुदबुदाता है - घणा चढ़ाव / भगवान क फूल / मन मैं काटा। फिर जैसे चेताता है - मच्छी नी छोड़ / बगलो भगत छे / दूर रयजो
गोविंद सेन बंसी का दोस्त है। अभी बंसी जहाँ है, वहाँ से कुछ ही किलो मिटर दूर मनावर नाम के कस्बे में रहता है। मास्टर है और निमाड़ी बोली में हाइकु लिखता है। बंसी को गोविंद के कई हाइकु याद हैं और इसी तरह मौके के मुताबिक याद आ जाते हैं, तो बुदबुदा भी लेता है। वह कई बार हाइकु की ही तरह अपने भीतर रिसते विचार भी आड़ी-तिरछी लाइन में बुदबुदा लेता है।
बंसी को हाइकु का व्याकरणिक कोई नियम-कायदा मालूम नहीं है। बंसी जब मनावर में रहता था तब, और कई बार फोन पर होती बातों में भी गोविंद हाइकु के बारे में कुछ समझाने की कोशिश करता। पर बंसी कभी शब्द और मात्रा के बंधन में न बंधा। कहने का मतलब यह कि बंसी केवल अपने जेहन में आई बात कहना चाहता है। बात जैसे भी आड़े-टेड़े अंदाज में आई - वैसे ही कहना चाहता है। वह मानता है कि बात का अर्थ महत्त्पूर्ण है, कहने का ढंग किसी का ज्यादा या कम अच्छा हो सकता है। बहस का विषय बात कहने का ढंग नहीं, बात से निकलने वाला मर्म होना चाहिए। जो भी कहा जाए वह वैसा ही समझ में आ जाए।
बंसी और गोविंद में अनेक बातों पर तर्कों के बाण घंटों चला करते। कभी मान नदी पर चले जाते पूरा दिन ऐसी ही मगजपच्ची में उजाड़ देते। उन्हीं दिनों गोविंद की संगति में ही उसे कोर्स के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ने का चस्का लगा था, जो सदा बढ़ता रहा था।
बंसी का बाप कल्या जैसे कभी आली से मनावर काम की तलाश में आया था। वैसे ही बंसी इंदौर आ गया था। पहले तो वह एक फोटो स्टूडियो पर काम करता रहा। वहीं रहते उसने स्टील फोटोग्राफी का काम सीखा। फिर वीडियोग्राफी भी सीखी। लेकिन वह जिस स्टूडियो पर काम कर रहा था, उसका मालिक कुछ जल्दी-जल्दी बूढ़ा हो रहा था। मालिक का छोरा फोटोग्राफी का काम तो जानता था, लेकिन उसे वह जारी नहीं रखना चाहता था। इसलिए जब छोरा दूसरे काम में बाहर निकल गया और मालिक ने बुढ़ापे के कारण काम बंद कर दिया, तो बंसी की फिर काम की तलाश शुरू हुई। यह उन्हीं दिनों की बात है, जब देशभर में टीवी चैनलों की अचानक बाढ़-सी आई थी। बंसी हृदय प्रदेश के एक चैनल में चिपक गया। उन्हीं दिनों इंदौर के एक प्राइमरी स्कूल में एक निमाड़न फूलमती नई-नई मास्टरनी बनी, 'जो बंसी के किराये के कमरे के सामने ही, किराये के कमरे में रहती थी, उससे बंसी की नजरे उलझी। उसी से फिर कोर्ट में शादी की, दो बच्चों का बाप बना। एक घर का मालिक बना। उधर माँ-बाप असमय ही निकल लिए थे, तो आना न के बराबर हो गया था। खैर...
बहरहाल गोविंद की याद आने पर, बंसी के भीतर जैसे मान उफान पर आ गई। गोविंद से खत, फोन के मार्फत दोस्ती का तार जुड़ा रहा। गोविंद का जब भी इंदौर आना होता, दोनों मिलते भी। बंसी ने सोचा कि उधर से अगर इधर ही से लौटना हुआ, और सब कुछ ठीक रहा, तो गोविंद से मिलता चलूँगा। बंसी को अपनी बीवी और गोविंद की नौकरी अच्छी लगती है - टाइम-टेबल से पढ़ाया और घर। और कुछ नहीं तो बच्चों को मन माफिक पढ़ा तो सकता है। इसमें तो बंसी को चैनल के मुताबिक सब कुछ बनाकर देना होगा। वह जो शूट करता है। उसके मन में जो बिंब बनते हैं। वह कभी व्यक्तिगत रूप से कहीं इस्तेमाल कर सका, तो करेगा। बाकी चैनल तो अपने मन माफिक स्टोरी बनाता है।
बंसी खिड़की की बाजू वाली सीट पर बैठा ही इसलिए था कि वह बाहर के नजारे को भीतर समेटता रहे। वह जब यात्रा करता है, तो उसका यह एक खास मकसद होता है। मकसद पर अमल भी करता है। वह केवल कैमरे से ही वीडियोग्राफी नहीं करता, बल्कि जैसे कैमरा खामोशी से अपने भीतर, बाहर का शोर-गुल समेटता रहता है, वैसे ही बंसी भी नजरों से बाहर का नजारा अपने भीतर समेटता रहता।
बस के आगे कुछ दूरी पर सड़क के आधे हिस्से को बनाया जा रहा है। एक भीलनी रोलर पर मग से पानी डाल रही है ताकि रोलर पर डामर चिपके नहीं। एक दूसरी भीलनी बन रही सड़क पर एक छेददार डिब्बे से पिघला डामर छिड़क रही है। बंसी को दोनों भीलनी मंगली ही लग रही हैं।
वही मंगली जिसके भाल पर भगोरिया हाट में बंसी के काका के छोरे सोमला ने गुलाल मल दिया था। सोमला भील बंसी भील से से साल-दो साल बढ़ा था। दोनों में उम्र के अलवा एक और फर्क था और वह यह कि बंसी स्कूल जाता और सोमला नहीं जाता।
लेकिन भगोरिया हाट में बंसी सोमला के साथ गया था। उस दिन सोमला ने बालों में तेल लगाया था, कंघी की थी। चड्ढी के ऊपर टेसू के फूल वाली बुशर्ट पहनी थी। आँखों में सुरमा रचाया था। सोमला ने बाँसुरी को भी लाड़ी की तरह सजाया था। सोमला ने बाँसुरी के उस छोर पर, 'जो मुँह से दूर रहता है, केसरिया और गुलाबी रंग के रिबन के फूल बाँधे थे। केसरिया और गुलाबी रिबन मंगली अपने चोटी में बाँधा करती, और वैसे ही फूल बनाती जैसे बंसी ने बनाकर बाँसुरी पर बाँधे थे।
गाँव के बाहर रास्ते पर ऐसे किशोर और जवान छोरे-छोरियों के टुल्लर के टुल्लर बन गए थे - सोमला भील ने अपने होटों पर उँगली को ऊपर-नीचे घिसटते हुए कुर्रर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्राटी भरी... किसी ने गीत छेड़ दिया -
आयो रे भाया ! भंगर्यो आयो।
तेवार्यो गुलाल्यो भंगर्यो आयो।
बारा मोहीनां मां भंगर्यो आयो,
लाड़ी हेरने चाटको लायो।
(आया रे भइया ! भगोरिया आया
त्यौहार गुलाल का आया।
बारह महीना बाद भगोरिया आया
लाड़ी (दुल्हन) चुनने का मौका लाया।)
बंसी जब भी किसी जवान होते भील और भीलनी को देखता है, उसे सोमला और मंगली की सिर्फ याद ही न आती, बल्कि सभी भील और भीलनी सोमला और मंगली ही लगते हैं। सोमला और मंगली ने किशोर उम्र में ही भगोरिया हाट में एक-दूसरे के भाल पर गुलाल मल दिया था। बंसी के काका डल्या और मंगली का बाप भी वहीं पास-पास रहते थे। उन्हें सोमला और मंगली के एक-दूसरे को जीवन साथी चुनने पर कोई एतराज नहीं था। उन्होंने तो पटेल से पैसा लेकर बकरा और महुआ स्कॉच की पार्टी भी की थी। बस उन्हें ये लगता था कि अभी उम्र नहीं थी। थोड़े और बड़े हो जाते तब करते, तो ठीक रहता। बंसी अपने काका और मंगली के बाप की बात सुन मुस्कराकर रह जाता। उसे जल्दी की वजह सोमला ने बता रखी थी।
बात दरअसल यह थी कि किशोर तो वे हो ही चुके थे। मंगली सोमला से साल-छः महीना छोटी थी, पर उसके दुबले-पतले बदन में जैसे हवा घुस गई थी। साँवली चमड़ी पर कहीं कोई सल न था और चमड़ी चिकनी-चिकनी दिखती थी। वह खेत पर काम करती या सोमला, बंसी के साथ खेलती तो सीने पर दो संतरे गटर-गटर हिलते। सोमला को गटर-गटर हिलते संतरे खूब लुभाते। वह उन्हें छूने को ललचाता। जब वह ललचाता तो उसे पटेल की याद आती। फुग्गा याद आता। बंसी को कही राली काकी की बात याद आती कि ये फुग्गा यूँ खेलना का नहीं है। वह फुग्गा किस खेल में काम आता है, सोमला समझ गया था। इसलिए उसे डर था कि पटेल फुग्गे का उपयोग मंगली के साथ खेल में न कर ले।
जब भी साँझ को वे कुछ खेलने की बात करते। सोमला झट से कह देता - छिपना छई।
छिपना छई में ढूँढ़ने का दाम ज्यादातर बंसी पर रहता। मंगली और सोमला खेत में खड़ी फसल में जा छुपते। बंसी बड़ी मुश्किल से ढूँढ़ पाता। लेकिन जब दाम सोमला पर होता, तो मंगली अपनी झोपड़ी के पीछे ही छुपती। वह सोमला को इशारे से यह भी बता देती कि बंसी किधर छुपा है। फिर भी वह सोमला को न दिखती। उस पर दाम न चढ़ता।
सोमला फसल में छुपे बंसी को खोज निकालता और उस पर दाम चढ़ा देता। जब हमेशा ही बंसी पर दाम चढ़ता। मंगली पर कभी दाम नहीं चढ़ता। मंगली फसल में बंसी के साथ छुपती भी नहीं। बंसी ने एक दिन सोमला से पूछा। सोमला ने पहले इधर-उधर की बात की पर, जैसे कि बंसी की तर्क करने की आदत थी। सोमला ज्यादा देर इधर-उधर की बात न कर सका और उसने पूरी कहानी बता दी। तब फिर उन्होंने तय किया था कि इस बरस भगोरिया में अपने प्रेम का इजहार सबके सामने कर देना है। कहानी जानने के बाद तो बंसी आदतन अपने ही पर दाम रखता।
आज जब सोमला और मंगली की याद आ गई। बंसी को याद आ गई इंदौर में कविता पाठ के आयोजन में अपने चैनल के लिए फुटेज लेते वक्त सुनी संदीप श्रोत्रिय की कविता - यह वही आबनूसी मंगली है / जो कुछ साल पहले / भगोरिया हाट में / सोमला के माथे पर / गुलाल लगाकर भाग गई थी। मंगली अब अच्छी तरह जान रही है / डामर कब पिघलती है ! / इंजन कैसे ठंडा होता है ! / सड़क कैसे बनती है !
बंसी की नजरें बस में लौट आई। बस चल पड़ी। कुक्षी पार हुई। बस में अब काफी सवारियाँ भरी हैं। सवारियों से ज्यादा शोर-गुल भरा हैं। बस के भीतर बैठे बंसी की नजरें बस के बाहर से और कई बार बस के आगे से बहुत कुछ समेट रही हैं। ज्यादातर खेतों में पतले, नुकीले काँटे और पीले फूलों वाला धतूरा हवा को चुभता-सा खड़ा है। सी...सी... कर दौड़ती है भीलनी हवा। बीच-बीच में इक्का-दुक्का खेत आते हैं, जिनमें गेहूँ, चना और मक्का की फसल खड़ी है। भीलनी हवा उन फसलों के गले लगती। कुछ खुसुर-फुसर या सलाह-मशवरा करती। बर्राटी भर दौड़ती गहरे महुओं के झुंड और लंबे-लंबे ताड़ के पेड़ों की ओर। प्रसिद्ध भगोरिया उत्सव अभी आठ-दस दिन दूर है। पर भीलनी हवा तो मानो अभी से पलास पर केसरिया और महुओं पर पीला रंग उड़ाती दौड़ रही है।
ताड़ की गरदन में लटकी है, गारे की एक मटकी। मटकी के खालीपन को ताड़ की गरदन से बूँद-बूँद चू कर भरती ताड़ी। भीलनी हवा चढ़ जाती ताड़ पर। मटकी में से घूँट दो घूँट ताड़ी पीती। कुर्राटी मारती बढ़ जाती आगे। टेसुओं और महुओं के लूम के लूम को चुमती और गुदगुदाती। बंसी की आँखें समेट रही है वह सब, जो इतनी तेजी से उसका कैमरा भी नहीं समेटता। बस दौड़ रही सामने से दौड़ती आती हवा के भीतर। भीलनी हवा ने पीले और सुनहरी रंग के घोल में रंगी एक लुगड़ी ओढ़ी है। भीलनी हवा की लुगड़ी लहरा रही, धरती से नजरों के छोर तक। जब थोड़ी भीलनी हवा बंसी की साँस से भीतर उतर गई, बंसी के भीतर खड़े एक ख्याल ने पूछा सवाल - ज्यादातर खेतों में फसल की जगह अकड़ू भुट्टे की तरह क्यूँ खड़ा है, पीले-पीले फूलों से लदा धतूरा?
सवाल ने मानो भीलनी हवा के मगज में छेद कर दिया। भीलनी हवा लड़खड़ाई, मानो फँस गई हो भुतालिया (चक्रवात) में। और निकल गई उसकी सारी हवा - फुस्स। क्षण भर को तो भीलनी हवा गूँगी हो गई। लेकिन फिर बंसी की तरफ कातर नजरों से देखा। बंसी की आँखों में उसकी कातर नजर अटक गई। मगज के भीतर भीलनी हवा की साँस तेजी से चलने लगी। बरेल बोली में जो उसने कहा, वह बंसी ने समझा कि यह सी एम फलाने सिंह जी से पूछो, जिसकी यात्रा कवर करने जा रहे हो। फिर जैसे भन्नाकर मंगली की तरह नजरों के सामने खड़ी हो गई। उसके साँवले चेहरे पर विश्व बैंक और स्विस बैंक में जमा घृणा से कई गुना ज्यादा घृणा उभर आई। फिर पिछले उन्नीस-बीस बरसों में फिरे मौसम के मिजाज के भाल पर थूक वह चढ़ गई ताड़ पर। ताड़ के रस से भरी, ताड़ की गरदन में लटकी, काली मटकी को उठाई और एक साँस में गटक ली पूरी।
मंगली... नहीं...नहीं... भीलनी हवा नजरों से ओझल हो गई। धरती के माथे से पीली-सुनहरी धोती खिसल गई। या फिर धरती ने करवट ले ली। मानो कम उम्र में ही सोमला की पिंडलियों की नीली-नीली नसों में पड़े बल की तरह कालीकट सड़क भी खा गई बल। बल खाई नसों में रेंगते खून की तरह रेंगती बस। आगे पसरे अँधेरे में फैलाती कृत्रिम रोशनी। रास्ते में पड़ते हाट-बाजार से सौदा लेकर बस में चढ़ी सवारियाँ दाल, शकर जैसी और कई रोजमर्रा की चीजों के जिंदगी की पहुँच से दूर होने के सुना रही एक-दूसरी को किस्से।
जब बस जिला आलीराजपुर के बस अड्डे पहुँची। बंसी ने अपने मोबाइल की घड़ी में समय देखा। भीतर ही भीतर खुद से बोला - चार आना रात खर्च हो गई, लेकिन बारह आना अभी बची है। बची रात को काटने के लिए कहीं ठिकाना ढूँढ़ना पढ़ेगा। यहाँ तो अभी से घुपा-घूप हो गया और सड़के ऊँघने लगीं। इंदौर में तो इस वक्त सज-धज कर चकाचक और भूरी सड़क पर चटोरी रात मजे मार रही होगी, किसी पूँजीपति कंपनी की लोक कल्याणकारी योजना से फंड लेकर समाज सेवा करने वाले एनजीओ कर्मी की तरह। बंसी ने खुद से कहा - एनजीओ कर्मी / यौन कर्मी / जुमले दो अर्थ पर्याय।
वह बस अड्डे से बाहर निकला। अपने हाथ में ठंडी छुरी आने से हवा इतरा रही है। उसे एक आकृति दिखी। थोड़ा नजदीक आने पर आकृति आदमी जैसी दिखी। फिर कुछ-कुछ आदमी जैसा लगभग आदमी ही दिखा। अब इतना पास आ चुका कि बंसी को उसके सिर पर बँधा फेंटा और गले में लॉकेट की तरह पहनी गोफन भी दिखने लगे। उसने बदन के ऊपरी हिस्से पर तो बुशर्ट पहनी है। लेकिन नीचे क्या पहना है, चड्डी या फिर लँगोट! बंसी को समझ नहीं आया। क्योंकि बुशर्ट थोड़ी नीचे तक झूल रही है। उसके नीचे कुछ पहना है या नहीं, मालूम नहीं हो रहा है। बंसी ने खुद से कहा - खैर... जो पहना होगा, वो पहना होगा, अपन को तो ठहरने के ठिकाने के बारे में पूछना है। वरना रात के साथ बतियाते हुए सुबह का इंतजार करना बोरियत भरा होगा। रात को ओढ़कर सोना तो और भी रिस्की!
बंसी ने उससे पूछा। लेकिन वह कुछ नहीं बता सका। वह आलीराजपुर का नहीं, पड़ोस के किसी गाँव का था। बंसी की उससे बात खत्म हुई ही कि उसी की वेशभूषा में एक और आदमी जैसा, बल्कि लगभग आदमी, अँधेरे में से उपक आया। लेकिन यह भी बंसी की कुछ मदद नहीं कर सका। बंसी वापस बस अड्डे के भीतर आया। चाय की गुमटी वाले की गरदन, अपनी नारियल समान खोपड़ी को मुश्किल से सँभाल पा रही थी, वह ऊँघ के मारे इधर-उधर लुढ़क जाती। उसकी आँखों पर जमी ऊँघ की परत को बंसी ने उसके कंधे झिंझोड़ कर कुछ क्षण के लिए दूर हटाया और रात काटने के ठिकाने के बारे में पूछा। उसने बंसी को प्रिंस पैलेस नाम की एक जगह बताई, जो वहाँ से नजदीक ही है। वहीं जाकर बंसी ने बची हुई बारह आना रात को नींद में खर्च की।
बंसी सुबह के कामों से फारिग होकर आलीराजपुर जिले के एक गाँव छकतला पहुँचा। यहाँ हेलीपैड बनाया गया है। फलाने सिंह जी का हेलीकाप्टर यहीं उतरेगा। यहीं से पूरे जिले की गम्मत यात्रा अर्थात हृदय प्रदेश बनाओ यात्रा शुरू होनी है। बहुत बड़ा शामियाना ताना गया है। मंच बनाया गया है। मीडिया कर्मियों, नेताओं और जनपद सदस्य, स्वयं सहायता समूह, पंच, सरपंचों को बैठने के लिए मंच से नीचे अगल-बगल कुर्सियाँ लगी हैं। मंच के सामने शामियाने में आम लोगों को बैठने के लिए भी कुछ दरियाँ बिछायी गई हैं। धीरे-धीरे लोग जमा हो रहे हैं। पुलिस वाले और सी एम फलाने सिंह जी की पार्टी के कार्यकर्ता व्यवस्था जमाने में लगे हैं। आम लोगों को शामियाने में जाने का रास्ता और खास लोगों के जाने का रास्ता अलग-अलग है। रह-रह कर लोग आसमान में उस तरफ देखते हैं, जिस तरफ सूरज है। उधर से ही पधारेंगे सी एम फलाने सिंह जी।
सुबह की साढ़े ग्यारह बज गई है। सुबह सात बजे से इंतजाम ड्यूटी में लगे पुलिस वाले उकता गए हैं। वे बात-बात में सी एम फलाने सिंह जी को गालियाँ बक रहे हैं। इंतजाम ड्यूटी में आसपास के जिलो का पुलिस बल भी यहाँ बुलाया गया है। यहाँ चाय-पानी का कोई बंदोबस्त नहीं है। आसपास दूर-दूर तक उजाड़ पहाड़ी टीले हैं। खेत हैं। खेतों में कुएँ, ट्यूवेल या पानी का कोई साधन नहीं है। सभी दूर पीले-पीले फूलों वाला धतूरा ही खड़ा अट्टहास कर रहा है। आदिवासियों को बाँटे गए पर्चों में सी एम फलाने सिंह जी के इस दावे 'जिले में नौ हजार कुएँ 'कपिल धारा' योजना के अंतर्गत खुदवाए हैं, की धोती खोल रहा है। कुछ कर्मचारी जो अपने साथ बोतल में पानी भर कर लाए थे, उनका पानी खत्म हो गया है। जहाँ लोगों की गाड़ियाँ खड़ी करवाई जा रही हैं।, वहाँ एक टीले पर एक आदिवासी औरत और उसकी दो नन्ही छोरियाँ छोटी-सी दुकान लगाए बैठी हैं। दुकान पर बीड़ी, सिगरेट, जर्दा पाउच, भुगड़े और बिस्कुट हैं। थोड़ी देर बाद पानी का एक टैंकर लाया गया। लोग उस पर टूट पड़े। जिनके पास बोतल है, बोतल में पानी भर रहे हैं, जो रीते हाथ हैं, वे हथेलियों की पौस से पानी पी रहे हैं। बंसी ने बुदबुदाया - बुझ गई / होठों की प्यास / मन खाली कटोरा।
बंसी घूम-फिरकर पूरे कार्यक्रम स्थल का जायजा ले रहा है। शामियाना की बगल में एक छोटा शामियाना भी ताना है, जिसमें आदिवासियों के चित्रों की प्रदर्शनी लगाई गई है। जाने कहाँ से मक्का और काँदे के पौधे उखाड़कर लाए और वहाँ मिट्टी में रोपे हैं। किसी ने जाम फल की टोकरी भरकर रखी है। आदिवासियों के पहनने के गहने, वस्त्र, चित्रकारी के नमूने और बाँसुरी रखी है। एक टोकने में तीन-चार कड़कनाथ मुर्गों के पाँव बँधे हुए देख बंसी ने खुद से कहा - आजाद देश का / मुर्गा तक बंधक / कैसी गम्मत।
हालाँकि अब इस क्षेत्र में पहले की तुलना में कड़कनाथ का टोटा पड़ गया है। सहज ही नहीं मिलते हैं। खोज-बीन कर लाना पड़ते हैं। क्योंकि सत्ता के चापलूस समय-समय पर प्रचार करते रहते हैं कि यह मुर्गा खाने से आदमी का पौरुषत्व बढ़ जाता है। कहते हैं कि उम्र के चौथे पड़ाव पर खड़े नेता भी कई युवतियों की जवानी के उफान को शांत करने की कूबत हासिल कर सकते हैं। कड़कनाथ के गोश्त के आगे थ्री नाट थ्री, पॉवर प्लस और वियाग्रा जैसी दवाइयाँ धूल हैं। राजधानी में मंत्रियों के बंगलों में कड़कनाथ इसी क्षेत्र से जाते हैं।
यह बरसों से चली आ रही परंपरा है। आजकल के अफसर, नेता और मंत्री तो उस परंपरा को जिंदा रखे हुए है... बस । बंसी के मगज के जल में कुछ शब्द बूँद की तरह टपके - परंपरा जिंदी / जिंदगी क खतरो। बड़ी आफत।
छोटे और बड़े शामियानों के बीच आठ-दस ट्रॉयसिकल खड़ी हैं। उन पर वे लड़के-लड़की बैठे भी हैं, जिन्हें सी एम फलाने सिंह जी के हाथों वे तीन पहिया की साइकिलें सौंपी जानी हैं। चूँकि वे दोनों शामियाने के बीच हैं, और अब सूरज एकदम सिर पर है, तो उनके बालों के भीतर से पसीने के रेले निकल कर गालों पर आ रहे हैं। वे रह-रह कर उधर देख रहे हैं, जिधर से सी एम फलाने सिंह जी का हेलीकाप्टर आने वाला है। बंसी सब कुछ को अपने कैमरे में और मगज में समेट रहा है। उसका काम ही समेटना है। बंसी के होंठों से व्यवस्था का उपहास करती मुस्कान के साथ झरा - जिंदगी का दाणा गजब / समेटाय कम / बिखरे ज्यादा।
बंसी हेलीपैड के पास जाता है। हेलीपैड के आसपास बाँस बाँधे हुए हैं। बाँस के बाहर आसपास छोटे-बड़े आदिवासी खड़े हैं। बाँस के घेरे के भीतर हेलीकाप्टर के उतरने वाले स्थान को छोड़, बाहरी स्थान पर टैंकर से पानी का छिड़काव किया जा रहा है, ताकि जब हेलीकाप्टर उतरे तो धूल कम उड़े। घेरे के भीतर जिनकी ड्यूटी लगी, वे पुलिस वाले रह-रह कर घेरे के बाहर खड़े लोगों को बाँस के बेरिकेड्स से दूर होने का और बाँस को न छूने का कह रहे हैं। पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी दूसरे अधिकारियों से वायरलेस के जरिए सी एम फलाने सिंह जी का लोकेशन मालूम कर रहे हैं।
आदिवासियों की भीड़ में बंसी को जैसे सोमला भील नजर आया। सड़क बनाने वाली मंगली। बंसी ने सोमला भील से पूछा - कौन आ रहा है यहाँ...?
- ऐं... सोमला भील ने ऐसे कहा जैसे वह क्या पूछ रहा है, उसे समझ में नहीं आया। बंसी ने भी यही समझा। उसने फिर पूछा - किके देखने आवेला हो। याँ कूण आवीला...।
सोमला भील ने अपनी बोली में जो कहा उसका मतलब है कि - मुझे नहीं मालूम कौन आ रहा है, मैं तो यहाँ उड़नखटोला देखने आया हूँ।
बंसी ने और कई सोमलाओं से पूछा और ज्यादातर ने उड़नखटोला देखने आने का ही बताया। बंसी एक किशोर सोमला की ओर कुछ पूछने के लिहाज से बढ़ा। बंसी कुछ पूछता उससे पहले ही उस किशोर सोमला ने ऊँची और नंगी पहाड़ी की ओर उँगली का इशारा करते हुए जोर से कहा - उ आवी री यो रे...
सोमलाओं की पूरी भीड़ उधर देखने लगी। सभी मीडिया कर्मियों के कैमरों के मुँह हेलीकाप्टर की तरफ हो गए। हजारों आँखों में एक साथ एक ही हेलीकाप्टर उड़ रहा है। बंसी चाहता है आँखों में उड़ते हेलीकाप्टर को शूट करना, लेकिन करता है, हेलीपैड के ऊपर, हवा में उड़ते हुए, नीचे उतरने का जायजा लेता हेलीकाप्टर। फिर उतरता हुआ, और उतरा हुआ भी... हेलीकाप्टर के पंखों का चक्कर खाना बंद हुआ। तब पहले पॉयलेट उतरा। फिर पॉयलेट ने सी एम फलाने सिंह जी तरफ का फाटक खोला। सी एम फलाने सिंह जी भीतर ही से हाथ जोड़े बाहर निकले। पीछे सी एम फलाने सिंह जी की लाड़ी भी उतरी। लाड़ी की साड़ी का पल्लू माथे पर और कदम अपने लाड़े के पीछे-पीछे। एक दम सीता जैसी भली दिखती। बंसी ने खुद से कहा - बापड़ी कितनी भली दिखती है, चुनाव के दौरान डंपर घोटाला उजागर कर दूसरी पार्टी वालों ने कैसा नाम उछाला था! और सी एम फलाने सिंह जी को सफाई में क्या-क्या न कहना पड़ा था! डंपर घोटाले की अभी जाँच चल रही है। सी एम फलाने सिंह जी को भरोसा है कि वे सब कुछ मैनेज कर लेंगे और जाँच में दूध का दूध और पानी का पानी साबित करवा देंगे। बंसी ने खुद से कहा - न्याय काली भैंस / जिका हाथ में डांग / उका साथ जाय।
करीब एक घंटे देरी से पधारे सी एम फलाने सिंह जी बेरिकेड्स के भीतर घूमते हुए, बेरिकेड्स के बाहर खड़े ग्रामीणों, विद्यार्थियों से हाथ मिला-मिलाकर उनकी समस्याएँ पूछने लगे। सी एम फलाने सिंह जी ने एक छात्र सोमला से पूछा - स्कूल में समय पर भोजन मिलता है कि नहीं?
छात्र ने जवाब दिया - रोटी मिलती है सब्जी नहीं !
लेकिन सी एम फलाने सिंह जी आगे बढ़ गए। सोमला छात्र का जवाब सी एम फलाने सिंह जी को घेरे चापलूसों और अंगरक्षकों की पीठ से टकराकर पीछे औंधे मुँह गिर पड़ा। बंसी ने छात्र के चेहरे पर अपने जवाब के गिर पड़ने का दुख बाँचा।
सी एम फलाने सिंह जी ने एक किसान सोमला से पूछा - कपिल धारा के अंतर्गत कुआँ खुदवाने को रुपया मिला कि नहीं?
किसान सोमला पढ़ा-लिखा न होने के कारण फर्राट हिंदी को फटाक से न समझ पाया, थोड़ा समय लगा। फिर अपनी बोली में सोचा और टूटी-फूटी हिंदी में अनुवाद किया। इसमें कुछ वक्त लगा। उसने जवाब दिया - म्हारा फलिया मां (में) कपल साहूकार को नी?
सी एम फलाने सिंह जी अपने घेरे सहित आगे बढ़ गए। उनके घेरे में अंगरक्षक, क्षेत्र के प्रभारी मंत्री फलाने हार्डिया, विधायक और आदिम जाति कल्याण मंत्री फलाने सिंह जैसी हस्तियाँ हैं। सोमला किसान की भूखी और लगभग बीमार आवाज में इस मजबूत घेरे को भेदकर सी एम फलाने सिंह जी के कानों तक जाने की कूवत नहीं है, सो सोमला किसान के जवाब का हश्र भी वही हुआ, जो सोमला छात्र के जवाब का हुआ।
सी एम फलाने सिंह जी के घेरे के आस-पास मंडराती मीडिया कर्मियों की मंडली। मंडली में से एक ने सी एम फलाने सिंह जी से पूछा कि सर... आप भारतीय संस्कृति का काफी आदर करते हैं और...।
- हाँ, बिल्कुल करता हूँ। अभी चार-छह दिन पहले राजधानी में चलती गाड़ी रुकवाकर, और खुद खड़े होकर एक ब्यूटी पार्लर पर लगा अश्लील होर्डिंग उतरवाया, आपने अखबार में पढ़ा ही होगा।
बंसी ने सी एम फलाने सिंह जी का जवाब सुना, तो उसे दो दिन पहले खंडवा जिले के मलगाँव में घटी घटना याद आ गई। वहाँ संत दातार साहब के समाधि स्थल के पास लोक कला और सांस्कृतिक आयोजन में रसिया से बुलाए गए बेले डाँस ट्रूप की डांसर क्रिस्टिना जब मंच पर आई, तो जैसे मंच की धड़कनें बढ़ गईं। क्रिस्टिना ने छोटी-सी चड्डी, छोटी-सी चोली पहनी थी। चड्डी, चोली, कलाई में बँधी पट्टी का ही रंग पीला नहीं था, बल्कि बाल भी पीले थे। मानो सबके हिस्से की बसंत ऋतु केवल क्रिस्टिना के भीतर-बाहर से छलक रही थी। जब उसने ठुमका लगाया, मंच से काफी दूर-दूर तक बैठों पर उसके बदन से छलकते बसंत के छींटे उड़े। क्रिस्टिना की मादकता ने नजदीक के बैठे आदिवासी कल्याण मंत्री फलाने सिंह और उनके संगी साथियों को तो सराबोर किया ही, लेकिन आखिरी छोर तक बैठे शहरी और आदिवासी सोमला भी बसंत के छींटों से भीगने लगे। उनके भीतर से कुर्राटी मारती मस्ती फूटने लगी। वे क्रिस्टिना के साथ बसंत के रंग में भीगने को मंच की ओर दौड़े। कुछ तो मंच पर चढ़ने लगे। तब इतने सारों को देख बापड़ी क्रिस्टिना के तो होश फाख्ता हो गए। वह डर कर भागी। फिर वह सांस्कृतिक गम्मत तो वहीं ठप हो गई। सोमलाओं से क्रिस्टिना को बचाने में बापड़े पुलिस वालों के कई डंडों का नुकसान हो गया। गनीमत थी कि ये निमाड़ के सीधे और गरीब शहरी और सोमला थे। संघी, बजरंगी या शिव सैनिक होते, तो क्रिस्टिना का क्या होता? बंसी इसी के संबंध में कुछ पूछना चाह रहा था कि सर... खंडवा जिले में दो दिन...
बंसी का इतना ही बोलना हुआ कि मानो सी एम फलाने सिंह जी पूरा प्रश्न समझ गए। सी एम फलाने सिंह जी की नजर कुछ टेड़ी हो गई। तभी बंसी को पीछे से एक जोरदार धक्का लगा। बंसी रिंग राउंड के अधिकारियों की ओर लड़खड़ाता बढ़ा। रिंग राउंड के एक अधिकारी ने कोहनी मारी। बंसी वापस अपनी जगह आ गया। सी एम फलाने सिंह जी ने कहा - उस संबंध में हमने मंत्री फलाने सिंह से स्पष्टीकरण माँगा है। मंत्री फलाने सिंह तो वहीं सी एम फलाने सिंह जी के साथ चल रहे हैं, लेकिन फिर बंसी ने यह नहीं पूछा कि मंत्री फलाने सिंह का क्या कहना है?
फिर सी एम फलाने सिंह जी हेलीपैड से अपने घेरे सहित मंच की ओर बढ़े। इंतजमियों ने हेलीपैड से मंच तक की दूरी तय करने के लिए कार का बंदोबस्त किया हुआ था। लेकिन सी एम फलाने सिंह जी कार में नहीं बैठे। हेलीपैड से मंच तक, तकरीबन सौ कदम की दूरी और मंच के बाईं बाजू में लगी प्रदर्शनी से मंच तक करीब पंद्रह-बीस कदम की दूरी को सी एम फलाने सिंह जी ने पैदल ही पार की। प्रदर्शनी में सी एम फलाने सिंह जी ने पिथोरा कला की तारीफ की। सी एम फलाने सिंह जी और उनकी लाड़ी ने जाम फल खाए। सी एम फलाने सिंह जी ने बाँसुरी बजाई। सी एम फलाने सिंह जी घेरे सहित प्रदर्शनी में आगे बढ़े। घेरे ने कड़कनाथ को आँखों भर निहारा और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख आगे बढ़ गए। सी एम फलाने सिंह जी ने विकलांगों को ट्रायसिकल बाँटी। वहीं प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के शिलान्यासों पर से केसरिया कपड़ों का घूँघट उठाया। फिर पैदल ही मंच की ओर बढ़ चले।
मंच पर चढ़कर सी एम फलाने सिंह जी मुँह खोले आधे मुस्काराते और आधे हँसने की सी मुद्रा में हाथ हिला और हाथ जोड़ सामने बैठे सोमला भीलों और गैर सोमला भीलों का अभिवादन स्वीकारने लगे। जल्दी-जल्दी होती गतिविधियों को सभी वीडियोग्राफरों, फोटोग्राफरों की तरह बंसी भी दृश्यों को कैमरे में समेटता रहा।
मंच संचालाक ने मंचासीनों का हार-फूल से स्वागत के बाद चंद्रशेखर आजाद की जन्म भूमि भाबरा से आए एक अधेड़ युवक को आमंत्रित किया। युवक जो कि मंच के दाईं बाजू से मंच पर आने को तैयार खड़ा था यानी चंद्रशेखर आजाद स्टाइल में बदन पर जनेऊ-अनेऊ पहन, धोती-वोती बाँध। मूँछे-ऊछें चिपका-उपाकर एक दम तन्नाट-वन्नाट।
जब मंच संचालक ने उसे मंच पर बुलाया, तो बस... उसे तीन सीढ़ियाँ चढ़ने भर का वक्त लगा। क्षणभर को सोमला भीलों और गैर सोमला भीलों को लगा - सचमुच का चंद्रशेखर आजाद मंच पर चढ़ आया। लोगों ने ताली और सीटी बजाकर नकली चंद्रशेखर आजाद का सच्चीमुच्ची का स्वागत किया। नकली चंद्रशेखर आजाद ने असली में पूरा 'वंदे मातरम्' गीत गाया। पूरे लटके-झटके के साथ वंदे मातरम् गाकर मंच और मंच के सामने बैठों की दाद बटोरी। लेकिन वह बंसी की ही दाद बटोरने में असफल रहा। पर उसे बंसी की दाद से कोई फर्क नहीं पड़ता, जिसकी दाद से फर्क पड़ता, उनकी भरपूर मिली। गीत समाप्त कर नकली चंद्रशेखर आजाद जब असली सी एम फलाने सिंह जी के चरणों में झुका, सी एम फलाने सिंह जी ने उसे गले लगा लिया। उसका असली नाम पूछा। हष्टपुष्ट अधेड़ युवक ने सी एम फलाने सिंह जी को अपना नाम बताया। बंसी ने अपने कैमरे की स्क्रीन पर क्लोज अप में उसके होठों के हिलने से नाम का अनुमान लगाया - फलाने भटनागर
बंसी भीतर ही भीतर खुद से संवाद करने लगा - क्या आज असली चंद्रशेखर आजाद होता, तो वह सी एम फलाने सिंह जी के चरणों में सिर झुकाता?
- नहीं वह ऐसा हरर्गिज नहीं करता।
- फिर ?
- शायद यह गम्मत देख उसका खून खौल उठता!
- फिर?
- शायद तिरसठ साल से इस क्षेत्र को अनपढ़, पिछड़ा बनाए रखने की साजिश करने वाली साम्राज्यवादी व्यवस्था के सी एम फलाने सिंह जी की फालिए से गरदन उतार लेता!
मंच संचालक ने सी एम फलाने सिंह जी से पहले क्रमशः क्षेत्रीय विधायक और प्रभारी मंत्री को भाषण देने के लिए पुकारा। जब दोनों ने सी एम फलाने सिंह जी को सहृदय, कर्मठ, विवेकशील, जुझारू, विकास पुरुष आदि... आदि कहकर अपना स्थान ग्रहण किया। तो बंसी के मन में भी चंद लाइन रिस आईं - इक्कीसवीं सदी का / देखो ठाठ / खड़ी सोमला की खाट / फले-फूले चारण भाट ।
अब सी एम फलाने सिंह जी को संचालक ने आमंत्रित किया। सी एम फलाने सिंह जी ने माइक पर आकर बोलना शुरू किया - भारत माता की जै... वंदे मातरम। मंच पर विराजित और सामने बैठे भाइयों और...,
सी एम फलाने सिंह जी ने संचालक से पूछा - ये लोग पत्नी को क्या कहते हैं? संचालक ने कहा - सर..., 'लाड़ी' कहते हैं।
सी एम फलाने सिंह जी ने फिर जनता से मुखातिब हो बोलना शुरू किया - मेरी 'लाड़ी' को छोड़कर' बहनों।
मंच पर और सामने बैठे सोमला भीलों और गैर सोमला भीलों श्रोताओं में भी एक ठहाका गूँजा। सी एम फलाने सिंह जी ने ठहाके को पूरे सम्मान से पूरा होने दिया। बल्कि उन्होंने भी ठहाके में ईमानदारी से भागीदारी निभाई। बंसी ने ठहाका अच्छे से समेटा। सामने ऊपर के दोनों बड़े दाँतों के बीच के छेके से ठेठ कंठ के कव्वे तक को कैमरे में कैद किया। ठहाका रुका तो सी एम फलाने सिंह जी की फिर गम्मत शुरू हुई - आज मैं आपको कुछ देने नहीं आया हूँ। आज तो मैं मँगता बनकर आया हूँ। आज मैं आपसे कुछ माँगना चाहता हूँ। मैं मँगता बना हूँ अपने प्रदेश के लिए। हृदय प्रदेश के विकास के लिए। क्योंकि हृदय प्रदेश का विकास मैं अकेला नहीं कर सकता। इसलिए आज मुझे आपसे माँगना ही पड़ेगा और आपको देना ही पड़ेगा। हृदय प्रदेश मेरे अकेले का नहीं है। जितना मेरा है, उतना ही आप भाइयों और बहनों का भी है। इसलिए अपने प्रदेश के भाइयों और बहनों के सामने मैं आज मँगता बन कर हाथ फैलाता हूँ। मैं अपने हृदय प्रदेश के विकास की खातिर मँगता बनना तो क्या... जरूरत पड़ी तो अपनी जान भी लगा दूँगा। पर आज तो आप को कुछ दूँगा नहीं, माँगूगा। पहली बात तो यह माँगता हूँ कि हर गाँव के हर घर से अपने बच्चों को स्कूल भेजना पड़ेगा।
दूसरी बात यह कि... सी एम फलाने सिंह जी ने जोर देकर कहा। कह कर उन्होंने एक पोज दिया। पोज में उनकी नजरें मंच के सामने दरी पर बैठी बाइयों पर टिकी है। सी एम फलाने सिंह जी की आँखें तो छोटी-छोटी ही हैं, पर फिर भी छेड़े (घूँघट) को ऊँचा कर सी एम फलाने सिंह जी का भाषण सुन-समझने की मशक्कत करती रेमली और सेमली ने भाँप लिया कि नाशमिटे की आँखें तो उन्हीं पर टिकी हैं।
सेमली और रेमली आदिवासियों में थोड़े खाते-पीते घरों की हैं। लेकिन भणी-गुणी नहीं हैं। रेमली के मगज में शायद यह आया कि कहीं ये दाँत्रया उसके गले में फँसी चाँदी की हँसुली न माँग ले। या फिर हाथ के कड़े या मछी जोड़ा। रेमली ने ज्यादा नहीं तो भी दो-ढाई किलो चाँदी के जेवर पहने हैं और इतने ही सेमली के बदन पर भी। रेमली ने अपने जेवर अपने लुगड़े से ढाँक लिए। सेमली ने उसे जेवर ढाँकते हुए देखा तो उसने भी ढाँक लिए। रेमली ने अपनी बोली में सेमली से पूछा - थार फलिया मां (में) स्कूल हं।
सेमली ने गरदन हिलाकर मना किया और यही प्रश्न रेमली से भी पूछा, तो रेमली ने भी इनकार में गरदन हिला दी।
सी एम फलाने सिंह जी का पोज खत्म हुआ। उन्होंने तीसरी चीज माँगी - अपने घर और गाँव की साफ-सफाई रखनी पड़ेगी। सरकार ठेठ भोपाल से आपके गाँव की साफ-सफाई करने नहीं आ सकती। साफ-सफाई रखोगे तो मलेरिया, डेंगू, चिकुनगुनिया और स्वाइनफ्लू जैसी बीमारियाँ पास नहीं फटकेंगी। बोलो साफ-सफाई रखोगे कि नहीं...?
सी एम फलाने सिंह जी ने इस बार पोज भाइयों यानी सोमला भीलों और गैर सोमला भीलों की ओर देखते हुए दिया। बहुत से कैमरों की फ्लश एक साथ चमकी। बंसी ने भी शॉट कंप्लीट किया। सोमला ज्यादातर ताड़ी और महुए के सरूर में हैं, कुछ तो इस वजह से और कुछ सी एम फलाने सिंह जी की लच्छेदार भाषा होने की वजह से उन्हें एकदम कुछ संपट नहीं पड़ती। तब क्षेत्रीय विधायक की दूरंदेशी काम आई। उसने पहले से ही अपने कुछ कार्यकर्ताओं को, जो कि गैर सोमला लोग थे, सोमलाओं की वेशभूषा पहनाकर उनके बीच बैठा दिया है। गैर सोमला लोगों ने विधायक का इशारा पाकर एक साथ हाथ ऊँचे कर साफ-सफाई रखने की हामी भरी और तालियाँ बजाई। सभी कैमरे सोमला और गैर सोमलाओं की ओर घूमें, दृश्य को समेट वापस मंच की तरफ मुँह किए, नए दृश्य की ताक में खड़े हो गए।
तभी एक सोमला बुदबुदया - साफ-सफाई रखने से बीमारियों की तरह भूख भी न आएगी...? उसकी बुदबुदहाट को बगल में बैठे सी एम फलाने सिंह जी की पार्टी के कार्यकर्ता ने सुना। वह उसकी तरफ देख मुस्कराया और मन ही मन बोला - गैलचौदे... साफ-सफाई का भूख से क्या लेना-देना।
सोमला की इच्छा हुई कि अभी-अभी उसने जो बात बुदबुदाई, वही खड़े होकर सी एम फलाने सिंह जी से पूछे। अगर सच में साफ-सफाई रखने से भूख भी न लगेगी, तो अभी से ही सफाई चालू कर दूँगा। सोमला खड़ा होने लगा। अभी आधा ही उठा था कि बगल में बैठे कार्यकर्ता ने उसकी मंशा को भाँप लिया। उसने उठते सोमला का हाथ पकड़ नीचे खिंचा। सोमल के कूल्हे धप्प से दरी पर आ टिके। कार्यकर्ता भुनभुनाया - रोटी के अलावा कुछ नहीं दिखता...?
सोमला को स्पष्ट कुछ समझ नहीं आया। उसने बैठे हुए पूछा - अं... ?
कार्यकर्ता ने कहा - भाषण सुन... खड़ा मत हो... चुपचाप बैठ...।
सोमला ताड़ी की तुरंग में था, उसे कार्यकर्ता का व्यवहार ठीक नहीं जँचा। वह कुछ बोलना चाह रहा था... पर फिर बैठ गया। शायद सोचा हो बाद में बात करूँगा।
क्योंकि सी एम फलाने सिंह जी का पोज खत्म हो गया था, और गम्मत शुरू हो गई थी - आजकल मैंने एक नई बात सुनी...। चुनाओं में नेता लोग दारू बँटवाते हैं... ! सुना अभी पँचायत चुनाव में भी खूब बँटी... ! भाइयों और बहनों... जो नेता दारू बँटवाकर वोट माँगे, उसे वोट नहीं... लात दो।
अभी सी एम फलाने सिंह जी की बात खत्म नहीं हुई, लेकिन तुरंग में बैठे उसी सोमला के मगज में यह बात खट्ट से जँच गई। सोमला ने देखा कि उसे पिलाकर भाषण सुनाने लाने वाला कार्यकर्ता भी बगल ही में बैठा है। उसी ने अभी उसे अपनी बात कहने से रोका था। फिर जैसे उसके कान में हवा ने कबीर दास जी का दोहा बुदबुदाया - काल करे से आज कर... आज के करे से अब पाछे फिर पछताएगा जब चिड़िया चुग जाएगी खेत।
सोमला भील खड़ा हुआ और गैर आदिवासी को लात जमाने लगा। इंतजाम में लगे पुलिस वालों ने सोमला का हाथ पकड़ लगभग घसीटते हुए शामियाने के पिछवाड़े ले गए और उसके पिछवाड़े पर बेंत की केन इतने प्यार से जमाई कि वह अपने टापरे पर ही जाकर रुका। इस प्रकरण से सी एम फलाने सिंह जी के भाषण पर कोई फर्क नहीं पड़ा, वह लच्छेदार भाषा में जारी रहा। सी एम फलाने सिंह जी ने ऐसे ही कुछ और माँगा।
फिर बहुत जोर देकर बोले - एक आखिरी बात और माँगता हूँ। बोलो दोगे कि नहीं... ?
सी एम फलाने सिंह जी ने सभी पर नजर टिका दी और सभी चुप्प। सी एम फलाने सिंह जी ने फिर दोहराया - अरे... बोलो... दोगे कि नहीं... ? क्या मेरे भाइयों और बहनों का दिल इतना छोटा है? बोलो माँगू...?
थोड़ी देर के लिए शामियाने में सन्नाटा तन गया। बापड़े भील श्रोताओं को क्षेत्रीय गैर आदिवासी नेताओं ने सवेरे से घेर-घार कर बैठाला हुआ है। अब तक कुछ भूख के मारे बेदम हो रहे है। कुछ शामियाने से थोड़ी दूर, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क के उस तरफ एक खाई में ड्रम भरकर रखे ताड़ और महुए का रस ज्यादा चढ़ा चुके हैं। फिर सी एम फलाने सिंह जी का भाषण भी बीच-बीच में संघीय हिंदी में हो जाता है। ऐसे कुछ वाजिब कारणों से उन्हें सी एम फलाने सिंह जी की आधी-अधूरी बात संपट पड़ी और न भी पड़ी। कुछ की आँखें फटी की फटी और कुछ की खुल नहीं रही हैं। कुछ के चेहरे फक्क हैं और कुछ के बिजूका की भाँति। सी एम फलाने सिंह जी ने पोज दिया। जब पोज कुछ लंबा हो गया, तो क्षेत्रीय विधायक के गैर आदिवासी पट्ठों ने ही जिम्मेदारी निभाई और माँगने का बोला - माँगो... माँगो...
गैर आदिवासी पट्ठों के आसपास बैठे भीलों ने भी हाँ... में हाँ... मिला दी।
सी एम फलाने सिंह जी ने कहा- भाइयों और बहनों... मैं कहता हूँ, यह नशा त्याग दो...। नशा नाश की जड़ है...। इस नाश की जड़ को ही खत्म कर दो...। न रहेगा बाँस..., न बजेगी बाँसुरी...।
तभी शामियाने में सबसे पीछे एक टुन्न सोमला खड़ा होकर बोलने लगा - हट... थारी राँड सोदूँ ... बाँसुरी... नी बजेल... बाँसुरी बजेल... हर हाल में बजेल... और वह कुछ ऐसे करने लगा जैसे पत्थर-वत्थर ढूँढ़ रहा है। पिछे खड़े पुलिस वालों ने उसे पकड़ा और एक बाजू लेजाकर कुछ ऐसा समझाया! कि फिर वह सोमला भी शामियाने तरफ नहीं दिखा।
फिर सी एम फलाने सिंह जी ने मंच से घोषणा की - गाँवों में फैलते भ्रष्टाचार पर लगाम कसने और गाँव के विकास और तरक्की के लिए हर गाँव में दस-दस लोगों की विकास समिति बनाओ। यह समिति सीधी मेरे संपर्क में रहेगी। मैं गाँवों के विकास में पैसों की कोई कमी नहीं आने दूँगा।
सी एम फलाने सिंह ने यह घोषणा करने से पहले शायद सोचा होगा - यह जाँचा-परखा और गुजरात में आजमाया हुआ आइडिया है। न्यूटन के सिद्धांत - क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, के व्याख्याकार, प्रयोगधर्मी, धार्मिक और राष्ट्रभक्त सी एम फलाने मोदी जी ने भी ऐसी समितियाँ बनाकर ही आदिवासियों को जोड़ा था, और उन्हें देश भक्ति का अवसर भी प्रदान किया था।
तभी पीछे से हेलीकाप्टर ने उड़ान भरी वह शामियाने के ऊपर से उड़ता हुआ गया। सोमला भील हो हल्ला करते खड़े हो ऊपर देखने लगे। लेकिन ऊपर शामियाने की छत देख ठगे-से खड़े रह गए। सी एम फलाने सिंह ने अपना भाषण यहीं खत्म करने का सोचा और बोले - जो मेरे साथ हृदय प्रदेश के विकास में भागीदार बनेंगे। वे सब मुट्ठियाँ कस कर दोनों हाथ ऊपर करें। पुलिस वालों के एक हाथ में डंडा है, तो एक ही हाथ ऊपर करें।
मैं फिर आपको साफ-साफ कह रहा हूँ कि हृदय प्रदेश सभी का है। विकास भी सभी को मिलकर करना होगा। जिसको ईश्वर ने जो काम सौंपा है। यानी जो शिक्षक है, वह ईमानदारी से शाला में जाए और शिक्षा दे। जो पुलिस है, वह ईमानदारी से अपना कर्तव्य पूरा करे। जो किसान है, खेती करे, जो मजदूर है, मजदूरी करे। नेता है, तो जनता की सेवा करे, हवाला, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, बोफर्स घोटाला जैसे बेइमानी के काम न करे। बेइमानों को मैं नहीं छोड़ने वाला। कहने का मतलब यह कि ईश्वर ने जिसको, जो काम सौंपा है, वह उसे ईमानदारी और निष्ठा से करे। मैं अपने हृदय प्रदेश को देश के सबसे विकसित और एक नंबर के राज्य की बगल में खड़ा करके ही मानूँगा। जब तक ऐसा न होगा, मैं नहीं मानूँगा कि हृदय प्रदेश का विकास हुआ। बंसी के मगज को प. फलाने किशोर नागर की बातें और सी एम फलाने सिंह की बातें एक-दूसरे का समर्थन करती लगी। उसे इन बातों की जड़ मनु स्मृति से आती लगी। वह बुदबुदाया - ज्ञान खाई गहरी / चढ़ना चाहे सोमला / जात की मेड़ ऊँची / तोड़ना चाहे सोमला / पर मारे धक्के पर धक्का / राजा और ज्ञान का देवता / विकास की भट्टी का / ईंधन भूखा सोमला / भर न पाता पेट।
बंसी सी एम फलाने सिंह के एक-एक वाक्य, भंगिमा को कैमरे और नजरों से समेट रहा है। मंच पर बैठे अतिथियों के पीछे पंद्रह-बीस फीट का बैनर लगा है। जिस पर लिखा है - आओ ... बनाएँ अपना हृदय प्रदेश। सीएम फलाने सिंह की आदमकद तस्वीर बनी है और हृदय प्रदेश का नक्शा भी बना है। नक्शा एक ही रंग में है और रंग केसरिया है। बंसी ने कैमरा से हृदय प्रदेश के नक्शे का एक क्लोजप लिया। केसरिया के पीछे उसे लाल रंग बहता दिखा। बंसी के जेहन में संदेह रिसता है कि यह गम्मत कहीं हृदय प्रदेश को गुजरात बनाने की तैयारी तो नहीं है? उसके जेहन में फरवरी-मार्च 2002 का गुजरात घूमने लगा। यह महीना भी फरवरी का है। बंसी भीतर ही भीतर थोड़ा विचलित हो गया। सिर के बालों से पसीने की रेल बहने लगी। बंसी ने गोविंद के हाइकु बुदबुदाए - काटाज-काटा / मन की टोपली मँ / फूल को टोटो । घर-दुकान / मनुस हुया खाक / धरम जिंदो।
सी एम फलाने सिंह ने फिर कहा - मुट्ठियाँ कसकर सभी अपने हाथ ऊपर उठाएँ और वचन दें कि हम सभी अपने हृदय प्रदेश के विकास के सहभागी बनेंगे।
अब बचे खुचों ने भी अपनी मुट्ठियाँ कस कर हाथ ऊपर किए। किसी पुलिस वाले ने एक हाथ ऊपर किया। किसी ने डंडे को दोनों पैरों के बीच टिका लिया और दोनों हाथ ऊपर किए। मंच पर बैठे विधायक, फलाने, फलाने मंत्रीजियों और सी एम फलाने सिंह की लाड़ी ने भी मुट्ठियाँ कस कर हाथ ऊपर किए।
सी एम फलाने सिंह ने अपनी हल्की फटी आवाज में बोला -
भारत माता की...
जै...
भारत माता की...
जै...
वंदे...
मातरम
यूँ छकतला में आम सभा का समापन हुआ। छकतल से आलीराजपुर करीब पैंतीस किलो मीटर है। रास्ते में कई गाँव जैसे उमराली, सिलोटा, मधुपल्ली, बोरकुआँ आदि और कई फलिए पड़ते हैं। छकतला से सी एम फलाने सिंह का काफिला बढ़ता है। सी एम फलाने सिंह की कार के आगे-पीछे सुरक्षा की दृष्टि से पाँच-छह गाड़ियाँ चल रही हैं। सुरक्षा की गाड़ियों के अलावा पीछे करीब सौ-सवा सौ कारों का काफिला दौड़ता आ रहा है। वार्नर गाड़ी के आगे जन संपर्क कार्यालय की गाड़ी हृदय प्रदेश के विकास के गीत बजाती चल रही है। इन गाड़ियों से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर कुछ गाड़ियाँ दौड़ रही है। इन गाड़ियों में कार्यकर्ता बैठे हैं, जो आगे की व्यवस्था देखते और जमाते चल रहे हैं। रास्ते में पड़ते हर गाँव पर कुछ नेता टाइप के लोग सी एम फलाने सिंह पर फूलों की बरसात करने को खाट और तखतों पर फूलों का ढेर लगाए खड़े हैं। सोमला भील ताड़ी और महुए के नशे में धुत्त हैं। ढोल, थाली और मांदल बजाते, कुर्राटी भरते नाच रहे हैं।
होह...होह...होह...
कुर्रर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...
बंसी को छकतला की आम सभा में एम.के. डामोर नाम का परिचित पुलिस सहायक उपनिरीक्षक मिल गया। वह पहले इंदौर के सेंट्रल कोतवाली थाने पर पदस्थ रह चुका है। वहीं से प्रमोशन होकर जिला आलीराजपुर के सेंट्रल कोतवाली थाने में पदस्थ हुआ है। बंसी भी एम.के. डामोर के साथ वार्नर जीप में बैठ गया। वार्नर जीप पीछे से खुली है। बंसी को काफी सुविधा हो गई है। जब चाहे आगे, पीछे और सड़क किनारे के सूखे खेतों को, ताड़ और महुए के पेड़ों को कैमरे में समेट लेता है। जहाँ काफिला रुकता है। दौड़कर सी एम फलाने सिंह की गम्मत के दृश्य ले लेता है।
सी एम फलाने सिंह ने ग्राम छकतला-उमरावली के हॉस्टल के बच्चों के बीच अपने दाँतों को पिलकाते हुए तस्वीर खिंचवाई। सोमला और गैर सोमला बच्चों से पूछा - तीन मार्च से परीक्षा है तो पढ़ाई पूरी की कि नहीं? अच्छा बताओ जरा, कृष्ण और सुदामा कौन थे? शबरी के आश्रम में राम का स्वागत कैसे हुआ था? लक्ष्मण ने शबरी का जूठा बेर फेंक दिया था, वही बेर फिर लक्ष्मण की जान बचाने के लिए संजीवनी बूटी के रूप में काम आया थ।
हाथ की मुट्ठियाँ कसो, ऊपर उठाओ और बोलो - भारत माता की...
वंदे...
मातरम
रामजी की...
जै...
कृष्णजी की...
जै...
सी एम फलाने सिंह के पूरे काफिले के लिए भारत माता की... जै ...यह संकेत है कि यहाँ की गम्मत खत्म। जै... होते ही सभी अपने-अपने वाहनों की ओर दौड़ पड़ते हैं। बंसी जीप में बैठने को दौड़ा। दौड़ते हुए उसे अपने बचपन की एक रात याद आ गई। गाँव में गर्मी के दिनों में अक्सर गम्मत वाले आया करते। उस रात भी गम्मत थी। बंसी अपने दोस्त सोमला और गोविंद के साथ गम्मत देख रहा था। गम्मत के हर प्रसंग के बाद जोकर आता। वह चुटकले तो सुनाता ही और साथ में बोलता - बोलो रामजी की...
जै...
बोलो - किसन कन्हैया की...
जै...
बोलो - महापंडित रावण की...
जै...
बोलो - अपनी-अपनी लाड़ी की...
रावण तक तो सब लोग एक धुन में धड़ल्ले से जै... बोलते जाते। जब जोकर लाड़ी की जै... बोलने का कहता, तो जैसे लोगों की तंद्रा टूटती। लोग ही... ही... कर धीमी हँसी हँस देते। जोकर समझ जाता पिछले प्रसंग से लोग बाहर आ गए। वह नए प्रसंग की घोषणा कर पर्दे के पीछे चला जाता। बंसी जीप में बैठ चुका है। बंसी ने खुद से पूछा - सोमला की तंद्रा कब टूटेगी? अशिक्षा का अँधेरा कब छँटेगा?
कुछ किलोमीटर बाद फिर एक गाँव आया। सी एम फलाने सिंह ने गाँव में उचित मूल्यों की दुकान चेक की, उन्हें कोई कमी नहीं मिली। सी एम फलाने सिंह ने अपने भाषण को अब तक काफी संक्षिप्त कर लिया है। भाषण वही है जो छकतला की आम सभा में दिया। पर अब उसे सूत्र वाक्य की तरह बोलते, जैसे - बच्चों को स्कूल भेजो। गाँव में सफाई रखो। ग्राम विकास कमेटी बनाओ। नशा नाश की जड़ है, त्यागो। मेरे साथ - हाथ की मुट्ठियाँ बाँधकर ऊपर उठाओ। बोलो - भारत माता की...
जै...
वंदे...
मातरम
काफिला के लोग गाड़ियों में बैठते और काफिला आगे बढ़ा जाता। ग्राम मधुपल्ली आया। सी एम फलाने सिंह और क्षेत्र के प्रभारी मंत्री ने यहाँ हरियाली परियोजना के तहत किए जा रहे कंटूर ट्रेंच, चेक डेम के कामों की सरहाना की। पहाड़ी पर गैंती से दो टिंचे मारे। यहाँ उस भाषण के अलावा पेड़ लगाने की सलाह दी। भारत माता की... वंदे ...काफिला आगे बढ़ा।
रास्ते में ग्राम मलवई, सिलोटा, बावड़ी पटेल फलिया आदि आए। यहाँ भी सोमला लोग अपनी उसी मस्ती में ताड़ और महुए के रस में गले-गले भरे हैं। वही सब हो रहा है, जो पहले होता आया है यानी ढोल, मांदल, थाली बजाना। कुर्राटी भरना नाचना...
सी एम फलाने सिंह का काफिला रुकता है। गैर सोमला, नेता टाइप के लोग उन पर फूल बरसाते है। जब फूलों को दोनों हाथों से मंत्री की तरफ उछालते हैं। बंसी भीतर ही भीतर कटता है। स्कूल में पढ़ी - माखन लाल चतुर्वेदी की फूल की अभिलाषा, कविता उसके जेहन में गूँजती - चाह नहीं मैं सुर बाला के / गहनों में गुथा जाऊँ / चाह नहीं मैं देवों के सिर पर चढ़ूँ / भाग्य पर इठलाऊँ / चाह नहीं मैं प्रेमी माला में / बिंध प्यारी को ललचाऊँ / मुझे तोड़ लेना वन माली / उस पथ पर देना तुम फेंक / मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने / जिस पथ जावें वीर अनेक।
बंसी समेट रहा है, न सिर्फ फूलों का सिसकना। बल्कि समेट रहा है - भीतर-बाहर के ठहाकों, भाषणों, भारत माता की... जै... वंदे मातरम के शोर में सोमलाओं और मंगलियों के पैरों में बंधे घूँघरुओं, गले में झूलते ढोल, मांदल और थाली की कर्कश ध्वनि, कुर्राटी इन सबके बीच से रिसती बेबस सिसकी का झरना भी। वह महसूस कर रहा है - झरने का खारा और कसेला स्वाद।
सायरन बजाता काफिला आलीराजपुर की तरफ दौड़ रहा है। सामने से आते वाहन सड़क से नीचे उतर कर खड़े हैं। सड़क के किनारे एक-एक फर्लांग पर खंबों की कतार की तरह सिपाही खड़े हैं। बंसी सुन रहा है - दोपहर की सांय सांय में सायरन... बंसी सायरन और दोपहर की सांय सांय समेट रहा अपने भीतर।
काफिला आलीराजपुर तीन-साढ़े तीन घंटे में पहुँच गया। सी एम फलाने सिंह बीस-पच्चीस मिनट के लिए विश्रामगृह में गए। हाथ-मुँह धोया। फ्रेश हुए। कुर्ता-पजामा और जॉकेट बदली। रोड शो के लिए तैयार हो गए। विश्रामगृह से कुछ कदम पैदल रोड शो किया। भीड-भड़क्का ढोल-ढमाका देख एक भीलनी डोकरी, जिसे सड़क पार कर अस्पताल की तरफ जाना है, रुक गई। उसके पीछे किराना दुकान है, जहाँ से उसने पचास रुपए की आधा किलो दाल खरीदी है। उसके एक हाथ में वही दाल की पोलीथिन झूल रही है।
सी एम फलाने सिंह के आगे-पीछे भीड़ यों दौड़ रही है, जैसे कोई गड़रिया अपनी गाडरों (भैड़ों) को सड़क पार कराता है, और पीछे से ट्रक वाला हार्न बजाता गाडरों के ऊपर ही चढ़कर गुजर जाने का भय पैदा करता चला आता है। गाडरों को बचाने के लिए गड़रिया उन्हें जल्दी-जल्दी दौड़ाकर एक तरफ ले जाने की कोशिश करता है। सी एम फलाने सिंह के आगे-पीछे दौड़ने वाली भीड़ एक तरफ जाने को नहीं, सड़क पर दौड़ते रहने को ही दौड़ रही है। डोकरी शायद कुचलने के डर से या भीड़ में हाथ में पकड़ी दाल की पोलीथिन के फट जाने के डर से सड़क किनारे खड़ी हो गई है।
सी एम फलाने सिंह की आँखें भले ही आकार में छोटी है, लेकिन उनकी नजर बड़ी पैनी है। उनकी नजरे भविष्य में भले ही दूर तक न देख पाती हों, लेकिन सड़क पर चश्मे के पीछे से भी दूर तक देख लेती हैं। उन्होंने डोकरी को भी सड़क किनारे खड़ी देख ही ली। सी एम फलाने सिंह जी डोकरी की ओर बढ़े। सी एम फलाने सिंह के एक चम्मच ने देखा कि सी एम फलाने सिंह डोकरी की ओर बढ़ रहे हैं। चम्मच भी उधर ही बढ़ा। सी एम फलाने सिंह ने डोकरी का एक हाथ पकड़कर अपने सिर की फिसलपट्टियों पर रख लिया।
चम्मच तेजी से डोकरी का दूसरा हाथ पकड़ बोला - डोकरी... आशीर्वाद देने में क्या कंजूसी करती है? दोनों हाथों से दे...।
डोकरी की मर्जी के बगैर वह ताकत के साथ डोकरी का हाथ ऊपर उठाने में सफल हो गया। इस हबड़ाठेस में डोकरी के हाथ से दाल की पोलीथिन छूट गई। दाल बिखर गई।
लेकिन दाल बिखरने से कुछ सेकंड पहले ही सी एम फलाने सिंह ने डोकरी से आशीर्वाद झटका और बोले - बोलो... जनता जनार्दन की... जै... और आगे बढ़ लिए। दाल तो तब बिखरी जब वे पूरे डेढ़ कदम आगे बढ़ गए।
बंसी को लगा - सी एम फलाने सिंह ने आशीर्वाद माँगा या लिया नहीं, छीना है। सी एम फलाने सिंह के आगे-पीछे दौड़ने वाले पुलिस वालों में कायदे से कोई कानून का जानकार हो तो इस पर लूट की एफ.आय.आर. दर्ज करे। दाल का हर्जाना भी वसूल करवाए। लेकिन डोकरी गवाह किसे बनाएगी। दाल के ऊपर से गुजरे काफिले ने तो दाल देखी ही नहीं। जैसे तिरसठ सालों से गुड़कती विकास की गाड़ी के पहियों को सोमलाओं की गर्दन पर से गुजरते किसी ने नहीं देखा। कोई गवाह नहीं।
सी एम फलाने सिंह ने ऐसी गम्मत कई बार की जैसे सड़क पर झाड़ू के दो हाथ फेरे। किसी सोमला के बच्चे को हार पहना दिया। किसी सोमला के बच्चे को गोदी में उठा लिया। रोड शो में सी एम फलाने सिंह यह गम्मत कर रहे हैं। तब तक बंसी काफिले से आगे पहुँच गया है। वह एक चाय की गुमटी वाले से प्लास्टिक का स्टूल लेकर उस पर खड़ा हो, सब कुछ समेट रहा है। तभी पीछे से एक गाय पर एक साँड़ जबरन चढ़ाई करने के मकसद से दौड़ा। हाबरी-काबरी गाय का पैर उस स्टूल से टकराया जिस पर बंसी खड़ा है, स्टूल बंसी के पैर नीचे से हट गया। बंसी कूल्हों के बल स्टूल पर गिरा। कैमरा पहले ही हाथ से छूटकर सड़क पर जा गिरा, जो गाय के पीछे दौड़ते साँड़ की ठोकर से फुटबॉल की मानिंद उछला और फिर गिर कर दाल की तरह दाना-दाना, या कहो पुर्जा-पुर्जा, या कहो सोमला भील और उसके गालों पर गुलाल मलकर भागी मंगली की साँस के कतरे-कतरे-सा बिखर गया।
'आओ..., बनाओ अपना हृदय प्रदेश' यात्रा आगे बढ़ती है। जन संपर्क कार्यालय की गाड़ी पूर्ववत विकसित हृदय प्रदेश के गीत बजाती आगे चल रही है। एक के बाद एक गाँव-कस्बे आते जाते हैं। सूरज को अँधेरे ने निगल लिया है या फिर धरती सूरज के सामने से खिसल गई है। जो भी हो, लेकिन धरती पर अँधेरे का साम्राज्य छा गया है। गाँवों से ढोल-मांदल की आवाज आती है, गाँव नजर नहीं आते। बिजली कहीं नहीं है। अब सी एम फलाने सिंह वहीं रुकते हैं, जहाँ उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जनरेटर का बंदोबस्त कर रखा है। इस बीच एक करीबी फलाने लाल ने सी एम फलाने सिंह को एक सलाह दी कि आदिवासियों से नशा छोड़ने की माँग मत करो। आदिवासी नाराज हो सकते हैं, उन्हें पेट भर एक ही चीज तो मिलती है। वह भी माँग लेंगे, तो वे बिगड़ सकते हैं।
सी एम फलाने सिंह करीबी फलाने लाल की बात गौर से सुनने लगे। करीबी फलाने लाल वहीं का लोकल गैर आदिवासी था, लेकिन आदिवासियों के इतिहास के बारे में काफी कुछ जानता था। उसने देखा कि सी एम फलाने सिंह उसकी बात गौर से सुन रहे हैं, तो वह अपने ज्ञान की पुड़िया थोड़ी और विस्तार से खोलता बोला - फलानी पार्टी की सरकार ने तो उन्हें पाँच लीटर शराब टापरे में बनाने और रखने की छूट दी हुई है। उसने कुछ सोच-विचार कर छूट दी होगी! नशा छोड़ देंगे तो काम और रोटी माँगेंगे, तब क्या करोगे? भीलड़े अगर विद्रोही हो उठे तो सँभालना मुश्किल होगा! आप देख ही रहे हो - दंडकारण्य, गढ़चिरौली, लालगढ़, दंतेवाड़ा में भीलड़ों ने नाक में दम कर रखा है कि नहीं!
ये छीतू भील और भुवान तड़वी के वशंज हैं। छीतू भील और भुवान ने तत्कालीन राजा और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोही रुख अपना लिया था, उस विद्रोह में छीतू भील के साथ तीर-धनुष लेकर भील ऐसे खड़े नजर आते थे, जैसे खेत में चने की कतार खड़ी नजर आती हैं। इन्हीं भीलड़ों ने मुगलों, राजपूतों और फिर अंग्रेजों को बरसों-बरस नाकों चने चबवाए हैं। ये गुरिल्ला लड़ाई के गुरू हैं। इसलिए नशा छोड़ने की बात ही मत करो!
सी एम फलाने सिंह को करीबी फलाने लाल की बात जँच गई। उन्होंने अपने रटे-रटाए भाषण में कुछ सुधार कर लिया है। अब वे आदिवासियों से धीमी आवाज में महुए की दारू छोड़ने की सलाह दे रहे हैं। साथ ही ताड़ी पीने की सलाह पूरे आत्मविश्वास और बुलंद आवाज में दे रहे हैं। कह रहे हैं - ताड़ी स्वास्थ्य और सेहत के लिए अच्छी है। ग्राम आंबुआ गुजरा, और भी गाँव गुजरे फिर आया भाबरा। भाबरा भी पूरा अँधेरे में डूबा है। लेकिन सभा स्थल को जनरेटरों की मदद से रोशन किया है। सभा स्थल मुख्य सड़क के किनारे ही है। पर सड़क पर सोमला भीलों और मंगलियों के हुजूम के हुजूम ताड़ी और महुआ की मस्ती में पूरे साजो सामान के साथ नाच रहे हैं
होह...होह...होह...
कुर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...
सी एम फलाने सिंह को कार्यकर्ता और रिंग राउंड वाले कब मंच पर ले गए। सड़क पर नाचते सोमला भीलों और मंगलियों को भनक भी नहीं लगी। सी एम फलाने सिंह ने भाबरा में चंद्रशेखर आजाद द्वार, चंद्रशेखर आजाद मंदिर बनाने और जिला आलीराजपुर का नाम जल्द ही जिला चंद्रशेखर आजाद नगर करने की घोषणा कर दी है। सी एम फलाने सिंह का भाषण सुनने वाले सब गैर सोमला हैं। सोमलाओं ने तो सी एम फलाने सिंह की कोई घोषणा नहीं सुनी, उन्हें घोषणाओं से कोई लेना-देना भी नहीं है। वे तो नशे में धुत्त हैं और जैसे वे नाचने, ढोल, माँदल, बाँसुरी बजाने और कुर्राटी भरने को ही धरती पर पैदा हुए हैं।
लेकिन बंसी सोच रहा है - कभी राजा आनंद देव राठौड़ ने अलीया भील को हराकर अंबिकापुर पर कब्जा किया था। फिर उसने अंबिकापुर का नाम आनंदवाली रखा था। भील आनंदवाली को आवली कहने लगे। फिर आवली के आली कहना शुरू कर दिया। राजा आनंददेव राठौर समझा ऐसा उच्चारण की कठिनाई से हो रहा होगा। पर ऐसा विरोध स्वरूप भी हो सकता है। क्योंकि आनंददेव का रखा नाम हर भील के गले उतरा ही हो यह जरूरी नहीं है। जब राजा आनंद देव राठौड़ ने आली से अपनी राजधानी पास ही के कस्बे राजपुर में स्थापित की आली+राजपुर मिलकर बना आलीराजपुर। यह आलीराजपुर म.प्र. के झाबुआ जिले में था। फिर इसे स्वतंत्र जिला बना दिया। अब सी एम फलाने सिंह ने नाम बदल चंद्रशेखर आजाद नगर रखाने की घोषणा कर दी।
जब कल दूसरी पार्टी के सी एम फलाने सिंह बन जाएँगे, वे फिर नाम बदल राजीव गाँधी नगर या कोई और गाँधी नगर रख देंगे। परसों तीसरी पार्टी की सरकार बनी तो वह अंबेडकर नगर, काँसीराम नगर या कुछ और रख देगी। अब लाखों रुपयों का चंद्रशेखर द्वार बनेगा जैसे इंदौर में अटल द्वार या और अलाने-फलाने के नाम से द्वार बनाए जा रहे हैं। वैसे भी ऐसे द्वार इंसानों के तो किसी काम के नहीं होते, पर हाँ... टाँग ऊँची कर मूतने वालों के लिए बहुत ज्यादा उपयोगी होते हैं। रोजगार, स्कूल, अस्पताल, वाचनालय या ऐसी कोई घोषणा नहीं होती है, जिसकी जनता को सख्त जरूरत है। आखिर हो क्या रहा है, यह लोकतंत्र है कि गम्मत तंत्र है? जिसके मन में जो आता है, उस नाम की बिरंजी जनता के भाल पर ठोंक देता है। नाम बदल रहे हैं हालात नहीं। बंसी विचलित हो रहा है, लेकिन वह सप्रयास अपना काम कर रहा है।
सी एम फलाने सिंह जी का भाषण खत्म हो गया। भारत माता की... जै... चंद्रशेखर आजाद की... जै... वंदे... कहने के बाद सी एम फलाने सिंह को चंद्रशेखर आजाद की झोपड़ी के दर्शन करने ले गए। उधर से मस्त सोमलाओं और मंगलियों की भीड़ में से होते हुए लाने की बजाय नाले के ऊपर वाली रपट पर से ले आए। काफिला तैयार ही था, सी एम फलाने सिंह जी गाड़ी में बैठे और काफिला आगे बढ़ चला। वार्नर जीप में बैठे बंसी को गोविंद का हाइकु याद आया और उसकी इच्छा हुई कि इस हाइकु को जोर से चिल्लाकर कहे - हाँडी समालो / कुतरा की आदत / चाटी जायग ।
लेकिन जीप तेजी से बढ़ती गई। बंसी ने जीप की आगे की सीट पर बैठे एम. के. डामोर से पूछा कि अभी और कितना घूमना बाकी है। डामोर ने सी एम फलाने सिंह जी के नाम एक गाली खर्च करने के बाद कहा कि अभी तो कई गाँव-कस्बे बचे हैं। लगता है, चप्पा-चप्पा घूमकर ही दम लेगा।
बंसी ने कहा - हाँ, हृदय प्रेदश को एक नंबर राज्य की बगल में खड़ा करने की जो ठानी है। अब तो पूरी रात ही काली होनी है।
- पर एक बात तो है, डामोर ने कहा - सी एम फलाने सिंह है बड़ा गम्मतबाज।
फिर से जीप में अँधेरा और खामोशी ठसाठस भर गई है। जीप अँधेरे में दौड़ रही है। भूखे खेत, उजाड़ टिले, लंबे ताड़ और गहरे महुवे अँधेरे के बियाबान में खो गए है। डामोर ने फिर किस्से से ठंड को लताड़ना शुरू कर दिया है। बंसी ने आँखें बंद कर ली है।
वह अपने भीतर देख रहा है, खुद के पैरों में भी घूँघरू बंधे हैं। बदन पर कपड़ों के नाम पर फाटली चड्डी और बुशर्ट है। भीतर रोशनी का झरना झर रहा है। झरने में सोमलाओं और मंगलियों के टुल्लर के टुल्लर भीग रहे हैं। माँदल, बाँसुरी, थाली... घूँघरू और कुर्राटी की आवाज एकमेक हो रही है।
सभी टुल्लर -
होह....होह...होह...
कुर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...
बंसी फाग के भजन की धुन पर -
हय... गम्मत है भई... गम्मत है- 2
यात्राओं की रेलम-पेल
घोषणाओं की ठेलम-ठेलम
टुल्लर -
होह...होह...होह...
कुर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...
बंसी -
हय... गम्मत है भई... गम्मत है - 2
लोक नचेरा नाचे खाली पेट
क्रिस्टिना के ठुमके पे मंत्री लोटम-लोट
टुल्लर -
होह...होह...होह...
कुर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...
बंसी -
हय... गम्मत है भई... गम्मत है - 2
हाथ भर काँकड़ी ने सवा हाथ को बीज
भूखी मरे जनता राजो मनावे तीज
टुल्लर -
होह...होह...होह...
कुर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...
बंसी -
हय... गम्मत है भई... गम्मत है - 3
डामोर ने पीछे गर्दन घुमाए बगैर ही पूछा - क्या हो गया वीडियोग्राफर साब, क्यों कुर्राटी भर रहे हो?
बंसी ने अपने कपड़े गीले होने की वजह खोजना जारी रखते हुए डामोर से कहा - नहीं... डामोर साहब सपना नहीं... बस यूँ ही... दिनभर से एक जैसा माहौल देख रहा हूँ, तो ऐसे ही एक कुर्राटी मार दी।
बंसी ने पाँवों के पास पड़ा कैमरा उठाकर बैग में रखा। उसे फिर से ठंडी हवा लगने लगी। उसने महसूस किया पूरे बदन में एक जैसी ठंड लग रही है। भीतर ही भीतर संतोष किया। पेशाब नहीं, पूरे बदन से पसीना छूटा है, इसी वजह से कपड़े भीग गए हैं। अँधेरे का लंबा-चौड़ा समंदर पार कर आती आवाज का मगज में घुलना जारी है -
होह...होह...होह...
कुर्रर्र... कुर्रर्र... कुर्रर्र...